![जलवायु परिवर्तन के कारण समंदर हरे हो रहे हैं](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-09/sea%20seen%20in%20green.jpeg?itok=uJoZYups)
पिछले दिनों नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में दुनिया के आधे से अधिक समंदर पहले से अधिक 'हरे' हो गए हैं और इसका कारण संभवतः बढ़ता तापमान है । समंदरों का रंग कई कारणों से बदल सकता है। जैसे जब पोषक तत्व गहराई से ऊपर आते हैं तो इनके पोषण से पादप प्लवक (फाइटोप्लांकटन) फलते-फूलते हैं । इन फाइटोप्लांकटन में हरा रंजक क्लोरोफिल होता है। तो, सागरों की सतह से परावर्तित सूर्य के प्रकाश की तरंग दैर्ध्य का अध्ययन करके यह पता चल सकता कि वहां कितना क्लोरोफिल मौजूद है, जिससे यह पता लग सकता है कि वहां शैवाल और पादप प्लवक जैसे कितने जीव मौजूद हैं।
सिद्धांततः तो जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्रों का पानी गर्म होगा तो वहां की जैविक उत्पादकता बढ़नी चाहिए। लेकिन सतही पानी में क्लोरोफिल की मात्रा साल-दर-साल काफी अलग-अलग हो सकती है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले और बड़े प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के कारण होने वाले बदलावों में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए ऐसा माना गया था कि समंदरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानने के लिए लंबे समय का डाटा चाहिए होगा कम से कम 40 साल का । - इसलिए साउथेम्प्टन स्थित नेशनल ओशनोग्राफी सेंटर के महासागर और जलवायु विज्ञानी बी. बी. काइल और उनकी टीम ने नासा के एक्वा उपग्रह पर लगे सेंसर चजअखड द्वारा जुटाए गए डाटा का विश्लेषण किया। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने समुद्र के रंग को ट्रैक करने के लिए सिर्फ हरे रंग की तरंग दैर्ध्य की बजाय परावर्तित होने वाले संपूर्ण स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया।
बीस साल के डाटा का विश्लेषण कर उन्होंने पाया कि महासागरीय सतह के 56 प्रतिशत हिस्से में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं, और ये बदलाव ज़्यादातर भूमध्य रेखा से 40 अंश उत्तर और 40 अंश दक्षिण के बीच के समंदरों में दिखे हैं। पाया गया है कि समय के साथ महासागरों का पानी हरा होता जा रहा है। चूंकि इन क्षेत्रों में पूरे साल के दौरान मौसम बहुत अधिक नहीं बदलता इसलिए एक साल की अवधि में इस हिस्से के महासागरीय पानी का रंग भी बहुत अधिक नहीं बदलता । इसलिए इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक सूक्ष्म परिवर्तन भी काफी स्पष्ट दिखते हैं।
क्या ये बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण हुए हैं, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने अपने अवलोकनों की तुलना एक ऐसे जलवायु मॉडल से की जो बताता है कि ग्रीनहाउस गैस बढ़ने पर समुद्र पारिस्थितिकी तंत्र में किस तरह के बदलाव आएंगे। तुलना में उन्होंने पाया कि मॉडल के नतीजे और उनके अवलोकन मेल खाते हैं।वास्तविक कारण पता लगाना बाकी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवतः यह समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि का सीधा प्रभाव नहीं है बल्कि कुछ और है। क्योंकि जिन जगहों पर रंग परिवर्तन हुआ है ये वे क्षेत्र नहीं हैं जहां तापमान बढ़ा है।
अनुमान है कि यह शायद समुद्र में पोषक तत्वों के वितरण से जुड़ा मामला है। जैसे-जैसे सतह का पानी गर्म होता है, समुद्र की ऊपरी परतें अधिक स्तरीकृत हो जाती हैं। इस कारण पोषक तत्वों का सतह तक पहुंचना कठिन हो जाता है। सतहों पर पोषक तत्वों की कमी के कारण बड़े पादप प्लवक की तुलना में छोटे पादप-प्लवक बेहतर फलते-फूलते हैं। इस तरह पोषक तत्वों की मात्रा में परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन ला सकता है, जो पानी के रंग में परिवर्तन में झलकता है।बहरहाल इन नतीजों से नासा के अगले उपग्रह P-CE प्लैंकटन, एरोसोल, क्लाउड, ओशिएन इकोलॉजी - से उम्मीदें बढ़ गई हैं, जो कई देर्ध्यों पर समुद्र के रंग की निगरानी करेगा ।
