जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता


विश्व का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा कृषि प्रधान देश होने के नाते, भारत में कृषि योग्य फसलों की विविध प्रजातियाँ और किस्में मौजूद हैं। फूल देने वाले पौधों की 6 प्रतिशत प्रजातियाँ, पक्षियों की 14 प्रतिशत प्रजातियाँ, पूरी दुनिया में पहचाने गए पौधों की 45000 से अधिक प्रजातियाँ भारत में मौजूद हैं। फसली पौधों की कम-से-कम 166 प्रजातियाँ और फसलों के जंगली रिश्तेदारों की 320 प्रजातियाँ इस उपमहाद्वीप में ही जन्मी थी। भारत में लगभग 90 प्रतिशत औषधियाँ पौधों से प्राप्त की जाती हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैवविविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में अचानक परिवर्तन से अनुकूलन के अभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र के तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों प्रजनन का आदर्श स्थल भी होती हैं। जैव-विविधता क्षरण के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असन्तुलन का खतरा बढ़ेगा।

जलवायु परिवर्तन के कारण उष्ण कटिबन्धीय वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप वनों के विनाश के कारण जैव-विविधता का ह्रास होगा।

हमारे चारों ओर की वनस्पति, पेड़-पौधों तथा जीव जन्तु सभी मिलकर हमारा जैवमंडल बनाते हैं। इन्हीं सबके कारण हमारी प्रकृति सन्तुलन में रहती है। वैश्विक तापन के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन से जैवविविधता पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन न केवल जैवविविधता पर असर डालता है अपितु जैवविविधता का क्षरण ऋतु परिवर्तन का कारण बनता है। इस प्रकार हम अपने क्रिया-कलापों से वैश्विक जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में काम आने वाले साधनों को नुकसान पहुँचा रहे हैं।

इस परिवर्तन की गति को धीमी करने के लिये दुनिया भर में लागू प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी नीतियों के माध्यम से कार्बन शोषण के स्रोतों जैसे जंगलों और दलदलों को बचाए जाने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज्यादा उन आरक्षित प्रजातियों पर पड़ेगी जिनकी आबादी बहुत कम है, जो प्रतिबन्धित क्षेत्रों में निवास करते हैं या वे जिनका बसेरा कुछ विशिष्ट स्थानों यथा कोरल रीफ, मैंग्रोव वनों तथा हिमक्षेत्रों में होता है।

विश्व के सर्वाधिक जैवविविधता वाला देशों में जिनमें दुनिया की 60-70 प्रतिशत जैवविविधता मौजूद है, भारत की भी गिनती होती है। विश्व का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा कृषि प्रधान देश होने के नाते, भारत में कृषि योग्य फसलों की विविध प्रजातियाँ और किस्में मौजूद हैं। फूल देने वाले पौधों की 6 प्रतिशत प्रजातियाँ, पक्षियों की 14 प्रतिशत प्रजातियाँ, पूरी दुनिया में पहचाने गए पौधों की 45000 से अधिक प्रजातियाँ भारत में मौजूद हैं। फसली पौधों की कम-से-कम 166 प्रजातियाँ और फसलों के जंगली रिश्तेदारों की 320 प्रजातियाँ इस उपमहाद्वीप में ही जन्मी थी।

भारत में लगभग 90 प्रतिशत औषधियाँ पौधों से प्राप्त की जाती हैं। इन पौधों में से अधिकांश संग्रह किये जाते हैं। आदिवासी आबादी के लिये औषधीय पौधे तथा अन्य अकाष्ठीय वनोपज आय और निर्वाह का महत्त्वपूर्ण साधन है। प्राकृतिक पारिस्थितिक-तंत्र, प्राकृतिक संसाधनों के विकास और प्रबन्ध को काफी प्रभावित करता है जो कि खेती के साथ-साथ औद्योगिक और शहरी विकास के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।

जैवविविधता से अभिप्राय विविध रूपों यानी विभिन्न प्रकार के पौधे, जीव-जन्तु और सूक्ष्म जीव समूह से है। इसमें उनके जीन और वे पारिस्थितिकी जैवविविधता सूची तैयार करने, मॉनीटरन, मूल्यांकन और संरक्षण नीतियाँ तैयार करने के काम से वैज्ञानिक गतिविधि को बहुत प्रोत्साहन मिलेगा। यह एक महान चुनौती है। स्थानीय पारिस्थितिकी सम्बन्धी स्थानीय लोगों के व्यापक ज्ञान के ठोस आधार पर जन आन्दोलन में बदलने के लिये इसे एक शुभ अवसर में परिवर्तित किया जा सकता है।

