एशियाई विकास बैंक की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से यदि दुनिया निपटने में विफल रही तो इस सदी के अंत तक भारत को आर्थिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 8.7 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार यदि मौजूदा जलवायु परिवर्तन के खतरे के बावजूद वैश्विक व्यवहार में तब्दीली नहीं आयी तो भारत समेत उसके पड़ोसियों बंग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचने की आशंका है। इसके चलते वर्ष 2050 तक भारत की जीडीपी को वार्षिक रूप से औसतन 1.8 प्रतिशत आर्थिक नुकसान होने का खतरा है। जम्मू-कश्मीर में जल प्रलय दरअसल जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम है। यह निष्कर्ष सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवायरनमेंट (सीएसई) का है। 2005 की मुंबई में आयी बाढ़, 2010 में लेह में बादल फटने तथा 2013 की उत्तराखंड आपदा और अब जम्मू-कश्मीर में जल प्रलय की असमान्य घटनाओं के अध्ययन पर आधारित सीएसई की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि ये घटनाएं बारिश के स्वरूप में आ रहे बदलाव का संकेत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर का जल प्रलय इस बात का दुखद संकेत है कि भारत में जलवायु परिवर्तन का दौर तेजी से चल रहा है। पिछले दस साल में पूरे देश में कई स्थानों पर अतिवृष्टि की घटनाएं सामने आयी हैं।
जम्मू-कश्मीर में अनियोजित विकास, विशेषकर नदी और झीलों के किनारों ने जल प्रलय की विभीषिका को और भी बढ़ा दिया है। श्रीनगर की 50 प्रतिशत झीलें और तालाब अतिक्रमण का शिकार हो चुके हैं। झेलम नदी के किनारे पर कब्जा करके बिल्डिंगें खड़ी की जा चुकी हैं। इससे नदी की निकासी क्षमता काफी कम हो गई है। इसलिए इन इलाकों में जानमाल का ज्यादा नुकसान हुआ है। इसी तरह मुंबई की मीठी नदी लगभग पूरी की पूरी अवैध कब्जे में चली गई थी। इसका नतीजा 2005 में मुंबई के कई इलाकों में हुए भारी विनाश के रूप में देखने को मिला। लेह जैसे इलाके में, जहां कई साल साल बारिश ही नहीं होती, आधे घंटे के अंदर लगभग एक मीटर पानी बरस जाना किसी दैवी आपदा जैसा ही लगता है।
पिछले 3-4 वर्षों के दौरान लेह, लद्दाख, पाकिस्तान, उत्तराखंड की घाटी केदारनाथ में आए जल प्रलय ने वहां के जनजीवन को भारी क्षति पहुंचाई है। अब जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ जिस तरह वर्षा और बाढ़ आई है, उससे यह बात साफ हो गई है कि भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। बर्फबारी के लिए मशहूर इलाकों में मूसलाधार बारिश हो रही है। धान और खेती का गढ़ समझे जाने वाले इलाके सूखते जा रहे हैं। उधर, राजस्थान और सिंध के रेगिस्तानी इलाकों में महीनों पानी भरा रहा। मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि यह संकट जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुआ है।
एशियाई विकास बैंक की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से यदि दुनिया निपटने में विफल रही तो इस सदी के अंत तक भारत को आर्थिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 8.7 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार यदि मौजूदा जलवायु परिवर्तन के खतरे के बावजूद वैश्विक व्यवहार में तब्दीली नहीं आयी तो भारत समेत उसके पड़ोसियों बंग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचने की आशंका है। इसके चलते वर्ष 2050 तक भारत की जीडीपी को वार्षिक रूप से औसतन 1.8 प्रतिशत आर्थिक नुकसान होने का खतरा है। अन्य पड़ोसियों की भी कमोबेश यही स्थिति रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है।
इसके विपरीत यदि वैश्विक प्रयासों के चलते वर्ष 2100 तक तापमान में बढ़ोत्तरी दो डिग्री सेल्सियस से कम रहती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था के नुकसान की दर भी दो प्रतिशत से कम रहेगी। देश की अधिकांश ग्रामीण आबादी को कृषि से रोजगार और जीवकोपार्जन के अवसर उपलब्ध होते हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान में बढ़ोत्तरी और बारिश के स्तर में बदलाव होने के कारण इस परिवर्तन से संबंधित बाढ़ और सूखे के खतरे बढ़ जाते हैं। परिणामस्वरूप लोगों की खाद्य सुरक्षा और जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।
