अनुवाद - संजय तिवारी
बिफूर गाँव के नाथूराम के पास 1.8 हेक्टेयर जमीन है। अपनी इस जमीन से वे हर सीजन में करीब सवा लाख रूपये मूल्य की फसल पैदा कर लेते थे। लेकिन पानी की कमी ने धीरे-धीरे उनकी पैदावार कम कर दी और करीब आधी जमीन बेकार हो गयी। हालात इतने बदतर हो गये कि बहुत मेहनत से भी खेती करते तो बीस हजार रुपये से ज्यादा कीमत की फसल पैदा नहीं कर पाते थे। नाथूराम बताते हैं कि “जब खेती से गुजारा करना मुश्किल हो गया तब हमने मजदूरी करने के लिये दूसरे जिलों में जाना शुरू कर दिया।”
बिफूर राजस्थान के टोंक जिले में मालपुरा ब्लॉक में पड़ता है। बिफूर की यह दुर्दशा सब गाँव वाले देख रहे थे लेकिन इस दुर्दशा को कैसे ठीक किया जाए इसकी योजना किसी के पास नहीं थी। फिर एक संस्था की पहल ने गाँव की दशा बदल दी। वह हरियाली जो सूख गयी थी वह वापस लौट आयी। अब बिफूर के किसान मजदूरी करने के लिये दूसरे जिलों में नहीं जाते और न ही कर्ज लेकर खाद बीज खरीदते हैं। पानी के प्रबंधन ने उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया है और उनकी जिन्दगी में अच्छे दिन फिर से लौट आये हैं।
सिकोइडिकोन ने निकाला समस्या का समाधान
बिफूर की समस्या भी वैसे ही विकट थी जैसी आज देश के कई गाँवों की हो चली है। भूजल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है और जमीन बंजर बनती जा रही है। वर्षा अनियमित हो चली थी और जमीन का कटाव भी एक बड़ी समस्या थी। बीज जमीन में तो डाले जाते थे लेकिन वातावरण में इतनी तपिश रहती थी कि अंकुर फूटकर बाहर नहीं निकलते थे। बीज जमीन में ही जल जाते थे। पानी की कमी के कारण वातावरण और जमीन दोनों जगह से नमी गायब हो गयी थी।
आज से डेढ़ दशक पहले बिफूर में यही त्रासदी यहाँ की सच्चाई थी। ऐसे ही वक्त में जयपुर की एक संस्था सिकोईडिकोन (सेन्टर फॉर कम्युनिटी इकोनॉमिक्स एण्ड डवलपमेंट कन्सल्टेण्ट सोसायटी) ने यहाँ कदम रखा। 2001 में उसने यहाँ एक ग्राम विकास समिति की स्थापना की। बिफूर गाँव में कुल 150 परिवार थे जिसमें नट, गूजर और बैरवा समुदाय के लोग थे। यहाँ आने के बाद संस्था ने सबसे पहले पंचाय से संपर्क किया। संस्था के सचिव शरद जोशी का कहना है कि “पंचायत के सहयोग से सबसे पहले हमने लोगों में यह अहसास जगाने की कोशिश की कि यह उनका ही काम है और उन्हें ही करना है। इसके बाद लगातार स्थानीय लोगों से सलाह मशविरा करके हमने यह जानने की कोशिश की कि पानी की कमी हो या मिट्टी का कटान, उसके कारण क्या हैं। इसके साथ ही हमने कृषि उत्पादन और भंडारण आदि के बारे में भी जानकारियाँ इकट्ठा की।” संस्था से जुड़े विशेषज्ञों ने इस बात को महसूस किया कि सबसे पहले पानी का संरक्षण जरूरी है। यही वह रास्ता है जिसके जरिए कृषि उपज को बढ़ाया जा सकता है। मालपुरा ब्लॉक में संस्था के लिये काम कर रहे बजरंग सैन ने हमें बताया कि पानी बचाने के लिये हमारे सामने वर्षाजल को संरक्षित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था।
लेकिन शुरुआत कुओं से की गयी। कुओं को गहरा किया गया। ऐसा इसलिये किया गया ताकि तात्कालिक तौर पर पीने के पानी की समस्या का समाधान हो सके। इस काम के लिये श्रमिकों को आधी मजदूरी संस्था ने दिया जबकि आधी मजदूरी गाँव के लोगों ने मिलकर दिया। कुओं को गहरा तो कर दिया गया लेकिन यह भी बहुत सफल नहीं रहा। जल्द ही कुओं का जलस्तर और नीचे चला गया। जाहिर है सिर्फ कुओं को गहरा करने से बिफूर की समस्या का समाधान नहीं होने वाला था। सालभर कुओं में जलस्तर बनाये रखने के लिये जरूरी था कि गाँव में जल संरक्षण का काम शुरू किया जाए ताकि कुओं को और गहरा न किया जाए बल्कि भूजल स्तर ऊपर उठ सके।
