जलवायु संकट और कृषि

जलवायु संकट को लेकर विकसित देशों की नीयत कभी भी साफ नहीं रही। कभी कृषिगत उत्सर्जन के शमन और अनुकूलन की आड़ में उनकी ओर से कृषि उत्पाद बेचने की कोशिश की गई तो कभी विकासशील और गरीब देशों को आपस में लड़ाने की। डरबन से क्या कुछ हासिल होता है यह कुछ दिनों में साफ हो जाएगा। बहरहाल, डरबन से कोई उम्मीद नहीं है, यह कहने के बजाय, डरबन से उम्मीद के अलावा कुछ भी नहीं, यह स्वर बुलंद करना ज्यादा उचित होगा।

एक बार फिर दुनिया जलवायु संकट से उबरने के प्रयासों पर माथापच्ची कर रही है। दक्षिण अफ्रीका के डरबन में हो रहे इस पर्यावरण शिखर सम्मेलन में एक सौ बानवे देशों के प्रतिनिधि शिरकत कर रहे हैं। अगले साल क्योटो करार की अवधि पूरी हो रही है, लिहाजा बैठक का महत्व और भी बढ़ जाता है। बावजूद इसके, डरबन सम्मेलन को लेकर दुनिया भर में कोई खास उत्साह नजर नहीं आ रहा। चाहे विकसित देश हों या विकासशील, दोनों में से कोई भी खेमा अपने रुख से रत्ती भर झुकने को तैयार नहीं है। अमेरिका चीन और भारत जैसे देशों पर भी कॉर्बन उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी समान रूप से लागू करने की वकालत कर रहा है। इसी तर्क पर उसने क्योटो संधि का बहिष्कार कर दिया था। जबकि चीन, भारत और ब्राजील जैसे विकासशील दुनिया के बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश यह कहते रहे हैं कि उनकी जिम्मेदारी अधिक तय की जाए जो वर्तमान के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से भी बड़े कॉर्बन उत्सर्जक रहे हैं। इसी खींचतान में यूरोपीय संघ के उत्सर्जन घटाने के बाध्यकारी प्रस्ताव पर कोई सहमति अभी तक नहीं बन पाई है। हालांकि अभी यह कहना अनुचित होगा कि डरबन सम्मेलन से किसी प्रकार की उम्मीद नहीं की जा सकती। खासकर वे लोग जो जलवायु संकट को लेकर अधिक चिंतित हैं, चाहेंगे कि विकसित देश परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए ठोस पहल करें। इनकी मांग वाजिब है।

पिछले साल की बात करें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। बीते साल में दुनिया में नब्बे प्रतिशत विस्थापन केवल जलवायु परिवर्तन की वजह से हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन का अध्ययन करने वाली संस्था आईडीएमसी के मुताबिक 2010 में बाढ़ और सूखे की वजह से लाखों महिलाओं और बच्चों को पलायन के लिए विवश होना पड़ा। आईडीएमसी की मानें तो अगले तीस सालों में सोलह देशों के बुरी तरह जलवायु संकट की चपेट में आने की आशंका है। इनमें से दस देश केवल एशिया के हैं। प्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन का नतीजा भुगत रहे लोगों के अलावा आबादी के एक बड़े हिस्से को इसके अप्रत्यक्ष या अदृश्य प्रभाव से दो-चार होना पड़ रहा है। किसानों, मजदूरों, चरवाहों और मछुआरों के लिए जीवनयापन करना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। दरअसल, जलवायु बदलाव केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं है, यह जीने के बुनियादी साधनों को बचाने की लड़ाई है। इसलिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। आने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न होती दिख रही है, जिसका सबसे ज्यादा असर विकासशील देशों पर पड़ने वाला है। एक आकलन के मुताबिक जलवायु बदलाव से हो रहे नुकसान का पचहत्तर से अस्सी प्रतिशत मूल्य विकासशील देशों को चुकाना पड़ेगा। इस समस्या से निपटने के लिए विकासशील देशों को प्रतिवर्ष पचहत्तर से अस्सी अरब डॉलर राशि की दरकार होगी। तभी दीर्घकालिक विकास और सहस्राब्दी विकास जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य प्राप्त करना संभव हो सकेगा।

