जलवायु परिवर्तन से वर्षा का क्षेत्रीय संतुलन एवं सागरों का वाष्पीकरण का तंत्र बदल जाएगा। जिससे कहीं अतिवृष्टि एवं बाढ़ से मानव जीवन त्रस्त रहेगा तो कहीं सूखे एवं जल संकट से मानव एवं अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व समाप्ति के कगार पर होगा।
जलवायु परिवर्तन? मानव एवं सभी जीव-जन्तुओं के लिये तात्कालिक एवं दूरगामी खतरों का पिटारा होने के फलस्वरूप वर्तमान में विश्वव्यापी बहस का मुद्दा बन चुका है। संसार के विषम जलवायु एवं दुरूह भौगोलिक परिस्थितियों के गरीब निवासियों से लेकर विकसित राष्ट्रों के वातानुकूलित जीवनयापन करने वाले धनाढ्य वर्ग में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न विनाशकारक दुष्प्रभावों एवं क्रियाकलापों से चिन्ता एवं भय व्याप्त है। यद्यपि चिंता का कारण विकसित एवं गरीब समाज के लिये भिन्न है। एक ओर जलवायु परिवर्तन जल, जंगल एवं जमीन से रोजी-रोटी प्राप्त करने वाले धरातलीय एवं गरीब वर्ग के लिये जीवनमरण का प्रश्न है वहीं दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग की रईसी, वांछित जीवन शैली एवं मौज-मस्ती में व्यवधान की दस्तक तथा उनके औद्योगिक हितों एवं प्रकृति पर नियंत्रण की होड़ में भारी अड़चन है। विश्व की अधिकांश प्राकृतिक आपदाओं को भी जलवायु परिवर्तन के प्रतिफल के रूप में देखा जाता है।अपने को विकास एवं विज्ञान के चरमोत्कर्ष पर समझने वाले इंसान की हालत प्रकृति के तांडव के समक्ष हिमालय की उफनती नदी में चीटी के समान सिर्फ अपनी जान बचाने जैसी हो जाती है। विश्व के अनेक समुद्र तटीय क्षेत्रों में चाहे सुनामी व चक्रवात का विकराल व रौद्र रूप हो, पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर भू-स्खलन, बर्फबारी या बर्फीले तूफान का मंजर हो, अलनीनों द्वारा ऋतुचक्र में परिवर्तन व बाढ़ - सूखे, सर्दी, गर्मी की मार हो या भूकम्प की विनाश लीला हो, जल के अभाव से उपजाऊ व सिंचित भूमि का मरुस्थलीकरण हो, जीव जन्तुओं एवं वनस्पति प्रजातियों के संकटग्रस्त या विलुप्त होने का मसला हो या ग्रीनहाउस गैसों के कारण ओजोन परत के बढ़ते छिद्र का समस्या हो, सभी को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में गिना जाता है। जलवायु परिवर्तन कहीं तो गुमनाम व बेजुबान हत्यारे के रूप में मनुष्य एवं प्राकृतिक संसाधनों, पारिस्थितिकीय तंत्र को धीमा जहर बनकर नष्ट कर रहा है तो कहीं अपना रौद्र रूप दिखाकर पल झपकते ही मनुष्य के विकास के स्तम्भों को ध्वस्त कर नामो-निशान मिटा देता है। भूमंडलीकरण एवं भौतिकवाद के इस दौर में मानव के असुरक्षित भविष्य की चिंता इस बात को लेकर बढ़ती जा रही है कि विश्व जलवायु का ढाँचा मनुष्य के अपने ही क्रिया-कलापों द्वारा बदला जा रहा है।
जलवायु प्रणाली क्या है
जलवायु प्रणाली भू-मंडल, जीव-मंडल एवं वायुमंडल की परस्पर आधारित एक जटिल तंत्र है जोकि गतिशीलता के पैत्रिक लक्षणों के कारण एक दूसरे मंडल को प्रभावित करते रहते हैं। जलवायु प्रणाली के मुख्य घटक सूर्य एवं उससे प्राप्त ऊर्जा होती है जिससे पृथ्वी पर अधिकांश गतिविधियाँ संचालित रहती हैं विशेषकर सागरों, महासागरों से उड़ा जलवाष्प अन्यत्र वर्षा के रूप में प्राप्त होता है एवं वायुमंडल से शीतलता प्रदान करने के साथ-साथ पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों का पोषण करता है। जलवायु परिवर्तन में विश्वभर में शोध कर रहे वैज्ञानिकों के समूह (आईपीसीसी) के अनुसार जलवायु प्रणाली एवं इसके परिवर्तन के पूर्वानुमान हेतु अभी और अनुसंधान की आवश्यकता है, विशेषकर बादलों, महासागरों व कार्बन चक्र से संबंधित प्रक्रियाओं की ओर अधिक समझने की आवश्यकता है। जीवमंडल जलवायु प्रणाली पर प्रभाव भी अभी स्पष्ट नहीं हुआ है तथा वायुमंडल से जलवायु परिवर्तन