जलवायु परिवर्तन एवं आपदाएं (Essay on Climate Change and Disasters in Hindi )  

जलवायु परिवर्तन, साभार - www.dw.com
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(A) भूमिका - जलवायु परिवर्तन एवं आपदाएं : (Climate Change and Disasters: Role)  

सौर मंडल के सभी ग्रहों में पृथ्वी अलौकिक है, एकमात्र ‘जीवित ग्रह’ अर्थात जिस पर जीवन है। हमारा अस्तित्व पृथ्वी पर आधरित है और हम इसी पर निर्भर है। इसको बचाना हमारी अनिवार्यता है। वास्तव में पृथ्वी एक भू-सतह मात्र ही नहीं है, अपितु मुख्यतः चार मंडलों का एकीकृत रूप है। ये मंडल हैं- भूमंडल (स्थलमंडल), जलमंडल, जीवमंडल और वायुमंडल। प्रत्येक मंडल भाग का हमारी जीवन प्रणाली पर एक अदृश्य प्रभाव है। पृथ्वी के मंडल भाग वातावरण को समझने के लिए अंतर्विषयक (Interdisciplinary) जानकारी और उनके परस्पर प्रभावों की पूरी व्यवस्था को समझना होगा। ये मंडल ही अलग-अलग रूप में हमारी जलवायु और पर्यावरणीय परिवेश को प्रभावित करते हैं। 

  वायुमंडल को उष्णता के आधार पर अनेकों परतों में विभाजित किया गया है (चित्र 1) जिनका विवरण निम्न प्रकार है:- 

  • 1. ट्रोपोस्फीयर (Troposphere) 
  • 2. स्ट्रेटोस्फीयर (Stratosphere)
  • 3. मीसोस्फीयर (Mesosphere) 
  • 4. थर्मोस्फीयर (Thermosphere) 
  • 5. एक्सोस्फीयर(Exosphere) 

वायुमंडल की विभिन्न परतें और उनमें तापमान को दर्शाता चित्र(तारमान डिग्री सेन्टीग्रेट)वायुमंडल की विभिन्न परतें और उनमें तापमान को दर्शाता चित्र

ये सभी वायुमंडलीय परतें क्रमशः एक दूसरे के ऊपर हैं और ऊँचाई और तापमान के आधार पर इनको पृथक किया गया है। चित्र-9.1 में दर्शाया गया है कि विभिन्न परतों के तापमान में ऊंचाई के अनुसार किस प्रकार परिवर्तन होता है। इसी प्रकार दबाव (Pressure) के आँकड़ों में ऊँचाई के अनुसार कमी होती है। उदाहरण के रूप में 50 कि.मी की ऊँचाई पर दबाव पृथ्वी के सतह पर दबाव की अपेक्षा बहुत कम है।  

वायुमंडल का वह भाग जो पृथ्वी की सतह और उसके निकटतम है वह ‘ट्रोपोस्फीयर’ है। इसी भाग में जलवायु के सभी तत्व जैसे बादल, वर्षा और हिम आदि होते हैं। इस भाग में तापमान ऊपर की ओर कम होता जाता है, जिसकी दर 6.5° से. प्रति कि.मी. की होती है। इस भाग में प्रत्येक दिवस में भी तापमान के परिवर्तन होते हैं। वायुमंडल में विद्यमान ‘वायु’ का 75% भाग इसी मंडल में रहता है। इसी के साथ दबाव में भी ऊँचाई के साथ कमी होती है। अतः इस मंडल में वायु की गति और गुण पृथ्वी की सतह के अनुरूप परिवर्तित होते रहते हैं। इस मंडल की ऊंचाई पृथ्वी के ध्रुवों पर अपेक्षाकृत कम होती है, जबकि भूमध्य रेखा के आसपास सबसे अधिक (17-18 कि.मी.) तक होती है। 

इस मंडल के ऊपर की सतह स्ट्रेटोस्फियर कहलाती है जिसमें सबसे अधिक ‘ओजोन’ पाई जाती है।   इस सतह में तापमान की अधिकता ऊंचाई के अनुसार होती है जिसका कारण है कि यह भाग सूर्य के पराबैंगनी  (यू.वी.) विकिरण को अवशोषित करता है। इस प्रक्रिया के कारण ही यह मंडल भाग हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। यद्यपि कुछ रासायनिक गैसें जैसे- क्लोरो फ्लोरो कार्बन, फ्रेआन और हैलोन्स जिनका उपयोग पूर्व में रेफ्रीजिनेशन में किया जाता रहा है, वायुमंडल के इस भाग को प्रभावित करती रही है।  अब इनका प्रयोग लगभग समाप्त हो गया है। इस भाग में वायु शुष्क और अपेक्षाकृत कम होती है अतः जेट एयरक्राफ्ट के पलायन में सहायक होती है।

 स्ट्रेटोस्फीयर के ऊपर की सतह जो लगभग 35-40 कि.मी. की है उसे ‘मीसोस्पफीयर’ कहा जाता है जहाँ तापमान ऊंचाई के साथ कम होता जाता है और न्यूनतम -90° से. तक के स्तर पर पहुँच जाता है। यह वायुमंडल का सबसे ठंडा भाग है। 