दूसरी तरफ जलवायु संकट पर कोई भी सार्थक बातचीत कृषि की उपेक्षा करके नहीं की जा सकती। दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा (करीब 1.7 अरब लोग) आज भी कृषि पर निर्भर हैं। विकासशील और गरीब देशों में उनका अनुपात ज्यादा है, जहां आज भी खेती-बाड़ी प्रकृति पर निर्भर करती है। यहां जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा दिखाई दे रहा है। अनियमित मौसमी उतार-चढ़ाव का रुझान बढ़ता जा रहा है और इसकी वजह से या तो समय से बुआई-सिंचाई-कटाई नहीं हो पाती या कई बार तैयार फसल बर्बाद हो जाती है। नतीजतन, खाद्य सुरक्षा का सवाल एक नए रूप में यानी पर्यावरण से जुड़े मुद्दे के रूप में सामने आ रहा हैं। खाद्य पदार्थों की मांग और आपूर्ति की वर्तमान दशा को देख कर आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भोजन का सवाल दिन पर दिन और विकट होता जा रहा है। इस कड़ी में दक्षिण एशिया और अफ्रीका की स्थिति कुछ ज्यादा ही चिंताजनक है। मानव विकास सूचकांक की हालिया रिपोर्ट से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। हालांकि जलवायु बदलाव का असर अन्य विकासशील देशों और छोटे-छोटे द्वीपों पर भी पड़ रहा है। वैश्विक तापमान में मामूली वृद्धि भी कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न कर सकती है। मसलन, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फसलों की उत्पादकता पर नकारात्मक असर पड़ेगा और ऐसी स्थिति में सबके लिए खाद्य की उपलब्धता अनिश्चित हो जाएगी। जलवायु संकट जनित रोगों के खतरे भी बढ़ेंगे। बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ छोटे-छोटे द्वीपों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ जाएगा।

एक अहम मुद्दा कृषि में निवेश का भी है। आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कुल बजट का चार प्रतिशत से भी कम कृषि पर खर्च किया जाता है। जबकि विकासशील देशों के सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान उनतीस प्रतिशत है। रोजगार के संदर्भ में बात करें तो वैश्विक स्तर पर बीस प्रतिशत लोगों की आजीविका इस पर आश्रित है, जबकि विकासशील देशों की पैंसठ प्रतिशत आबादी इस पर निर्भर है। जाहिर है, जलवायु संकट से न केवल बड़े पैमाने पर लोगों की आजीविका प्रभावित होगी बल्कि खाद्यान्न उत्पादन और इसकी उपलब्धता पर भी असर पड़ेगा। यों भी बढ़ती आबादी और मध्यवर्ग की बढ़ती आर्थिक हैसियत ने जमीन पर दबाव काफी बढ़ा दिया है। पर्यावरण संकट गहराने से कृषि भूमि पर दबाव और बढ़ता जाएगा। दक्षिण एशिया वर्तमान में खाद्य पदार्थों का निर्यात करता है, मगर एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक वह खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भर हो जाएगा। ये आंकड़े सामान्य स्थिति के संदर्भ में हैं। जलवायु संकट के हल के लिए कारगर प्रयास नहीं किए गए और वह गहराता गया तो हालात और भी बुरे हो सकते हैं। यही बात कमोबेश अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र पर भी लागू होती है। अलबत्ता लातिन अमेरिकी देशों और कैरेबियाई देशों की स्थिति अपेक्षया अच्छी रहेगी और वे खाद्यान्न निर्यातक देशों की श्रेणी में आ जाएंगे।

कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर के संदर्भ में ग्रीनहाउस गैसों की चर्चा भी बराबर होती रही है। माना जाता है कि ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में बारह प्रतिशत योगदान कृषि और संबंधित क्षेत्र का है, जो आने वाले समय में भूमि के बदलते उपयोग और जंगलों की कटाई की वजह से तीस प्रतिशत तक पहुंच सकता है। विकसित देशों का कहना है कि इस उत्सर्जन में पचहत्तर प्रतिशत से भी ज्यादा विकासशील देशों का है। उनका यह भी मानना है कि विकासशील देश ‘सॉयल कॉर्बन सीक्वेसट्रेशन’ (जमीन को परती छोड़ कर) के माध्यम से उत्सर्जन कम कर सकते हैं। अब सवाल उठता है कि विकासशील देश, जो पहले से ही जलवायु बदलाव की मार झेल रहे हैं, उन पर इस प्रकार का समाधान थोपना कहां तक उचित है? अलबत्ता ऐसा करना विकसित देशों के लिए उचित हो सकता है, क्योंकि उनकी आबादी के महज एक प्रतिशत लोग सीधे कृषि पर निर्भर हैं। भारत या अन्य किसी भी विकासशील देश में ऐसा करना कतई संभव नहीं है, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका के लिए कृषि पर आश्रित है लेकिन विकसित देश इस तरह की नीतियां थोपने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में विकासशील देशों का योगदान अधिक है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी दर्शाता है कि विकसित देश अपने कृषिगत उत्सर्जन को कम करने में कितने अक्षम हैं। अगर तथ्य की बात करें तो विकसित देश खाद्य उत्पादन में विकासशील देशों के मुकाबले तीन गुना अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं।

विकासशील देशों में कृषिगत उत्सर्जन की बड़ी वजह विकसित देशों की तुलना में जोत का रकबा अधिक होना है। साथ ही यहां छोटे और सीमांत किसानों की संख्या ज्यादा है जो खेती के लिए मवेशी का इस्तेमाल करते हैं। मवेशी से इनकी कई अन्य जरूरतें भी पूरी होती हैं। जाहिर है, कॉर्बन उत्सर्जन अधिक होगा। दूसरी तरफ विकसित देशों की कृषि पूरी तरह से मशीनीकृत है और संपूर्ण रूप से आर्थिक गतिविधि के अंतर्गत आती है। यह दिलचस्प है कि कृषि-कार्य जनित कॉर्बन उत्सर्जन कम करने की पैरवी करने वाले अधिकतर लोग वे हैं जो खेती में उपयोग किए जाने वाले रसायनों, बीजों और कीटनाशकों का निर्माण व्यापारिक नजरिए से करते हैं, जिनसे सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। पहले इस पर बात होनी चाहिए। साथ ही सामूहिक उत्तरदायित्व और विकास के नए मानक गढ़ने की जरूरत है। इसके बिना उत्सर्जन में कमी की कोई व्यापक और दीर्घकालीन योजना नहीं बनाई जा सकती। जलवायु परिवर्तन संबंधी समझौते में जो कुछ सार्थक बातें होती हैं उन पर भी अमल होता नहीं दिखता। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संबंधी इकाई यूएनएफसीसीसी के घोषणापत्र (चार्टर) में कई महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। घोषणापत्र की धारा-दो में इस बात की पूरी ताकीद की गई है कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन समयबद्ध तरीके कम किया जाए, ताकि खतरे का अंदेशा बिल्कुल न रहे। मानव मात्र पर पड़ने वाले अन्य खतरों के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा का भी जिक्र इसमें है।

घोषणापत्र की धारा-चार में विकसित देशों के लिए यह अनिवार्य माना गया है कि वे अपने लिए पर्यावरण की ऐसी राष्ट्रीय नीति बनाएंगे जो उत्सर्जन कम करने में सहायक हो। लेकिन दुर्भाग्य से, जिम्मेदारी सुनिश्चित करने के कदम उठाने और कठोर निर्णय लेने के बजाय यूएनएफसीसीसी सतही और तात्कालिक उपायों पर ही ध्यान देता रहा है, जिससे इस सक्षम और प्रतिष्ठित संस्था की गरिमा कम होती है। सच पूछें तो जलवायु संकट को लेकर विकसित देशों की नीयत कभी भी साफ नहीं रही। कभी कृषिगत उत्सर्जन के शमन और अनुकूलन की आड़ में उनकी ओर से कृषि उत्पाद बेचने की कोशिश की गई तो कभी विकासशील और गरीब देशों को आपस में लड़ाने की। डरबन से क्या कुछ हासिल होता है यह कुछ दिनों में साफ हो जाएगा। बहरहाल, डरबन से कोई उम्मीद नहीं है, यह कहने के बजाय, डरबन से उम्मीद के अलावा कुछ भी नहीं, यह स्वर बुलंद करना ज्यादा उचित होगा।

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