मेरा नाम अजंता है। मैं कराय जिला मछुआरिन संघ, नागई की प्रतिनिधि के रूप में यहां आई हूं। हमारे मछुआरिन संघ में 12000 से अधिक सदस्य हैं।
पिछले 10-15 सालों में इस क्षेत्र की जलवायु में बहुत अधिक बदलाव देखे जा रहे हैं। बरसात बहुत कम हो गई है व समय पर नहीं आ रही है या गलत समय पर आ रही है जिससे बहुत नुकसान हो रहा है। तापमान बहुत तेजी से बढ़ रहा है और लू भी चलती है और शीत लहर भी। मानसून पूरी से अनियमित और नाकाम हो गया है। ठंड और गर्मी दोनों की तीव्रता बढ़ी है। वर्षा की मात्रा बहुत ही कम हो गई है। हवा की दिशा व रफ्तार भी अनिश्चित हो गई है और बढ़ गई है।
पिछले तीस साल में हवा और लहरों से नागापट्टीनम जिले का समुद्री किनारा पूरी तरह क्षतिग्रस्त व बदल गया है। इस अवधि में समुद्रतट की 200 से 1500 मीटर भूमि क्षरित हो गई है। घर पानी में डूबे हैं और नारियल के पेड़ जो तटों पर हुआ करते थे, अब समुद्र में हैं। पूमपुरकर गांव में स्थित कनागी की मूर्ति तीस साल में अपने मूल स्थान से 3 बार स्थानांतरित की जा चुकी है। इसी अवधि में, जगतनापट्टिनम में भी समुद्र का पानी अंदर तक आया है और एक समय जहां बसाहट थी, वहां आज पानी है। उसी तरह, रामनाथपुरम के धनुषकोटी क्षेत्र में लगभग 1000 मीटर जमीन समुद्र में विलुप्त हुई है। थिरूवरूर जिले में मुट्ठुपिट्टई गाँव में नदियों की चौड़ाई घट रही है जो 200 मी. से घट कर 50 मी. तक रह गई है।
तिरूनेलवली जिले में पहले समुद्री किनारों पर प्राकृतिक रूप से रेत जमा होती थी। वर्तमान में रेत जमा होने की दर में कमी आई है। एक अतिरिक्त समस्या यह है कि इस क्षेत्र की रेत में कुछ खनिजों के पाए जाने के बाद कुछ निजी संस्थाओं ने रेत का उत्खनन शुरू कर दिया है जिससे भूक्षरण का खतरा बढ़ गया है। इन तटीय प्रदेशों में 300 मीटर तक मृदा का कटाव हुआ है। कन्याकुमारी के तटीय इलाकों में थोरियम नामक यौगिक मिलने के बाद यहां सरकार भी रेत के उत्खनन में शामिल हो गई है जिसके फलस्वरूप 30 साल पहले की तुलना में तटीय किनारे 1200 मीटर तक कट गए हैं। काली और लाल मिट्टी का जमाव भी पहले की तुलना में काफी कम हो गया है।
त्रिवल्लूर जिले के तटीय क्षेत्र रेत क्षरण की समस्या से गंभीर तौर पर ग्रस्त हैं। इन्नौर से रायपुरम तक तो समुद्र से रेत गायब ही हो गई है। रेत के कटाव को रोकने के लिए यहां के समुद्री किनारों पर पत्थर डाले गए हैं लेकिन इस प्रयास के बावजूद रेत का कटाव नहीं रोका जा सका। नागापट्टीनम जिले में हमारे अन्य कामों के लिए उपलब्ध स्थान भी घट रहा है। समुद्र तट पर पहले हम मछली व जाल सुखाने तथा किश्ती रखा करते थे पर अब यह संभव नहीं हो रहा है। रेत के कटाव को रोकने के लिए पत्थरों को समुद्र में फेंके जाने के कारण मछुआरों के लिए किनारों पर अपनी नाव और जाल को रखना असंभव हो रहा है। जाल को सुखाने के लिए भी स्थान सीमित हो गया है।
