1890 के दशक में न्यूयॉर्क शहर दलदल बन गया था - तूफान से नहीं, घोड़े की बदबू भरी लीद से। - यूएसए टुडे, 30 दिसंबर 2013
घोड़े उस समय यातायात का प्राथमिक साधन थे। जल्दी ही तकनीक ने हजारों टन लीद से अटी सड़कों का उपचार तलाश लिया। वाहन आए, उन्होंने घोड़ों की जगह ली और सड़कें साफ हो गई। करीब एक शताब्दी बाद वाहनों से लगातार बढ़ते धुएँ ने प्रदूषण बढ़ाना आरम्भ कर दिया और 1990 के दशक में यह धुआँ जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चिन्ता का कारण बन गया। ग्लोबल वार्मिंग के संकट, बढ़ते समुद्री स्तर, मौसम की अतिकारी घटनाओं, पानी की कमी ने मानवता को हिला दिया है। आपदा का समाधान निकालने के लिये वाहनों से उद्योगों तक नई प्रौद्योगिकी के लिये उपयुक्त समय है।
कार्बन डाइऑक्साइड समेत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा है और उन्हें दुनिया भर में बढ़ती मानवीय एवं विकास गतिविधियों का भौतिक प्रकटीकरण माना जाता है। दुनियाभर में कोयला ही भविष्य का ईंधन बना हुआ है (दि इकनॉमिस्ट, 19 अप्रैल, 2014) और ऊर्जा उद्योग को उसकी बहुत आवश्यकता है। चित्र 1 में 2005 में ग्रीन हाउस गैसों का क्षेत्रवार वैश्विक उत्सर्जन दिखाया गया है। ऊर्जा आपूर्ति का उसमें सर्वाधिक 28 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके बाद कृषि, यातायात एवं उद्योग क्षेत्र आते हैं।
विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या भारत में रहती है। कोयले का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक एवं ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जक होते हुए भी उसका कुल उत्सर्जन वैश्विक उत्सर्जन का 5 प्रतिशत ही है। विभिन्न क्षेत्रों से भारत का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन चित्र 2 में दिखाया गया है। ऊर्जा आपूर्ति की इसमें 37 प्रतिशत हिस्सेदारी है और कृषि, परिवहन, इमारतें तथा उद्योग अन्य बड़े हिस्सेदार हैं।
जलवायु परिवर्तन में कमी
जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय संधियां एवं समझौते - जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र प्रारूप संधि तथा क्योटो समझौता - विश्व के सभी देशों के लिये बाध्यकारी है ताकि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइअड की सांद्रता अर्थात उसके गाढ़ेपन में ठहराव लाने की दिशा में कार्य करने हेतु ग्रीन हाउस गैस भण्डार तैयार किया जा सके। भारत समेत कोयले का अधिक प्रयोग करने वाले देशों के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी के संकल्प/लक्ष्य तालिका 1 में दिखाए गए हैं।
कोयले के अधिक प्रयोग वाली उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत को जलवायु परिवर्तन के अपने ही समाधान ढूँढने हैं। उसे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से निपटने के लिये हरित प्रौद्योगिकी के संदर्भ में विश्वसनीय प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। क्योटो समझौते पर हस्ताक्षर करते समय उत्सर्जन में कमी का कोई संकल्प नहीं करना था। किन्तु कोपेनहेगन शिखर बैठक में भारत ने 2020 तक जीडीपी तीव्रता में 2005 के स्तर की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत की कमी का प्रस्ताव स्वेच्छा से रख दिया। क्योटो के उपरान्त के समय में संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने सभी देशों से उनके वांछित राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (आईएनडीसी) देने के लिये कहा। दिसंबर 2015 में पेरिस शिखर बैठक में इन्हें अंतिम रूप दिया जाएगा। भारत ने अपने आईएनडीसी में ये लक्ष्य बताए हैं-
