जीवाश्म ईंधन के दहन और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई है। यदि जलवायु परिवर्तन को समय रहते न रोका गया तो लाखों लोग भुखमरी, जल संकट और बाढ़ जैसी विपदाओं का शिकार होंगे। यह संकट पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा। यद्यपि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर गरीब देशों पर पड़ेगा। इसके साथ ही इसका सबसे ज्यादा असर ऐसे देशों को भुगतना पड़ेगा, जो जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे कम जिम्मेदार हैं। पिछड़े और विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं का खतरा अधिक होगा।
जलवायु परिवर्तन आर्कटिक क्षेत्र, अफ्रीका और छोटे द्वीपों को अधिक प्रभावित कर रहा है। उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक) शेष दुनिया की तुलना में दोगुनी दर से गर्म हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार आगामी कुछ वर्षों में ग्रीष्म ऋतु के दौरान उत्तरी ध्रुव की बर्फ पिघल जाएगी। एक अन्य अध्ययन के अनुसार ऐसा छः वर्ष के दौरान भी हो सकता है।
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पिछले 100 वर्षों में अंटार्कटिका के तापमान में दोगुनी वृद्धि हुई है। इसके कारण अंटार्कटिका के बर्फीले क्षेत्रफल में भी कमी आई है। इस प्रकार वहाँ की पारिस्थितिकी में होने वाले बदलावों के कारण वहाँ उपस्थित समस्त जीव भी प्रभावित होते हैं। यदि तापमान में वृद्धि इसी तरह होती रही तो इस सदी के अन्त तक एल्प्स पर्वत शृंखला के लगभग 80 प्रतिशत हिमनद (ग्लेशियर) पिघल जाएँगे। हमारे लिये यह चिन्ता का विषय है कि हिमालय क्षेत्र के हिमनद विश्व के अन्य क्षेत्रों के हिमनदों से अधिक तेजी से पिघल रहे हैं।
धरती के तापमान में वद्धि के कारण हिमनद और ध्रुवीय प्रदेशों की बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है जिसके परिणामस्वरूप महासागरों का जल स्तर औसतन 27 सेंटीमीटर ऊपर उठ चुका है। जलवायु विज्ञानियों के अनुसार यदि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों में जमाव का सिलसिला जारी रहा तो धरती के तापमान में वृद्धि होती रहेगी जिसके परिणामस्वरूप हिमनद और ध्रुवीय इलाकों की बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ने से सागर तटीय इलाकों के डूबने का खतरा बढ़ जाएगा और महासागरों का बढ़ता जलस्तर मालदीव जैसे हजारों द्वीपों को डूबा देगा।
इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा के कारण महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए हैं। आज महासागरीय जल में अम्लता की मात्रा बढ़ती जा रही है, जिसके कारण महासागरों में रहने वाले जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त महासागरों की कार्बन डाइऑक्साइड गैस को सोखने की क्षमता में भी दिनोंदिन कमी हो रही है। प्रदूषण के कारण पारिस्थितिकी-तंत्र को काफी नुकसान पहुँचता है और इस कारण से पृथ्वी पर व्यापक उथल-पुथल मच सकती है।
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भविष्य में यदि तापमान में वृद्धि अधिक तेजी से होने लगी तो इसका परिणाम बहुत भयानक हो सकता है। तापमान में केवल 1-2 डिग्री सेल्सियस के अन्तर के कारण ही धरती के अनेक भागों में कृषि में व्यापक परिवर्तन हो सकता है। चराई के लिये उपलब्ध क्षेत्रों में परिवर्तन होने के साथ ही पानी की उपलब्धता पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा और इन सब के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों का पलायन होगा।
जलवायु परिवर्तन जनित सूखे और बाढ़ के कारण बड़े पैमाने पर पलायन होने से सामाजिक सन्तुलन बिगड़ेगा। इसके परिणामस्वरूप अस्थिरता और हिंसा से राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय असुरक्षा पैदा होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न खाद्यान्न संकट और पानी की कमी से विश्वव्यापी अशान्ति फैलने वाली है उसकी चपेट में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तथा चीन भी आएँगे। ‘‘जलवायु परिवर्तन खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा नामक’’ एक रिपोर्ट के अनुसार आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन कई समुदायों के आपसी तालमेल को प्रभावित करेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विश्व के समस्त क्षेत्रों में दिखाई देगा। भारत भी जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बच नहीं पाएगा। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण भारत को भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत में औसत तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी।
भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) ने उपग्रहों से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर बताया है कि भारतीय समुद्र 2.5 मिलीमीटर वार्षिक की दर से ऊपर उठ रहा है। एक अध्ययन से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि भारतीय सीमा से सटे समुद्रों के जल-स्तर के ऊपर उठने का यह सिलसिला जारी रहा तो सन 2050 तक समुद्री जलस्तर 15 से 36 सेंटीमीटर ऊपर उठ सकता है। समुद्री जलस्तर में 50 सेंटीमीटर की वृद्धि होने पर अनेक इलाके डूब जाएँगे। भारत के सुन्दरबन डेल्टा के करीब एक दर्जन द्वीपों पर डूबने का खतरा मँडरा रहा है जिससे सात करोड़ से अधिक आबादी प्रभावित होगी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
हाल के दशकों में ग्रीन हाउस प्रभाव के चलते अनेक क्षेत्रों में औसत तापमान में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी के अनुसार वर्ष 2020 तक पूरी दुनिया का तापमान पिछले 1000 वर्षों की तुलना में सर्वाधिक होगा।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने वर्ष 1995 में भविष्यवाणी की थी कि अगर मौजूदा प्रवृत्ति जारी रही तो 21वीं सदी में तापमान में 3.5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी। बीसवीं सदी में विश्व की सतह का औसतन तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। वैश्विक स्तर पर वर्ष 1998 सबसे गर्म वर्ष था और वर्ष 1990 का दशक अभी तक का सबसे गर्म दशक था जो यह साबित करता है कि ग्रीन हाउस प्रभाव के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का दौर आरम्भ हो चुका है। जलवायु परिवर्तन के अनेक परिणाम होंगे जिनमें से ज्यादातर हानिकारक होंगे।
वर्षा पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के मानसूनी क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएँ पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी। ताजे जल की आपूर्ति पर गम्भीर प्रभाव पड़ेंगे।
जहाँ तक भारत का सवाल है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरूप वर्षाजल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। सूखा और बाढ़ के दौरान पीने और कपड़े धोने के लिये स्वच्छ जल की उपलब्धता कम होगी। जल प्रदूषित होगा तथा जल-निकास की व्यवस्थाओं को हानि पहुँचेगी।
जलवायु परिवर्तन जलस्रोतों के वितरण को भी प्रभावित करेगा। उच्च अक्षांश वाले देशों तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के जलस्रोतों में जल अधिकता होगी जबकि मध्य एशिया में जल की कमी होगी। निम्न अक्षांश वाले देशों में जल की कमी होगी।
समुद्री जल स्तर पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ध्रुवीय बर्फ के पिघलने के कारण विश्व का औसत समुद्री जलस्तर इक्कीसवीं शताब्दी के अन्त तक 9 से 88 सेमी. तक बढ़ने की सम्भावना है, जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी जो समुद्र से 60 कि.मी. की दूरी पर रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
बांग्लादेश का गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा, मिस्र की नील डेल्टा तथा मार्शल द्वीप और मालदीव सहित अनेक छोटे द्वीपों का अस्तित्व वर्ष 2100 तक समाप्त हो जाएगा। इसी खतरे की ओर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिये अक्टूबर 2009 में मालदीव सरकार की कैबिनेट ने समुद्र के भीतर बैठकर एक अनूठा प्रयोग किया था। इस बैठक में दिसम्बर 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के लिये एक घोषणापत्र भी तैयार किया गया था। प्रशांत महासागर का सोलोमन द्वीप जलस्तर में वृद्धि के कारण डूबने के कगार पर है।
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत के उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात और पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र जलमग्नता के शिकार होंगे। परिणामस्वरूप आसपास के गाँवों व शहरों में 10 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित होेंगे जबकि समुद्र में जलस्तर की वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत के लक्षद्वीप तथा अंडमान निकोबार द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मीठे जल के स्रोत दूषित होंगे परिणामस्वरूप पीने के पानी की समस्या होगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव समुद्र में पाये जाने वाली जैवविविधता सम्पन्न प्रवाल भित्तियों पर पड़ेगा जिन्हें महासागरों का उष्ण कटिबन्धीय वर्षावन कहा जाता है। समुद्री जल में उष्णता के परिणामस्वरूप शैवालों (सूक्ष्मजीवी वनस्पतियों) पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जो कि प्रवाल भित्तियों को भोजन तथा वर्ण प्रदान करते हैं। उष्ण महासागर विरंजन प्रक्रिया के कारक होंगे जो इन उच्च उत्पादकता वाले पारितंत्रों को नष्ट कर देंगे।