जगन्नाथपट्टीनम में पहले जाल और मछलियों को सुखाने के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध था लेकिन अब यहां मछलियों को सुखाने के लिए मात्र 100 मीटर की जगह ही बची है। रामनाथपुरम में पहले खूबसूरत समुद्री किनारे हुआ करते थे, जो अब घटते जा रहे हैं। समुद्र की अप्रिय और विषम परिस्थितियों के कारण धनुषकोटी में मछुआरे अपनी जाल और नाव को समुद्र किनारे से 200 मीटर दूर रखते हैं। अरब सागर से उठने वाले मॉनसून में गड़बड़ी के कारण कन्याकुमारी के तटीय प्रदेशों के मौसम में काफी बदलाव आया है। जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में समुद्री अपरदन के तरीकों में भी अंतर है।
आज से 30 साल पहले तक नागापट्टीनम जिले के सेरूधुर में 20-20 फिट ऊँचे रेत की टीले हुआ करते थे। ये रेत के टीले समुद्री अपरदन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से हमारी रक्षा करते थे। तेज बारिश, बाढ़ और चक्रवात के समय ये टीले इन आपदाओं के प्रभाव को कम करते थे और तटीय प्रदेशों में बसने वाले लोगों को इन आपदाओं से रक्षा करते थे। ये टीले सुनामी की लहरों को छितराकर उनका असर कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। जब हवाएं उत्तर से पूर्व की ओर चलती हैं, तब अडापनकोडि और स्पिकी जिसे गुंडूमुल भी कहा जाता है, नामक पौधे इन हवाओं के साथ आने वाले रेत के कणों को रोककर रेत के टीलों के निर्माण का कारण बनते थे। इन दिनों ये पौधे बहुत कम हो गए हैं, जिसके कारण अब रेत के टीलों का निर्माण नहीं हो रहा है।
अप्रवाहित जल में मछलियों की पैदावार अधिक होती है। ऐसे स्थानों पर जहां ताजा पानी व खारा पानी मिलता है, मछलियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। कावेरी नदी की सहायक नदियाँ जिस स्थान से समुद्र में जाकर मिलती हैं, वह स्थान जाम हो गया है। जिससे नदियों के पानी का समुद्र में प्रवेश प्रभावित हुआ है। इसी प्रकार अन्य समुद्री संसाधन भी बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। तिरूवल्लूर और पुथ्थुकुट्टई जिले में अप्रवाहित जल में रेत के जमा होने के कारण कई नदियों के मुहाने बंद हो गए हैं। इन नदियों में रेत के साथ काफी मात्रा में मिट्टी और कीचड़ जमा होने के कारण इनका बहाव रुक गया है। कन्याकुमारी जिले के इराईमनथुरई नामक स्थान पर थमिराभरानी नदी समुद्र में प्रवेश करती है। पिछले कुछ वर्षों में नदी के प्रवाह में बदलाव के कारण अपरदन तो बढ़ा ही है साथ ही किनारों और उन पर बने मकानों को भी क्षति पहुँची है।
मैंग्रोव विकास के लिए दलदली भूमि उपयुक्त होती है और यहीं मछलियाँ द्वारा प्रजनन के लिए सही स्थान होता है। ये मैंग्रोव तूफान व सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय ढाल बनकर हमारी रक्षा करती हैं। ये कितनी भी ज्यादा बारिश सह लेती हैं। लेकिन इधर तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण मैंग्रोव वनों में लगातार कमी आ रही है। औद्योगिक अपशिष्ट और झींगा उद्योग ने भी इन्हें प्रभावित किया है और कुल मिल कर मत्स्य उत्पादन प्रभावित हो रहा है।
नाम अजंता
उम्र 38 वर्ष
व्यवसाय मछली पकड़ना
पता ग्राम नागई, जिला नागापट्टनम, तमिलनाडु
जलवायु परिवर्तन