‘थर्मोस्फीयर’ और इसी के एक भाग के रूप में ‘आइनोस्फीयर’ मीसोस्फीयर मंडल के ऊपर होते हैं। इस मंडल में पुनः तापमान की अधिकता होती है जो ऊँचाई के अनुसार बढ़ती जाती है। इस उच्च तापमान का कारण है कि वायुमंडल के इस भाग में सूर्य की ऊर्जावान पराबैंगनी  (यू.वी.) तथा एक्स-किरणों का अवशोषण होता है। जबकि आइनोस्पफीयर, रेडियोतरंगों को प्रतिबिंबित और अवशोषित करता है, जिस कारण हम शार्टवेव रेडियो प्रसारण प्राप्त करने में उपयोग करते हैं। वायुमंडल के सबसे ऊपरी भाग को ‘एक्सोस्फीयर’ कहते हैं जो लगभग 500 कि.मी. की ऊँचाई पर है। इसमें मुख्यतः ऑक्सीजन, हाइड्रोजन हिलियम के अणु विद्यमान होते हैं, किन्तु इनकी मात्र बहुत कम है।  

वायुमंडल में व्याप्त गैसों में प्रमुख कार्बन-डाइ-आक्साईड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन आदि वातावरण की उचित उष्णता बनाये रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन सभी गैसों के स्तर में आशातीत अधिकता के कारण पृथ्वी की सतह की उष्णता में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है, फलस्वरूप विश्व के औसतन तापमान में भी आनुपातिक वृद्धि होती है।  मोटे तौर पर वायुमंडल में 78%नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन, 0.93% ऑर्गन, 0.04% काॅर्बन-डाइ-ऑक्साइड और अति सूक्ष्म प्रतिशत में नियॉन, हीलियम, मीथेन, क्रिपटोन और हाइड्रोजन पायी जाती है। वायुमंडल में ‘ग्रीन हाऊस गैसों  (जी.एच.जी.)’ के विषय में पूरी जानकारी केलिए आवश्यक है कि पानी में उनकी घुलनशीलता, पेड़-पौधों में सन्निहित कार्बन-डाई-आक्साईड  (Co2), मृदा में Co2 का स्तर तथा चट्टनों जैसे चूना पत्थर, कोयला, गैस, तेल, मीथेन हाइड्रेट के विषय में अधिकाथिक जानना होगा जो अधिक मात्र में ग्रीन हाऊस गैसों को वायुमंडल में छोड़ते हैं। ग्रीन हाऊस गैसों के बढ़ते स्तर के संभावित कारणों में प्रमुख है- औद्योगिकरण, वाहनों द्वारा बढ़ता प्रदूषण, पेडों और वनस्पति के कवर में निरन्तर कमी और हिमनदों का पश्चसरण। 

पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में वायु, जल, बर्फ  (हिम) भूमि और वनस्पति होते है, और इन घटकों में समय के साथ परिवर्तन ही ‘जलवायु परिवर्तन‘ को परिभाषित करता है। मुख्य कारकों में पृथ्वी के भीतरी परिवर्तन की प्रक्रियायें हैं, पृथ्वी की अपनी कक्षा  (Orbit) में परिवर्तन और सूर्य की शक्ति आदि कुछ संभावित कारक हो सकते हैं। निसंदेह माननीय कार्यकलाप भी जलवायु परिवर्तन के कारकों में से एक प्रमुख कारण हैं। इन परिवर्तनों में से कुछ तेजी से वातावरण या भूमि , सागर की सतहों, समुद्री बर्फ और वनस्पति को प्रभावित करते हैं, जबकि कुछ अन्य जैसे पर्वतीय ग्लेशियर, महासागरीय, बर्फ की विशाल सतहों और विवर्तनिक प्रक्रियाओं द्वारा जनित परिवर्तन धीमी गति से सदियों तक भी हो सकते हैं।

 (B). भू-समय सारणी में जलवायु परिवर्तन 

जलवायु, किसी क्षेत्र के औसत तापमान, वर्षा या हिमपात आदि का एक एकीकृत रूप है। पृथ्वी की जलवायु वायु, पृथ्वी और जल पर निर्भर है जिसमें समयानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। इन परिवर्तनों के मूल कारक  (i) विवर्तनिकी प्रक्रिया,  (ii) पृथ्वी की गति व सूर्य का प्रभाव एवं  (III) मानवीय प्रभाव मुख्यतः उत्तरदायी हैं। इन परिवर्तनों में से कुछ परिवर्तन तीव्र गति से प्रभाव डालते हैं, जबकि कुछ शनै-शनै जलवायु को परिवर्तित करते हैं किन्तु इनका प्रभाव समुद्री पर्यावरण, पृथ्वी की सतह, हिमआच्छादित क्षेत्र तथा वनस्पतियों पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। जो परिवर्तन अति धीमी गति से वैश्विक जलवायु तंत्र को प्रभावित करते हैं, उनमें हिमनद, गहरी समुद्र प्रणाली, समुद्री तटीय भाग और स्थलाकृति आदि शामिल है।  

