1. एक औसत बांग्लादेशी नागरिक के सालाना खर्चे से अधिक खर्चा यूरोप एवं अमेरिका में ‘जर्मन शेफर्ड’ प्रजाति के दो पालतू कुत्तों पर किया जाता है।
2. विश्व की प्रदूषण समस्या की गंभीरता के पीछे के कारणों में से एक अहम कारण है दुनिया की निरंतर बढ़ती जा रही जनसंख्या, जो इस सदी के मध्य (2050) तक अनुमानतः 9 अरब, यानी 900 करोड़, पार कर जायेगी। (अभी जनसंख्या करीब 675 करोड़ है और उसमें चीन तथा भारत का सम्मिलित ‘योगदान’? – लगभग 250 करोड़ – एक तिहाई से भी अधिक है!) पिछले 50 वर्षों में वैश्विक जनसंख्या दुगुना हुई है, किंतु प्राकृतिक संसाधनों की खपत चौगुनी हो गयी।
3. हिसाब लगाया गया है कि कोपनहेगन की पिछली बैठक (विगत दिसंबर) में 40000 (चालीस हजार) से अधिक प्रतिभागियों के कारण मात्र दो सप्ताह के भीतर उत्सर्जित ‘ग्रीनहाउस गैसों’ की मात्रा 600000 (छः लाख) इथिओपियावासियों के साल भर के कुल उत्सर्जन से अधिक थी।
4. दुनिया के 50 करोड़ संपन्नतम लोगों (कुल आबादी का 7.5%) के द्वारा समस्त कार्बन प्रदूषण (कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन) का 50% फैलाया जाता है, जब कि 300 करोड़ (कुल आबादी के आधी से थोड़ा कम) सबसे गरीब लोगों के कारण मात्र 6% प्रदूषण होता है।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ की 2005 की एक रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतना अधिक हो रहा है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए कुछ बच पायेगा यह संदेहास्पद है।
6. ‘वर्ल्डवाच इंस्टिट्यूट’ नामक संस्था के अध्यक्ष क्रिस्टोफर फ्लाविन (Christopher Flavin) के अनुसार “उपभोगवाद की आधुनिक संस्कृति ने पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है, लेकिन बदले में उससे मानव जीवन सुखी हुआ ही हो ऐसा नहीं माना जा सकता है।” (टिप्पणीः स्थाई संतोष और सुख का भ्रम अलग-अलग बातें हैं। सीमित भौतिक साधनों वाला व्यक्ति संपन्न व्यक्ति से अधिक आत्मसंतुष्ट हो सकता है! किंतु आधुनिक युग में मनुष्य में बाह्य प्रदर्शन तथा भौतिक साधनों के द्वारा सुखानुभूति पाने में ही जीवन व्यतीत कर रहा है। उदाहरणार्थ, कभी लोग परोपकार करने में सुख पाते थे, तो अब येनकेन प्रकारेण धनोपार्जन ही लक्ष्य रह गया है।)
7. उक्त संस्था की एक रिपोर्ट के प्रमुख लेखक एरिक एसडूरिन (Erik Assadourian) के कथनानुसार हमें पिछले दो शतकों में विकसित भोगवाद की संस्कृति को बदलना होगा, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच तो यह है कि भोगवाद विकसित देशों तक सीमित न रहकर विकसित हो रहे देशों तक को अपने चपेटे में तेजी से ले रहा है।
8. “पहले अमेरिका प्रदूषण का उत्सर्जन करता था, लेकिन अब चीन उससे आगे निकल चुका है। चीन तो अब कारों की खपत में विश्व का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है।” — एसडूरिन का कथन।
9 वर्ल्डवाच ने Ecuador देश का भी हवाला दिया है, जहां के बाशिंदों ने धरती माता (Mother Earth) की पूजा का व्रत ले रखा है और वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उपभोग के जो तत्व मां धरती बारबार नहीं दे सकती उन पर आधारित भोगवाद को हम बढ़ावा नहीं दे सकते। हमें चिरस्थायित्च की दिशा में बढ़ना है, अर्थात् उन वस्तुओं को उपभोग में लेना है जिनको प्रकृति दुबारा-तिबारा हमें दे सकती है। (इस प्रकार के चिरस्थायी भोगवाद में, उदाहरणार्थ, पारंपरिक विधि की कृषि शामिल है।)
10. और अंत में, वर्ल्डवाच की उक्त बातों की चर्चा के बाद ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका की अपनी टिप्पणी देखिएः“Of course, at the same time, Worldwatch would like you to spend $19.95 for a paperback version of its report, or $9.95 for a PDF or electronic document for your (yet another gadget) Kindle. Switching away from a capitalist ethic of consumerism continues to be easier said than done.” (अवश्य ही इतने सब के बाद वर्ल्डवाच आपसे अपेक्षा करता है कि आप 19.95 डालर देकर उसकी रिपोर्ट का पेपरबैक संस्करण खरीदें, अथवा अपने ‘किंडल’ (एक उपकरण यह भी) के लिए 9.97 डालर से उसकी पीडीएफ या इलेक्ट्रॉनिक प्रति खरीदें। दरअसल पूंजीवाद की भोगवादिता से हटने की बात करना जितना आसान है उससे कहीं अधिक कठिन उस पर अमल करता है! कथनी और करनी में फर्क तो मानव स्वभाव का स्थाई अंग है; पर्यावरण की बात करने वालों ने खुद कौन सी ऊर्जा-खाऊ सुविधाएं त्याग दी हैं?) – योगेन्द्र जोशी