इसके बाद ही बिफूर में जल संरक्षण का काम शुरू कर दिया गया। मिट्टी के ही बाँध बनाये गये ताकि पानी को रोका जा सके। अतिरिक्त पानी को नालियों के जरिए एक तालाब में पहुँचा दिया गया। तालाब के पानी का स्थानीय लोगों द्वारा उपयोग के साथ-साथ भूजल स्तर ऊपर उठाने के लिये भी यह जरूरी था। इस तरह बाँध और तालाब के कारण अब यह सुनिश्चित हो गया था कि कुएँ में सालभर पानी बना रहेगा। सीकोइडिकोन ने करीब 100 हेक्टेयर जमीन पर जल संरक्षण का काम किया। इसका परिणाम यह हुआ कि आस-पास के गाँवों में भी जल संरक्षण के इस तरह के प्रयोग शुरू कर दिये गये।
पहले नमी की कमी के कारण जमीन में बीज जल जाते थे और अंकुरण नहीं आता था लेकिन अब ऐसा नहीं था। नमी के कारण अब पूरे बीज अंकुरित होने लगे। पानी की उपलब्धता होने के बाद खेतों में पैदावार बढ़ी। किसानों का फसलचक्र फिर से जीवित हो गया। केवल मनुष्य के लिये अन्न की पैदावार ही नहीं बढ़ी बल्कि पशुओं के लिये चारे की पैदावार में भी बढ़त हुई जिसके कारण गाँव में दुग्ध उत्पादन में भी बढ़त हुई।
जलवायु परिवर्तन का असर
गाँव के किसान भी इस बात को मानते हैं कि स्थानीय इलाके में वर्षा में बदलाव के कारण उनकी खेती में भी परिवर्तन आया है। किसान कालू सिंह कहते हैं कि बारिश में यह बदलाव साफ दिख रहा है। पहले चार महीने बारिश होती थी, अब सिर्फ दो महीने होती है। अब तो मानसून खत्म हो जाने के बाद बारिश होती है। इसके कारण किसान अब ऐसी फसलें बो रहे हैं जिसमें पानी भी कम लगे और समय भी। घासीलाल बैरवा बताते हैं कि अब हम मूंग, उड़द और ज्वार की फसल बोते हैं। ये फसलें साठ से सत्तर दिन में तैयार हो जाती हैं। अब किसान ऐसी फसलें नहीं लगाते जो पकने में ज्यादा समय लेती हैं।
किसान बताते हैं कि हालाँकि बारिश के समय में कमी आयी है लेकिन बारिश की मात्रा में बढ़त हुई है। किसान घासीलाल बताते हैं कि अब अधिक बारिश होने के कारण कई बार खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं। कभी-कभी तो दस-पंद्रह दिन बारिश होती रहती है जिससे फसलों का नुकसान ही होता है। लेकिन जल संरक्षण के कारण हवा में सालभर नमी बनी रहती है जिसके कारण गेहूँ और सरसों जैसी दूसरी फसलों में इसका फायदा मिलता है। किसान मानते हैं कि बारिश में आये बदलाव की वजह से पैदावार में कमी आयी है। इसी तरह सर्दी के दिनों में भी कमी देखने को आ रही है। अब सर्दियाँ देर से शुरू होकर जल्दी खत्म हो जाती हैं इसके कारण गेहूँ की पैदावार पर फर्क पड़ रहा है। इस पर भी सर्दियों के मौसम में होनेवाली बारिश भी अब यदा कदा ही होती है।
राजस्थान का मौसम विभाग भी किसानों की राय से सहमत है। मौसम विभाग का कहना है कि मौसम में यह बदलाव नया नहीं है। पहले भी इस तरह के बदलाव आते रहे हैं। फिर भी मौसम विभाग का कहना है कि तापमान में वृद्धि हो रही है, यह सच है। टोंक का कोई विस्तृत आंकड़ा मौसम विभाग के पास इसलिये नहीं है क्योंकि टोंक में मौसम विभाग का कोई स्टेशन नहीं है। ऐसे में सिकोइडिकोन के श्री जोशी को उम्मीद है कि पानी प्रबंधन से बहुत फर्क पड़ा है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इससे बढ़ते तापमान और असमय बारिश को रोकने में मदद मिलेगी।
सरकार को भी गाँवों में किये जा रहे ‘पानी की खेती’ का महत्त्व समझ में आ रहा है। पहले यह काम व्यक्तिगत स्तर पर ही किया जा रहा था लेकिन इसके महत्त्व को देखते हुए अब इसे मनरेगा से जोड़ दिया गया है। बिफूर के किसान घासीलाल बैरवा कहते हैं कि अब खेत में तालाब बनाने की जरूरत है। मनरेगा के तहत बिफूर में खेत में तालाब बनने शुरू भी हो गये हैं।
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