पृथ्वी की समय-सारणी  के अनुसार इस प्रकार जलवायु परिवर्तन की प्रणाली कोई नई नहीं है। पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास में जलवायु के परिवर्तन होते रहे हैं  (चित्र- 9.2) और यह क्रिया अपरिहार्य है। इस प्रकार के परिवर्तन अति मंद गति से होते हैं। उदाहरण के तौर पर होलोसीन युग में  (4800-6300 वर्ष पूर्व) ‘थार का मरुस्थल’ एक जलीय या झीलों वाला आर्द्र स्थल था जिसका कारण उस समय शीतकाल में वर्षा और तेज मानसून जनित वर्षा रहा। इसी प्रकार से वर्तमान कश्मीर जो कभी एक गर्म उपोष्णकटिबंधीय जलवायु था, एक ठंडा शीतोष्ण जलवायु  (2.6 - 3.7 मिलियन वर्ष पूर्व) में स्थानांतरित हो गया। धीरे-धीरे यह शीत काल या विस्तारित शीत वर्ष आते चले गये। पृथ्वी की जलवायु के विषय में, यह भी विस्मयपूर्ण ही लगेगा कि भारतीय उपमहाद्वीप 40-50 मिलियन वर्ष पूर्व, भूमध्य रेखा के दक्षिण में, ऑस्ट्रेलियन महाद्वीप के आस-पास ही स्थित रहा। महाद्वीप की लगभग 6000 कि.मी. की विस्थापन यात्रा अर्थात् यूरोपियन प्लेट से टकराने से पूर्व व उसके पश्चात भी कई प्रकार के परिवर्तनों के युग से गुजरी, जिसमें जलवायु परिवर्तन भी एक है।

पृथ्वी के इतिहास(भू-समय सारणी के अनुसार) में विभिन्न जलवायु परिवर्तन चित्र पृथ्वी के इतिहास(भू-समय सारणी के अनुसार) में विभिन्न जलवायु परिवर्तन चित्र

 भू-समय सारणी के लगभग 542 मिलियन वर्ष पूर्व इतिहास में, पृथ्वी की जलवायु परिवर्तन को ‘‘ग्रीन हाऊस’’ या ‘‘हिम-हाऊस’’ के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। चित्र- 9.2 में इस प्रकार के वर्गीकरण को भूसारणी के अनुसार दर्शाया गया है। इससे विदित है कि पृथ्वी के भूवैज्ञानिकी इतिहास में कई बार ‘हिम युग’ की आवृति हुई।

भूगर्भीय समय सारणी के अनुसार जलवायु परिवर्तन (क) 400 मिलियन वर्ष में  चित्र भूगर्भीय समय सारणी के अनुसार जलवायु परिवर्तन (क) 400 मिलियन वर्ष में। चित्र

 भूसारणी में जलवायु परिवर्तन की 5 मुख्य घटनाएं हुई जिस कारण जीव-जन्तु पूर्ण रूप से समाप्त हो गये। जूरेसिक काल  (69 मि. वर्ष पूर्व) में डाइनासोर जैसे बड़े जीव समाप्त हो गये। चित्र- 9.3 में चार मुख्य ‘हिम युग’ को दर्शाया गया है, जबकि होलोसीन युग  (लगभग 10,000 वर्ष पूर्व) में कई हिम तथा ऊष्ण युगों के अंतराल के साथ होलोयीन जलवायु अनुकूलतम को भी इंगित किया है। 

भूगर्भीय समय सारणी के अनुसार जलवायु परिवर्तन (ख) होलोसीन काल में। चित्र भूगर्भीय समय सारणी के अनुसार जलवायु परिवर्तन (ख) होलोसीन काल में। चित्र

(C). जलवायु प्रणाली में बदलाव  -

जलवायु मापदंडों की निरंतर निगरानी से दर्शाया गया है कि 20वीं शताब्दी के दौरान समुद्र के स्तर में 0.1 से 0.2 मीटर की वृद्धि हुई। उत्तरी गोलार्ध में हुई वर्षा उत्तर अटलांटिक महासागर  (आईपीसीसी 2001) में लवणता विसंगतियों का पता लगाने के साथ, पिछले दशक में वैश्विक औसत तापमान 0.4 और 0.8 डिग्री सेल्सियस के बीच बढ़े। उपलब्ध अनुमान के मुताबिक पिछले वार्मिंग की प्रवृत्ति की तेज दर अधिक हो सकती है।  

जलवायु प्रणाली पर मानव प्रभाव स्पष्ट है और ग्रीनहाऊस के हाल में उत्सर्जन तथा उसके पूर्व इतिहास से, हाल में जलवायु परिवर्तन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है, विशेषकर मानव और प्राकृतिक प्रणालियों पर। जलवायु प्रणाली की वार्मिंग  (उष्णता) स्पष्ट है। 1950 के दशक के बाद से, कई वर्षों से अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन पिछली सदियों की अपेक्षा अभूतपूर्व रहा है। वायुमंडल और महासागर गर्म हो गये, बर्फ की मात्रा कम हुई और समुद्र का स्तर भी बढ़ गया है।  जलवायु परिवर्तन पर सरकारी पैनल के कार्य समूह  (आई.पी.सी.सी.) द्वारा प्रासंगिक विशेष रिपोर्ट, जो जलवायु परिवर्तन का एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है  (चित्र- 9.4 क, ख) और पांचवीं आंकलन रिपोर्ट  (ए.आर.- 5) पर आधारित है, के मुख्य बिन्दु इस प्रकार से हैं- 

