जलवायु परिवर्तन से मिट्टी पर पड़े प्रभाव का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होती है और वाष्पीकरण का संतुलन खराब हो जाता है व हमारी मिट्टी की आर्द्रता असंतुलित हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप हमें सूखे की मार झेलनी पड़ सकती है। अगर यह स्थिति लगातार बनी रही तो मिट्टी मरूस्थल में तब्दील हो जाती है। मिट्टी एक समय में ऊसर व बंजर हो जाती है। अर्थात हमारे पास भोज्य पदार्थ के उत्पादन के लिए पर्याप्त उर्वर भूमि नहीं बचेगी और हमें भूख व कुपोषण की चपेट में आकर अपनी जान गवानी पड़ेगी। हालांकि यह स्थिति अभी भी बनी हुई है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसका स्वरूप और विकराल हो सकता है। इतना ही नहीं 'काउन्सिल ऑन एनजी, एन्वॉयरमेंट एंड वाटर' द्वारा जारी एक शोध में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से पैदा हुए मुद्दों का युद्धस्तर पर निवारण नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक गेहूं, चावल और मक्के की 200 अरब डॉलर की फसलों को नुकसान हो सकता है।'
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन का बढता स्तर मानवीय स्वास्थ्य के लिए दिन-प्रतिदिन चिंता का सबब बनता जा रहा है जलवायु परिवर्तन का सीधा असर मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ रहा है जिससे अनेक बिमारियां जन्म ले रही हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर एशिया के क्षेत्रों पर पड़ेगा क्योंकि यहाँ ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कृषि व प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है। ऐसे में भारत जैसे देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है मानव शरीर रूपी मशीन को प्राकृतिक रूप से चलने के लिए पृथ्वी, जल, आग, आकाश व वायु रूपी पांच तत्वों को संतुलित करने की जरूरत पड़ती है।
इन तत्वों का असंतुलन मनुष्य के शरीर में व्याधियों को उत्पन्न करता है जलवायु की जब हम बात करते हैं तो इसमें मुख्य रूप से दो तत्वों की बात होती है। पहला जल व दूसरा वायु इन दोनों तत्वों का संतुलन में रहना मानव स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन किसी क्षेत्र विशेष की औसत दशाएं है। यह उस क्षेत्र के मौसम में सामान्य परिवर्तन, दशाएं और ऋतुओं के चक्र की दशाओं का योग है। अगर हम पृथ्वी की बात करें तो वर्तमान में इसे हम सात जलवायु प्रदेशों में बाट सकते हैं। इन प्रदेशों की जलवायु की स्थिति को समझने के बाद यह पता चलता है कि प्रत्येक जलवायु प्रदेश के तापमान व वर्षा की उपलब्धता में अंतर उन्हें एक दूसरे से अलग करता है। इन प्रदेशों की स्वाभाविक प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न होने की स्थिति में यहां के लागों को तमाम तरह की विमारियों से जूझना पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन व मानवीय स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव
जलवायु परिवर्तन की बदलती दशाओं का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है जलवायु परिवर्तन पर -अंतर सरकारी पैनल ने सन 2001 में 21वीं सदी में इसके प्रभाव को लेकर अपनी आशंका जाहिर की थी। इस रिपोर्ट में कुछ प्रमुख तथ्य निम्नवत हैं-
जलवायु परिवर्तन से मिट्टी पर पड़े प्रभाव का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होती है और वाष्पीकरण का संतुलन खराब हो जाता है व हमारी मिट्टी की आर्द्रता असंतुलित हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप हमें सूखे की मार झेलनी पड़ सकती है। अगर यह स्थिति लगातार बनी रही तो मिट्टी मरुस्थल में तब्दील हो जाती है। मिट्टी एक समय ऊसर व बंजर हो जाती है। अर्थात हमारे पास भोज्य पदार्थ के उत्पादन के लिए पर्याप्त उर्वर भूमि नहीं बचेगी और हमें भूख व कुपोषण की चपेट में आकर अपनी जान गवांनी पड़ेगी। हालांकि यह स्थिति अभी भी बनी हुई है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसका स्वरूप और विकराल हो सकता है। इतना ही नहीं 'काउन्सिल ऑन एनर्जी, एन्वॉयरमेंट एंड वाटर' द्वारा जारी एक शोध में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से पैदा हुए. मुद्दों का युद्धस्तर पर निवारण नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक गेहूं, चावल और मक्के की 200 अरब डॉलर की फसलों को नुकसान हो सकता है।