प्रशान्त महासागर में वर्ष 1997 में अलनीनो के कारण बढ़ने वाली ताप की तीव्रता प्रवालों की मृत्यु का सबसे गम्भीर कारण बनी है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी की लगभग 10 प्रतिशत प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो चुकी है, 30 प्रतिशत गम्भीर रूप से प्रभावित हुई हैं तथा 30 प्रतिशत का क्षरण हुआ है। ग्लोबल कोरल रीफ मॉनीटरिंग नेटवर्क (आस्ट्रेलिया) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक सभी प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो जाएगी।
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कृषि पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि पैदावार पर पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमरीका में फसलों की उत्पादकता में कमी आएगी जबकि दूसरी तरफ उत्तरी तथा पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व देशों, भारत, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया तथा मैक्सिको में गर्मी तथा नमी के कारण फसलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षाजल की उपलब्धता के आधार पर धान के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी। भारत में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गन्ना, मक्का, ज्वार, बाजरा तथा रागी जैसी फसलों की उत्पादकता दर में वृद्धि होगी जबकि इसके विपरीत मुख्य फसलों जैसे गेहूँ, धान तथा जौ की उपज में गिरावट दर्ज होगी। आलू के उत्पादन में भी अभूतपूर्व गिरावट दर्ज होगी।
तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण की दर में वृद्धि के कारण अरहर, चना, मटर, मूंग, उड़द मसूर आदि की उपज में वृद्धि होगी। तिलहनी फसलों जैसी पीली सरसों, भूरी सरसों (राई), सूरजमुखी, तिल, काला तिल, अलसी, बर्रा (कुसुम) की पैदावार में गिरावट होगी जबकि सोयाबीन तथा मूँगफली की पैदावार में वृद्धि होगी। एक अनुमान के अनुसार अगर वर्तमान वैश्विक तापवृद्धि की दर जारी रही तो भारत में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में 12.5 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन में कमी आएगी। शीत ऋतु में 0.50 सेल्सियस तापमान वृद्धि के कारण पंजाब राज्य में गेहूँ की फसल की पैदावार में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश में जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप आम, केला, पपीता, चीकू, अनानास, शरीफा, अनार, बेल, खजूर जामुन, अंजीर, बेर, तरबूज तथा खरबूजा जैसे फलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी जबकि सेब, आलू बुखारा, अंगूर, नाशपाती जैसे फलों के पैदावार में गिरावट आएगी। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव फसल पद्धति पर भी पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्तर तथा मध्य भारत में ज्वार, बाजरा, मक्का तथा दलहनी फसलों के क्षेत्रफल में विस्तार होगा। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में गेहूँ तथा धान के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट आएगी जबकि देश के पूर्वी, दक्षिणी तथा पश्चिमी राज्यों में धान के क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी होगी।
वातावरण में ज्यादा ऊर्जा के जुड़ाव से वैश्विक वायु पद्धति में भी परिवर्तन होगा। वायु पद्धति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप वर्षा का वितरण असमान होगा। भविष्य में मरुस्थलों में ज्यादा वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत पारम्परिक कृषि वाले क्षेत्रों में कम वर्षा होगी। इस तरह के परिवर्तनों से विशाल मानव प्रव्रजन को बढ़ावा मिलेगा जो कि मानव समाज के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक ताने-बने को प्रभावित करेगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बाढ़, सूखा तथा आँधी-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बारता में वृद्धि के कारण अनाज उत्पादन में गिरावट दर्ज होगी। स्थानीय खाद्यान्न उत्पादन में कमी भुखमरी और कुपोषण का कारण बनेगी जिससे स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे। खाद्यान्न और जल की कमी से प्रभावित क्षेत्रों में टकराव पैदा होंगे।