  • 1. पिछले तीन दशकों में से प्रत्येक के बाद किसी भी पूर्ववर्ती दशक की तुलना में पृथ्वी की सतह पर लगातार उष्णता बढ़ी है। 1983 से 2012 तक की अवधि उत्तरी गोलार्ध में पिछले 1400 वर्षों की सबसे गर्म अवधि रही । 
  • 2. विश्व स्तर पर भूमि और सागर की सतह का तापमान एक रेखीय प्रवृति से गणना किये आंकड़े के अनुसार 0.85 डिग्री सेल्सियस रहा  (अवधि 1880 से 2012 तक) 
  • 3. जलवायु प्रणाली में संग्रहीत ऊर्जा में वृद्धि वर्ष 1971-2010 के बीच, महासागरों में अधिक पायी गयी  (लगभग 90 प्रतिशत) जबकि वातावरण में केवल 1 प्रतिशत ही है। 
  • 4. उत्तरी गोलार्ध के मध्य-अक्षांश के आसपास क्षेत्रों में औसतन 1 चक्रीय चक्रवात के बाद वर्षा की वृद्धि हुई है। 
  • 5. महासागर की सतह के लवणता में परिवर्तन वैश्विक जलचक्र में बदलाव का अप्रत्यक्ष रूप से प्रमाण प्रदान करती है।
  • 6. औद्योगिक क्रांति के बाद से महासागरों में Co2  की मात्रा में अधिकता से अम्लीकरण हुआ है जबकि क्षारता में कमी आई है। 
  • 7. वर्ष 1992 से 2011 की अवधि में ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादरें बड़े पैमाने पर अपना आयतन खो रही है। विश्व भर में हिमनद की आकृति में कमी आयी है। सतही तापमान में वृद्धि के कारण वर्ष 1980 के दशक से बर्फीय सतह के क्षेत्रों में कमी हुई है। 
  • 8. आर्कटिक समुद्र वर्ष 1979 से 2012 तक की अवधि के दौरान 3.5 से 4.1 प्रतिशत प्रति दशक की दर से कम हुई। गर्मियों में सबसे तेजी से कमी हुई। समुद्री बर्फ की सीमा 1.2 से 1.8 प्रतिशत तक वर्ष 1979 से 2012 तक बढ़ी है। यद्यपि अंटार्कटिका में कुछ क्षेत्रों में समुद्री बर्फ में कमी और कुछ क्षेत्रों में बढ़ोत्तरी हुई है।
  • 9. वर्ष 2001 से 2010 की अवधि में वैश्विक औसत समुद्र का स्तर 0.19 मीटर बढ़ गया है। 19वीं सदी के बाद से समुद्र के स्तर की वृद्धि दर पिछले दो सदियों के दौरान औसत दर से अधिक रही है। अतः जलवायु प्रणाली की वार्मिग स्पष्ट है और विशेषकर 1950 के दशक के बाद से, कई वर्षो से अप्रत्याशित परिवर्तन अभूतपूर्व रूप से रिकार्ड किये गये है। महासागर और वायुमंडल गर्म हो रहा है, बर्फ और बर्फ की मात्र कम हो गई है और समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है।

(क) वैश्विक सतह का औसत तापमान 1880-2009, 1950-1980 के बीच वैश्विक दीप्ति मंदकता के कारण कुछ हद तक ग्लोबल वार्मिंग कम रही है। वातावरण में ग्रीन हाऊस गैस की अध्किता का कारण कार्बनडाईऑक्साइड में बढ़ोतरी है। (क) वैश्विक सतह का औसत तापमान 1880-2009, 1950-1980 के बीच वैश्विक दीप्ति मंदकता के कारण कुछ हद तक ग्लोबल वार्मिंग कम रही है। वातावरण में ग्रीन हाऊस गैस की अध्किता का कारण कार्बनडाईऑक्साइड में बढ़ोतरी है। चित्र

(ख) बिलियन टन में कार्बन डाइऑक्साइड का निस्तारण ;आई.पी.सी.सी. के आंकड़ों के अनुसार कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिवर्ष निस्तारणद्ध। (ख) बिलियन टन में कार्बन डाइऑक्साइड का निस्तारण (आई.पी.सी.सी. के आंकड़ों के अनुसार कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिवर्ष निस्तारण)।

जलवायु परिवर्तन अब हर महाद्वीप को और लगभग हर देश को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित कर रहा है। यहाँ तक कि इन परिवर्तनों के प्रभाव कुछ देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं और विश्व समुदाय इसकी कीमत को महसूस करने लगे हैं। मौसम के पैटर्न बदल रहे हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और मौसम की घटनायें अधिक चरम होती जा रही हैं। ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन अब इतिहास के उच्चतम स्तर पर है। पृथ्वी की सतह का औसत तापमान इस शताब्दी के अंत तक 3°  से. से अधिक होने की संभावना है। जिस कारण गरीब व कमजोर लोग अधिक प्रभावित होंगे। वर्तमान में इन विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए साध्य उपाय उपलब्ध हैं, जिससे इस वैश्विक समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है कि ऊर्जा के नवीन स्रोतों का उपयोग करना जिससे कार्बन उत्सर्जन कम से कम हों। 

जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनाती है जो राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करती। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसके लिए ऐसे समाधन की आवश्यकता है जो विकासशील देशों को निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने में मदद करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। 