ग्लेशियरों पर पड़े प्रभाव का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव शोध पत्रिका 'नेचर' में प्रकाशित अपने शोध में मिशेल कोप्पस ने लिखा है कि 'अंटार्कटिका की तुलना में पेंटागोनिया में ग्लेशियर 100 से 1000 गुना तेजी से अपक्षरित हो रहे हैं। तेजी से बढ़ रहे ग्लेशियर अनुप्रवाह घाटियों और महाद्वीपीय समतल पर अधिक गाद इकट्ठा कर देते हैं। मछली पालन, बांधों और पर्वतीय इलाकों में रह रहे लोगों के लिए पेयजल की उपलब्धता पर इसका प्रभाव संभव है। वहीं एशियाई विकास बैंक का अनुमान है कि इस सदी के अंत तक समुद्री जल स्तर 40 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा। इससे समुद्री इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा। इंडोनेशिया, थाईलेण्ड जैसे देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6.7 फीसदी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। वहीं वैश्विक घरेलू उत्पाद के स्तर पर इसी दौरान 2.6 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का मानवीय स्वास्थ्य पर बढ़ता खतरा
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते स्तर का मानवीय स्वास्थ्य पर खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जिससे अनेक बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। अमेरिकी मोटीओरलाजिकल सोसायटी के बुलेटिन में विशेष परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित "स्टेट ऑफ द क्लाइमेट इन 2016" रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है। कुल 58 देशों के 413 वैज्ञानिकों के योगदान से यह रिपोर्ट तैयार की गई थी कि नेशनल रिकार्ड्स द्वारा साल 1901 से लेकर अब तक दर्ज किए गए आंकड़ों में साल 2014 एवं 2016 सबसे गर्म साल के रूप में सामने आये हैं। जलवायु परिवर्तन भयावहता व इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की और ध्यान आकृष्ट करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के जन स्वास्थ्य पर्यावरण तथा सामाजिक मानक विभाग ने लिखा है- विश्व यदि इसी रफ़्तार से चलता रहा तो आने वाले 80 वर्षो में सतह के तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की आशंका है इस बार गर्मी में पाकिस्तान व भारत में हमने जिस तरह से गर्म हवाओं को महसूस किया है और जिसके कारण वहां पर 5000 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई है और हजारों की तादाद में लोग गर्मी से संबंधित बीमारियों से जूझने के लिए मजबूर हुए हैं, आने वाले समय में हमें इससे भी ज्यादा गर्म हवाओं से जूझना पड़ेगा। समुद्री तूफान, चक्रवात, बाढ, जंगल में आग जैसे जलवायु परिवर्तनीय कारकों ने पहले ही पश्चिमी संयुक्त राष्ट्र में 80 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन को तबाह कर दिया है। आगे के दौर में स्थिति और भी खराब होने वाली है। सूखे के समय में हमें कुपोषण से जूझना पड़ेगा व बाद हमारी भोजन-प्रदाई फसलों को नष्ट करेगी। जलवायु परिवर्तन आने वाले दिनों में मलेरिया, डेंगू व अन्य संक्रामक बीमारियों का वाहक बनेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौतों में मलेरिया का योगदान सबसे ज्यादा है।
जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को रेखांकित करते हुए 'लांसेट कमीशन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज-2015' ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से 9 अरब लोगों की वैश्विक आबादी के लिए पिछली आधी सदी में मिले विकास एवं वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी लाभों का नष्ट होने का खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव मौसम की अतिशय घटनाओं खासकर लू, बाढ़, सूखे और आंधी की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता की वजह से पड़ रहा है। इसमें कहा गया कि संक्रामक रोगों के स्वरूपों में बदलाव, वायु प्रदूषण, खाच असुरक्षा एवं कुपोषण, अनैच्छिक विस्थापन और संघर्षो से अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पैदा हो रहे हैं।जलवायु परिवर्तन के कारण जलजनित बीमारियों से पूरा विश्व परेशान है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 74 करोड़ 8 लाख लोग 2012 तक स्वच्छता सुविधाओं के अभाव में जी रहे थे 2012 तक खुले में शीच करने वालों की तादाद अरब से ज्यादा थी। तापमान व समुद्री तल के बढ़ने से बाढ़ जलभराव के कारण पेयजल में रासायनिक अपशिष्टों के समिश्रण की वजह से जलजनित रोगों के होने की आशंका बढ़ जाती है।
'जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल प्रदूषण के कारण पौधों एवं मानव सहित समस्त जन्तु समुदाय को अकथनीय तथा असाध्य क्षति का सामना करना पड़ता है। जल प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार मनुष्य तथा सूक्ष्म जीव होते हैं। प्रदूषित जल के कारण संक्रामक रोगों तथा कई प्रकार के खतरनाक रोगों यथा- हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी ज्वर, टायफाइड, पेचिस का अविर्भाव होता है। ठोस प्रदूषकों से युक्त जल का सेवन करने से कई प्राणघातक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एस्बेस्टस से युक्त जल सेवन से एस्वेस्टोसिस नामक जानलेवा रोग हो जाता है। इसके द्वारा फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।'
जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव
पब्लिक हेल्थ इन्वायरमेंट जिनेवा 2009 की रिपोर्ट से भारतीय पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्लूएचओ द्वारा जारी इनवॉयरमेंट बर्डन डिजिज की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि पानी स्वच्छता व हाइजीन के अभाव में डायरिया के कारण भारत में 454400 मौतें हुई।
जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल प्रदूषण के कारण पौधों एवं मानव सहित समस्त जन्तु समुदाय को अकथनीय तथा असाध्य क्षति का सामना करना पड़ता है। जल प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार मनुष्य तथा सूक्ष्म जीव होते हैं प्रदूषित जल के कारण संक्रामक रोगों तथा कई प्रकार के खतरनाक रोगों यथा- हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी ज्वर, टायफाइड पेचिस का अविर्भाव होता है ठोस प्रदूषकों से युक्त जल का सेवन करने से कई प्राणघातक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एस्बेस्टस से युक्त जल सेवन से एस्वेस्टोसिस नामक जानलेवा रोग हो जाता है। इसके द्वारा फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
पारा युक्त जल से मिनामाटा रोग उत्पन्न होता है। पेयजल में नाइट्रेट की अधिकता से ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, केडिमियम की अधिकता से इटाई- इटाई रोग तथा आर्सेनिक अधिकता से ब्लैक फुट नामक बीमारी हो जाती है। विषाक्त रसायनों से प्रदूषित जल के कारण जलीय पौधों तथा जन्तुओं की मृत्यु हो जाती है। नदियों, झीलों तथा तालाबों के प्रदूषित जल द्वारा सिंचाई करने से फसलें नष्ट हो जाती हैं। अत्यधिक प्रदूषित जल के कारण मृदा भी प्रदूषित हो जाती है। उनकी उर्वरता घट जाती है तथा उपयोगी मृदावासी सूक्ष्म जीव यथा बैक्टीरिया नेमोटेड तथा केंचुआ आदि मर जाते हैं रेत के अत्यधिक भार से युक्त जल से