प्लास्टिक पैकेजिंग में बी. पी. ए. रसायन हानिकारक है।
बीपीए यानी एक ऐसा रसायन है। जिसका उपयोग प्लास्टिक को लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए किया जाता है। बिना रासायनिक परीक्षण किए इसका पता नहीं लगाया जा सकता है। यह खाने- पीने, सांस या छूने के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है। वैसे तो शरीर में प्रवेश करने के कुछ ही घंटों में बीपीए विघटित होकर शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन लंबे समय तक इसके संपर्क में रहने से यह हानिकारक हो सकता है।
बीपीए को हार्मोनल गड़बड़ियां पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। और यह स्तन और अंडाशय के कैंसर के अलावा प्रतिरक्षा, थायरॉयड और चयापचय सम्बंधी दिक्कतों के लिए भी ज़िम्मेदार है। हाल ही में कैलिफोर्निया स्थित सेंटर फॉर एनवॉयर्नमेंटल हेल्थ (सीईएच) ने सैकड़ों ब्रांड के वस्त्रों में बीपीए की हानिकारक मात्रा पाई है। कपड़ा कंपनियों ने सीईएच के अध्ययन को गलत बताया है। रासायनिक उद्योग और अन्य निर्माता हमेशा से बीपीए को गैर-हानिकारक बताते आए हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में बीपीए और हार्मोनल अवरोधकों के बारे में जागरूकता बढ़ने के बाद भी यह समस्या बनी हुई है।
बीपीए की पहचान पहली बार 1891 में हुई थी लेकिन प्लास्टिक उद्योग में इसके उपयोग के बाद से यह लोकप्रिय हुआ। 2000 के दशक तक पानी की बोतलों से लेकर डेंटल सीमेंट, खाद्य पदार्थों के लेबल और लगभग हर चीज़ में बीपीए पाया जाने लगा। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) द्वारा 2003-04 में किए गए एक सर्वेक्षण में छह साल और उससे अधिक उम्र के अमरीकियों से एकत्र किए गए 2517 मूत्र नमूनों में से 93 प्रतिशत में बीपीए का अधिक स्तर पाया गया था ।
अधिकांश बीपीए पैकेजिंग और प्लास्टिक कंटेनरों से खाद्य पदार्थों में मिलकर शरीर में प्रवेश करता है। हमारे शरीर का अधिकांश बीपीए यकृत द्वारा चयापचयित होता है और मूत्र के माध्यम से बाहर निकल जाता है। हालांकि जो बीपीए शरीर में रह जाता है वह एक हार्मोनल अवरोधक के रूप में कार्य करता है। यह हार्मोन्स और अन्य रसायनों के माध्यम से संकेत भेजने के लिए उपयोग की जाने वाली नाजुक आणविक प्रक्रियाओं को बदल देता है।
इसका सबसे अधिक जोखिम भ्रूणावस्था और किशोरावस्था के दौरान है। लेकिन दिक्कत यह है कि मनुष्यों में ऐसे अध्ययन नैतिकता के मापदंडों के चलते करना संभव नहीं है। विभिन्न एस्ट्रोजेन हार्मोन्स के साथ आणविक समानता के कारण बीपीए समस्याएं उत्पन्न करता है। 1930 के दशक में चूहों पर किए गए अध्ययन से पता चला था कि बीपीए सेक्स हार्मोन एस्ट्रोन के समान महिला प्रजनन प्रणाली को उत्तेजित कर सकता है। इसके बाद के अध्ययनों से पता चलता है कि बीपीए कोशिकाओं के एस्ट्रोजन रिसेप्टर्स से जुड़ जाता है तब - यह एस्ट्रोजेन के प्रभाव को बढ़ा भी सकता है और इस हार्मोन की क्रिया को अवरुद्ध भी कर सकता है। थायरॉइड हार्मोन के रिसेप्टर्स से जुड़ने पर भी यह ऐसा ही प्रभाव दिखाता है। इससे बीपीए इन हार्मोन्स का प्रभाव बढ़ा भी सकता है और कम भी कर सकता है। देखा गया है कि बीपीए की थोड़ी मात्रा त्वचा द्वारा भी अवशोषित होती है ।
बीपीए से नुकसान के हज़ारों अध्ययनों के बावजूद अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और सीडीसी अभी भी बीपीए का नियमन नहीं करती हैं। दूसरी ओर, यूरोप के खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण ने सितंबर 2018 में शिशुओं और 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक बोतलों और बर्तनों में बीपीए पर प्रतिबंध लगा दिया है।
स्रोत-पर्यावरण डाइजेस्ट,अगस्त 2023
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