मानव का प्रकृति के साथ हमेशा घनिष्ठ संबंध रहा है क्योंकि मानव जीवन खुद इसका एक अंग है। प्राचीन काल से ही मानव पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर रहा है तथा आज भी समस्त मूलभूत ज़रूरतें प्रकृति पर ही निर्भर हैं। मानव का जलवायु के साथ संबंध सदियों से चला आ रहा है, किन्तु इस प्राणदायिनी जलवायु को मानव 5000-9000 वर्ष पूर्व से ही दूषित करता आ रहा है। वरन आग का आविष्कार हो या आवास का निर्माण या कृषि के लिए मिट्टी की जुताई इन सभी क्रियाकलापों ने जलवायु को प्रभावित किया है। साथ ही साथ झूम खेती के कारण सैकड़ों हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गए। यहीं से जलवायु और प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा और तापमान में लगातार वृद्धि होती चली गयी। वैश्विक तापन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो एक अंतराल पर होती रहती है और पृथ्वी पर रहने वाले जीव-जन्तु और पेड़ पौधे उसके अनुरूप प्रतिक्रिया देते हैं। यह प्रक्रिया प्रजातियों के विकास के लिए फायदेमंद भी होती हैं परंतु इसकी एक सीमा होती है।
आधुनिक युग में मानव ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कई उचित और अनुचित कदम उठाए जैसे औद्योगिकीकरण, सड़क परिवहन, शहरीकरण, रेल परिवहन, वायुयान, परमाणु परीक्षण, युद्ध इत्यादि जैसी गतिविधियों ने वायुमण्डल को विशेष रूप से प्रदूषित किया। उपरोक्त गतिविधियों के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, नाइट्रस - ऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, हाइड्रोकार्बन, मीथेन, बेन्जीन, लेड, धूल-कण, अधजले हाइड्रोकार्बन इत्यादि गैसों का बहुतायत मात्रा में उत्सर्जन वायुमंडल को और गर्म कर रहा है। रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर में प्रयुक्त होने वाली सी. एफ. सी. गैस के कारण ओजोन परत का लगातार ह्रास हो रहा है, जिसके कारण ग्लेशियर लगातार पिघल रहा है और समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप कई महत्वपूर्ण तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं और टापू देशों का अस्तित्व भी खतरे में है और साथ ही बहुत सी महत्वपूर्ण धरोहरें सदा के लिए जलमग्न हो जाएंगी। अम्लीय वर्षा भी जलवायु प्रदूषण का एक भयावह रूप है जिसके कारण त्वचा रोग तथा कई अन्य प्रकार की बीमारियां होती हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रकार के जीवों की महत्वपूर्ण प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं जैसे आर्कटिक ध्रुवीय भालू, दक्षिण अमेरिका की व्हेल, कछुए तथा अफ्रीका के हाथी आदि प्रमुख हैं। भारत में पाये जाने वाले घड़ियाल, जंगली गधा, जंगली कुत्ता, नीलगिरी लंगूर, लाल पांडा, इंडियन एक सिंघा गैंडा, इंडियन बस्टार्ड, ब्लैक बॅक तथा सुंदरबन के बाघों की संख्या में लगातार कमी इस बात का संकेत दे रही है कि यह प्रजातियां भी संकटग्रस्त अवस्था में आ गई हैं। इस क्रम में न केवल जीव वरन वृक्षों की महत्वपूर्ण प्रजातियां जैसे मलकांगनी, निर्मली, मैदाछाल, नागकेशर, कुलु, नीमपुतली, आरकू, बीजासाल, गलगल इत्यादि भी संकटग्रस्त अवस्था में आ गई हैं।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन अब राष्ट्रीय मुद्दा न होकर अन्तरराष्ट्रीय विषय बन गया है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण कई महत्वपूर्ण घटनायें देश विदेशों में घट रहीं हैं। भारत में केदारनाथ, जम्मू-कश्मीर और मुंबई की प्राकृतिक आपदाएँ इसका ताजा उदाहरण हैं। दुनिया भर की प्राकृतिक आपदाएँ यह संकेत दे रहीं हैं कि मानव अब भी अपनी असीमित तृष्णा की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सही तरीके से नहीं करेगा तो ये घटनाएं भविष्य में बढ़ती ही जाएंगी।