फसलों की सिंचाई करने से मिट्टियों की उत्पादकता घट जाती है तथा उनकी जल की मांग बढ़ जाती है। अधिक लवणता वाले जल से सिंचाई करने पर मृदा में क्षारीयता बढ़ जाती है। नदियों तथा झीलों, तालाबों के जल में अजैविक तथा जैविक पोषक तत्वों के सान्द्रण में वृद्धि होने से यूट्रोफिकेशन या सुपोषण हो जाता है। जिस कारण जलीय भागों में पौधों तथा जन्तुओं की संख्या नियंत्रण सीमा से भी अधिक हो जाती है। इसके विपरीत जल में विषाक्त रसायनों तथा भारी धात्विक पदार्थ के सान्द्रण में वृद्धि होने से पौधे एवं जन्तु विनष्ट हो जाते हैं। सागर के तटवर्तीय जलीय भागों में खनिज तेल के रिसाव से उत्पन्न ऑयल स्लिक तथा कारखानों के विषाक्त अपशिष्टों के विसर्जन के कारण अधिकांश सागरीय जीव मर जाते हैं। जिस कारण पारिस्थितिकीय विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और जलवायु परिवर्तन का खतरा भी बढ़ता जाता है।
जलवायु परिवर्तन एवं आर्सेनिक संदूषण : लीशमनियासिस दवाओं की प्रतिरोधकता का प्रमुख कारण
जलवायु परिवर्तन के कारण आर्सेनिक संदूषण एक जटिल समस्या है जल की आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण के मिले होने के कारण मनुष्यों में होने वाला रोग भारतीय उप महाद्वीप में लोगों के मरने का एक प्रमुख कारण है। आश्चर्यजनक यह है कि दवा उपचार के क्षेत्र में प्रगति के बावजूद यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा परजीवी हत्यारा है। आंत लीशमनियासिस से पूरी दुनिया में लगभग 5 लाख लोग हर साल प्रभावित होते हैं और उनमें से दस में से एक की मृत्यु हो जाती है।
इस रोग के उपचार के लिए दवाओं का एक समूह है जिसे एंटीमोनियम प्रिपरेशन के नाम से जाना जाता है। हालांकि 20वीं शताब्दी के अंत में बिहार में जहां इस बीमारी से प्रभावित भारत के लगभग 90 प्रतिशत लोग रहते हैं, अलोच्य रोग के उपचार में इस दवा की प्रभावशीलता काफी कम रही जिसके कारण उपचार के लिए इस दवा के उपयोग की संस्तुति कम कर दी गई। डंडी और एवरडीन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पानी की आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण, दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां एंटीमोनियम दवाओं, जिसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल आत लीशमनियासिस रोग के इलाज के लिए किया जाता है, की प्रतिरोधकता के साथ पीने के पानी में आर्सेनिक संदूषण पाया जाता है। बिहार में भूजल से होने वाले पानी की आपूर्ति में स्वाभाविक रूप से आर्सेनिक संदूषण पाया गया है। प्रयोग के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि पानी का आर्सेनिक संदूषण डण्टिमनी संदूषण सबंधी उपचार के लिए लीशमैनियासिस परजीवी में प्रतिरोधी का निर्माण कर सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार बिहार में भूजल आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण का होना चिंता का विषय है बहुत से गांव आर्सेनिक संदूषित पानी ही पीते हैं क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। आर्सेनिक प्रदूषण के संबंध में लोगों को जानकारी कम होने के कारण वे इसके खतरे को समझ नहीं पा रहे हैं। और उपशमन परियोजनाएं उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं जिनको इसकी जरूरत है
जलवायु परिवर्तन एवं जैवीय प्रदूषण का प्रभाव