पिछले 10-15 सालों में इस क्षेत्र की जलवायु में बहुत अधिक बदलाव देखे जा रहे हैं। बरसात बहुत कम हो गई है व समय पर नहीं आ रही है या गलत समय पर आ रही है जिससे बहुत नुकसान हो रहा है। तापमान बहुत तेजी से बढ़ रहा है और लू भी चलती है और शीत लहर भी। मानसून पूरी से अनियमित और नाकाम हो गया है। ठंड और गर्मी दोनों की तीव्रता बढ़ी है। वर्षा की मात्रा बहुत ही कम हो गई है। हवा की दिशा व रफ्तार भी अनिश्चित हो गई है और बढ़ गई है।
जलवायु परिवर्तन का जीवन पर प्रभाव
पिछले तीस साल में हवा और लहरों से नागापट्टीनम जिले का समुद्री किनारा पूरी तरह क्षतिग्रस्त व बदल गया है। इस अवधि में समुद्रतट की 200 से 1500 मीटर भूमि क्षरित हो गई है। घर पानी में डूबे हैं और नारियल के पेड़ जो तटों पर हुआ करते थे, अब समुद्र में हैं। पूमपुरकर गांव में स्थित कनागी की मूर्ति तीस साल में अपने मूल स्थान से 3 बार स्थानांतरित की जा चुकी है। इसी अवधि में, जगतनापट्टिनम में भी समुद्र का पानी अंदर तक आया है और एक समय जहां बसाहट थी, वहां आज पानी है। उसी तरह, रामनाथपुरम के धनुषकोटी क्षेत्र में लगभग 1000 मीटर जमीन समुद्र में विलुप्त हुई है। थिरूवरूर जिले में मुट्ठुपिट्टई गाँव में नदियों की चौड़ाई घट रही है जो 200 मी. से घट कर 50 मी. तक रह गई है।
तिरूनेलवली जिले में पहले समुद्री किनारों पर प्राकृतिक रूप से रेत जमा होती थी। वर्तमान में रेत जमा होने की दर में कमी आई है। एक अतिरिक्त समस्या यह है कि इस क्षेत्र की रेत में कुछ खनिजों के पाए जाने के बाद कुछ निजी संस्थाओं ने रेत का उत्खनन शुरू कर दिया है जिससे भूक्षरण का खतरा बढ़ गया है। इन तटीय प्रदेशों में 300 मीटर तक मृदा का कटाव हुआ है। कन्याकुमारी के तटीय इलाकों में थोरियम नामक यौगिक मिलने के बाद यहां सरकार भी रेत के उत्खनन में शामिल हो गई है जिसके फलस्वरूप 30 साल पहले की तुलना में तटीय किनारे 1200 मीटर तक कट गए हैं। काली और लाल मिट्टी का जमाव भी पहले की तुलना में काफी कम हो गया है।
त्रिवल्लूर जिले के तटीय क्षेत्र रेत क्षरण की समस्या से गंभीर तौर पर ग्रस्त हैं। इन्नौर से रायपुरम तक तो समुद्र से रेत गायब ही हो गई है। रेत के कटाव को रोकने के लिए यहां के समुद्री किनारों पर पत्थर डाले गए हैं लेकिन इस प्रयास के बावजूद रेत का कटाव नहीं रोका जा सका। नागापट्टीनम जिले में हमारे अन्य कामों के लिए उपलब्ध स्थान भी घट रहा है। समुद्र तट पर पहले हम मछली व जाल सुखाने तथा किश्ती रखा करते थे पर अब यह संभव नहीं हो रहा है। रेत के कटाव को रोकने के लिए पत्थरों को समुद्र में फेंके जाने के कारण मछुआरों के लिए किनारों पर अपनी नाव और जाल को रखना असंभव हो रहा है। जाल को सुखाने के लिए भी स्थान सीमित हो गया है।