जटिल पारिस्थितिकी तंत्रों की अपनी विशेषताएँ होती हैं जिनके कारण स्थान विशेष के अनुसार उनका व्यवहार भिन्न होता है और समय के साथ-साथ इनमें परिवर्तन होता रहता है। इसलिये पारिस्थितिकी तंत्रों के व्यवहार के सम्बन्ध में ऐसे कोई सामान्य सिद्धान्त नहीं हैं जिनकी सहायता से किसी सन्दर्भ विशेष में इस विषय में लाभदायक पूर्वानुमान लगाया जा सके। बल्कि पारिस्थितिकी तंत्रों के व्यवहार के ऐतिहासिक अध्ययन और विभिन्न काल खण्डों में उनके व्यवहार के आधार पर पारिस्थितिक तंत्र विशेष का सबसे ज्यादा कारगर ढंग से प्रबन्ध किया जा सकता है।

जैव-विविधता के संरक्षण की आवश्यकता


मानव की गतिविधियों से प्राकृतिक वास खतरे में पड़े जा रहे हैं। वर्षा पर आधारित वनों का निरन्तर सफाया होता जा रहा है और ऐसे में इस बात का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि उन प्रजातियों की सही संख्या कितनी है जिनका विनाश हो रहा है आज जो शेष है उसकी पारिस्थितिकी और जैव-विविधता का अध्ययन एवं संरक्षण करने की तत्काल आवश्यकता है और यह अन्तरराष्ट्रीय प्राथमिकता का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। संरक्षण की आवश्यकता विविधता के घटकों के मूल्य, यानी पारिस्थितिकी प्रणाली की सेवाओं, जैविक संसाधनों और सामाजिक लाभों में निहित है।

जल ग्रहण क्षेत्रों में प्राकृतिक वनस्पति आच्छादन से जलीय-चक्र को बनाए रखने, सतही जल पर नियंत्रण और उसे स्थिरता प्रदान करने में मदद मिलती है साथ ही बाढ़ और सूखे जैसी स्थितियों में यह प्रतिरोधक का काम करती है। इससे भूजल के स्तर को नियमित बनाने और भूमि की स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। इस प्रकार प्राकृतिक वास नष्ट होने से भारत में भूजल के स्तर में कमी आई है।

जैवविविधता भूमि की संरचना बनाए रखने और उसकी नमी धारण करने की क्षमता बढ़ाने तथा पोषक तत्वों का स्तर बनाए रखने में भी सहायक है। पारिस्थितिकी संरक्षण के ठोस प्रयासों के अभाव में भूमि कटान और अनाच्छादन की समस्या बढ़ती जा रही है। इस तरह भूमि में लवणता बढ़ोत्तरी, पोषक तत्वों का घुलकर बह जाना, ऊपरी परत का क्षरण आदि के कारण भूमि की उत्पादकता का ह्रास हो रहा है। पेड़-पौधे भूमि की संरचना में भी मदद करते हैं, उनकी जड़ें पानी को नीचे तक पहुँचाने में सहायक होती हैं और खनिज पोषक तत्वों को सतह तक लाती हैं। कार्बनिक कूड़ा-कचरा जीवाणुओं की गतिविधियों को बढ़ाता है।

पोषत तत्वों की एक चक्र के रूप में पुनरावृत्ति पारिस्थितिकी प्रणाली को बनाए रखने सम्बन्धी एक अनिवार्य प्रक्रिया है। इसके लिये जैव-विविधता अनिवार्य है। मिट्टी में जो जीवाणु होते हैं वे मरे जीव जन्तुओं को अपघटित करके और कचरे को गलाकर मिट्टी के पोषक तत्वों की पुनः पूर्ति करते हैं। नाइट्रेट बैक्टीरिया और नाइट्रीफाइंग बैक्टीरिया का कार्य चूँकि भिन्न होता है, अतः सूक्ष्मजीवों की विविधता भी अनिवार्य है।