रोगकारक सूक्ष्म जीवों से संक्रमित कर मनुष्यों, फसलों, फलदायी वृक्षों व सब्जियों का विनाश करना जैवीय प्रदूषण है। सन 1846 में जीनीय एकरूपता के कारण यूरोप में आलू की समस्त फसल नष्ट हो गयी जिसके फलस्वरूप 10 लाख लोगों की मृत्यु हो गयी और 15 लाख लोग अन्यत्र पलायन कर गये। चूंकि समस्त आलू में एक ही प्रकार का जीन था अतः सब एक ही प्रकार के रोगाणुओं द्वारा संक्रमित होकर नष्ट हो गयी। सन 1984 में फ्लोरिडा में जीनीय एकरूपता के कारण खट्टे फलों की सारी फसलें एक ही प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा नष्ट हो गयी। अतः इस जीवीय प्रदूषण को दूर करने के लिए एक करोड़ अस्सी लाख पेड़ों को मजबूरन काट कर गिरा देना पड़ा। अब इस जैव प्रदूषण को जैव हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। जैव-प्रदूषण के माध्यम से फैलाए जा सकने वाले घातक रोगों में एक्स प्लेग, चेचक, ट्यूलरेमिया एवं विषाणुवी रक्तस्रावी ज्वर प्रमुख हैं। निम्नलिखित वर्षो में रोगाणुओं का प्रयोग जैव हथियार के रूप में किया गया-
- 2001 में एक आतंकवादी संगठन ने अमेरिका, भारत और पाकिस्तान आदि देशों में एंथ्रेक्स के बीजाणुओं को पत्रों के लिफाफे में भरकर जैव-प्रदूषण फैलाने का प्रयास किया जिसके कारण अमेरिका में कई लोगों की मृत्यु हो गयी।
- 1939-45 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना द्वारा चीन के कुछ क्षेत्रों में प्लेग के पिस्सुओं द्वारा प्लेग फैला दिया गया।
- 1754-1767 अवधि में ब्रिटेन की सेना ने चेचक के मरीजों द्वारा ओढ़े गए कम्बलों को उत्तरी अमेरिका के लोगों में बटवा दिया जिसके कारण वहां का एक वृहत जनसमूह काल कलवित हो गया।
बीमारी फैलाने वाले रोगाणुओं को रोकने के लिए किए गए प्रयास
- बीमारियां फैलाने वाले रोगाणुओं पर अध्ययन, अनुसंधान तथा परीक्षण करने के लिए रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन ने 1972 में ग्वालियर में एक प्रयोगशाला स्थापित की।
- भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सन् 2000 में राष्ट्रीय डिजीज सर्विलेंस प्रोग्राम आरम्भ किया। ज्ञातव्य है कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेवल डिजीज चौकसी का कार्य कर रहा है और इसमें मिलेटरी इंटेलिजेंस, बार्डर सिक्युरिटी फोर्स, इंडोतिब्बत वार्डर पुलिस तथा स्पेशल सर्विस ब्यूरो आदि संगठन मदद कर रहे हैं।
- DRDO ने एक ऐसा फिल्टर बनाया है, जो सेना के जवानों को सभी तरह के जैविक एवं रासायनिक हमलों से सुरक्षित रखता है।
- जैव प्रदूषण व जैव आतंक से निपटने के लिए अमेरिका के रक्षा मुख्यालय पेंटागन ने इस दिशा में व्यापक कदम उठाया है। ये हवा में उड़ते जीवाणुओं व विषाणुओं को पकड़ने के लिए आयन हैप पास स्पेक्ट्रो मीट्री एण्ड लेजर इन्दुयुस्ट ब्रेक डाउन स्पेक्ट्रो स्कोपी नामक यंत्र की मदद लेते हैं।
- 1925 में रासायनिक और जैविक हथियारों का निषेध करने के लिए जेनेवा प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए गए थे तथा 10 अप्रैल 1972 को सभी प्रकार के जैव हथियारों को निषिद्ध करने के लिए जैव-हथियार सभा के प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किए गए।
''जलवायु परिवर्तन के कारण आर्सेनिक संदूषण एक जटिल समस्या है। जल की आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण के मिले होने के कारण मनुष्यों में होने वाला रोग भारतीय उप महाद्वीप में लोगों के मरने का एक प्रमुख कारण है। आश्चर्यजनक यह है कि दवा उपचार के क्षेत्र में प्रगति के बावजूद यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा परजीवी हत्यारा है। आंत लिशमैनियासिस से पूरी दुनिया में लगभग 5 लाख लोग हर साल प्रभावित होते हैं और उनमें से दस में से एक की मृत्यु हो जाती है।''
जलवायु परिवर्तन से होने वाली प्रमुख बीमारियां
वाइल्ड लाइफ कन्जर्वेशन सोसाइटी (डब्ल्यूसीएस) की रिपॉट में बताया गया कि वर्ड फ्लू, कॉलरा, इबोला, प्लेग, ट्यूबरक्लोसिस जैसी बिमारियां जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत तेजी से फैलेगी। इसकी भयावहता को दर्शाते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोप में 14वीं शताब्दी में ब्लैक डेथ' (प्लेग) के कारण एक तिहाई लोगों की मौत हो गई थी व फ्लू पैनडेमिक से 1918 ई. में वैश्विक स्तर पर 2 करोड़ से 4 करोड़ के बीच में लोगों की मौतें हुई थी। जिनमें अकेले अमेरिका के 5 लाख से 6 लाख 75 हजार से ज्यादा लोग मरे थे।