विकास के नाम पर पहाड़ी क्षेत्रों पर डैम बनाना, बिजली उत्पादन करना, जंगलों को काट कर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा देना, कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों तथा कीट नाशक का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना, औद्योगिक कचरे और गन्दे पानी को बिना उपचारित किए नदियों तथा समुद्र में बहाना, तेलशोधक कारख़ानों द्वारा बन्दरगाहों और समुद्र को दूषित करना किसी न किसी रूप में प्राकृतिक जल स्रोतों को प्रदूषित करना है। आज के समय में रेडियोएक्टिव पदार्थों का सीधा नदियों में प्रवाह देखने को मिल रहा है जैसे जादूगोड़ा, झारखंड में इसका प्रभाव देखने को मिलता है जिससे न केवल जलीय जन्तु बल्कि उनका उपयोग करने वाले आस पास के लोग कई गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं।
आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 को पिछले कई दशकों का सबसे गरम वर्ष माना जा रहा है, अगर इसी प्रकार लगातार तापमान बढ़ता रहा तो ग्लेशियर पिघलता जाएगा और कई देशों के महत्वपूर्ण शहर समुद्र में समा जाएंगे। जैसा कि विदित है कि धरती में पीने योग्य जल केवल एक प्रतिशत ही है। अतः सभी देशों को इस गंभीर समस्या पर गौर करना होगा और इसकी रोकथाम के सार्थक उपाय तलाशने होंगे। इन सभी समस्याओं को ध्यान में रख कर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न संगठन इस विषय पर कार्यरत हैं जैसे FAO, IAEA, IEEP, IUCN, UNDP, WHO और WWE इत्यादि ।
आज भी पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे और सागर में पाये जाने वाले शैवाल ही हैं जो वायुमंडल में उपस्थित कार्बन-डाइऑक्साइड को प्राणवायु ऑक्सीज़न के रूप में परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं। फिर भी मानव इस बहुमूल्य स्रोत को अंधाधुंध काट रहा है और उसे नष्ट कर रहा है। वर्तमान में वन क्षेत्रों का तेजी से ह्रास हो रहा है। राष्ट्रीय मानक के अनुसार कम से कम 33 प्रतिशत भूखंड में जंगलों का होना अनिवार्य है। वन क्षेत्र 110mh होना चाहिए,जो वर्तमान में केवल 36mh है। कई देशों में तो इसका प्रतिशत काफी कम है जिसका असर वैश्विक स्तर पर सभी देशों को भुगतना पड़ रहा है। वृक्षारोपण को बढ़ावा देकर, वन क्षेत्रों को संरक्षित कर तथा युवाओं को पर्यावरण के प्रति जागरूक कर इस समस्या को दूर किया जा सकता है।
दिसम्बर, 2014 में पेरु की राजधानी लीमा में आयोजित सम्मेलन में भारत सहित 194 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर खुल कर चर्चा की और एक दस्तावेज को स्वीकृत किया। यह पहला मौका है जब कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ने वाले देश चीन, भारत और ब्राज़ील ने मार्च 2015 तक कार्बन उत्सर्जन कम करने की बात स्वीकार की। इस सम्मेलन के बाद सबकी निगाहें वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाले समझौते पर टिकी थी।
अब समय आ गया है जब हम विश्व स्तर पर पर्यावरणीय परिणामों की दृष्टि से अपने क्रियाकलापों में विवेक पूर्ण परिवर्तन लाएं तथा सही निर्णय से अपने तथा अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ जीवन के लिए एक स्वस्थ पर्यावरण दें ताकि वे हमें याद करें। जरूरत है तो सिर्फ शांति पूर्ण तरीके से सोचने, गंभीरता पूर्ण कार्य करने और वर्तमान के स्वार्थ को त्याग कर भविष्य की चिंता करने की क्योंकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पर वर्तमान में जो प्रयास चल रहे हैं और जो परिणाम सामने आए हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। इनमें तेजी लाने की अत्यधिक आवश्यकता है जिससे कि पृथ्वी, उसके प्राणदायक वायुमंडल, उसके सौंदर्य और स्वच्छता को बनाए रखने के सार्थक प्रयास हो सकें।
स्रोत:-हिंदी पर्यावरण पत्रिका, आणविक जीवविज्ञान प्रभाग वन उत्पादकता संस्थान रांची
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