जलवायु परिवर्तन के स्तरों के लिये वैश्विक प्रतिक्रिया को मजबूत करने के लिए ‘‘पेरिस समझौता-2016’’ को विश्व के 175 देशों ने अपनाने का संकल्प-पत्र नवम्बर, 2016 से लागू कर दिया है। इस समझौते के अनुसार वैश्विक तापमान को 2° से. के स्तर या उससे कम लाने के लिए सभी देश सहमत हैं। 175 देशों ने इस समझौते की पुष्टि कर दी है और 10 विकासशील देशों ने जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया के लिए अपनी राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं की पहली पुनरावृति रिपोर्ट भी प्रस्तुत की है। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5° से. के स्तर तक सीमित करने से समाज के सभी पहलुओं पर दूरगामी और अभूतपूर्व और सकारात्मक बदलाव होंगे। इससे न्यायसंगत समाज सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। 

(D). जलवायु परिवर्तन के आपदायिक प्रभाव  -

जलवायु परिवर्तन ने सभी महाद्वीपों और महासागरों में प्राकृतिक और मानवीय प्रणालियों पर प्रभाव डाला है  (चित्रा- 9.5) प्राकृतिक प्रणालियों पर ये प्रभाव अधिक तीव्र और व्यापक हैं। बदलते वर्षा के क्रम, पिघलने वाली बर्फ में कमी और जलविज्ञान प्रणाली में बदलाव आ रहा है, जिससे सीधे तौर पर जल संसाधनों की मात्रा एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है। मीठे जल और समुद्री प्रजातियों ने अपने भौगोलिक स्थानों को स्थानांतरित किया। मानव प्रणालियों पर कुछ हद तक इस परिवर्तन का प्रभाव हुआ है।  कई क्षेत्रों के आकलन से ज्ञात होता है, व्यापक रूप से फसलों और पैदावार पर जलवायु का नकारात्मक प्रभाव अधिक देखा गया है। समुद्री जीवों पर समुद्र के अम्लीकरण के कुछ प्रभाव मानव जनित भी हो सकते हैं। 

जलवायु परिवर्तन को दर्शाता रेखा-चित्र जलवायु परिवर्तन को दर्शाता रेखा-चित्र।

संयृक्त राष्ट्र के एक आकलन के अनुसार समुद्री जल स्तर में मात्र 2 फुट की बढ़ोत्तरी, जो संभावित है, से मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय राष्ट्रों में अभूतपूर्व भू-कटाव व भू-क्षरण होगा। मालदीव के अनेकों द्वीपों का स्तर समुद्री सतह से लगभग 4 फीट तक ही है। अर्थात इस प्रकार के द्वीपों का एक बड़ा हिस्सा जल मग्न हो जायेगा। हिन्द् महासागर के लगभग 1200 द्वीप व समूहों का जोखिम भी बढ़ जायेगा। पृथ्वी की बढ़ती उष्णता के आपदायिक प्रभाव में समुद्री स्तर में बढ़ोत्तरी और समुद्री लहरों के तूफान में वृद्धि से तटीय क्षेत्रों में क्षरण और स्खलन की अधिकतायें भी होगी। हाल में मौसम सम्बन्धी चरम सीमाओं द्वारा गर्म तरगों, सूखा, बाढ़ चक्रवात आदि प्राकृतिक प्रणाली के भी आपदायिक परिणाम दिखाई देते है।  