जलवायु परिवर्तन की यही रफ्तार रही तो इस तरह की बिमारियों से इससे भी अधिक मौत होने की आशंका है। एक तरह से देखा जाए तो शरीर में होने वाली तमाम तरह की व्याधियों का प्रत्यक्ष जुड़ाव ग्लोबल वार्मिंग से हैं, जलवायु परिवर्तन व मानवीय स्वास्थ्य पर उपरोक्त चर्चा में इन बीमारियों से इतर भी बहुत सी बीमारियों का जिक्र आया है। जलवायु परिवर्तन से किस तरह बीमारियां जानलेवा हो जाएंगी इसका अंदाजा इनकी वर्तमान स्थिति से लगाया जा सकता है जलवायु परिवर्तन से होने वाली कुछ प्रमुख बीमारियों की वर्तमान वैश्विक स्थिति-
मलेरिया
पूरी दुनिया के सामने मलेरिया ने बहुत बड़ी चुनौती पेश की है। विश्व के 97 देशों के 3.2 अरब लोग मलेरिया से प्रभावित क्षेत्र में रह रहें हैं। जिसमें 1.2 अरब लोगों को मलेरिया होने की आशंका ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2014 के अनुसार सन् 2013 में 19 करोड़ 80 लाख लोगों में मलेरिया के लक्षण पाए गए। इस बीमारी से 5 लाख 84 हजार लोगों की मृत्यु हुई। मलेरिया से हुई मीतों में 90 फीसदी मौत अफ्रीकी देशों में हुई। वहीं भारत की बात करें तो डब्ल्यूएचओ की मलेरिया रिपोर्ट-2014 के अनुसार मलेरिया संक्रमित होने की अधिकतम आशंका वाले क्षेत्रों में 22 फीसदी यानी 27 करोड़ 55 लाख लोग हैं जबकि मलेरिया प्रभावित न्यूनतम आशंका वाले क्षेत्रों में 67 फीसदी अर्थात 83 करोड़ 89 लाख लोग रह रहे हैं। मलेरिया मुक्त क्षेत्रों का प्रतिशत महज 11 है। इससे यह तात्पर्य है कि भारत के 89 फीसदी लोग मलेरिया प्रभावित क्षेत्र में रहते हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के अधार पर बहुत ही मजबूती के साथ यह कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। डेंगू, मलेरिया जैसे रोगों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ जाता है। डब्ल्यूएचओ के अनुमान के मुताबिक प्रत्येक वर्ष 150000 लोगों की मौत जलवायु परिवर्तन के कारण ही रही है।
लिशमैनियासिस
लिशमैनियासिस बीमारियों का समूह है। मादा फिलोबोटोमाइन सैंडलाई के काटने से मानव में इसका संक्रमण फैलता है। लिशमैनियासिसके मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं-
(1) विससेरल (वीएल) जिसे हम कालाजार के रूप में जानते हैं। यह इस बीमारी का सबसे गंभीर रूप है।
(2) कुटानियस (सीएल), यह बहुत कॉमन है।
(3) मोकोकुटानियस
यह बीमारी मुख्य रूप से अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका की आबादी को प्रभावित करती है। साथ ही इसका प्रत्यक्ष संबंध कुपोषण, विस्थापन, कमजोर आवासीय व्यवस्था, कमजोर पाचन शक्ति व संसाधनों की अनुपलब्धता से है नए आंकड़े बताते हैं कि 98 देशों में यह बीमारी पाई जा रही है। प्रत्येक वर्ष 2 लाख से 4 लाख नए मामले गंभीर रूप से लेशमैनियासिस (बीएल) से पीड़ितों के पाए गए हैं जबकि सीएल श्रेणी से पीड़ितों की संख्या 7 लाख से 12 लाख के आसपास है। जिसमें 90 फीसदी वीएस श्रेणी यानी कालाजार के मामले महज 6 देशों बांग्लादेश, ब्राजील, इथोपिया, भारत, दक्षिण सूडान और सूडान में हैं।
लिम्फेटिक फैलाराइस
इस बीमारी से विश्व के 73 देश प्रभावति हैं और पूरे विश्व में। अरब 23 लाख 30 हजार लोगों को इस रोग से बचाव के लिए सुरक्षा- इलाज कराने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ के अफ्रीकी व दक्षिण एशिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों के 94 फीसद लोग इस बीमारी के परिक्षेत्र में हैं। जिन लोगों को इस रोग से बचने के लिए कीमोथेरेपी दिया जाना अति आवश्यक है उनकी संख्या 70 करोड़ लाख है अर्थात 57 फीसदी लोग दक्षिण पूर्व एशिया (9 प्रभावित देशों में 47 करोड़ 2 लाख अफ्रीकन क्षेत्र के 35 देशों में हैं। जलवायु परिवर्तन होने की स्थिति में जलीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में इस रोग के फैलाव की आशंका और बढ़ती जा रही है।