वर्षा के स्तर के प्रभावित होने के चलते पूर्वोत्तर राज्यों की धान की पैदावार तो बढ़ जाएगी, लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों की वार्षिक पैदावार में इस सदी के चौथे दशक में 5 प्रतिशत, छठें दशक में 14.5 प्रतिशत और नौवें दशक में 17 प्रतिशत तक की गिरावट आएगी।
देश की तटीय रेखा तकरीबन 8000 किमी लंबी है। इसके चलते समुद्र के जलस्तर के बढ़ने से तकरीबन आधे राज्य बुरी तरह प्रभावित होंगे। गुजरात और महाराष्ट्र के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की आशंका रिपोर्ट में व्यक्त की गई है। हिमाचल के ग्लेशियर और बर्फ पिघलने से अर्ध शुष्क पर्वतों के आसपास रहने वाले तकरीबन 17 करोड़ लोग मौसमी चक्र के परिवर्तन के कारण प्रभावित होंगे। जलवायु में आ रहे बदलाव का खेती के लिए खतरे की घंटी है।
आज भी हमारी खेती काफी हद तक मानसून पर निर्भर करती है। बरसात का मौसम किसानों के लिए खुशियां लेकर आता है। जब अच्छी वर्षा होती है तो फसल भी अच्छी होती है। देश में लगभग 70 फीसदी वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून के समय जून से सितंबर तक मात्र चार महीने में होती है। पर यह वर्षा देश में सभी जगह एक समान नहीं होती है। कहीं अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ की समस्या पैदा हो जाती है तो कुछ स्थान कम वर्षा होने के कारण सूखे की चपेट में आ जाते हैं। देश के एक-तिहाई हिस्से में सूखे की संभावना सदैव बनी रहती है। इसमें हर वर्ष या कुछ वर्षों के बाद बार-बार भयंकर सूखे की समस्या का सामना करना पड़ता है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार देश में सूखा पड़ना और कमजोर या कम बरसात का होना, पश्चिमी प्रशांत महासागर की सतह पर होने वाली घटनाओं से जुड़ा है, जिसे ‘एल-नीनो’ और ‘ला-नीनो’ कहा जाता है।
विश्व बैंक ने भारत को चेताया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2040 तक भारत में खाद्यान उत्पादन में काफी गिरावट आ सकती है। देश का 60 फीसदी खाद्यान उत्पादन मानसून पर आधारित है। वर्ष 2050 तक अगर वैश्विक तापमान में दो से ढाई फीसदी तक वृद्धि होती है तो गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों के जलस्तर में काफी गिरावट आ सकती है। इससे 63 करोड़ लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा पर संकट पैदा हो सकती है। जबकि जलस्तर मे कमी कई अन्य समस्याओं को भी पैदा करेगी। विश्व बैंक ने एक बेहद प्रतिष्ठित संस्थान से यह अध्ययन करवाया है और रिपोर्ट तैयार करने में 25 वैज्ञानिकों की मदद ली गई है।
एक ताजा शोध में चेतावनी दी गई है कि अगर समुद्र का जल स्तर एक मीटर तक बढ़ा तो भारतीय उपमहाद्वीप का करीब 13,973 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र समुद्र में गुम हो जाएगा और अगर 6 मीटर तक जल स्तर बढ़ा तो विभीषिका में देश की 60,497 वर्ग किलोमीटर की जमीन जलमग्न हो जाएगी।रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2090 तक वैश्विक तापमान में अगर चार फीसदी की वृद्धि होती है तो इससे दक्षिण एशियाई देशों पर काफी असर पड़ेगा। इस पर्यावरण परिवर्तन का भारी खमियाजा देश को चुकाना पड़ सकता है। एक मीटर तक समुद्र का जल स्तर बढ़ने पर आने वाले वक्त में देश की सीमावर्ती 14000 वर्ग किलोमीटर जमीन हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में समा जाएगी। इन जमीनों में देश की समृद्ध वन संपदा, मरूभूमि और आबादी वाले क्षेत्र हैं। देश के 148 प्राकृतिक क्षेत्रों में से 68 तटीय क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं।