के रिश्ते के बारे में अभी अधिक शोध की आवश्यकता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसें, जैसे कार्बनडाइआक्साइड (CO2) मीथेन (CH4) व क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) आदि को माना जाता है। ये गैसें धरती के वातावरण में विद्यमान रह कर पृथ्वी से परिवर्तित सौर ऊर्जा को अपने में अवशोषित कर देती हैं, जिससे पृथ्वी के वातावरण का तापमान बढ़ जाता है। इन गैसों की लगातार बढ़ती उत्सर्जन दर के कारण जलवायु तन्त्र ही छिन्न-भिन्न होकर भयानक रूप से सामने आ रहा है। इस जलवायु तंत्र में तब्दीली की सबसे जयादा सजा गरीब, विकासशील व समुद्र तटीय देश भुगत रहे हैं। ये गैसें मुख्यत: प्रणोदक, प्रशीतक, फोम, विलायकों के औद्योगिक उत्पादन, सघन कृषि, कोयला खनन, जीवाष्म ईंधन तथा पशुओं की जुगाली के द्वारा उत्पन्न होती हैं। एक जानकारी के मुताबिक अमेरिका विश्व की कुल उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक 36-1 उत्सर्जन करता है। उसके पश्चात यूरोपियन यूनियन 24-1, रूस 17-1, जापान 8.5-1 तथा अन्य देश 14.5-1 उत्सर्जन करते हैं। इन हानिकारक गैसों की वायुमंडल में सांद्रता बड़ी तीव्रता से बढ़ रही हैं। इस संबंध में विश्व स्तर पर हुए शोध के अनुसार अभी वायुमंडल में पहुँच रही कार्बन डाइऑक्साइड का 40% तो सागरों द्वारा सोख लिया जाता है तथा दूसरा महत्त्वपूर्ण हिस्सा पृथ्वी पर हरे पेड़-पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण द्वारा सोख ली जाती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभाव समाज के उस वर्ग के लिये अधिक हानिकारक एवं खतरनाक होते हैं जिनके पास परिवर्तन से निपटने एवं अनुकूलन के न्यूनतम संसाधन उपलब्ध होते हैं। तमाम विरोधाभासी परिकल्पनाओं एवं अनिश्चिता के बावजूद विश्व स्तर पर किए गए शोध कार्यों से यही निष्कर्ष निकला है कि जलवायु परिवर्तन मानव समाज के लिये ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के लिये एक गम्भीर समस्या है। यदि समय रहते हुए इसे सुलझाने की पहल नहीं की गई तो एक दिन यही समस्या सृष्टि को बुरी तरह झकझोर कर मानव एवं अन्य विकसित प्रजातियों को समाप्त कर देगी। यद्यपि जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर स्थित जीव एवं निर्जीव सभी प्रकार के तत्व प्रभावित होते हैं किंतु मानव जीवन से आर्थिक - सामाजिक, राजनैतिक पहलुओं के साथ जीवनयापन एवं अस्तित्व को प्रभावित करने वाले क्षेत्रों को ही प्रस्तुत किया जा रहा है।
वायुमंडल पर प्रभाव
वायुमंडल में अधिकांश गैसों की मात्रा का आपस में प्राकृतिक संतुलन रहता है किंतु मानवीय क्रियाकलापों से एक तो ग्रीनहाउस गैसों के स्रोतों में निरंतर वृद्धि हो रही है तथा दूसरी तरफ इन गैसों के अवशोषकों की संख्या एवं क्षेत्रफल लगातार घटता जा रहा है। वायुमंडल में असंतुलन के कारण हम एक ऐसी जलवायु में प्रवेश कर रहे हैं जिसका ज्ञान एवं अंदाजा वैज्ञानिकों को भी नहीं है। ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में अनवरत वृद्धि के कारण ही समताप मंडल में ओजोन की सुरक्षात्मक परत में निर्मित छिद्र का आकार बढ़ता जा रहा है जिससे सूर्य के प्रकाश की हानिकारक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँच कर विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी विकार उत्पन्न कर रही है।
