जलवायु परिवर्तनः कृषि समस्याएं और समाधान,मौसम, जलवायु एवं परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन का अरुणाचल प्रदेश की जैव-विविधता पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का अरुणाचल प्रदेश की जैव-विविधता पर प्रभाव

एक निश्चित समय और स्थान पर वातावरण की औसत स्थिति को मौसम के नाम से संबोधित किया जाता है, जबकि एक विशिष्ट क्षेत्र में प्रचलित दीर्घकालीन औसत मौसम को उसी क्षेत्र की जलवायु कहा जाता है। मौसम को तय करने वाले मानकों में वर्षा, तापमान, हवा की गति और दिशा, नमी और सूर्यप्रकाश का प्रमुखता से समावेश होता है। मौसम को तय करने वाले मानकों में स्थानिक और सामयिक भिन्नता होने की वजह से मौसम एक गतिशील संकल्पना है। मौसम का बदलाव बड़ी ही आसानी से अनुभव किया जाता है क्योंकि यह बदलाव काफी जल्दी होता है और सामान्य जीवन को प्रभावित करता है। उदाहरण के तौर पर तापमान में अचानक हुई वृद्धि।|जिस प्रकार मौसम में नित्य परिवर्तन होता है उसी प्रकार जलवायु में भी सतत बदलाव की प्रक्रिया जारी होती है परंतु इसका अनुभव जीवन में नहीं होता क्योंकि यह बदलाव बहुत ही धीमा और कम परिमाणों में होता है और सभी जीवित प्राणी इस बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा लेते हैं परंतु पिछले 150-200 वर्षों में ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि प्राणी एवं वनस्पति जगत को इस बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा पाना मुश्किल हो रहा है जिसके चलते यह परिवर्तन भी मौसम के बदलाव की तरह स्पष्ट अनुभव किया जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन के कारण

उपलब्ध विज्ञान साहित्य के अनुसार जलवायु परिवर्तन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो नित्य होती आ रही है और होती रहेगी। जलवायु परिवर्तन के प्रमुखतः दो कारण हैं - 

प्राकृतिक व मानव निर्मित 

प्राकृतिक कारणों के बारे में अधिक चर्चा करना तर्कसंगत नहीं होगा क्योंकि प्राकृतिक कारणों के ऊपर मानव का कोई नियंत्रण नहीं है। औद्योगिक क्रांति के पूर्व जलवायु की स्थिति और वर्तमान की जलवायु के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि जलवायु- परिवर्तन की समस्या के लिये एक प्रकार से मानवीय क्रिया-कलाप ही जिम्मेदार हैं। मानव निर्मित कारणों में सबसे महत्वपूर्ण कारण है ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) की वातावरण में वृद्धि । पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा को अवशोषित करने वाली गैसें ग्रीन हाउस गैस कहलाती हैं। इनमें प्रमुखता से कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन व जल वाष्प शामिल हैं। जिस प्रकार ग्रीन हाउस पर लगे कांच ऊष्मा को अन्दर तो आने देते हैं परंतु बाहर जाने से रोकते हैं, कुछ इसी प्रकार से ये गैसें पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर पृथ्वी से उत्सर्जित ऊष्मा को संग्रहित कर वातावरण का तापमान बढ़ाती हैं। इसी कारण इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।

जलवायु परिवर्तन में कृषि क्षेत्र का योगदान

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का प्रत्यक्ष योगदान 12-13 प्रतिशत रहा है जिसमें कृषि आदानों की उत्पादन प्रक्रिया उत्सर्जन जैसे- रासायनिक खाद, कृत्रिम कीटनाशक और कृषि व सिंचाई हेतु उपकरण निर्माण में उपयोग किए जाने वाले जीवाश्म ईंधन इसमें सम्मिलित नहीं हैं।यहाँ तक कि कृषि भूमि के लिए जंगलों की होने वाली कटाई से लगभग 12 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है इस अप्रत्यक्ष उत्सर्जन को कृषि से जोड़ा जाये तो कुल उत्सर्जन में कृषि की भूमिका एक चौथाई होगी। इसके अलावा यदि अन्य प्रक्रिया और उससे संबंधित उत्सर्जन को सम्मिलित करें तो कृषि क्षेत्र से उत्सर्जित हरित गृह हिस्सा है (चित्र 1)| गैस कुल उत्सर्जन का एक तिहाई

चित्र 1 - ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में विभिन्न क्षेत्रों का योगदान
चित्र 1 - ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में विभिन्न क्षेत्रों का योगदान

जलवायु परिवर्तन का कृषि क्षेत्र पर प्रभाव

बढ़ती जनसंख्या के कारण भोजन की मांग में वृद्धि होने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बनता है जिसके चलते वातावरण में हरित गैसों की मात्रा में बढ़ोतरी होती है। इस कारण वायुमण्डल का तापमान बढ़ रहा है और संपूर्ण दुनिया के मौसम में बदलाव आ रहा है तथा इसके परिणामस्वरूप बाढ़ और सूखे की बारंबारता और तीव्रता बढ़ती जा रही है। मौजूदा मौसम चक्र गड़बड़ा रहा है और इस कारण कृषि प्रक्रिया तथा उसके कामकाज पर विपरीत असर पड़ रहा है (चित्र 2 ) ।