एक ताजा शोध में चेतावनी दी गई है कि अगर समुद्र का जल स्तर एक मीटर तक बढ़ा तो भारतीय उपमहाद्वीप का करीब 13,973 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र समुद्र में गुम हो जाएगा और अगर 6 मीटर तक जल स्तर बढ़ा तो विभीषिका में देश की 60,497 वर्ग किलोमीटर की जमीन जलमग्न हो जाएगी। कोपेनहेगेन में ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2010 द्वारा जारी सूची मे भारत उन प्रथम दस देशों में है, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक अध्ययन के अनुसार 2050 तक ठंड के दिनों का तापमान 3.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है। मानसून की बारिश कम हो सकती है और ठंड में होने वाली वर्षा में भी 15-20 प्रतिशत की कमी आ सकती है। साथ ही साथ वर्षा के समय में भी बदलाव होने की आशंका की जा रही है। नतीजतन इसका असर हमारी कृषि और उसके फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय आय को भी प्रभावित करेगा।
गौरतलब है कि जलवायु कटिबंध का असर लंबे समय बाद देखने को मिलता है। जैसे बारिश जून-जुलाई में शुरू हो जाती है। 20 से 25 साल बाद बारिश अगस्त-सितंबर में शुरू हो सकता है। ठंड, गर्मी और बारिश को चार-चार महीने में बांटा गया है। आने वाले समय में बारिश की तिथि में गर्मी रहेगी और ढंड के दिनों में बारिश होगी। तिथि आगे बढ़ जाएगी। बदलाव की यह प्रक्रिया पहले की तुलना में तेज हो गई है। जलवायु कटिबंध पृथ्वी की एक प्रणाली है। इस प्रणाली के अनुसार गर्मी, ठंड और बारिश होती है।
भारत शीतोष्ण कटिबंध वाला क्षेत्र है। इसे विश्व का मानसूनी क्षेत्र भी कहा जाता है। पहले पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या अधिक थी। अब इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप होने की वजह से पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग का असर है। इसके कारण धीरे-धीरे जलवायु बदल रही है। ठंड के दिनों में बारिश होने लगी है और बारिश के समय में तेज गर्मी। ये इसी का असर है।
पृथ्वी का तापमान लगातार और तेजी से बढ़ रहा है। इसका सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है। इसकी कुछ वजह प्राकृतिक है और अधिकतर मानवीय क्रिया कलापों की वजह से है। जैसे अत्यधिक औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्घि, पेड़ों की कटान, अधिक ऊर्जा का उपयोग, बढ़ता शहरीकरण, भू-उपयोग में बदलाव, वाहनों में वृद्धि, गांवों से बढ़ता पलायन। पिछले कुछ वर्षों में जलवायु मे तेजी से परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। इससे भी अत्यधिक ठंड पड़ रही है तो कभी अत्यधिक गर्मी पड़ रही है। प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं।
और अंत में
प्रस्तुत है शंकरानंद की ‘कोई’ शीर्षक कविता की पंक्तियां :
इस समय कोई बचा रहा है अपनी रोटी कटोरे में
जिसे भिगोने के लिए खूब बरस रहा है पानी
कोई कोबा मे उठा रहा है बीज
नींद में संभाल रहा है स्वप्न
कोई चूल्हे में बचा रहा है आग इस समय
कोई थामे हुए है टीन की छत
जिसे उड़ाने के लिए चल रही है आंधी।
-निर्विकार
जम्मू-कश्मीर में अनियोजित विकास, विशेषकर नदी और झीलों के किनारों ने जल प्रलय की विभीषिका को और भी बढ़ा दिया है। श्रीनगर की 50 प्रतिशत झीलें और तालाब अतिक्रमण का शिकार हो चुके हैं। झेलम नदी के किनारे पर कब्जा करके बिल्डिंगें खड़ी की जा चुकी हैं। इससे नदी की निकासी क्षमता काफी कम हो गई है। इसलिए इन इलाकों में जानमाल का ज्यादा नुकसान हुआ है। इसी तरह मुंबई की मीठी नदी लगभग पूरी की पूरी अवैध कब्जे में चली गई थी। इसका नतीजा 2005 में मुंबई के कई इलाकों में हुए भारी विनाश के रूप में देखने को मिला। लेह जैसे इलाके में, जहां कई साल साल बारिश ही नहीं होती, आधे घंटे के अंदर लगभग एक मीटर पानी बरस जाना किसी दैवी आपदा जैसा ही लगता है।
पिछले 3-4 वर्षों के दौरान लेह, लद्दाख, पाकिस्तान, उत्तराखंड की घाटी केदारनाथ में आए जल प्रलय ने वहां के जनजीवन को भारी क्षति पहुंचाई है। अब जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ जिस तरह वर्षा और बाढ़ आई है, उससे यह बात साफ हो गई है कि भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। बर्फबारी के लिए मशहूर इलाकों में मूसलाधार बारिश हो रही है। धान और खेती का गढ़ समझे जाने वाले इलाके सूखते जा रहे हैं। उधर, राजस्थान और सिंध के रेगिस्तानी इलाकों में महीनों पानी भरा रहा। मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि यह संकट जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुआ है।