(क) 2030 तक जीडीपी तीव्रता में 2005 के स्तर से 33-35 प्रतिशत कमी लाना।
(ख) 40 प्रतिशत बिजली उत्पादन क्षमता गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित होना।
(ग) 2030 तक 2.5-3 अरब कार्बन डाइऑक्साइड के लिये कार्बन सिंक तैयार करना।
हमने 31 जुलाई 2015 को 2,72,432 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता प्राप्त कर ली है। इसमें लगभग 1,65,000 मेगावाट कोयले से 23,000 मेगावाट गैस से और 993 मेगावाट डीजल से बनती है। हमारे पास कुल 1,89,313 मेगावाट ताप बिजली क्षमता है। अक्षय अर्थात नवीकृत स्रोतों से 35,776 मेगावाट तथा पानी से 41,632 मेगावाट बिजली बनाने की और 5,717 परमाणु बिजली की उत्पादन क्षमता है। जब हम ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों की अच्छाई और बुराई का विश्लेषण करते हैं तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ऊर्जा की सतत आपूर्ति ऊर्जा के सभी स्रोतों को तलाशकर प्राप्त करनी होगी।
इस भविष्योन्मुखी नीति में सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि प्रौद्योगिकी नए अनुसंधान एवं संसाधनों के यथासंभव उपयोग के द्वारा रास्ते तलाशने होंगे। भारत में आईएनडीसी के तीन उद्देश्यों के वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हैं।
ऊर्जा दक्षता में सुधार
राष्ट्रीय जीलवायु परिवर्तन कार्य योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय अतिरिक्त ऊर्जा दक्षता अभियान (एनएमईईई) का लक्ष्य सभी क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता में सुधार करना है। प्रदर्शन, प्राप्ति एवं व्यापार (पीएटी) प्रणाली का पहला चरण 2015 में पूरा हो गया और उसमें ऊर्जा की सर्वाधिक मांग वाले नौ निर्धारित क्षेत्र एल्युमीनियम, सीमेंट, क्लोर-अल्कली, उर्वरक, लुग्दी एवं कागज, बिजली, लौह एवं इस्पात, स्पंज आयरन तथा कपड़ा हैं। जीवाश्म ईंधन से चलने वाले बिजली संयन्त्रों में ऊर्जा की दक्षता वाली प्रौद्योगिकियों जैसे सुपर क्रिटिकल एवं अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल बॉयलर को बढ़ावा दिया गया है। इससे प्रति यूनिट बिजली उत्पादन में ईंधन की माँग और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम होता है। पीएटी के दूसरे चरण में तीन और क्षेत्रों - बिजली वितरण, रेलवे एवं तेल रिफाइनरी को शामिल किया जा रहा है। निजी क्षेत्र की प्रतिभागिता से प्रोत्साहन प्राप्त कर बड़ी संख्या में प्रोद्योगिकियाँ क्रियान्वित की जा सकती हैं, जिनमें कई पहले से मौजूद हैं और उन्हें कई क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है।
दक्ष प्रौद्योगिकियों को लागू करने की दिशा में प्रयास मांग वाले अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ाने होंगे। परिवहन क्षेत्र में ईंधन की किफायत के मामले में नए मानक लागू कर दिए गए हैं और 2021-22 तक ईंधन की खपत में 15 प्रतिशत कमी का लक्ष्य रखा गया है। 2017 तक वाहन ईंधन में 20 प्रतिशत एथेनॉल एवं बायोडीजल के मिश्रण का लक्ष्य है। वैकल्पिक ईंधनों की तलाश एवं बिजली से चलने वाले वाहनों को वाणिज्यिक रूप से व्यावहारिक बनाने समेत वर्तमान प्रौद्योगिकियों का उन्नयन जलवायु परिवर्तन के समाधान की दिशा में मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।
