ट्रंप के निर्णय से पेरिस समझौते की औपचारिक रूप से मौत हो गई है। ट्रंप ने मूल रूप से पेरिस समझौते को कमजोर कर दिया है। समझौते के चरित्र को भी बदल दिया है। वास्तव में यह समझौता अमेरिका द्वारा डिजाइन और पुश किया गया था। पेरिस समझौते से अमेरिका ने अब अपने हाथ खींच लिये हैं। यह जलवायु वार्ता के इतिहास में दूसरी बार है, जब अमेरिका जलवायु-परिवर्तन वैश्विक समझौते से दूर चला गया है। उसने पूर्व में क्योटो प्रोटोकॉल के साथ भी ऐसा ही किया था। इस बाबत घोषणा से पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में जीवाश्म ईंधन की खपत और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये ओबामा प्रशासन द्वारा शुरू की गई नीतियों को अनिवार्यत: खत्म कर दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात डोनाल्ड ट्रंप ने ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) समेत ग्लोबल क्लाइमेट चेंज इनिशिएटिव को निधि देने से भी इनकार कर दिया। जीसीएफ को विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने और कम कार्बन प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल बढ़ाने में मदद करने के लिये स्थापित किया गया है।
जलवायु परिवर्तन के लिये अमेरिका ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा उत्तरदायी है, वातावरण में इसके कार्बन स्टॉक का 21 प्रतिशत हिस्सा है। यह दुनिया का दूसरा सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाला देश है। अमेरिका का बिजली क्षेत्र अकेले 2015 में दो बिलियन टन से अधिक कार्बन-डाई-आक्साइड उत्सर्जन करने के लिये जिम्मेदार था। जब ट्रंप ने पेरिस समझौते से हटने के निर्णय की घोषणा की तो वास्तव में उन्होंने जलवायु परिवर्तन विरोधी नीतियों के लिये औपचारिक रूप से कुछ नहीं किया।
पेरिस समझौते की औपचारिक मौत
इस साल मार्च में ट्रंप ने ‘ऊर्जा स्वतंत्रता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने’ पर एक व्यापक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए। यह आदेश संघीय भूमि पर कोयला खनन को बढ़ावा देता है, किसी भी नियम या कार्रवाई को रद्द करने, उसमें संशोधन करने या रद्द करने, घरेलू जीवाश्म ईंधन संसाधनों के विकास पर बोझ डाल सकता है, बिजली क्षेत्र से कार्बन प्रदूषण मानकों को रद्द कर सकता है, और स्वच्छ ऊर्जा योजना के कार्यान्वयन को रोक देता है।
कायदे से देखा जाए तो ट्रंप के निर्णय से पेरिस समझौते की औपचारिक रूप से मौत हो गई है। इस फैसले से ट्रंप ने मूल रूप से पेरिस समझौते को कमजोर कर दिया है। साथ ही समझौते के चरित्र को भी बदल दिया है। वास्तव में पेरिस समझौता अमेरिका द्वारा डिजाइन और पुश किया गया था। इस संबंध में अमेरिका पूरी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था। न ही उसकी जलवायु समस्या को सुलझाने में किसी प्रकार की रुचि ही थी।
अमेरिका क्योटो से दूर चला गया था, क्योंकि उसका मानना था कि चीन और भारत जैसे देश उत्सर्जन को कम नहीं कर रहे हैं, और इसलिये वह दोषपूर्ण प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हुआ। इसीलिये पेरिस समझौते में अमेरिका की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये पहली बार सभी 194 देशों ने उत्सर्जन में कमी का वादा किया। इस समझौते को स्वैच्छिक, गैर-कानूनी रूप से बाध्यकारी और गैर-दंडात्मक बनाया गया था। वास्तव में पेरिस समझौता अमेरिका द्वारा, अमेरिका के लिये था। फिर भी अमेरिका इस समझौते से दूर चला गया। अमेरिका का यह कदम विश्व के शेष उन 194 देशों के चेहरे पर जोरदार तमाचा है, जो इसके लिये प्रतिबद्ध थे।
अब आगे क्या?
कई टिप्पणीकारों विशेष रूप से अमेरिकी टिप्पणीकारों ने संकेत दिया कि अन्य देशों को आगे बढ़ना चाहिये। अमेरिका द्वारा छोड़े गए बोझ को मिल कर साझा करना चाहिए। अमेरिका द्वारा पीछे हटना न केवल अनुचित है, बल्कि नैतिक रूप से भी प्रतिकूल है। स्पष्ट हो गया है कि विश्व में अमेरिका अपना गलत व्यवहार जारी रखेगा। यह भी स्पष्ट है कि अब नई परिस्थितियों में यूरोपीय संघ के राष्ट्र, चीन और भारत जैसे विकासशील देशों को पेरिस समझौते के तहत की गई अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये बहुत कुछ करना होगा। लेकिन फिर भी यह ग्लोबल वार्मिंंग को नियंत्रण में रखने के लिये पर्याप्त नहीं होगा। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका में उत्सर्जन में कटौती के बिना हम जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम नहीं हैं। इसलिये पेरिस समझौते के लिये शेष 194 हस्ताक्षरकर्ताओं को अपने स्वामित्व के लिये अमेरिका को जवाबदेह रखने के तरीके ढूंढने होंगे। एक समय था जब दुनिया भर में जलवायु से संबंधित प्रभावों की आवृत्ति और परिणाम, दोनों में एक चौंकाने वाली वृद्धि हुई, जलवायु परिवर्तन के लिये अब अधिक ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। इसलिये अब सभी देशों को एक साथ बैठना होगा।
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