जगन्नाथपट्टीनम में पहले जाल और मछलियों को सुखाने के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध था लेकिन अब यहां मछलियों को सुखाने के लिए मात्र 100 मीटर की जगह ही बची है। रामनाथपुरम में पहले खूबसूरत समुद्री किनारे हुआ करते थे, जो अब घटते जा रहे हैं। समुद्र की अप्रिय और विषम परिस्थितियों के कारण धनुषकोटी में मछुआरे अपनी जाल और नाव को समुद्र किनारे से 200 मीटर दूर रखते हैं। अरब सागर से उठने वाले मॉनसून में गड़बड़ी के कारण कन्याकुमारी के तटीय प्रदेशों के मौसम में काफी बदलाव आया है। जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में समुद्री अपरदन के तरीकों में भी अंतर है।
तटीय भूमि और पारिस्थितिकी पर प्रभाव
आज से 30 साल पहले तक नागापट्टीनम जिले के सेरूधुर में 20-20 फिट ऊँचे रेत की टीले हुआ करते थे। ये रेत के टीले समुद्री अपरदन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से हमारी रक्षा करते थे। तेज बारिश, बाढ़ और चक्रवात के समय ये टीले इन आपदाओं के प्रभाव को कम करते थे और तटीय प्रदेशों में बसने वाले लोगों को इन आपदाओं से रक्षा करते थे। ये टीले सुनामी की लहरों को छितराकर उनका असर कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। जब हवाएं उत्तर से पूर्व की ओर चलती हैं, तब अडापनकोडि और स्पिकी जिसे गुंडूमुल भी कहा जाता है, नामक पौधे इन हवाओं के साथ आने वाले रेत के कणों को रोककर रेत के टीलों के निर्माण का कारण बनते थे। इन दिनों ये पौधे बहुत कम हो गए हैं, जिसके कारण अब रेत के टीलों का निर्माण नहीं हो रहा है।
अप्रवाहित जल में मछलियों की पैदावार अधिक होती है। ऐसे स्थानों पर जहां ताजा पानी व खारा पानी मिलता है, मछलियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। कावेरी नदी की सहायक नदियाँ जिस स्थान से समुद्र में जाकर मिलती हैं, वह स्थान जाम हो गया है। जिससे नदियों के पानी का समुद्र में प्रवेश प्रभावित हुआ है। इसी प्रकार अन्य समुद्री संसाधन भी बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। तिरूवल्लूर और पुथ्थुकुट्टई जिले में अप्रवाहित जल में रेत के जमा होने के कारण कई नदियों के मुहाने बंद हो गए हैं। इन नदियों में रेत के साथ काफी मात्रा में मिट्टी और कीचड़ जमा होने के कारण इनका बहाव रुक गया है। कन्याकुमारी जिले के इराईमनथुरई नामक स्थान पर थमिराभरानी नदी समुद्र में प्रवेश करती है। पिछले कुछ वर्षों में नदी के प्रवाह में बदलाव के कारण अपरदन तो बढ़ा ही है साथ ही किनारों और उन पर बने मकानों को भी क्षति पहुँची है।
समुद्र तल पर प्रभाव
मैंग्रोव विकास के लिए दलदली भूमि उपयुक्त होती है और यहीं मछलियाँ द्वारा प्रजनन के लिए सही स्थान होता है। ये मैंग्रोव तूफान व सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय ढाल बनकर हमारी रक्षा करती हैं। ये कितनी भी ज्यादा बारिश सह लेती हैं। लेकिन इधर तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण मैंग्रोव वनों में लगातार कमी आ रही है। औद्योगिक अपशिष्ट और झींगा उद्योग ने भी इन्हें प्रभावित किया है और कुल मिल कर मत्स्य उत्पादन प्रभावित हो रहा है।
नाम अजंता
उम्र 38 वर्ष
व्यवसाय मछली पकड़ना
पता ग्राम नागई, जिला नागापट्टनम, तमिलनाडु
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