जलवायु परिवर्तन की बाढ़


हाल में पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि 2030 तक देश को जलवायु परिवर्तन के गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे

'भारत पर जलवायु परिवर्तन का असर' नामक यह रिपोर्ट पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश, प्रोद्यौगिकी मंत्री कपिल सिब्बल और जाने-माने वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने जारी की। इस रिपोर्ट में भारत के हिमालय, पश्चिमी घाट, तटवर्ती क्षेत्र और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि, पानी, स्वास्थ्य और वन क्षेत्रों पर वर्ष 2030 तक पड़ने वाले असर का अध्ययन किया गया है। इसके अनुसार 2030 तक सभी क्षेत्रों में तापमान में वृद्वि होगी। तटवर्ती क्षेत्रों में तापमान में एक से चार डिग्री और अन्य क्षेत्रों में 1.7 से 2.2 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में अत्यधिक सूखा पड़ेगा और देश के अन्य क्षेत्रों में ज्यादा बाढ़ आएगी। दरअसल बाढ़ और सूखे के कारण हमारा देश अनेक समस्याएं झेल रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में ये समस्याएं और ज्यादा बढ़ेंगी। इस साल दिल्ली और उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ ने जिस तरह से तबाही मचायी, उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर हमें अभी से जागरूक होना होगा।

बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं लेकिन उनका अपना एक अलग शास्त्र और तंत्र था। इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं। दरअसल प्रकृति के साथ जिस तरह का व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का व्यवहार वह भी हमारे साथ कर रही है। आज 'ग्लोबल वार्मिंग' जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम एक बनी-बनायी लीक पर ही चलना चाहते हैं। यही कारण है कि कभी हम आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट को सन्देह की नजर से देखने लगते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को अनावश्यक हौवा मानने लगते हैं। यह विडम्बना ही है कि इस मुद्दे पर हम बार-बार असलियत से मुंह मोड़ना चाहते हैं। दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा, यह नहीं कहा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि इस बार हम बाढ़ और बारिश का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाए जिससे कि लोगों के जान-माल की पर्याप्त सुरक्षा की जा सकती।

1950 में हमारे यहां लगभग ढाई करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में आती थी लेकिन अब लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भूमि पर बाढ़ आती है और इसकी निकासी का कोई समुचित तरीका भी नहीं है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग 80 फीसद पानी गिरता है। उसका वितरण इतना असमान है कि कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं।

इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। 2050 तक हमारे देश की आबादी लगभग 180 करोड़ होगी। ऐसी स्थिति में पानी के समान वितरण की व्यवस्था किये बगैर हम विकास के किसी भी आयाम के बारे में नहीं सोच सकते हैं। हमें सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। गौरतलब है कि पूरे देश में बाढ़ से होने वाले नुकसान का लगभग 80 फीसद नुकसान उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और आंध्र प्रदेश में आयी बाढ़ के माध्यम से होता है। बाढ़ पर राष्टीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में बाढ़ के कारण हर साल करीब 1,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

पूरे विश्व में बाढ़ से होने वाली मौतों में पांचवां हिस्सा भारत का है। बाढ़ केवल हमारे देश में कहर नहीं ढा रही है बल्कि चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। बाढ़ और सूखे की समस्या से जूझने के लिए कुछ समय पहले नदियों को आपस में जोड़ने की योजना अस्तित्व में आयी थी लेकिन वह आगे नहीं बढ़ सकी। पर्यावरणीय कारणों से कुछ पर्यावरणविदों ने भी इस परियोजना पर अपनी आपत्ति जतायी थी। हालांकि चीन में नदियों को जोड़ने की परियोजना पर कार्य चल रहा है। लेकिन चीन की इस योजना से भारत और बांग्लादेश जैसे देश प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए भारत और बांग्लादेश को नदियों को जोड़ने वाली चीन की इस परियोजना पर एतराज है। बहरहाल नदियों को जोड़ने की परियोजना पर अभी व्यापक बहस की गुंजाइश है।
 
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