जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मलेन के पहले की कवायद

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को विकसित दुनिया से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने इस मनोवृत्ति को बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूल हैं। प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि विश्व भर में विकसित और विकासशील, दोनों तरह के देशों में पर्यावरण विषयों पर समान स्कूली पाठ्यक्रम होना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में समान लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ सके। हाल में ही न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुलाक़ात के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग में आने वाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी।

असल में पेरिस शिखर वार्ता के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनिया के लिये सबसे बड़ी चुनौती माना है और उन्होंने साफ़-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के लिये जो एक आक्रामक रूख दिखाया है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएँ और सभी देश विकास को नुकसान पहुँचाए बिना जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ पक्के इरादे के साथ काम करें।

प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिये अपनी प्रतिबद्धता दिखाई। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप के अनुसार, प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार है।

विश्लेषकों का कहना है इस साल के आख़िर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती है।

विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं


जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को विकसित दुनिया से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने इस मनोवृत्ति को बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूल हैं।

प्रधानमंत्री ने सलाह दी कि विश्व भर में विकसित और विकासशील, दोनों तरह के देशों में पर्यावरण विषयों पर समान स्कूली पाठ्यक्रम होना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में समान लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ सके। मोदी ने यह बात समान विचारों वाले विकासशील देशों के प्रतिनिधिमंडलों के प्रमुखों के साथ चर्चा करते हुए कही, जो पेरिस में इस साल के अन्त में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलन की तैयारियों के सन्दर्भ में यहाँ एक बैठक के लिये आए हैं।

'कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हैं' यह आश्वस्त करते हुए कि भारत जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर समान विचारों वाले विकासशील देशों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा है, मोदी ने कहा कि विश्व, जो अब जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अच्छी तरह अवगत है को जलवायु न्याय के सिद्धान्त के बारे में अवगत होना चाहिए।

मोदी ने प्रतिनिधियों से कहा कि कुछ खास समूहों द्वारा, विकासशील देशों में भी निर्मित इस माहौल का मुकाबला किये जाने की आवश्यकता है कि विकास और प्रगति पर्यावरण के दुश्मन हैं और इसलिये विकास और प्रगति पर चलने वाले सभी लोग दोषी हैं। उन्होंने कहा कि विश्व को यह मानने की जरूरत है कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं।

प्रधानमंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी साझा करने के सम्बन्ध में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये विकासशील दुनिया की मदद करें। उन्होंने ऊर्जा खपत घटाने के लिये जीवनशैली में बदलाव का आह्वान किया। केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी इस चर्चा के दौरान मौजूद थे।

पेरिस शिखर सम्मलेन से पहले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच जद्दोजहद चल रही है क्योंकि पिछले साल लीमा शिखर सम्मलेन के कोई बड़े नतीजे नहीं आये थे लेकिन जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आम सहमति वाला एक प्रारूप जरूर स्वीकार कर लिया गया था इसलिये अधिकांश देशों की चिन्ता है कि पेरिस शिखर सम्मलेन भी कहीं एक रस्म अदायगी बन कर न रह जाये इसी लिये अभी से पेरिस वार्ता की तैयारी चल रही है।

पिछले साल जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 1-14 दिसम्बर 2014 तक 194 देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिये जमा हुए थे। 12 दिसम्बर तक निर्धारित ये सम्मेलन समय से दो दिन अधिक चला।

भारत समेत 194 देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिये आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिन्ताओं का समाधान किया गया था। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिये पेरिस में होने वाले एक नए महत्त्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।

लीमा शिखर सम्मेलन का आयोजन यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनिया भर के राजनीतिज्ञों, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया था।

इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन सन्धि के लिये मसौदा तैयार करना था, ताकि पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश सन्धि पर हस्ताक्षर कर सकें। और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक सन्धि के लिये राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकाल को नए मसौदे से बदला जा सके।

पहले केवल अमीर देशों की जिम्मेदारी थी


फिलहाल नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो सन्धि में उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत का पक्ष


जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दवाब बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनिया भर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिये विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण व वित्तीय मदद देने की माँग भी की।

पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के सम्बन्ध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं किया। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा। जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है।

ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए। वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है। इसलिये विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते।

अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिये कोई समयसीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है। इसके साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिये भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ़ नजर आ रहा है। लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत है कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिये काम करना चाहिए। कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी का कारण माना जा रहा है। क्योटो प्रोटोकाल के अन्तर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।इसके साथ ही नमामि गंगे और हिमालय मिशन जैसे कार्यक्रम शुरू किये गए हैं। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के लिये प्रतिबद्ध और पूरी तरह से तैयार है और हम जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी चिन्ताओं के सार्थक समाधान के साथ जनता के लिये विकास केन्द्रित नीतियों को लागू कर रहे हैं।

दो धड़ों में बँटी दुनिया


अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर दो धड़ों में बँटी हुई दिख रही है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बँट गए। एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहाँ अपना अलग मंच बना लिया।

बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिये इस मंच के तहत नियमित बैठकें करने का फैसला लिया। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केन्द्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।

फिलहाल जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ़ नजर आ रहा है। लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत है कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिये काम करना चाहिए।

कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी का कारण माना जा रहा है। क्योटो प्रोटोकाल के अन्तर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।

अमेरिका का कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि लीमा में क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सब कुछ सभी पर लागू करना चाहते थे, खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर।

कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया


पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया। दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा।

आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बन्द कर देना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है। अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए। हमारे पास बहुत समय नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है। इसके लिये तुरन्त और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किये जाने की जरूरत है।

शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य


1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरूरत है ठोस समाधान की इसके लिये एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए।

पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और सम्भावित हल का खाका रखा गया है। इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अन्त तक जलवायु परिवर्तन पर एक नई वैश्विक सन्धि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके।

हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते हैं पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला है। जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं।

पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 20 जलवायु सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर इस साल के अन्त में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनिया को राहत मिल सके।

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