कृषि पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन पर हुए विश्व भर के शोध कार्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि आगामी सौ वर्षों में धरती के औसत तापमान में 1.5-4.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो जाएगी जिससे ध्रुवों की जमी बर्फ पिघलने से समुद्र तल उठ जायेंगे। फलस्वरूप अधिकांश तटबंधीय कृषि भूमि डूब जाएगी तथा तटीय भूजल और खारा हो जाएगा। तूफान और गर्म दौर जैसी अतिविषम मौसमी घटनाएँ अधिक उग्र हो जाएँगी व जलवायु क्षेत्र ध्रुवों की तरफ बढ़ने लग जाएँगे। वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से प्रकाश संश्लेषण की दरों में 30-100 तक की वृद्धि हो सकती है। मध्य-अक्षांश क्षेत्रों (450 से 600 अक्षान्तर) में तापमान वृद्धि के प्रत्येक डिग्री सेल्सियस से लगभग 200-300 किमी के स्थानान्तरण होने का आकलन है। वर्तमान में अक्षांशीय सभी पट्टियों विशेष फसलों के अनुकूलतम है, इसलिये इन बदलावों का कृषि, पशुधन व संबंधित कार्य कलापों पर भयंकर दुष्प्रभाव होंगे। उदाहरणार्थ दक्षिण एशिया क्षेत्र में विश्व की सर्वोच्च पर्वत श्रृंखलाएँ विद्यमान होने के कारण यहाँ अत्यधिक भौगोलिक जैवविविधता एवं मानव निवास हेतु अनुकूलता है। फलस्वरूप विश्व की लगभग 20 आबादी यहाँ जीवनयापन करती है। यहाँ के तापमान वृद्धि के कारण यहाँ की मुख्य फसलें जैसे गेहूँ एवं चावल की उत्पादकता घट जाएगी। जिससे कृषि ढाँचे में बदलाव के तात्कालिक एवं दूरगामी परिणाम होंगे एवं विश्व के मेहनतकश निवासियों में गरीबी, भुखमरी, बीमारी का प्रकोप और बढ़ जाएगा।
वानिकी पर प्रभाव
जल, प्राणि मात्र के जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में से एक है, इसके बगैर जीवन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है। वर्तमान परिदृश्य में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पेयजल से लेकर सिंचाई जल व औद्योगिक जल की भारी किल्लत है। विश्व की 40% जनसंख्या दैनिक उपयोग के जलसंकट से जूझ रही है तथा संसार की आधी सिंचित भूमि जल की कमी के कारण समाप्त हो चुकी है
जंगल मानव की दैनिक आवश्यकताओं जैसे रोटी, कपड़ा और मकान आदि की पूर्ति एवं पारिस्थतिकीय संतुलन बनाने से लेकर वातावरण से ग्रीन हाउस गैसों के सोखने तक का कार्य करते हैं। जलवायु परिवर्तन से तापमान में हुई वृद्धि के कारण विश्व के विभिन्न प्रकार के जंगलों का सूक्ष्म जलवायु तंत्र पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाएगा। फलस्वरूप मानव उपयोगी वनस्पति एवं जन्तु प्रजातियों के अस्तित्व के लिये प्रतिकूल वातावरण के कारण अधिकांश संकटग्रस्त या विलुप्त हो जाएँगी। सूक्ष्म जलवायु तंत्र में बदलाव के कारण वन-उत्पादों पर आधारित विश्व की अधिकांश जनसंख्या बुरी तरह प्रभावित हो जाएगी। दक्षिण एशिया के गर्म क्षेत्रों में रहने वाले 25 करोड़ लोग गम्भीर रूप से भीषण गर्मी, सूखा, अतिवृष्टि का शिकार हो जाएँगे।समुद्र तल पर प्रभाव
ऐसा अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे तात्कालिक दुष्प्रभाव समुद्र तल की वृद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होगा। पिछली शताब्दी के दौरान पृथ्वी के औसत समुद्र तल में लगभग 15 सेमी की वृद्धि हो चुकी है एवं अनुमान है कि 2030 तक समुद्र तल 20 सेमी की और वृद्धि होगी। समुद्र तल में अनपेक्षित वृद्धि होने के कारण निम्न तटीय क्षेत्रों एवं छोटे-छोटे टापुओं के निवासियों के लिये प्रलयकारी होगा। कुछ तटीय क्षेत्रों में भूजल और खारा हो जाएगा व नदियों, मुहानों एवं तटीय सिंचाई प्रणालियों के जल प्रवाह प्रभावित हो सकते हैं। तटीय मैंग्रोव वनों, ज्वारीय नमीदार भूमि में कटाव एवं खारेपन की गति बढ़ सकती है। बाढ़, तूफान व उष्णकटिबन्धी चक्रवातों से होने वाली हानियों में तीव्रता से वृद्धि होगी। दक्षिण एशिया के क्षेत्र में मालदीव राष्ट्र सम्पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाएगा तथा अन्य तटीय क्षेत्रों में भी तटों पर आधारित क्रियाकलाप एवं मानव निर्मित सुविधाएँ जैसे बंदरगाह, तेल टर्मिनल, मछली उद्योग, पर्यटन आदि बुरी तरह तहस-नहस हो जाएँगे।
जल संसाधनों पर प्रभाव