मलजल, कूड़ा-करकट, तेल रिसाव आदि सहित अनेक प्रदूषक ऐसे हैं जो पारिस्थितिकी सन्तुलन को हानि पहुँचाते हैं। पारिस्थितिकी प्रणाली के विविधत घटक विशेषकर विघटित करने वाले घटक, इस कचरे को अपघटित करके आत्मसात कर लेते हैं। आर्द्र या नम भूमि प्रदूषकों को अपघटित करके उनका अवशोषण करती है, निस्सारी तत्वों को फिल्टर करती है और पोषक तत्वों, भारी वस्तुओं को अलग करती है, बी.ओ.डी. कम करती है और हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट भी करती है।

वातावरण में जो भी प्रदूषक होते हैं वे अक्सर अपने वास्तविक स्रोत से काफी दूर के स्थलों को भी प्रदूषित करते हैं। उत्तर ध्रुवीय और दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्रों में सील मछलियों और अन्य जलीय जीव जन्तुओं पर डी.डी.टी. के हानिकारक प्रभाव के संकेत मिले हैं।

जलवायु परिवर्तन का मछलियों पर प्रभाव


वैश्विक जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक असर कैरिबियन मछलियों पर स्पष्ट दिख रहा है। इसके कारण वहाँ की मछलियाँ काफी जहरीली हो रही हैं।

यह बात यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के शोधकताओं ने अध्ययन के बाद बताई। प्रमुख शोधकर्ता डॉ. ग्लेन मॉरिस ने बताया कि पर्यावरण के लगातार बदलाव के कारण कैरिबियन मछलियों में विषैले तत्व विकसित हो रहे हैं। इसे खाने वाले मनुष्य भी काफी विषाक्त हो रहे हैं, जिसके कारण वे कई गम्भीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। मॉरिस ने बताया कि मौसम में लगातार बदलाव के कारण समुद्र का तापमान काफी बढ़ रहा है और इसके कारण गैम्बीयर्डिस्कस नामक समुद्री शैवाल भी काफी बढ़ रहे हैं। ये शैवाल काफी विषैले होते हैं। उन्होंने बताया कि समुद्र में रहने वाली शाकाहारी मछलियाँ शैवाल के सहारे ही जीवित रहती हैं।

विषैले शैवाल की बढ़ती संख्या के कारण मछलियों को मजबूरन इसे ही खाकर गुजारा करना पड़ रहा है। इसे खाते ही मछलियाँ जहरीली हो जाती हैं। इसके बाद जब मनुष्य इन मछलियों को खाता है, तो वे भी विष की चपेट में आ जाते हैं। मॉरिस ने बताया कि मछलियों के अन्दर पनपने वाला जहर काफी खतरनाक है। मछलियों को कितना भी क्यों न पका लिया जाये, ये विषैले तत्व समाप्त नहीं होते। हाल के वर्षों में इन मछलियों को खाने वाले कई लोग गम्भीर रोगों की चपेट में आये हैं।

इन जहरीली मछलियों को खाने के बाद लोगों को सबसे पहले उल्टी फिर उबकाई आती है। इसके बाद तो कई लोग डायरिया के भी शिकार हो जाते हैं। जब यह बीमारी बढ़ने लगती है, तो गम्भीर रूप ले लेती है। इसके बाद हाथ-पैर और चेहरे पर सिहरन शुरू हो जाती है। इसके अलाव शरीर में काफी दर्द होता है और शरीर काफी कमजोर पड़ जाता है। कभी-कभी तो इसके कारण असामान्य लक्षण भी दिखाई देते हैं। जैसे ठंडा पानी भी गर्म लगने लगता है।

मॉरिस ने बताया कि इस समस्या से निपटने के लिये सबसे पहले इसके मुख्य घटक के बारे में सोचना चाहिए, जो कि लगातार बदलता जलवायु है। उन्होंने बताया कि इसके दोषी मुख्य रूप से इंसान हैं और अब इसका नकारात्मक असर पूरे विश्व में देखने को मिल रहा है। सबसे पहले इन कारणों की तलाश पर कोई कारगर कदम उठाना चाहिए, जिससे हमारा पर्यावरण भी बच सके।

जैव-विविधता समझौता (5 जून, 1992) से उद्धृत अंश संविदाकार पक्ष


यह स्वीकार करते हुए कि जैवविविधता संरक्षण सम्पूर्ण मानव जाति के लिये चिन्ता का विषय है, अपनी जैवविविधता पर राज्यों का प्रभुसत्ता का अधिकार है।