एशियाई विकास बैंक की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से यदि दुनिया निपटने में विफल रही तो इस सदी के अंत तक भारत को आर्थिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 8.7 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार यदि मौजूदा जलवायु परिवर्तन के खतरे के बावजूद वैश्विक व्यवहार में तब्दीली नहीं आयी तो भारत समेत उसके पड़ोसियों बंग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचने की आशंका है। इसके चलते वर्ष 2050 तक भारत की जीडीपी को वार्षिक रूप से औसतन 1.8 प्रतिशत आर्थिक नुकसान होने का खतरा है। अन्य पड़ोसियों की भी कमोबेश यही स्थिति रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है।
इसके विपरीत यदि वैश्विक प्रयासों के चलते वर्ष 2100 तक तापमान में बढ़ोत्तरी दो डिग्री सेल्सियस से कम रहती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था के नुकसान की दर भी दो प्रतिशत से कम रहेगी। देश की अधिकांश ग्रामीण आबादी को कृषि से रोजगार और जीवकोपार्जन के अवसर उपलब्ध होते हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान में बढ़ोत्तरी और बारिश के स्तर में बदलाव होने के कारण इस परिवर्तन से संबंधित बाढ़ और सूखे के खतरे बढ़ जाते हैं। परिणामस्वरूप लोगों की खाद्य सुरक्षा और जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।
वर्षा के स्तर के प्रभावित होने के चलते पूर्वोत्तर राज्यों की धान की पैदावार तो बढ़ जाएगी, लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों की वार्षिक पैदावार में इस सदी के चौथे दशक में 5 प्रतिशत, छठें दशक में 14.5 प्रतिशत और नौवें दशक में 17 प्रतिशत तक की गिरावट आएगी।
देश की तटीय रेखा तकरीबन 8000 किमी लंबी है। इसके चलते समुद्र के जलस्तर के बढ़ने से तकरीबन आधे राज्य बुरी तरह प्रभावित होंगे। गुजरात और महाराष्ट्र के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की आशंका रिपोर्ट में व्यक्त की गई है। हिमाचल के ग्लेशियर और बर्फ पिघलने से अर्ध शुष्क पर्वतों के आसपास रहने वाले तकरीबन 17 करोड़ लोग मौसमी चक्र के परिवर्तन के कारण प्रभावित होंगे। जलवायु में आ रहे बदलाव का खेती के लिए खतरे की घंटी है।
आज भी हमारी खेती काफी हद तक मानसून पर निर्भर करती है। बरसात का मौसम किसानों के लिए खुशियां लेकर आता है। जब अच्छी वर्षा होती है तो फसल भी अच्छी होती है। देश में लगभग 70 फीसदी वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून के समय जून से सितंबर तक मात्र चार महीने में होती है। पर यह वर्षा देश में सभी जगह एक समान नहीं होती है। कहीं अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ की समस्या पैदा हो जाती है तो कुछ स्थान कम वर्षा होने के कारण सूखे की चपेट में आ जाते हैं। देश के एक-तिहाई हिस्से में सूखे की संभावना सदैव बनी रहती है। इसमें हर वर्ष या कुछ वर्षों के बाद बार-बार भयंकर सूखे की समस्या का सामना करना पड़ता है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार देश में सूखा पड़ना और कमजोर या कम बरसात का होना, पश्चिमी प्रशांत महासागर की सतह पर होने वाली घटनाओं से जुड़ा है, जिसे ‘एल-नीनो’ और ‘ला-नीनो’ कहा जाता है।
विश्व बैंक ने भारत को चेताया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2040 तक भारत में खाद्यान उत्पादन में काफी गिरावट आ सकती है। देश का 60 फीसदी खाद्यान उत्पादन मानसून पर आधारित है। वर्ष 2050 तक अगर वैश्विक तापमान में दो से ढाई फीसदी तक वृद्धि होती है तो गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों के जलस्तर में काफी गिरावट आ सकती है। इससे 63 करोड़ लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा पर संकट पैदा हो सकती है। जबकि जलस्तर मे कमी कई अन्य समस्याओं को भी पैदा करेगी। विश्व बैंक ने एक बेहद प्रतिष्ठित संस्थान से यह अध्ययन करवाया है और रिपोर्ट तैयार करने में 25 वैज्ञानिकों की मदद ली गई है।