इमारतों तथा निर्माण के क्षेत्र में हमारे पास राष्ट्रीय सतत पर्यावास अभियान है, जो हरित भवनों एवं स्मार्ट शहरों के लिये प्रौद्योगिकियों की मांग करता है। ऊर्जा की दक्षता वाले परिवहन एवं ऊर्जा नेटवर्क, जल संरक्षण एवं कचरा प्रबंधन वाली 100 ‘स्मार्ट सिटी’ तैयार करने का भारत का लक्ष्य शहरी योजनाकारों के सामने कई चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। कार्बन के मामले में उदासीन शहर बनाने के लिये नई प्रौद्योगिकियों को अंगीकार करना अपरिहार्य है। ऊर्जा दक्षता वाले घरेलू उपकरण एवं कार्यालयों में ठंडा तथा गर्म करने की बेहतर प्रणालियों का प्रयोग, लाइट एमिटिंग डायोड (एलईडी) बल्बों का प्रयोग, जैव-जलवायु वास्तु निर्माण सम्बन्धी डिजाइनें एवं पर्यावरण के अनुकूल निर्माण समाग्री का प्रयोग अन्य विकल्प हैं, जिन्हें जीडीपी तीव्रता में 33-35 प्रतिशत कमी लाने के लिये उपयोग में लाया जा सकता है।
जीवाश्मीय ईंधन ऊर्जा प्रौद्योगिकी
अजीवाश्मीय ईंधन प्रौद्योगिकियों से कामकाज के दौरान ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता है और यदि उन्हें बड़े स्तर पर प्रयोग किया जा सके एवं किफायती बनाया जा सके तो वे जलवायु परिवर्तन की व्यावहारिक समाधान बन सकती हैं। एकीकृत ऊर्जा नीति 2006 में 2031-32 तक 800 गीगावाट बिजली की स्थापित क्षमता का लक्ष्य रखा गया है। इसमें से 40 प्रतिशत अर्थात 320 गीगावाट बिजली अजीवाश्मीय ईंधन से बनेगी।
वर्तमान में अक्षय ऊर्जा, जल विद्युत और परमाणु ऊर्जा कुल 83 गीगावाट है। भारत में बनने वाली कुल बिजली में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी अभी 13 प्रतिशत ही है। राष्ट्रीय सौर अभियान का संशोधित लक्ष्य 2022 तक 100 गीगावाट स्थापित क्षमता का है। अभी सौर ऊर्जा क्षमता 3.5 गीगावाट तक पहुँची है, जो 2010 के 47 मेगावाट की तुलना में 8 गुना है। 2022 तक अक्षय ऊर्जा के सभी स्रोतों से कुल 175 गीगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य है। सोलर फोटोवोल्टाइक प्रौद्योगिकियों जैसे सोलर रूफटॉप एवं सोलर पार्क के प्रयोग को बहुत बढ़ाया जा रहा है।
25 सोलर पार्क एवं 4 मेगा बिजली परियोजनाएं बनने की संभावना है। अनुसंधान से पता चला है कि गैलियम आर्सेनाइड, कार्बन नैनोट्यूब जैसे नए पदार्थों में दक्षता को 50 प्रतिशत तक बढ़ाने की क्षमता है। सोलर थर्मल एवं सोलर कंसेंट्रेटर की मुख्य प्रौद्योगिकियों का भी प्रयोग किया जा रहा है। बड़े भूभाग की आवश्यकताओं एवं सेल के वृहद प्रयोग, जिनसे 10.15 वर्ष में कचरा निस्तारण की बड़ी समस्या होगी, के स्थान पर सोलर फोटोवोल्टाइक ऊर्जा समाधान तलाशने हैं।
पवन ऊर्जा में वृद्धि के लिये 2022 तक 50 गीगावाट की ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य है। समुद्र तट से दूर बड़े संयंत्र लगाना आवश्यक हो सकता है। आधुनिक प्रौद्योगिकियों का प्रयोग कर विंड टावर की को यथासंभव पिरपूर्ण बनाना होगा। इसके साथ ही जैव ऊर्जा, कचरा प्रबंधन, भूतपीय एवं समुद्री ऊर्जाओं में वृद्धि के लिये अन्य प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना भी आवश्यक है। इसमें संतुलन जल विद्युत एवं परमाणु ऊर्जा क्षमताओं में वृद्धि से प्राप्त होगा। इनके लिये प्रौद्योगिकी में उन्नयन तथा सुनियोजित निवेश की आवश्यकता होगी।
कार्बन की प्राप्ति, भंडारण एवं उपयोग की प्रौद्योगिकियाँऊर्जा के कुल उत्पादन में कोयले का प्रभुत्व आगामी दशकों में भी जारी रहने की सम्भावना है। 2020 तक 1 अरब टन कोयले और 2030 तक 2 अरब टन अतिरिक्त कोयले के लक्ष्य हैं। भारत का आईएनडीसी अगले 15 वर्ष में 2.5 से 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड के लिये अतिरिक्त सिंक की बात कहता है। इसके लिये कार्बन डाइऑक्साइड की प्राप्ति एवं भंडारण - कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव (सीक्वेस्ट्रेशन) जैसी प्रौद्योगिकियों का विकास अपरिहार्य हो जाता है।