(i) समुद्र और समुद्र तटीय क्षेत्र में प्रभाव 

  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समुद्री जीवों के अतिरिक्त बंदरगाहों और निकटवर्ती शहरों पर गहन होंगे। यदि उदाहरण के तौर पर माना जाय कि एक मीटर की समुद्री स्तर की वृद्धि से भी लाखों लोगों को समुद्री तटीय क्षेत्र से विस्थापित होना हो सकता है जिसका एक आर्थिक पहलू भी होगा। भारत के संदर्भ में, समुद्रीय प्रभाव अति महत्वपूर्ण है चूंकि भारत की भू-आकृति तीनों ओर से समुद्र से घिरी होने के कारण तथा भारत की समुद्री सीमा में ‘अनेकों द्वीपों  (उपद्वीपों के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रमुख आपदायिक होंगे। भारत का समुद्री तट काफी लम्बा है और उसके किनारे छोटे-बड़े शहर बसे हैं जो सभी जोखिम युक्त हो जायेंगे। समुद्री तटों पर अपरदन और क्षरण  (चित्र- 9.6) पर निरन्तर निगरानी रखने की आवश्यकता है।  
  • मुम्बई शहर, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अति वृष्टि और बाढ़ आपदा के जोखिम के लिए जाना जाता है, किन्तु समुद्री जल स्तर में बढ़ोत्तरी से होने वाले आपदायिक प्रभाव एक त्रासदी का रूप ले सकते है। शहर को तालाबों को पाटकर नवीन शहरीकरण किया गया है जो भू-प्रकृति के अनुरूप नहीं है। शहर का जल निकास अपर्याप्त है। इसी प्रकार कलकत्ता विश्व के बाढ़ ग्रस्त नगरों में से एक है जहाँ बाढ़ का प्रकोप अक्सर जन-जीवन को प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन होने की दशा में और भी अधिकता होगी। कलकत्ता का भूस्तर 15-11 मीटर ही है और समुद्र जल स्तर में वृद्धि से इसके डूब क्षेत्र में आशातीत गिरावट हो जायेगी।  इस प्रकार से जल मग्न क्षेत्रों में, पृथ्वी की उष्णता के कारण बीमारियों में भी बढ़ोत्तरी होगी। इन्ड्रो डाबसन, जो अमेरिका की प्रिंसटन विश्वविद्यालय के जाने-माने पैरासिटोलोजिस्ट हैं, ने अपने शोध के माध्यम से बताया कि ‘‘गर्म संसार बीमारियों का घर होगा’’  (Warmer world will be sicker world.) और विभिन्न पैरासाइट का भौगोलिक विस्तार होगा। 
  • पृथ्वी का लगभग 70 फीसद भाग समुद्र है। समुद्री जल ने हमारे पर्यावरणीय परिवेश को बचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्ष 1970 तक के आंकड़ों के अनुसार, समुद्री जलमंडल ने 90 फीसद ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों को अपने में शोषिक किया है। कल्पना करें कि यदि ये सारी ऊष्णता यदि शोषित न होती तो वैश्विक औसत तापमान 56° से. के आसपास हो जाता। लेकिन जलमंडल की भी एक सीमा है। मुख्यतः निम्न पाँच प्रकार से ही जलवायु परिवर्तन समुद्री जलमंडल को प्रभावित करते हैं। 
  • 1. समुद्री जलमंडल में अधिक तापमान के कारण समुद्री जीव-जंतुओं, कोरल रीफ और समुद्री जैव विविधता पर विपरीत प्रभाव होगा। 
  • 2. उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ का पिघलना। 
  • 3. समुद्री जल स्तर में वृद्धि के कारण अनेकों जोखिम/खतरे संभावित हैं। विश्व में लगभग 2 फीसद स्थल समुद्र स्तर के 10 मी. नीचे के स्तर पर रहता है और यह विश्व की जनसंख्या का 10 फीसद भाग है। समुद्री जल स्तर के बढ़ने की अवस्था में ये भाग और आबादी सीधे तौर पर प्रभावित होगी। 
  • 4. ग्लोबल वार्मिंग से समुद्री धाराओं की दिशा और परिमाण में परिवर्तन से हवाओं के रूख और वर्षा में भी परिवर्तन होना संभावित होगा, जिससे जीवन प्रभावित होगा। 
  • 5. समुद्री जल की रासायनिकी व लवणता में परिवर्तन का प्रभाव और अधिक अमलता से समुद्री जीवों का जीवन प्रभावित होगा।  

(ii) चरम मौसम घटनाओं पर प्रभाव 

  • चरम मौसम घटनायें’  जो ऊष्णता और जलवायु से जुड़ी हो, कुछ मानव प्रभावों से भी सम्बद्ध होती हैं। इनमें ठंडे चरम तापमान में कमी, गर्म तापमान की अधिकता और कई क्षेत्रों में भारी वर्षा की घटनाओं की संख्या में वृद्धि भी शामिल है। वर्षा की अधिकता और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक जल वृष्टि से कई भूवैज्ञानिक आपदाएं भी जनित होती हैं। शीत रेगिस्तान  (लद्दाख) में हुई भारी वर्षा व बादल फटने की वर्ष 2010 की घटना को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के रूप में देखा जा सकता है  (चित्र-9.7) 
  • इस प्रकार भूस्खलन, मृदा स्खलन, अवसाद बहावों और बाढ़ के कारण आपदायिक प्रभावों की आकृति में हाल के वर्षों में अधिकता आयी है। बाढ़ आपदा से क्षेत्राीय स्तर पर बाढ़ का जोखिम अधिक होता है।   
  • विगत वर्षों में अति वृष्टि के भौगोलिक परिवर्तन से विनाशकारी बाढ़ उन क्षेत्रों में आयी जहाँ इस आपदा का कोई पूर्व इतिहास नहीं रिकाॅर्ड किया गया हो। वर्ष 2005 में भारत के तीन बड़े शहरों में  (चित्र- 9.8) जैसे मुम्बई  (जुलाई, 2005), चेन्नई  (अक्टूबर और दिसम्बर, 2005), बैंगलुरू  (अक्टूबर, 2005), में अभूतपूर्व बाढ़ से जन हानि और आर्थिक नुकसान हुआ। इसी प्रकार से कुछ बाढ़ आपदायें मध्य भारत और राजस्थान में भी घटित हुईं। आईपीसीसी.  (2007) की रिपोर्ट के अनुसार, उन क्षेत्रों में जहाँ आर्द्रता की चरम घटनायें अधिक होंगी, जहाँ औसत वर्षा की संभावना अधिक हो और शुष्मता की चरम सीमा की संभावना औसत वर्षा से कम क्षेत्रों में संभावित है। एशिया और अन्य ट्रापिकल क्षेत्रों में बाढ़ की अधिकता होगी। 
  • एक अन्य अध्ययन के अनुसार, भारत में बाढ़ के जोखिम समय के साथ अधिकाधिक हो रहे हैं। वर्ष 1981-90, 1971-80, 1991-2000 के दशकों में बाढ़ की अधिकता रही जो मुख्यतः पूर्ववर्ती तटीय क्षेत्र में, प.बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं कोंकण क्षेत्र में विशेष रूप से पायी गयी। 