जल, प्राणि मात्र के जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में से एक है, इसके बगैर जीवन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है। वर्तमान परिदृश्य में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पेयजल से लेकर सिंचाई जल व औद्योगिक जल की भारी किल्लत है। विश्व की 40% जनसंख्या दैनिक उपयोग के जलसंकट से जूझ रही है तथा संसार की आधी सिंचित भूमि जल की कमी के कारण समाप्त हो चुकी है एवं जिससे ताजे पानी की लगभग 10,000 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। यदि विश्व की आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो आगामी 25 वर्षों में दुनिया के 48 देश पेयजल के हिसाब से संकट ग्रस्त हो जाएँगे। जलवायु परिवर्तन से वर्षा का क्षेत्रीय संतुलन एवं सागरों का वाष्पीकरण का तंत्र बदल जाएगा। जिससे कहीं अतिवृष्टि एवं बाढ़ से मानव जीवन त्रस्त रहेगा तो कहीं सूखे एवं जल संकट से मानव एवं अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व समाप्ति के कगार पर होगा। विश्व स्तर पर निर्मित जलवायु मॉडलों के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्राओं से अगले 100 वर्षों से धरती के तापमान में 1.5-4.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि की सम्भावना है जिससे धरती की वर्षा में लगभग 5% की वृद्धि होगी। विश्व की बर्फीली चोटियों में सर्दियों में बर्फ के जमाव की आई कमी से विशेषकर सदाबहार नदियों, जलस्रोतों, झीलो में जल बहाव में 40-70% की कमी आ सकती है जिससे संपूर्ण जल संग्रहण क्षेत्र के वन, जीवजन्तु एवं आबादी जल संकट का शिकार हो जाएगी एवं संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र बिगड़ने से तबाही वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँगी।
जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक समुदाय की पहल
इस समस्या को गम्भीर मानते हुए इससे निबटने के लिये सर्वप्रथम विश्व जलवायु सम्मलेन 1979 में सम्पन्न हुआ। द्वितीय विश्व जलवायु सम्मेलन 1990 में जेनेवा में, तृतीय 1992 में सार्थक कार्यवाही के साथ संपन्न हुआ था। इस श्रृंखला में सबसे नवीनतम सम्मेलन भारतवर्ष नई दिल्ली के विज्ञान भवन में वर्ष 2002 में हुआ जिसमें 186 देशों के लगभग 4000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अन्य पूर्व सम्मेलनों की तरह यहाँ भी ग्रीनहाउस गैसों के अधिक उत्पादन करने वाले देशों की जिम्मेदारी एवं सहभागिता के मुद्दे छाए रहे।
वस्तुत: प्रकृति के धीरे-धीरे बदलाव में प्राणी जगत को अनुकूलन का उपयुक्त अवसर एवं वांछित समय मिल जाता है जिससे तात्कालिक रूप से दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होते हैं किंतु मानव के क्रियाकलापों से उत्सर्जित गैसों एवं अन्य उत्पादों, संसाधनों के अंधाधुन्ध एवं गैर सतत प्रबंधन द्वारा जलवायु में तीव्र एवं अनअपेक्षित परिवर्तन हो जाता है। जिसके फलस्वरूप विभिन्न दुष्प्रभावों एवं विसंगतियों का सामना करना पड़ता है। वैज्ञानिकों का ही नहीं बल्कि मानव मात्र का यही प्रयत्न होना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को वैश्विक स्तर पर सुलझा कर ऐसे अन्तरमहाद्विपीय समाज का निर्माण होना चाहिए जिसमें असुरक्षा, भूख, गरीबी, लाचारी, मारपीट व खूनखराबे जैसी अमानुशिक स्थितियों हेतु कोई जगह न हो। जिसमें हर इंसान के दिल में उत्साह, शान्ति, उमंग, गरीबों के प्रति दया भाव, भाईचारा तथा चेहरे पर मुस्कान हो। एक तरह से कहा जाए तो भारतीय मनीशियों द्वारा प्रतिपादित रामराज्य एवं वासुदेव कुटुम्बकम की परिकल्पना साकार होकर विश्वव्यापी हो जाए।
सम्पर्क
पीएस नेगी
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून
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