कार्बन डाइऑक्साइड के अलगाव में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड को उसके स्रोतों से प्राप्त कर लिया जाता है और भंडारण तथा वातावरण से दूर उपयोग के माध्यम से उसका स्थायी निपटारा कर दिया जाता है। प्राप्त की गई कार्बन डाइऑक्साइड को सतह प्रक्रियाओं अथवा सतह के नीचे भंडारण के तरीकों एवं ऊर्जा ईंधनों तथा खनिजों की प्राप्ति में उपयोग के द्वारा अलग किया जाता है। यदि स्रोत एवं भूमिगत भंडारण स्थल एक दूसरे के निकट नहीं होते हैं तो लंबी दूरी तक तरल कार्बन डाइऑक्साइड ले जाने की आवश्यकता होती है। कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव बहुविषयक वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकी बिन्दु है। चूँकि यह नया तरीका है, इसीलिये हम विविध क्षेत्रों से अनुसंधान सूचना की आवश्यकता वाली विभिन्न प्रौद्योगिकियों का विस्तृत वर्णन करेंगे।
(अ) स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकी - कोयले के जलने से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण में कमी करने वाली सभी प्रौद्योगिकियों को स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकी कहा जा सकता है। कोयले से चलने वाले संयंत्र में कार्बन डाइऑक्साइड को ज्वलन से पहले अथवा ज्वलन के दौरान या ज्वलन के उपरांत प्राप्त किया जा सकता है। तीनों प्रक्रियाओं में अलगाव के भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक साधन प्रयोग किए जाते हैं। ज्वलन से पूर्व प्राप्ति में कोयले को बिजली उत्पादन से पहले सिंथेटिक गैस अथवा तरल ईंधन में परिवर्तित किया जाता है। कोयले की सिन गैस में मुख्यतया कार्बन मोनोऑक्साइड और हाइड्रोजन होती हैं। प्रदूषण रहित उत्पादन में हाइड्रोजन का प्रयोग किया जाता है। कार्बन डाइऑक्साइड की प्राप्ति हेतु इंटीग्रेटेड गैसिफिकेशन कंबाइंड साइकिल एवं फिशर - ट्रॉप्च सिंथेसिस के साथ हाइड्रोजन मेंब्रेन रिफॉर्मिंग, शिट गैस रिएक्शन प्रक्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। अधिक तापमान एवं अधिक दाब पर ज्वलन उपरांत की तुलना में ज्वलन पूर्व कार्बन डाइऑक्साइड की प्राप्ति को प्राथमिकता दी जाती है। ज्वलन उपरांत प्राप्ति ‘एंड ऑफ पाइप’ विकल्प है, जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड को लू गैस के ढेर से अलग किया जाता है। रासायनिक अलगाव हेतु अमीन आधारित कार्बन डाईऑक्साइड प्रौद्योगिकियों का प्रयोग विकसित किया गया है किन्तु उनका प्रयोग बड़े स्तर पर करने पर बिजली के मुकाबले दोगुना खर्च आता है। इसीलिये कार्बन प्राप्ति हेतु पॉलीमरिक झिल्लियों, भौतिक एडजॉर्बेट एवं नैनोट्यूब के प्रयोग जैसी अन्य प्रक्रियाओं के विकास हेतु अनुसंधान की आवश्यकता है।
ज्वलन के दौरान कार्बन डाईऑक्साइ की प्राप्ति में दो प्रौद्योगिकी संभव हैं - (क) सुपरक्रिटिकल एवं अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल कोल कंवशन, जहाँ दक्षता अधिक होती है, प्रत्येक यूनिट बिजली उत्पादन में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम होता है (ख) ऑक्सी यूल कंबश्चन एवं केमिकल लूपिंग जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियां, जिनमें लू गैस में कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा निकलती है। अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल बॉयलरों के लिये सामग्री का विकास करने एवं ऑक्सी यूल कंवशन प्रौद्योगिकी के लिये वायु से ऑक्सीजन अलग करने की लागत कम करने हेतु अनुसंधान किए जा रहे हैं।