2. विश्व की प्रदूषण समस्या की गंभीरता के पीछे के कारणों में से एक अहम कारण है दुनिया की निरंतर बढ़ती जा रही जनसंख्या, जो इस सदी के मध्य (2050) तक अनुमानतः 9 अरब, यानी 900 करोड़, पार कर जायेगी। (अभी जनसंख्या करीब 675 करोड़ है और उसमें चीन तथा भारत का सम्मिलित ‘योगदान’? – लगभग 250 करोड़ – एक तिहाई से भी अधिक है!) पिछले 50 वर्षों में वैश्विक जनसंख्या दुगुना हुई है, किंतु प्राकृतिक संसाधनों की खपत चौगुनी हो गयी।
3. हिसाब लगाया गया है कि कोपनहेगन की पिछली बैठक (विगत दिसंबर) में 40000 (चालीस हजार) से अधिक प्रतिभागियों के कारण मात्र दो सप्ताह के भीतर उत्सर्जित ‘ग्रीनहाउस गैसों’ की मात्रा 600000 (छः लाख) इथिओपियावासियों के साल भर के कुल उत्सर्जन से अधिक थी।
4. दुनिया के 50 करोड़ संपन्नतम लोगों (कुल आबादी का 7.5%) के द्वारा समस्त कार्बन प्रदूषण (कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन) का 50% फैलाया जाता है, जब कि 300 करोड़ (कुल आबादी के आधी से थोड़ा कम) सबसे गरीब लोगों के कारण मात्र 6% प्रदूषण होता है।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ की 2005 की एक रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतना अधिक हो रहा है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए कुछ बच पायेगा यह संदेहास्पद है।
6. ‘वर्ल्डवाच इंस्टिट्यूट’ नामक संस्था के अध्यक्ष क्रिस्टोफर फ्लाविन (Christopher Flavin) के अनुसार “उपभोगवाद की आधुनिक संस्कृति ने पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है, लेकिन बदले में उससे मानव जीवन सुखी हुआ ही हो ऐसा नहीं माना जा सकता है।” (टिप्पणीः स्थाई संतोष और सुख का भ्रम अलग-अलग बातें हैं। सीमित भौतिक साधनों वाला व्यक्ति संपन्न व्यक्ति से अधिक आत्मसंतुष्ट हो सकता है! किंतु आधुनिक युग में मनुष्य में बाह्य प्रदर्शन तथा भौतिक साधनों के द्वारा सुखानुभूति पाने में ही जीवन व्यतीत कर रहा है। उदाहरणार्थ, कभी लोग परोपकार करने में सुख पाते थे, तो अब येनकेन प्रकारेण धनोपार्जन ही लक्ष्य रह गया है।)
7. उक्त संस्था की एक रिपोर्ट के प्रमुख लेखक एरिक एसडूरिन (Erik Assadourian) के कथनानुसार हमें पिछले दो शतकों में विकसित भोगवाद की संस्कृति को बदलना होगा, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच तो यह है कि भोगवाद विकसित देशों तक सीमित न रहकर विकसित हो रहे देशों तक को अपने चपेटे में तेजी से ले रहा है।
8. “पहले अमेरिका प्रदूषण का उत्सर्जन करता था, लेकिन अब चीन उससे आगे निकल चुका है। चीन तो अब कारों की खपत में विश्व का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है।” — एसडूरिन का कथन।
9 वर्ल्डवाच ने Ecuador देश का भी हवाला दिया है, जहां के बाशिंदों ने धरती माता (Mother Earth) की पूजा का व्रत ले रखा है और वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उपभोग के जो तत्व मां धरती बारबार नहीं दे सकती उन पर आधारित भोगवाद को हम बढ़ावा नहीं दे सकते। हमें चिरस्थायित्च की दिशा में बढ़ना है, अर्थात् उन वस्तुओं को उपभोग में लेना है जिनको प्रकृति दुबारा-तिबारा हमें दे सकती है। (इस प्रकार के चिरस्थायी भोगवाद में, उदाहरणार्थ, पारंपरिक विधि की कृषि शामिल है।)
10. और अंत में, वर्ल्डवाच की उक्त बातों की चर्चा के बाद ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका की अपनी टिप्पणी देखिएः“Of course, at the same time, Worldwatch would like you to spend $19.95 for a paperback version of its report, or $9.95 for a PDF or electronic document for your (yet another gadget) Kindle. Switching away from a capitalist ethic of consumerism continues to be easier said than done.” (अवश्य ही इतने सब के बाद वर्ल्डवाच आपसे अपेक्षा करता है कि आप 19.95 डालर देकर उसकी रिपोर्ट का पेपरबैक संस्करण खरीदें, अथवा अपने ‘किंडल’ (एक उपकरण यह भी) के लिए 9.97 डालर से उसकी पीडीएफ या इलेक्ट्रॉनिक प्रति खरीदें। दरअसल पूंजीवाद की भोगवादिता से हटने की बात करना जितना आसान है उससे कहीं अधिक कठिन उस पर अमल करता है! कथनी और करनी में फर्क तो मानव स्वभाव का स्थाई अंग है; पर्यावरण की बात करने वालों ने खुद कौन सी ऊर्जा-खाऊ सुविधाएं त्याग दी हैं?) – योगेन्द्र जोशी
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