लेप्रोसी (कुष्ठ रोग) :
डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट बताती है कि 102 देशों व क्षेत्रों में कुष्ठ रोग के मामले पाए गए हैं। 2014 की शुरूआत में कुल 2 लाख 15 हजार 656 मामले कुष्ठ रोगियों के पाए
गए हैं। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर त्वचा पर पड़ता है। यदि पर्यावरणीय असंतुलन इसी तरह जारी रहा तो आने वाले समय में त्वचा संबंधी रोगों में और इजाफा होगा। भारत की बात करें तो 2014-2015 में कुल 1 लाख 25 हजार 786 मामले पाए गए जो कि 2013-14 के मुकाबले 2.5 फीसदी कम है।
सिस्टोसोमाइसिस
विश्व के 78 देशों में इसका प्रभाव है। इस रोग से बचने के लिए 52 देशों के 26 करोड़ 20 लाख लोगों को बचाव हेतु कीमोथेरेपी की जरूरत है जिसमें 12 करोड़ 12 लाख विद्यालय जाने वाले बच्चे हैं।
जलवायु परिवर्तन एवं वायु जनित बिमारियों
ट्यूबरक्लोसिस (टीवी) डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में वैश्विक स्तर के टीवी के 86 लाख मामले दर्ज किए गए और 13 लाख लोगों की टीवी से मौतें हुई। टीबी से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि 15-14 आयु वर्ग के महिलाओं की मौत के शीर्ष तीन कारणों में से एक टीवी भी है।इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 20-90 लाख लोग प्रत्येक साल टीबी से ग्रसित होते हैं जो कि वैश्विक टीबी मरीजों का 26 फीसद है। इस रोग से भारत में तकरीबन 3 लाख लोग प्रत्येक साल काल के गाल में समा रहे हैं। वायु प्रदूषण जनित बीमारियों का फैलाव भी निरंतर हो रहा है। जिनका जलवायु परिवर्तन से प्रत्यक्ष संबंध है।
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों की मानें तो 2012 में 37 लाख लोगों की मौत बाह्य वायु प्रदूषण से हुई जिसमें 88 फीसद लोग कम व मध्य आय वाले देशों के थे। वहीं 48 लाख लोगों की मौत हाउसहोल्ड वायु प्रदूषण यानी घर के अंदर के वायु प्रदूषण से हुई है। इस तरह से देखा जाए तो विश्व में आठ मोतों में एक मौत वायु प्रदूषण के कारण है पब्लिक हेल्थ इन्वॉयरमेंट जिनेवा 2009 की रिपोर्ट में भारत में पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी इन्वॉयरमेंट वर्डन बीमारियों की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि इंडोर वायु प्रदूषण से 4 लाख 88 हजार 200 मौतें व बाह्य वायु प्रदूषण से 1 लाख 19 हजार 900 लोगों की जानें गई हैं। इतना ही नहीं, बातावरण में सल्फर आक्साइड की मात्रा बढ़ने से दिल के दौरे (हार्ट अटैक की आशंका बढ़ जाती है।
जलवायु परिवर्तन का असर गरीबी एवं स्वास्थ्य पर
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है पहले से ही खाद्य व आवास की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए बदलती जलवायु व इसका प्रभाव त्रासद पूर्ण है। वैसे समाजशास्त्रियों की मानें तो गरीबी अपने आप बीमारियों का समुच्चय है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया परिक्षेत्र में पूरे विश्व की 26 फीसद जनसंख्या रहती है। जहां विश्व के 30 फीसद गरीब हैं। जनसंख्या में अधिकता के कारण इस परिक्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत ही आपदाकारी हो सकता है। यह परिक्षेत्र पहले से संक्रामक बीमारियों के भार के तले दबा हुआ है। इस क्षेत्र में 1 करोड़ 40 लाख लोगों की मौत का कारण जलवायु परिवर्तन बनेगा। जिसमें 40 फीसद मौतों के लिए संक्रामक बीमारियां जिम्मेदार रहेंगी। 2015 के डब्ल्यूएचओ आंकड़ों के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में 83 फीसद बच्चों की मौत संक्रामक बीमारी व पोषण के अभाव में हो रही हैं। मौसम में बड़े पैमाने पर होने वाले बदलाव, जैसे चक्रवात व बाढ़ के आने की स्थिति, डायरिया व कोलेरा जैसी बीमारियों के लिए अनुकूल हो जाते हैं।
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत का दृष्टिकोण