जलवायु में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ता है क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की जैविक क्रियाशीलता, कीटाणु और उनसे फैलने वाली बीमारियां अपने सामान्य तरीके से अलग प्रसारित होती हैं। इसके साथ-साथ तीव्र जलवायु परिवर्तन जैसे तापमान में वृद्धि के परिमाणस्वरूप आने वाले बाढ़ एवं सूखे से खेती का नुकसान हो रहा है। जलवायु परिवर्तन से कृषि क्षेत्र पर पड़ने वाले महत्वपूर्ण दुष्प्रभावों में भूमि एवं मृदा क्षरण, फसल उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता में कमी, मृदा के स्वास्थ्य मे कमी, मृदा की जैव विविधता में कमी, मृदा पारिस्थितिक तंत्रों में असंतुलन आदि शामिल हैं।

चित्र 2- बदलते जलवायु का मृदा एंव फसलों पर प्रभाव
चित्र 2- बदलते जलवायु का मृदा एंव फसलों पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन आधारित अनुसंधान से यह हुआ है कि तापमान में हुई हर 1 डिग्री सेंटिग्रेड की ज्ञात वृद्धि से गेहूँ की पैदावार में 3-4 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई। सन 1980 की तुलना में, आज प्रमुख फसल जैसे कि गेहूँ और चावल का उत्पादन क्रमशः 5.5 व 3.8 प्रतिशत कम हुआ है तथा आगे भी इसमें और गिरावट संभावित है। इसमें अन्य फसलों के भी जुड़ने की चेतावनी विश्व के वैज्ञानिक दे रहे हैं।

जैविक कृषि प्रणाली के माध्यम से जलवायु परिवर्तन का समाधान

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में जैविक कृषि पद्धति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से निर्मित उत्पादो के उपयोग से टिकाऊ समग्र उत्पादन प्रबंधन को ही जैविक कृषि प्रणाली कहा जाता है। जैविक कृषि प्रणाली में कृत्रिम उर्वरक, कीटनाशक एवं आनुवंशिक रूप से संशोधित आदि उत्पादों के उपयोग का निषेध होता है। इस प्रणाली में टिकाऊ कृषि के लक्ष्य को पाने के लिए जल प्रबन्धन, जैविक कीट नियंत्रण, खरपतवार प्रबंधन, पोषक तत्व प्रबंधन आदि सम्मिलित हैं। पारम्परिक खेती में यूरिया खाद के प्रयोग से वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है जो एक महत्त्वपूर्ण हरित गृह गैस है। जैविक कृषि प्रणाली द्वारा इस प्रकार की हरित गृह गैसें उत्सर्जित नहीं होती हैं। कृषि अपशिष्ट पदार्थ प्रबंधन से वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कार्बन-डाइऑक्साइड गैस की मात्रा में भी अर्थपूर्ण कमी आती है। वातावरण की कार्बन-डाइऑक्साइड गैस को यदि मृदा कार्बन स्थिरीकरण से मिट्टी में दीर्घ समय के लिए रूपांतरित किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन नियंत्रण में अहम भूमिका निभाई जा सकती है। मिट्टी में कार्बन की मात्रा बढ़ जाने से मृदा पारिस्थितिकी में सुधार आता है और पौधों के लिए जरूरी पोषक तत्व आसानी से उपलब्ध होते हैं और इसके फलस्वरूप पैदावार में वृद्धि होती है। मृदा पारिस्थितिकी संतुलन से मिट्टी का स्वास्थ्य टिकाऊ हो जाता है।जलवायु परिवर्तन समस्या के समाधान के साथ-साथ जैविक कृषि प्रणाली से जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण की सुरक्षा, सुरक्षित खाद्य आदि लाभ भी होते हैं।

सारांश

जलवायु परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जिसके लिए वांछित कदम उठाना आवश्यक है। कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारणों का समाधान है तथा यह जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव का प्रथम शिकार भी है। संशोधित कृषि उत्पादन प्रक्रिया जैसे कि जैविक कृषि प्रणाली जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने में सक्षम है। जैविक कृषि प्रणाली का जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने का सामर्थ्य मुख्य रूप से उसके कृत्रिम कृषि रसायनों के उपयोग पर रोक एवं मृदा कार्बन स्थिरीकरण क्षमता के आधार पर प्रमाणित हुआ है। इसीलिए जैविक  कृषि प्रणाली न केवल जलवायु परिवर्तन समस्या का समाधान है, बल्कि टिकाऊ विकास की बुनियाद भी है।

स्रोत- हिंदी पत्रिका पर्यावरण
 

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Post By: Shivendra
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