(आ) कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव एवं औद्योगिक ऊर्जा - ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में औद्योगिक क्षेत्र का 37 प्रतिशत योगदान है। दुनिया भर में बनने वाली 40 प्रतिशत ऊर्जा का उपभोग उद्योग करते हैं। उद्योगों के लिये कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्ति एवं उपयोग कि प्रक्रिया बिजली संयंत्रों के समान ही हैं। औद्योगिक कचरा एवं मैल कार्बन डाइऑक्साइड के अच्छे अवशोषक सिद्ध हो रहे हैं। क्योटो समझौते के बाद कार्बन प्रबंधन को अधिक बढ़ावा देने के लिये समुचित प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है।
(इ) भूतलीय कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव - भूतल पर कार्बन डाइऑक्साइड का अलगाव मुख्यतया जैविक ही होता है। जंगलों, पेड़ों, फसलों तथा मिट्टी में कार्बन अवशोषित होता है और ये सभी कार्बन डाइऑक्साइड सिंक का कार्य करते हैं। अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाओं तथा विश्वविद्यालयों में अभी पौधों में बढ़ी हुई प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया, शैवाल का प्रयोग कर माइक्रो मीडिएटेड कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव एवं कार्बनिक एनहाइड्रेटेड एंजाइम उत्प्रेरण में अनुसंधान चल रहा है। जीनोम विज्ञान में प्रगति हो रही है और कार्बन डाइऑक्साइड के निपटारे के नए तरीके प्रदान किए जा रहे हैं। परती भूमि प्राप्त करने एवं उन पर वृक्ष लगाने से भूमि के ऊपर और नीचे कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव की संभावना है और उससे कार्बन के बाजार में भी वृद्धि हो सकती है।
(ई) कार्बन डाइऑक्साइड का भूमिगत भंडारण - कार्बन डाइऑक्साइड की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्राप्ति पर अनुसंधान के प्रयास चल रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड को गहरे लवणयुक्त जलीय चट्टानी परतों एवं चट्टानों तथा खनिजों में दफन किया जा सकता है। कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण प्रदर्शन के चरण में है और दुनिया भर में बड़े स्तर पर कई प्रयोग किए गए हैं। समुद्र तल में भूमिगत गहरी चट्टानी परतों में कार्बन डाइऑक्साइड के भंडारण के मामले में नॉर्वे के स्लाइपनर में पहली सफल परियोजना क्रियान्वित की गई है। इसने 1996 से ही लवणीय चट्टानी परतों में प्रतिवर्ष 10 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड प्रविष्ट कराई है। बेसाल्टिक चट्टानें कैल्शियम एवं मैग्नीशियम सिलिसेट को कार्बन युक्त खनिजों में परिवर्तित करने की संभावना जगाते हैं। भूमिगत स्थानों में कार्बन डाइऑक्साइड को सुपरक्रिटिकल चरण में इकट्ठा किया जाता है, जिसके लिये 304.1 डिग्री सेल्सियस तापमान तथा 73.8 बार दबाव की आवश्यकता होती है। प्रत्येक भौगोलिक स्थिति अलग होती है और कार्बन डाइऑक्साइड के भूमिगत भंडारण हेतु भूसंरचना के अध्ययन की आवश्यकता होती है। प्राप्ति एवं भंडारण की जिन प्रणालियों का अध्ययन चल रहा है, उनमें भौतिक अथवा स्ट्रेटिग्राफिक ट्रैपिंग, मिनरलॉजिकल ट्रैपिंग, भूरासायनिक मिश्रण एवं अवशिष्ट गैस मिश्रण शामिल हैं। प्रविष्ट कराई गई कार्बन डाइऑक्साइड की दीघ्रकालिक निगरानी हेतु एवं सुरक्षित भंडारण हेतु 3 डी भूसंवेदी अध्ययन करने हेतु प्रक्रियाएं विकसित करने की आवश्यकता है।
