भारत की जलवायु में बहुत विविधता और भिन्नता पाई जाती है जैसे कि- उष्णकटिबंधीय प्रकार से लेकर महासागरीय प्रकार तक, अत्यधिक शीत से लेकर अत्यधिक उष्ण तक, अत्यंत शुष्क से लेकर नगण्य वर्षा तक तथा अत्यधिक आर्द्रता से लेकर मूसलाधार वर्षा तक। इसलिए जलवायु को देश की परिस्थिति को ध्यान में रखकर पंद्रह कृषि क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। भारत में तापमान में भी विविधिता दिखाई पड़ती है, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है, इसलिए किसानों को कभी भारी बारिश तो कभी सूखे का सामना करना पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों में एक है जिसका प्रभाव खाद्य उत्पादन, जल आपूर्ति, स्वास्थ्य, ऊर्जा, आदि पर पड़ता है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी विश्व जल विकास रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन बुनियादी मानव आवश्यकताओं के लिये जल की उपलब्धता, गुणवत्ता और मात्रा को प्रभावित करेगा, जिससे अरबों लोगों के लिये स्वच्छ जल की उपलब्धता प्रभावित होगी। रिपोर्ट के अनुसार, बीते 100 वर्षों में वैश्विक जल उपयोग, बढ़ती जनसंख्या, आर्थिक विकास और स्थानांतरण खपत पैटर्न के परिणामस्वरूप लगभग 1% प्रति वर्ष की दर से लगातार बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन संबंधी मॉडलों के अध्ययन से यह भी पता चला है कि आने वाले वर्षों में वर्षा की मात्रा 5 से 8 प्रतिशत बढ़ सकती है।
आजकल भिन्न-भिन्न स्थानों एवं समय पर जलवृष्टि का रूप बदल सा गया है। आमतौर पर वर्षा वाले दिनों की संख्या घटती हुई प्रतीत होती है। इतना ही नहीं बहुत कम समय में यानी एक से तीन दिनों में इतनी अतिवृष्टि होती है कि कभी-कभी किन्ही क्षेत्रों में बारिश की मात्रा एक से डेढ़ महीने में होने वाली वर्षा के बराबर होती है। जलवायु परिवर्तन भविष्य में जलाभाव वाले क्षेत्रों की स्थिति को और गंभीर करेगा तथा उन क्षेत्रों में भी जल की भारी कमी उत्पन्न करेगा जहाँ अभी जल संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। जल के उच्च तापमान और जल में मौजूद ऑक्सीजन में कमी के परिणामस्वरूप जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे पीने योग्य जल की स्वतः शुद्ध करने की क्षमता कम हो जाएगी।
औसत वार्षिक वर्षा की मात्रा एवं वितरण की असमानता
भारत के ज्यादातर राज्यों में अधिकांश वर्षा जून-सितम्बर के दौरान दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होती है। भारत में एक वर्ष में औसतन 125 सेमी वर्षा होती है। भारत में वर्षा की मात्रा में बहुत विविधता पायी जाती है। पश्चिमी तटों और उत्तर पूर्व भारत में 400 सेंमी से अधिक वर्षा होती है। भारत और दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश मेघालय के मौसिनराम गांव में दर्ज की गई जहाँ एक वर्ष में औसतन 1187 सेमी वर्षा होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और पश्चिमी घाट के निचले हिस्से में 100 से 200 सेमी वर्षा होती है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में 50 से 100 सेमी वर्षा होती है। राजस्थान, गुजरात और आस-पास के क्षेत्रों, जम्मू और कश्मीर के कुछ हिस्सों जैसे लेह और लद्दाख में 50 सेमी से कम वर्षा होती है। फलतः किसी भी वर्ष के भीतर भारत में बाढ़ एवं सूखा दोनों होना संभव है क्योंकि भारत में होने वाली वर्षा स्थानिक एवं कालिक आधार पर बृहद रूप से परिवर्तनीय है।
पारिस्थितिक तंत्र का क्षरण
कई पारिस्थितिक तंत्र, विशेष रूप से वन और नम भूमि भी जल की समस्या से प्रभावित हैं। वन्यजीवों के आवासों को संरक्षित करने के लिए जल संचयन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, कई मीठे पानी के जीव जल प्रदूषण के प्रभावों को तेजी से महसूस कर रहे हैं क्योंकि यह पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। पारिस्थितिक तंत्रों के क्षरण से न केवल जैव विविधता की हानि होती है, बल्कि यह जल से संबंधित सेवाओं जैसे कि जल शोधन, प्राकृतिक बाढ़ सुरक्षा, कृषि, मत्स्य पालन को भी प्रभावित करता है।
दुनिया भर के शोधकर्ताओं ने देखा है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए अवक्रमित भूमि सबसे अतिसंवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र है। यह पश्चिमी भारत की अर्ध-शुष्क अवक्रमित बीहड़ भूमि के लिए विशेष रूप से सच है, जहां अक्सर सूखा, कभी-कभी बाढ़, उच्च वर्षा की घटनाएं, उच्च गर्मी का तापमान, गर्मी की लहरें, मिट्टी का कटाव, मिट्टी के पानी की सीमा, बांझ मिट्टी और उच्च मानव-पशु दबाव आदि पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण में योगदान देता है। सघन कृषि के अन्तर्गत जल के उपयोग की पूर्ति के लिए ट्यूबवैल सिंचित क्षेत्रों में भूजल के अत्यधिक दोहन से लवणता जल भराव, उर्वरक एवं पोषक तत्वों का नुकसान, कीट-बीमारियों का अधिक प्रकोप, मिट्टी संरचना का बिगड़ना तथा बाढ़ आना, सूखा पड़ना, मृदा कटाव, जल उपलब्धता एवं गुणवत्ता में कमी आदि प्रमुख समस्याएं पैदा करती हैं। देश के कुछ भागों में जल स्रोत की भारी कमी देखी जा रही है जिसका मुख्य कारण है वनों की कटाई और अधिक जल की मांग वाले वृक्षों का रोपण।