एक ताजा शोध में चेतावनी दी गई है कि अगर समुद्र का जल स्तर एक मीटर तक बढ़ा तो भारतीय उपमहाद्वीप का करीब 13,973 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र समुद्र में गुम हो जाएगा और अगर 6 मीटर तक जल स्तर बढ़ा तो विभीषिका में देश की 60,497 वर्ग किलोमीटर की जमीन जलमग्न हो जाएगी।रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2090 तक वैश्विक तापमान में अगर चार फीसदी की वृद्धि होती है तो इससे दक्षिण एशियाई देशों पर काफी असर पड़ेगा। इस पर्यावरण परिवर्तन का भारी खमियाजा देश को चुकाना पड़ सकता है। एक मीटर तक समुद्र का जल स्तर बढ़ने पर आने वाले वक्त में देश की सीमावर्ती 14000 वर्ग किलोमीटर जमीन हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में समा जाएगी। इन जमीनों में देश की समृद्ध वन संपदा, मरूभूमि और आबादी वाले क्षेत्र हैं। देश के 148 प्राकृतिक क्षेत्रों में से 68 तटीय क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं।
एक ताजा शोध में चेतावनी दी गई है कि अगर समुद्र का जल स्तर एक मीटर तक बढ़ा तो भारतीय उपमहाद्वीप का करीब 13,973 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र समुद्र में गुम हो जाएगा और अगर 6 मीटर तक जल स्तर बढ़ा तो विभीषिका में देश की 60,497 वर्ग किलोमीटर की जमीन जलमग्न हो जाएगी। कोपेनहेगेन में ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2010 द्वारा जारी सूची मे भारत उन प्रथम दस देशों में है, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक अध्ययन के अनुसार 2050 तक ठंड के दिनों का तापमान 3.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है। मानसून की बारिश कम हो सकती है और ठंड में होने वाली वर्षा में भी 15-20 प्रतिशत की कमी आ सकती है। साथ ही साथ वर्षा के समय में भी बदलाव होने की आशंका की जा रही है। नतीजतन इसका असर हमारी कृषि और उसके फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय आय को भी प्रभावित करेगा।
गौरतलब है कि जलवायु कटिबंध का असर लंबे समय बाद देखने को मिलता है। जैसे बारिश जून-जुलाई में शुरू हो जाती है। 20 से 25 साल बाद बारिश अगस्त-सितंबर में शुरू हो सकता है। ठंड, गर्मी और बारिश को चार-चार महीने में बांटा गया है। आने वाले समय में बारिश की तिथि में गर्मी रहेगी और ढंड के दिनों में बारिश होगी। तिथि आगे बढ़ जाएगी। बदलाव की यह प्रक्रिया पहले की तुलना में तेज हो गई है। जलवायु कटिबंध पृथ्वी की एक प्रणाली है। इस प्रणाली के अनुसार गर्मी, ठंड और बारिश होती है।
भारत शीतोष्ण कटिबंध वाला क्षेत्र है। इसे विश्व का मानसूनी क्षेत्र भी कहा जाता है। पहले पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या अधिक थी। अब इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप होने की वजह से पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग का असर है। इसके कारण धीरे-धीरे जलवायु बदल रही है। ठंड के दिनों में बारिश होने लगी है और बारिश के समय में तेज गर्मी। ये इसी का असर है।
पृथ्वी का तापमान लगातार और तेजी से बढ़ रहा है। इसका सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है। इसकी कुछ वजह प्राकृतिक है और अधिकतर मानवीय क्रिया कलापों की वजह से है। जैसे अत्यधिक औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्घि, पेड़ों की कटान, अधिक ऊर्जा का उपयोग, बढ़ता शहरीकरण, भू-उपयोग में बदलाव, वाहनों में वृद्धि, गांवों से बढ़ता पलायन। पिछले कुछ वर्षों में जलवायु मे तेजी से परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। इससे भी अत्यधिक ठंड पड़ रही है तो कभी अत्यधिक गर्मी पड़ रही है। प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं।
और अंत में
प्रस्तुत है शंकरानंद की ‘कोई’ शीर्षक कविता की पंक्तियां :
इस समय कोई बचा रहा है अपनी रोटी कटोरे में
जिसे भिगोने के लिए खूब बरस रहा है पानी
कोई कोबा मे उठा रहा है बीज
नींद में संभाल रहा है स्वप्न
कोई चूल्हे में बचा रहा है आग इस समय
कोई थामे हुए है टीन की छत
जिसे उड़ाने के लिए चल रही है आंधी।
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Post By: pankajbagwan