(उ) कार्बन डाइऑक्साइड के अलगाव द्वारा ऊर्जा ईंधन - पुराने पड़ चुके तेल क्षेत्रों में अधिक तेल की प्राप्ति हेतु कार्बन डाइऑक्साइड प्रविष्ट कराए जाने का कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव की प्रक्रिया के साथ किफायती तालमेल हो सकता है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के न्यूनतम उत्सर्जन के लिये तैयार की गई। परियोजना को समुचित प्रोत्साहन दिए जाएं तो ऊर्जा सुरक्षित करने में वह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। कार्बन डाइऑक्साइड के भूमिगत भंडारण एवं उसके कारण पुराने तेल भंडारों में तरल पदार्थों की श्यानता अर्थात चिप-चिपेपन अथवा गाढ़ेपन में परिवर्तन से ऊर्जा के लिये अतिरिक्त ईंधन प्राप्त हो सकता है। तेल क्षेत्रों के ही समान खनन के अयोग्य कोयला भी कार्बन डाइऑक्साइड के भंडारण में प्रयोग किया जा सकता है। कोयले में कार्बन डाइऑक्साइड के औसतन तीन अणु अवशोषित हो जाते हैं और मीथेन का एक अणु विस्थापित हो जाता है, जिससे कोल बेड मीथेन की अधिक प्राप्ति होती है। अमेरिका, जापान, चीन तथा भारत में अनुसंधान चल रहे हैं।
(ऊ) कार्बन डाइऑक्साइड के उपयोग की प्रौद्योगिकियां - कार्बन प्रबंधन की दिशा में पहले कदम के रूप में भंडारित कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग इसे आकर्षक बनाता है। यह जोखिम रहित विकल्प है और इससे मूल्य-वर्द्धित उत्पाद प्राप्त होते हैं। जैविक रूप से कार्बन डाइऑक्साइड प्रकाश संश्लेषण में कार्बन सिंक उत्पन्न करने तथा वनों को बढ़ावा देने में सहायता करती है रासायनिक रूप से कार्बन डाइऑक्साइड की कम रासायनिक सक्रियता है किंतु समुचित उत्प्रेरकों का प्रयोग कर ताप तथा दाब के माध्यम से इसे रासायनिक अभिक्रियाओं की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है। कार्बन डाइऑक्साइड को एथेनॉल जैसे ईंधनों अथवा मीथेनॉल अथवा उर्वरकों के उत्पादन में, खाद्य प्रसंस्करण एवं कार्बोनेटेड पेयों के उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है। खराब जल अथवा समुद्र में सूक्ष्म शैवाल जैसे जैव-अभिक्रिया माध्यम में इसे ईंधन, औषधि तथ मूल्य वर्द्धित उत्पादों में बदला जा सकता है।
(ए) समुद्र एवं लौह उर्वरण में कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण - समुद्र कार्बन डाइऑक्साइड के विशाल भंडार होते हैं और इन्हें कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव के योग्य माना गया है। कार्बन डाइऑक्साइड को विभिन्न गहराइयों में समुद्र के पानी में प्रविष्ट कराया जा सकता है। 300 मीटर से कम की उथली गहराइयों से यह वापस वातावरण में आ सकती है। 1000 मीटर के लगभग गहराई में इसे प्रविष्ट कराने से यह वातावरण में देर से लौटती है किंतु इससे समुद्री प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट आ सकता है। 3000 मीटर की गहराई पर तरल कार्बन डाइऑक्साइड प्रविष्ट कराने से यह स्थायी झील के समान बन जाएगी, जो पानी से अधिक सघन होगी और सुरक्षित होगी। अन्य विकल्प हैं - थर्मोहाइलाइन क्षेत्रों में जमी हुई कार्बन डाइऑक्साइड का निस्तारण, समुद्री साइनोबैक्टीरिया में कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण तथा समुद्री भोजन एवं फाइटोप्लैंकटॉन के उत्पादन को उत्प्रेरित करने हेतु समुद्र के ऊपरी तल में लोहे के बुरादे का प्रयोग। विभिन्न समुद्री क्षेत्रों में कार्बन डाइऑक्साइड से उत्प्रेरित समुद्री उर्वरण की क्षमता के परीक्षण हेतु विराट स्तर पर किए गए प्रयोगों को सीमित सफलता प्राप्त हुई है। परीक्षणों से पहले नियमन होने चाहिए।कार्बन डाइऑक्साइड की प्राप्ति एवं अलगाव के विभिन्न विकल्प चित्र 3 में प्रदर्शित किए गए हैं।
