जलवायु परिवर्तन से भोजन संकट का खतरा

food crisis
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प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है कि मौसम में क्रूर बदलाव ब्रह्मांड की कोख में अंगड़ाई ले रहा है। अनियंत्रित उद्योगीकरण और उपभोग आधारित इसी जीवनशैली के लिए कार्बन उत्सर्जन का यही क्रम जारी रहा तो रिपोर्ट के मुताबिक अगली एक शताब्दी में दुनिया का तापमान 0.3 से 4.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यह बदलाव खाद्य संकट तो बढ़ाएगा ही, पर्यावरण शरणार्थी जैसी नई समस्या भी पैदा करेगा। जलवायु परिवर्तन, मसलन वैश्विक तापमान के बढ़ते खतरे ने आम आदमी के दरवाजे पर दस्तक दे ही है। दुनिया में कही भी यकायक बारिश, बाढ़, बर्फबारी फिर भी सूखे का कहर, यही संकेत दे रहे हैं। आंधी, तूफान और अचानक ज्वालामुखियों के फटने से यही संकेत मिल रहा है कि अदृश्य खतरे मंडरा रहे हैं। मौसम बिगड़ने की ये चेतावनियां संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी उस अंतर सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति ने दी है, जिसमें दुनिया के 309 वैज्ञानिकों की भागीदारी रही है।

बढ़ता तापमान और पिघलते हिमखंड लोगों की खाद्य सुरक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य और आवास जैसे जीवन के लिए जरूरी सुविधाओं को संकट में डालने जा रहे हैं। भूख, महामारी और विस्थापन का संकट आसन्न है। इसके बावजूद कार्बन उत्सर्जन कम करने का प्रयास नहीं दिख रहा है। दरअसल, कार्बन की बढ़ती मात्रा ही त्रासदियों की जनक है।

दुनिया के पर्यावरणविद और मौसम विज्ञानी कार्बन उत्सर्जन के प्रति अरसे से अगाह कर रहे हैं। परंतु औद्योगिक-प्रौद्योगिक उपक्रमों के जरिए आर्थिक वृद्धि को ही सर्वोच्च लक्ष्य के पैरोकारों को दलील रही है कि इस तरह की चिंताए अतिरंजित हैं। अब इस ताजा रिपोर्ट को शंका की दृष्टि से देखना बड़ी भूल होगी। क्लाइमेट चेंज 2014 : इंम्पैक्ट, एडाप्टेशन और व्यूलनरेबिलिटी शीर्षक से जारी ढाई हजार पृष्ठीय इस रिपोर्ट को दुनिया भर के 309 लेखकों, 70 देशों के पर्यावरण विशेषज्ञों और 1729 जलवायु विशेषज्ञों व मौसम विज्ञानियों ने गंभीर और व्यापक क्षेत्र में अध्ययन के बाद तैयार किया है। रिपोर्ट के सह प्रमुख क्रिस फील्ड ने कहा है, ‘जलवायु परिवर्तन व्यापक रूप ले चुका है। यह भविष्य का संकट नहीं रह गया है बल्कि इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं।’

इक्कसवीं सदी की शुरुआत में ही आए प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है कि मौसम में क्रूर बदलाव ब्रह्मांड की कोख में अंगड़ाई ले रहा है। अनियंत्रित उद्योगीकरण और उपभोग आधारित इसी जीवनशैली के लिए कार्बन उत्सर्जन का यही क्रम जारी रहा तो रिपोर्ट के मुताबिक अगली एक शताब्दी में दुनिया का तापमान 0.3 से 4.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यह बदलाव खाद्य संकट तो बढ़ाएगा ही, पर्यावरण शरणार्थी जैसी नई समस्या भी पैदा करेगा। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों, मसलन ओजोन और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ती रही तो इसका सबसे ज्यादा असर गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन की फसलों पर पड़ेगा।

इसके अलावा गंगा और यमुना के कछारों व समुद्र तटीय क्षेत्रों में मछली पालन व्यवसाय भी प्रभावित होगा। इस रिपोर्ट के अनुसार गेहूं और चावल की फसल 10 फीसदी और मक्का व सोयाबीन की फसलें 3 से 5 प्रतिशत प्रभावित होंगी। माना तो यह भी जा रहा है कि पिछले कुछ सालों में जो प्राकृतिक आपदाएं घटित हुई हैं और धरती का जिस तेजी से तापमान बढ़ा है, उससे प्रभावित देशों व क्षेत्रों में 25 फीसदी तक नुकसान हो चुका है। 2050 तक इस हानि के बेतहाशा बढ़ने की आशंका है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि दुनियाभर में 2050 तक 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ेगा।

