भारत में अधिकतर कृषि जोतों का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है। ऊपर से सीमान्त किसानों की घरेलू आय बहुत तेजी से गिरती जा रही है। इसके साथ-ही-साथ बार-बार सूखा पड़ने के कारण घरेलू गरीबी में वृद्धि हो रही है। जलवायु परिवर्तन से भू-स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होगा। भूतल तापमान बढ़ने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ेगा और प्राकृतिक नाइट्रोजन की उपलब्धता घटेगी, जिसके फलस्वरूप भूमि का क्षरण होगा और मरुस्थल में विस्तार होगा। वास्तव में हमारी कृषि नीति का ढाँचा ही इस तरह का है कि हम जलवायु परिवर्तन की मार खाएँगे ही। बुन्देलखण्ड वह धरती है जहाँ भारत की सीमान्त कृषि का सपना मर गया है। झाँसी की रानी एवं चम्बल के डाकुओं के लिये मशहूर इस सूखाग्रस्त क्षेत्र में यूपी और मध्य प्रदेश दोनों के इलाके शामिल हैं और यह जलवायु बदलाव की चर्चाओं का केन्द्र बना हुआ है।
गत एक दशक से भी ज्यादा समय में इस क्षेत्र ने 2003 से लेकर 2010 तक लगातार सूखे की स्थिति में सामना किया है और फिर 2011 में बाढ़ ने तांडव मचाया। 2012 और 2013 में दोनों वर्षों में मानसून काफी विलम्ब से आया और अब फिर 2014 से यहाँ सूखा पड़ा हुआ है।
यहाँ के किसानों ने खरीफ मौसम दौरान खुश्क फसलों से मिश्रण से लेकर सिंचाई सुविधाओं से लैस शीतकालीन मौसम में मटर और सरसों जैसी नकदी फसलों के साथ गेहूँ की खेती करने तक हर उपाय अपना कर देखा। उन्होंने ट्यूबवेलों के बोर करवाने, ट्रैक्टर, गहाई मशीनों पर भारी निवेश किया और बीज खाद एवं खाद पर खर्च करने के लिये अनौपचारिक स्रोतों (यानी सूदखोरों) से भी ऋण लिया।
गत दो शरद ऋतुओं दौरान गढ़ेमार और बेमौसमी वर्षा ने फसलें बर्बाद कर दीं। मटर की फसल तो अधिकतर बर्बाद ही हो गई थी लेकिन अरहर की फसल तो पूरी तरह ही विफल रही। ऐसी स्थितियों के चलते 2003 से अब तक 3500 किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं और बड़ी संख्या में लोग यहाँ से पलायन भी कर गए हैं।
राहत पहुँचाने की कार्रवाइयाँ कहीं दिखाई नहीं देतीं और यदि कहीं राहत पहुँचाई जाती है तो वह किसानों की बजाय ठेकेदारों के लाभ को ही मद्देनजर रखती है। किसानों को फसल बीमा उपलब्ध करवाने की बजाय गोदाम बनाए जा रहे हैं।
आत्महत्याओं के कारण बेसहारा हो गए परिवार उत्तर प्रदेश सरकार से मुआवजा (प्रति मृत्यु 7 लाख रुपए) मिलने की उम्मीद लगाए हुए हैं। लेकिन यूपी सरकार ने उन्हें मुआवजे की बजाय गेहूँ के थैले पेश किये हैं। चारे और पानी की कमी के कारण मवेशी सूख कर पिंजर बन गए हैं। हताश और निराश किसानों के सामने सिवाय भगवान के आगे प्रार्थना करने के और कोई चारा नहीं रह गया है।
तापमान के घटने-बढ़ने के प्रति भारत की संवेदनशीलता बहुता अनूठी किस्म की है। भारत उन 20 देशों में शीर्ष पर है, जो जलवायु परिवर्तन संवेदनशीलता की सूची में आते हैं। गत चार दशकों से हमारे देश का औसत भूतल तापमान 0.3 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है और इसी के फलस्वरूप बाढ़, सूखे एवं चक्रवातों में वृद्धि हुई है।
भारत में अधिकतर कृषि जोतों का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है। ऊपर से सीमान्त किसानों की घरेलू आय बहुत तेजी से गिरती जा रही है। इसके साथ-ही-साथ बार-बार सूखा पड़ने के कारण घरेलू गरीबी में वृद्धि हो रही है।
जलवायु परिवर्तन से भू-स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होगा। भूतल तापमान बढ़ने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ेगा और प्राकृतिक नाइट्रोजन की उपलब्धता घटेगी, जिसके फलस्वरूप भूमि का क्षरण होगा और मरुस्थल में विस्तार होगा। वास्तव में हमारी कृषि नीति का ढाँचा ही इस तरह का है कि हम जलवायु परिवर्तन की मार खाएँगे ही।
हमारे कृषि शोध कार्यक्रमों को नया रूप देकर फसलों की ऐसी किस्में तैयार करनी होंगी, जो सूखे को झेल सकें और उत्पादन लागतों में लगभग एक-तिहाई तक कमी ला सके। ‘जीरो टिल्लेज’ एवं लेजर आधारित लैवलिंग से जल और भूमि संसाधनों को बचाए रखने में सहायता मिलेगी।
सबसे बड़ी राहत कृषि बीमा एवं सस्ते ऋण की उपलब्धता है। हमें औपचारिक ऋण प्रणाली यानी बैंकिंग व्यवस्था को विस्तार देना होगा ताकि यह सीमान्त किसानों के लिये लाभदायक बन सके। फसल बीमा सभी फसलों के लिये उपलब्ध होना चाहिए और ऋणों पर ब्याज केवल नाममात्र का ही होना चाहिए। जो इलाके सूखे से प्रभावित हैं और जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं, वहाँ ऋण माफी एवं ब्याज माफी जैसी नीतियाँ लागू की जानी चाहिए।
विशेष रूप में एक कृषि ऋण जोखिम कोष स्थापित किया जाना चाहिए, जो किसी भी आपदा के तुरन्त बाद प्रभावित लोगों को ऋण उपलब्ध करवाए। केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर कृषि, मवेशी एवं कृषक परिवारों के स्वास्थ्य के लिये बीमा पैकेज लांच करना चाहिए।
जलवायु परिवर्तन हमारी सम्पूर्ण खाद्य उत्पादन शृंखला को आघात पहुँचाएगा, जिससे हमारी खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी। जिस पशुपालन को सीमान्त किसानों के लिये एक वैकल्पिक धंधा माना जाता है, वह पशुपालन भी चारे की कमी के कारण कम होता जा रहा है। भारत की जनसंख्या की ओर से विभिन्नता युक्त फसलों की माँग लगातार बढ़ रही है।
फसलों का झाड़ लगातार बिगड़ रहे भूस्वास्थ्य के कारण लगातार कम होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ और भी कई खतरे मुँह बाए खड़े हैं और इन सभी का मुकाबला तभी किया जा सकता है यदि खाद्य फसलों में अधिक निवेश हो और सिंचाई, बुनियादी ढाँचा व ग्रामीण संस्थानों पर अधिक निवेश किया जाये।
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Post By: RuralWater