(iii) जल संसाधन पर प्रभाव 

  • भारत में हिमालय और पूर्ववर्ती क्षेत्रों में उपलब्ध जल संसाधनों से, जलविद्युत की अनेकानेक संभावनाएं हैं। चरम मौसमी घटनाओं और जलवायु परिवर्तन द्वारा हिमालयी नदियों के प्रवाहों में अप्रत्याक्षित परिववर्तन हो सकते हैं जिनका पूर्वानुमान भी कठिन होगा। यह अनिश्चित जल परियोजनाओं पर बाँधों के नियोजन और सिविल डिजाइन के लिए बड़ी चुनौती होगी। परियोजनाओं पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से निपटने के लिए अधिक धन व्यय करना होगा। जल - विद्युत परियोजनाओं पर संयंत्रों को संचलित करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। 
  • हिमालयी नदियों में अवसाद/मलवा परियोजनाओं के लिए एक बड़ी चुनौती रही है। नदियों में अधिक सिल्ट से खराब टरबाइनों के मामले देखे गये ंहै तथा जलवायु परिवर्तन से जनित भूस्खलनों, भू-कटान, फ्लैश फ्लड, हिम-झीलों का टूटना और अन्य संबंधी आपदाओं से पन-बिजली प्रणालियों के जोखिम और भी अधिक होंगे। अवस्थापना की क्षति, यात्रा मार्गों का भूस्खलनों द्वारा अवरोध, कृषि संसाधन, तटीय समुद्री क्षेत्र, ऊर्जा संसाधन, वन और जीव-प्रणाली, स्वास्थ्य आदि की सभी प्राकृतिक व्यवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य से होगा और भूवैज्ञानिकी आपदाओं का आवृति भी अधिक होगी। 
  • जलवायु परिवर्तन के जल संसाधनों के प्राथमिक प्रभावों में से एक जलचक्र  (Hydrological cycle) का विघटन है। चूंकि जल की उपलब्ध्ता इसी चक्र द्वारा निर्धारित होती है अतः पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता, भोजन और ऊर्जा उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है।  
  • हिमाच्छादित पर्वत शृंखला प्राकृतिक ‘वाटर टावर’ की भाँति होती हैं और इनसे निकली नदियाँ पेयजल के विशाल भंडार हैं। ये विश्व के लगभग 50 फीसद शुद्ध, मीठे जल के स्रोत भी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से पर्वतीय हिमनद एक अभूतपूर्व दर से पिघल रहे हैं। जबकि कुछ हिमनद तो 21वीं शताब्दी के अंत तक विलुप्त होने की कगार पर हैं। विश्व के हिममंडल पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सहज और प्रत्यक्ष ही हैं। निम्न जलवायु अनुकूलन प्रयास इस दिशा में सहायक होंगे।  
    • (क) सतत विकास लक्ष्यों के साथ उन्हें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन बनाना होगा।  
    • (ख) पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं  के माध्यम से जलवायु लचीलापन को मजबूत किया जाय।  
    • (ग) देश स्तर पर संचालित जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को जल प्रबंधन के महत्व को प्रतिबिंबित करना श्रेयस्कर होगा।  

(iv) जलवायु परिवर्तन के आर्थिक प्रभाव 

ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को 1.5° से. के स्तर पर लाने के उपायों को दर्शाता चित्र ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को 1.5° से. के स्तर पर लाने के उपायों को दर्शाता चित्र

  • भूवैज्ञानिकी आपदाओं और उनसे सम्बन्धr जोखिम में विगत दशकों में बढ़ोत्तरी हुई है जिसे पृथ्वी की उष्ण्ता (वार्मिग) और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का एक संदेश माना जाय। आपदाओं का आर्थिक प्रभाव भी तेजी से बढ़ रहा है जिस कारण मघ्यम आय वाली अर्थ व्यवस्थाएँ और भी अधिक संघर्षपूर्ण हो जायेंगी। अतः मौसमी आपदाओं के घातक प्रभाव गरीब और विकासशील देशों पर और अधिक होंगे। कुछ अफ्रीकी और पूर्व एशिया के देशों का उदाहरण जैसे इथोपिया और जिवूती में हुई 2011 की सूखा आपदा ने इन देशों की विकास प्रक्रिया को लगभग 10 वर्ष पीछे धकेल दिया है। अतः बुनियादी ढांचे के नियोजन तथा संरचना विकास में जलवायु अनुकूलन के अनुसार निवेश पर बल दिया जाना आवश्यक होगा। जहाँ तक सम्भव हो मौसम की पूर्वानुमान प्रणाली को विकसित करना एक महत्वपूर्ण कदम होगा ताकि जान-माल की क्षति को निम्नतम स्तर पर लाया जाय। 
  • इसी प्रकार बाढ़ बचाव कार्यक्रम, उच्चकोटि की जलवायु प्रतिरोधक फसलें, भू-संरचना की पूर्व विवेचना और विकास की स्थिरता आदि सभी आवश्यक हैं ताकि  जलवायु परिवर्तन के अनुमानित प्रभावों को कम किया जा सके और भावी पीढ़ी के लिए समुचित सुरक्षित वातावरण बनाया जा सके।  