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जैव विविधता पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैवविविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में अचानक परिवर्तन से अनुकूलन के प्रभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र की तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों के प्रव्रजन का आदर्श स्थल भी होती हैं। दलदली वन जिन्हें ज्वारीय वन भी कहा जाता है, तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों में रक्षा करने का भी कार्य करते हैं। जैव-विविधता क्षरण के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असन्तुलन का खतरा बढ़ेगा।
जलवायु में उष्णता के कारण उष्ण कटिबन्धीय वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप वनों के विनाश के कारण जैवविविधता का ह्रास होगा।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु में उष्णता के कारण श्वास तथा हृदय सम्बन्धी बीमारियों में वृद्धि होगी। दुनिया के विकासशील देशों में दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, पीत ज्वर तथा मियादी बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी। चूँकि बीमारी फैलाने वाले रोगवाहकों के गुणन एवं विस्तार में तापमान तथा वर्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है अतः दक्षिण अमेरीका, अफ्रीका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे- मलेरिया (शीत ज्वर), डेंगे, पीला बुखार तथा जापानी बुखार (मेनिन्जाइटिस) के प्रकोप में बढ़ोत्तरी के कारण इन बीमारियों से होने वाली मृत्यु दर में इजाफा होगा। इसके अतिरिक्त फाइलेरिया तथा चिकनगुनिया का भी प्रकोप बढ़ेगा।
मच्छरजनित बीमारियों का विस्तार उत्तरी अमरीका तथा यूरोप के ठंडे देशों में भी होगा। मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ कहलाएगी। स्वास्थ्य सम्बन्धी और भी समस्याएँ पैदा होंगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप न सिर्फ रोगाणुओं में बढ़ोत्तरी होगी अपितु इनकी नई प्रजातियों की भी उत्पत्ति होगी जिसके परिणामस्वरूप फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। फसलों की नाशीजीवों तथा रोगाणुओं से सुरक्षा हेतु नाशीजीवनाशकों के उपयोग की दर में बढ़ोत्तरी होगी जिससे वातावरण प्रदूषित होगा साथ ही मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
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अन्य प्रभाव
नाशीजीवों तथा रोगाणुओं की संख्या में वृद्धि तथा इनकी नई प्रजातियों की उत्पत्ति का प्रभाव दुधारू पशुओं पर भी पड़ेगा। जिससे दुग्ध उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश मेें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पुष्पीय पौधों के पोयेसी, साइप्रेसी, फैबेसी, यूर्फोबियेसी, अमरेंथेसी, तथा एस्लेपिडेसी कुलों से सम्बद्ध खरपतवारों की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। इसके परिणामस्वरूप इन खरपतवारों का प्रकोप बढ़ेगा जिससे फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। कृषि उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हेतु रासायनिक खरपतवारनाशकों पर निर्भरता में वृद्धि होगी।
तापवृद्धि के कारण वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरूप मृदा जल के साथ ही जलाशयों में जल की कमी होगी जिससे फसलों को पर्याप्त जल उपलब्ध न होने के कारण उनकी पैदावार प्रभावित होगी। भारत जैसे उष्ण कटिबन्धीय देश में जलाशयों में जल की कमी के कारण सिंघाड़े तथा मखाने की खेती पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त मत्स्यपालन तथा उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जलीय जन्तुओं पर भी पड़ेगा। मीठे जल की मछलियों का प्रव्रजन ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर होगा जबकि शीतल जल मछलियों का आवास नष्ट हो जाएगा। परिणामस्वरूप बहुत से मछलियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री तूफानों की बारम्बारता में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों में जान-माल की क्षति होगी। इसके अतिरिक्त अलनीनो की बारम्बारता में भी बढ़ोत्तरी होगी जिससे एशिया, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी जबकि वहीं दूसरी तरफ उत्तरी अमेरीका में बाढ़ जैसी आपदा का प्रकोप होगा। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमनदों (ग्लेशियर) पर भी पड़ेगा। उष्णता के कारण हिमनद पिघल कर खत्म हो जाएँगे। एक शोध के अनुसार भारत के हिमालय क्षेत्र में वर्ष 1962 से 2000 के बीच हिमनद 16 प्रतिशत तक घटे हैं। पश्चिमी हिमालय में हिमनदों के पिघलने की प्रक्रिया में तेजी आई है। बहुत से छोटे हिमनद पहले ही विलुप्त हो चुके हैं। कश्मीर में कोल्हाई हिमनद 20 मीटर तक पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद 23 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहा है।