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत हमेशा से सचेत रहा है। यह बात भारत के प्रधानमंत्री द्वारा पृथ्वी दिवस पर दिए उस बयान से स्पष्ट होती है, जिसमें उन्होंने कहा था- भारत विश्व को जलवायु परिवर्तन से निपटने के रास्ते दिखा सकता है। क्योंकि पर्यावरण की देखभाल करना देश की मान्यताओं का अभिन्न अंग है। हमारा नाता ऐसी संस्कृति से है जो इस मंत्र में विश्वास करती है कि धरती हमारी माँ है और हम उसकी संतानें हैं। अपनी बात को दुहराते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि विश्व के सामने अभी वर्तमान में दो प्रमुख समस्याएं हैं। एक आतंकवाद और दूसरा जलवायु परिवर्तन । जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत विश्व को बहुत कुछ दे सकता है। अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत द्वारा सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने पर बल देते हुए उन्होंने आह्वान किया कि भारत दुनिया के 102 सूर्य पुत्रों (जहां पर सूर्य की रोशनी ज्यादा है) को एक मंच पर लाने की पहल कर रहा है। प्रधानमंत्री की यह सोच भारत की दूरदृष्टि को स्पष्ट कर रही है। निश्चित ही इससे ऊर्जा जरूरतों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले इंधनों (जिनसे कार्बन उत्सर्जन होता है की खपत में कमी आएगी।
निष्कर्ष: एक दृष्टिकोण
जलवायु परिवर्तन एक जटिल समस्या है जो पृथ्वी पर मानवीय स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है। यह समस्या वर्तमान में कई वैश्विक मुद्दों से जुड़ी हुई है जैसे गरीबी, आर्थिक विकास, जनसंख्या, संपोष्य विकास एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण । जलवायु परिवर्तन की समस्या के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयास करने चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन को लेकर इन वैश्विक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जा सके या फिर इन मुद्दों पर विचार विमर्श के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सके। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए निम्नलिखित कार्य किए जाने चाहिए-
- मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों पर अनुसंधान अध्ययन करने के लिए विशेषत विशिष्टीकृत 'संस्थाओं/ प्राधिकारी व्यक्तियों की पहचान करना जो इस विषय पर उपलब्ध प्रमाणों का विश्लेषण भी करें।
- जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के बारे जनता की जागरूकता बढ़ाने की रणनीतियों पर सुझाव देना और अनुमोदित करना।
- जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों के बारे में खासतौर से जलवायु के कारण होने वाली बीमारियों का मूल्यांकन करने और जलवायु परिवर्तन के जनस्वास्थ्य संबंधी परिणामों से निपटने की तथा सुरक्षा प्रदान करने की स्वास्थ्य संबंधी व्यवस्था की क्षमता को बढाने के उपायों को अनुमोदित करना।
- अन्य मुख्य सेक्टरों में जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने के जो निर्णय लिए जाएं उनमें स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं पर भी पूरा ध्यान दिया जाए और साथ में यह सुनिश्चित करने के लिए अनुमोदित किया जाए।
- आज के जलवायु परिवर्तन के दौर में भारतीय तकाजा यह है कि सरकार और समाज मिलकर एक ओर शिक्षा, कौशल, जैविक कृषि, कुटीर, ग्रामोद्योग, सार्वजनिक वाहन, बिना इंधन वाहन आदि के बेहतर संरक्षण में लगे, तो दूसरी ओर धन का अपव्यय रोकें, कचरा कम करें, पलायन व जनसंख्या नियंत्रित करें, फसल उत्पादन के पश्चात उत्पाद की बर्बादी न्यूनतम करें। नदियां बचाएं, भू-जल भण्डार बढाएं।
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जल चेतना । खण्ड १, अंक 2 जुलाई 2020
स्रोत:- विज्ञान प्रगति जनवरी 2012
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