(v) जलवायु परिवर्तन प्रभावों का न्यूनीकरण 

  • पृथ्वी की बढ़ती ऊष्णता के साथ, चरम मौसमी घटनायें और संबंधfl आपदाओं में उत्तरोतर वृद्धि है, किन्तु सामुदायिक और वैश्विक प्रयासों से इनके प्रभावों को अवश्य ही कम किया जा सकता है।
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  •  कुछ सामान्य उपाय  (चित्र- 9.9) जैसे- अग्रिम अक्षय और ऊर्जा भंडारण, ऊर्जा दक्षता में सुधार, जीवाश्म आधारित ईंधन को बदलना, वनों की पुनर्स्थापना, बुनियादी ढांचे में जलवायु अनुकूलन के साथ निर्माण  (ग्रीन हाउस) तथा तकनीकी से प्रभावित श्रमिकों का परिवर्तन/संक्रमण आदि। इन उपचारों के माध्यम से ग्लोबल वार्मिंग के वैश्विक स्तर और लक्ष्य को 1.5° से. के अंदर लाने में मदद होगी। कुछ सार्थक प्रयास निम्न प्रकार किये जा सकते हैं: - 
    • (1) जहाँ तक संभव हो, वातावरण में ग्रीन हाऊस गैस सांद्रता का स्थिरीकरण किया जाय। 
    • (2) जलवायु परितर्वन के न्यूनीकरण के लिए, उच्च कार्बन उत्सर्जन तीव्रता वाले बिजली स्रोतों जैसे कि पारंपरिक जीवाश्म ईंधन-तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस आदि के प्रतिस्थापन की आवश्यकता है। 
    • (3) कुशल ऊर्जा उपयोग या ‘ऊर्जा दक्षता’, आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को कम करने के प्रयास होना चाहिए। इसी प्रकार उपयोग किए जाने वाले ईंधन के प्रकार को बदलने की भी आवश्यकता है। 
    • (4) वनों की कटाई को कम-से-कम किया जाए और वृहद वनीकरण को प्रोत्साहित करने से कार्बन शोषण करने में सहायता होगी। 
    • (5) कार्बन पृथक्करण  (Carbon Sequestration) कार्बन डायऑक्साइड या कार्बन के अन्य रूपों से दीर्घकालिक भंडारण का वर्णन करना है, ताकि ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सके या खतरनाक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचा जा सके। 

कार्बन पृथक्करण को दर्शाता चित्रकार्बन पृथक्करण को दर्शाता चित्र

अतः यह एक सार्थक कदम है। इसे ग्रीन हाऊस गैसों के वायुमंडलीय और समुद्री संचय को धीमा करने के तरीकों के रूप में भी प्रस्तावित किया गया है, जो कि जीवाश्म ईंधन को जलाने के द्वारा निकलते हैं। भूगर्भिक कार्बन अनुक्रम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीवाश्म-ईंधन या अन्य स्रोतों से निकली कार्बन डाइऑक्साइड को भूमि की सतह के नीचे भुरभुरी चट्टानी संरचनाओं में इंन्जेक्ट कर दिया जाता है  (चित्र- 9.10) वर्तमान में ज्योलाॅजिक सीक्यूस्ट्रेशन का उपयोग केवल छोटी मात्र में कार्बन स्टोर करने के लिए किया जाता है।

  •  ग्लोबल वार्मिंग के वर्तमान लक्ष्य 1.5° से. को हासिल करने के लिए सभी को एक जुट होकर समग्र उपाय हर स्तर पर करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन की महता के लिए सबसे अधिक हिस्सेदारी युवा वर्ग की होती है। यद्यपि हमारे व्यक्तिगत रूप में कार्बन उत्सर्जन को कम करना महत्वपूर्ण है, किन्तु बड़ी प्रणाली को बदलने पर भी ध्यान देना होगा। सभी को हानिकारक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए विज्ञान आधरित लक्ष्यों को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए स्पष्ट योजनाओं को लागू करना, जलवायु परिवर्तन की अनुकूलन प्रवृति और एक स्वच्छ ऊर्जा अर्थव्यवस्था में बदलाव करने की आवश्यकता है। 

(vi) जलवायु अनुकूलन  (climate adaptation) 

  • (क) उन समुदायों में अनुकूलन प्रयासों को प्राथमिकता दें, जहाँ कमजोरियाँ  (vulnerability) सबसे अधिक हैं और जहाँ सुरक्षा की आवश्यकता सबसे बड़ी है।  
  • (ख) वर्तमान जलवायु परिवर्तनशीलता के आधार पर आज के जोखिम और भेद्यता मूल्यांकन का निर्माण।  
  • (ग) राष्ट्रीय और स्थानीय सतत विकास की रणनीतियों में अनुकूलन में एकीकृत करना।  
  • (घ) स्थानीय अधिकारियों, नागरिक समाज संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच- मौजूदा जोखिमों को मजबूत करने को प्राथमिकता देना, जलवायु जोखिम के मजबूत प्रबंधन और समुदाय आधारित जोखिम में कमी और प्रभावी स्थानीय प्रशासन के माध्यम से अनुकूलन के तेजी से स्केलिंग के लिए नींव रखना।  
  • (च) अनुकूलन के लिए मजबूत संसाधन जुटाना, तंत्र विकसित करना तथा वित्तीय और तकनीकी सहायता दोनों के प्रवाह को सुनिश्चित करता हो।  
  • (छ) प्रभावी समुदाय आधरित अनुकूलन और जोखिम में कमी को बढ़ावा देने के लिए बेहतर प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, आकस्मिक योजना और एकीकृत प्रतिक्रिया के माध्यम से आपदा रोकथाम और प्रतिक्रिया में अवसरों का लाभ।  

 

संदर्भ सामग्री - 

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  • लेखक भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग से जुड़े रहे हैं। 

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