भूजल के स्तर में कमी
देश के कई भागों में भूजल स्तर निरंतर घटता जा रहा है जिसके मुख्य कारण, अधिक पानी की मांग वाली फसलें उगाना जैसे पंजाब में चावल उगाना, जल संरक्षण और संचयन के अभ्यास की कमी, कम और अनियमित वर्षा का होना, बढ़ता शहरीकरण तथा भूजल का अत्यधिक दोहन हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह समस्या अधिक देखने को मिल रही है। नीति आयोग के समग्र जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार वर्ष 2002 से 2016 के बीच में भूजल स्तर प्रति वर्ष 10-25 मिमी. कम हो गया है। नदियों के केचमेंट में विगत 60-70 वर्षों में सतह पर मौजूद जल व भूजल के असंतुलित उपयोग, जल संरक्षण, संभरण एवं संवर्धन के आभाव तथा वानस्पतिक आवरण में कमी के कारण भूजल के स्तर में सतत गिरावट हुई है। ज्ञातव्य है कि भारत में 60% सिंचाई हेतु जल और लगभग 85% पेय जल का स्रोत भूजल ही है. ऐसे में भूजल का तेजी से गिरता स्तर एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। भूजल संवर्धन और संभरण को लेकर पूरे समाज को जागरूक होना चाहिए। कहाँ और कैसे किया जा सकता है उसका विस्तार पूर्वक वर्णन 'भूजल पुनर्भरण एवं प्रबंधन' अध्याय में दिया गया है।
सिंचाई के लिए जल की बढ़ती माँग
सतही और भूजल का सबसे अधिक उपयोग कृषि में सिंचाई के लिए होता है। इसमें सतही जल का 89% और भूजल का 92% जल उपयोग किया जाता है। देश के कुछ भाग वर्षा विहीन और सूखाग्रस्त हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्षिण का पठार इसके अंतर्गत आते हैं। देश के अधिकांश भागों में शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में न्यूनाधिक शुष्कता पाई जाती है इसलिए शुष्क ऋतुओं में बिना सिंचाई के खेती करना कठिन होता है। पर्याप्त मात्रा में वर्षा वाले क्षेत्र जैसे, पश्चिम बंगाल और बिहार में भी मानसून के मौसम में भी कभी-कभी सूखा जैसी स्थिति उत्पन्न होती है जो कृषि के उत्पादन को कम कर देती है। जल प्रबंधन के लिए, देश में कई योजनायें होने के बाद भी कई क्षेत्रों में हमारे किसान आज भी मानसून पर निर्भर हैं। कम जल में फसलें उगानें की विधियाँ अभी तक आम किसानों तक नहीं पहुँच पायीं और अभी भी पुरानी सिंचाई पद्धतियाँ ही प्रचलित हैं। कुछ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है; उदाहरण के लिए धान, गन्ना, जूट आदि जो मात्र सिंचाई द्वारा संभव है। सिंचाई की व्यवस्था बहुफसलीकरण को संभव बनाती है। इसके अतिरिक्त, फसलों की अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए समुचित सिंचाई नियमित रूप से आवश्यक है जो मात्र विकसित सिंचाई तंत्र से ही संभव होती है। ऐसा होने पर सभी किसान पूरे साल अपने खेतों में कोई न कोई फसल उगाकर अपनी आय में वृद्धि कर सकते हैं।
जल प्रदूषण और गुणवत्ता में कमी
जल गुणवत्ता का तात्पर्य जल की शुद्धता (अनावश्यक बाहरी पदार्थों से रहित जल) से है। अधिक उपलब्ध जल संसाधन, औद्योगिक, कृषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होती जा रही है। बढ़ती जनसंख्या के कारण घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल में भी वृद्धि हो रही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (2021) के अनुसार देश मे अपशिष्ट जल का उत्पादन लगभग 72,368 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) है जिसमें से केवल 20,235 एमएलडी ही उपयोग में लाया जाता है और शेष 52,133 एमएलडी अनुपचारित अपशिष्ट जल के रूप में छोड़ दिया जाता है। जब अनुपचारित अपशिष्ट जल में पाए जाने वाले विषैले पदार्थ झीलों, सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य जलाशयों में प्रवेश करते हैं तब वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में विलय हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है और जल के गुणों में कमी आने से जलीय तंत्र प्रभावित होते हैं। कभी-कभी प्रदूषक नीचे तक पहुँच जाते हैं और भूजल को भी प्रदूषित कर देते हैं। अपशिष्ट जल उपचार के लिये जल प्रौद्योगिकी केंद्र, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा एक पर्यावरण अनुकूल अपशिष्ट जल उपचार तकनीक विकसित की गयी है जिसका उद्घाटन भारत सरकार के कृषि एवं कल्याण मंत्रालय द्वारा 2 जुलाई, 2014 को किया गया। पर्यावरण के अनुकूल उपचारित अपशिष्ट जल को कृषि में सुरक्षित पुनः उपयोग के लिए इस तकनीक को स्कॉच ग्रुप द्वारा वर्ष 2017 में स्कॉच ऑर्डर ऑफ मेरिट और स्कॉच प्लेटिनम अवार्ड दिया गया।
स्रोत - भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
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