भारत सरकार एवं उद्योगों की सहायता से कार्बन डाइऑक्साइड अलगाव के अनुसंधान पर जोर दे रहा है। प्राप्ति एवं अलगाव जैसे कुछ क्षेत्रों पर जोर है और अन्य क्षेत्रों में छोटे-मोटे काम चल रहे हैं। प्रौद्योगिकी विशाल है और सभी में कार्य करने की आवश्यकता है। दिल्ली में हमने ऊर्जा उद्योग में सीसीएसयू पर क्षमता निर्माण कार्यशाला आयोजित की, जिसमें देशभर से शिक्षा एवं उद्योग के हितधारकों ने भाग लिया। निम्नलिखित सिफारिशें की गईं-
1. कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्ति परीक्षण संयंत्र हो, जो प्रक्रिया को किफायती बनाने में सहयोग करे।
2. अमोनिया आधारित कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्ति के विकास के लिये बहुक्षेत्रीय अनुसंधान कार्यक्रम हो, जिसमें रसायन एवं उर्वरक, कृषि, इस्पात तथा बिजली मंत्रालयों एवं शिक्षण संस्थान शामिल हों। देश में इस कार्य की गति बढ़ाने के लिये विभिन्न हितधारकों के मध्य जानकारी साझा कराने हेतु एक नोडल संस्था की आवश्यकता है।
निष्कर्ष एवं भावी रूपरेखा
21वीं शताब्दी में ऊर्जा का कायाकल्प होने जा रहा है। मांग वाले क्षेत्रों के बजाय ऊर्जा की आपूर्ति वाले क्षेत्रों की ओर जोर दिया जा रहा है। जलवायु एवं ऊर्जा को संपोषणीय बनाने वाली नीतियां कोयले का उपभोग करने वाले सभी क्षेत्रों पर प्रभाव डालेंगी और इसलिये वे आर्थिक गतिविधियों के केंद्र में आ जाएंगी। योजनाकारों एवं अनुसंधानकर्ताओं को जलवायु परिवर्तन के उद्देश्य पूरे करने हेतु अपने लक्ष्यों का पुनरीक्षण करना होगा। ऊर्जा दक्षता हेतु नए ऊर्जा उपकरणों का विनिर्माण करना होगा। सौर ताप उत्पादक एवं संग्राहक तैयार करने होंगे। साथ ही बहुक्षेत्रीय कार्बन अलगाव प्रौद्योगिकी के विकास हेतु कार्य करना होगा। इन प्रौद्योगिकियों की वाणिज्यिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है और ऊर्जा उद्योगों को प्रौद्योगिकी के विषय में अपने वर्तमान नजरिये साझा करने होंगे। औद्योगिक वृद्धि, कृषि के बेहतर प्रबंधन एवं कृषि वानिकी प्रणालियों की ओर एकीकृत दृष्टिकोण आवश्यक हो गया है। चूँकि भारत ऊर्जा उद्योग में वैश्विक उपस्थिति दर्ज कराने के लिये तैयार है, अतः इन पहलों के जरिये अनुसंधान एवं विकास में निवेश बढ़ेगा तथा विभिन्न हितधारकों के बीच राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान की साझेदारी हो सकेगी।
संदर्भ
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5. मालती गोयल, Perspectives in CO2 Sequestration technology and an Awareness Programme, in CO2 Sequestration technologies for Clean Energy, संपादन एस जेड कासिम एवं मालती गोयल, दया पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ संख्या 22-39, 2010
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लेखिका जलवायु परिवर्तन शोध संस्थान से संबद्ध हैं। वह वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआऱ) में अमीरात वैज्ञानिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार सलाहकार रही हैं। साथ ही वह जामिया हमदर्द के विज्ञान संकाय में अतिथि प्राध्यापक भी हैं। वह 2008 में राष्ट्रीय पर्यावरण विज्ञान अकादमी की फैलो भी बनीं। ईमेल : maltigoel2008@gmail.com
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