अगर पिघलने की वर्तमान दर कायम रही तो जल्दी ही हिमालय से सभी हिमनद समाप्त हो जाएँगे जिससे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, झेलम, चिनाब, व्यास, आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इन नदियों पर स्थित जलविद्युत ऊर्जा इकाइयाँ बन्द हो जाएँगी। परिणामस्वरूप विद्युत उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त सिंचाई हेतु जल की कमी के कारण कृषि उत्पादकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। उपर्युक्त नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाने से भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांग्लादेश भी प्रभावित होेंगे।
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जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप जीवांश पदार्थों के तेजी से विघटन के कारण पोषक-चक्र की दर में बढ़ोत्तरी होगी जिसके कारण मृदा की उपजाऊ क्षमता अव्यवस्थित हो जाएगी जो कृषि पैदावार को प्रभावित करेगी। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के कारण पौधों में कार्बन स्थिरीकरण में बढ़ोत्तरी होगी। परिणामस्वरूप मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर कई गुना बढ़ जाएगी। जिसके कारण मृदा की उर्वराशक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मृदा की उर्वराशक्ति को बनाए रखने के लिये रासायनिक खादों के उपयोग की दर में वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वनस्पतियों तथा जन्तुओं पर भी पड़ेगा। स्थानीय महासागर उष्णता 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के कारण प्रशान्त महासागर में सोलोमन मछली की आबादी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई है। बढ़ती उष्णता के कारण वसंत ऋतु में जल्दी बर्फ पिघलने के कारण हडसन की खाड़ी में ध्रुवीय भालुओं की जनसंख्या में गिरावट आई है।
जलवाहयु परिवर्तन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों पर पड़ेगा। आर्थिक क्षेत्र का भौकि मूल ढाँचा जलवायु परिवर्तन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित होगा। बाढ़, सूखा, भूस्खलन तथा समुद्री जलस्तर में वृद्धि के परिणमास्वरूप बड़े पैमाने पर मानव प्रव्रजन होगा जिससे सुरक्षित स्थानों पर भीड़भाड़ की स्थिति पैदा होगी। उष्णता से प्रभावित क्षेत्रों में प्रशीतन हेतु ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन एक गम्भीर वैश्विक समस्या है जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। प्राकृतिक आपदाओं जैसे- सूखा, बाढ़, समुद्री तूफान, अलनीनो की बारम्बारता में बढ़ोत्तरी होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फसलों की उत्पादकता में वृद्धि हेतु कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों तथा रासायनिक खादों पर निर्भरता बढ़ेगी जिससे न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषित होगा अपितु भारत जैसे विकासशील देश में किसानों की आर्थिक दशा में गिरावट होगी। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखते हुए समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि ग्रीन हाउस प्रभाव के लिये उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाई जाये जिससे वैश्विक तापवृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण हो सके और विश्व को जलवायु परिवर्तन के सम्भावित खतरों से बचाया जा सके।
आज बढ़ती मानवीय गतिविधियों व आवश्यकताओं की पूर्ति, प्राकृतिक-संसाधनों का अन्धाधुन्ध प्रयोग इन समस्याओं की मूल जड़ है। इनका उपयोग समुचित व सन्तुलित मात्रा में किया जाना आवश्यक है। अन्यथा भविष्य में होने वाली अनहोनी को टाला नहीं जा सकेगा। जैसा कि हम जानते हैं किसी स्थान की जलवायु स्थिरता वहाँ की कृषि, आमदनी, रोजगार, जल-जीवन, समाज एवं संस्कृति को प्रोत्साहित करते हुए स्थायित्व प्रदान करती है। इसलिये हम सभी को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में पर्यावरणीय पारितंत्र को स्वच्छ एवं स्थायी बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाने के साथ-साथ पर्यावरणीय जागरुकता को जन-जन तक पहुँचाना होगा।
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