जलवायु बदलाव के चलते मालद्वीप और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों को समुद्र लील लेगा। इसी आसन्न खतरे से अवगत कराने के लिए ही मालद्वीप ने कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए समुद्र की तलहटी में एक परिचर्चा आयोजित की थी। समुद्र के भीतर यह आयोजन इस बात का संकेत था कि दुनिया नहीं चेती तो मालद्वीप जैसे अनेक छोटे द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

इस व्यापक बदलाव के असर का अनुमान अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने भी लगाया है। इसके मुताबिक एशिया में एक करोड़ 10 लाख अफ्रीका में एक करोड़ और बाकी दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना पड़ेगा। विश्व प्रसिद्ध भारतीय कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन का मानना है कि यदि धरती के तापमान में महज एक डिग्री सेल्सियस की ही वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का वार्षिक उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। इस कमी की सबसे ज्यादा त्रासदी दुनिया की आधी आबादी मसलन औरतों को झेलनी होगी। भूख का संकट गहराता है तो इसकी चपेट में 60 फीसदी महिलाएं ही होंगी क्योंकि उन्हें स्वयं की क्षुधापूर्ति से कहीं ज्यादा बच्चों की भूख मिटाने की चिंता रहती है।

बढ़ते तापमान से हिमखंडों के जो पिघलने की शुरुआत होगी, उसका खतरनाक मंजर बांग्लादेश में देखने को मिलेगा। यहां तबाही का तांडव इसलिए जबरदस्त होगा कि बांग्लादेश तीन नदियों के डेल्टा पर आबाद है। यहां के ज्यादातर भूखंड समुद्र तल से महज 20 फुट की ऊंचाई पर स्थित हैं। इसलिए बर्फ की शिलाओं के पिघलने से समुद्र का जलस्तर ऊपर उठेगा तो सबसे ज्यादा जलमग्न भूमि इसी देश की होगी। इसलिए मानव त्रासदी भी इस देश को ही ज्यादा झेलनी होगी। बांग्लादेश सरकार भविष्य के इस संभावित संकट से रूबरू है। इसलिए यहां के प्रतिनिधि सुबेर हुसैन चौधरी ने अंतरराष्ट्रीय मंच कोपेनहेगन सम्मेलन में इस मुद्दे को उठाया भी था।

बांग्लादेश पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ जेम्स पेंडर का मानना है कि 2080 तक इस देश के समुद्र तटीय इलाकों में रहने वाले पांच से 10 करोड़ लोगों को अपना मूल क्षेत्र छोड़ना होगा। वैसे भी देश के तटीय इलाकों से ढाका आने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जलवायु परिवर्तन के संकट के दायरे में पेयजल भी आएगा। वैसे भी दुनिया में पानी की कमी से हर दस में चार लोग पहले से ही जूझ रहे हैं। समस्या विकट है और वैश्विक तापमान पर नियंत्रण के कोई कारगर उपाय सामने नहीं आ पा रहे हैं। इस सिलसिले में 1997 में जापान के क्योटो में पहली बैठक हुई थी। अमेरिका इसमें शामिल नहीं हुआ, जिसका कार्बन उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति सबसे ज्यादा योगदान है। कोपेनहेगन में भी पृथ्वी को बचाने के लिए बारह दिनी बड़ा सम्मेलन दिसंबर 2009 में हुआ था।

कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर विकसित और विकासशील देश अंत तक अपने-अपने पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए। जापान, कनाडा, न्यूजीलैंड और नीदरलैंड जैसे औद्योगिक देशों का प्रबल आग्रह था कि कार्बन कटौती की दृष्टि से सभी देशों के लिए एक ही बाध्यकारी आचार संहिता लागू हो जो क्योटो संधि के प्रारूप के अनुकूल हो। लेकिन विकासशील देशों ने इन शर्तों को सिरे से खारिज कर दिया था। सवाल है कि जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित वैश्विक पंचायत में हुई संधि के कोई बाध्यकारी हल पेश नहीं आए तो आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन संबंधी चेतावनियों की परवाह कौन करने वाला है।

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