यह जानते हुए कि जैवविविधता सम्बन्धी सूचना और ज्ञान का अभाव है, योजना बनाने और समुचित उपायों के कार्यान्वयन के लिये आधार भूत जानकारी देने के लिये वैज्ञानिक, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएँ विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है।

इसके अतिरिक्त यह ध्यान रखते हुए कि पारिस्थितिक-तंत्र और प्राकृतिक आवासों का स्वस्थाने संरक्षण तथा जीव जातियों को उनके प्राकृतिक पर्यावरण में वापस लाना, उनकी देखभाल जैवविविधता संरक्षण की आधारभूत आवश्यकता है।

यह स्वीकारते हुए कि अनेक स्वदेशी एवं स्थानीय समुदायों की जीवनशैलियाँ पारस्परिक रूप से जैविक संसाधनों पर अत्यधिक निर्भर है तथा जैवविविधता संरक्षण और उसके विभिन्न घटकों का पर्यावरण के अनुकूल उपयोग के लिये पारम्परिक ज्ञान, आविष्कार और परिपाटियों के उपयोग से होने वाले लाभ का समान वितरण वांछनीय है।

यह भी स्वीकारते हुए कि जैवविविधता के संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उपयोग में महिलाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं तथा जैवविविधता संरक्षण सम्बन्धी नीति निर्धारण और कार्यान्वयन में प्रत्येक स्तर पर महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता की पुष्टि करते हुए, यह स्वीकारते हुए कि नवीन अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों के प्रावधान तथा संगत प्रौद्योगिकियों के सुलभ होने से जैवविविधता की क्षति की समस्या को हल करने की विश्व की क्षमता में पर्याप्त अन्तर आने की आशा है।

यह भी स्वीकारते हुए कि विकासशील राष्ट्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये, जिसमें नवीन अतिरिक्त वित्तीय संसाधन तथा सम्बन्धित प्रौद्योगिकियों को समुचित रूप से उपलब्ध कराना शामिल है, विशेष प्रावधान अपेक्षित है।

यह स्वीकारते हुए कि जैवविविधता संरक्षण के लिये पर्याप्त पूँजी निवेश की आवश्यकता है तथा इस निवेश से काफी पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक लाभ होने की आशा है। वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लाभ के लिये जैवविविधता के संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उपयोग के लिये दृढ़ निश्चय करते हुए निम्नलिखित के लिये सहमत हैं?

अनुच्छेद-1 उद्देश्य


जैव-विविधता संरक्षण की नीति निर्धारण और कार्यान्वयन के लिये प्रत्येक स्तर पर महिलाओं की पूरी भागीदारी की आवश्यकता स्वीकारते हुए, जैवविविधता संरक्षण और इसके घटकों का पर्यावरण के अनुरूप उपयोग तथा आनुवांशिक संसाधनों के उपयोग से, जिसमें संसाधनों और प्रौद्योगिकियों के अधिकार को ध्यान में रखते हुए तथा समुचित आर्थिक सहायता देकर आनुवांशिक संसाधनों को समुचित रूप से सुलभ कराने और प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों का हस्तान्तरण शामिल है, प्राप्त होने वाले लाभों का समान एवं उचित वितरण इस समझौते के उद्देश्य हैं, जिन्हें सम्बन्धित प्रावधानों के अनुसार पूरा किया जाना है।

अनुच्छेद-2 संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उपयोग के लिये सामान्य उपाय


अपनी विशिष्ट परिस्थितियों और क्षमताओं के अनुरूप प्रत्येक संविदाकार पक्ष द्वारा

(क) जैव-विविधता संरक्षण और उसके पर्यावरण के अनुकूल उपयोग के लिये राष्ट्रीय रणनीतियाँ, योजनाएँ या कार्यक्रम अपनाने होंगे जो अन्य बातों के अलावा ऐसे उपायों के अनुरूप होंगे जो सम्बन्धित संविदाकार पक्षों के लिये इस समझौते में निर्धारित किये गए हैं, तथा

(ख) जैव-विविधता संरक्षण तथा उसके पर्यावरण के अनुकूल उपयोग को यथोचित रूप से यथासम्भव, क्षेत्रीय उपक्षेत्रीय योजनाओं, कार्यक्रमों और नीतियों में शामिल करना होगा।

अनुच्छेद-3: जैवविविधता घटकों की पहचान और मानीटरन


प्रत्येक संविदाकार पक्ष को यथोचित रूप से, यथासम्भव, विशेषकर अनुच्छेद 8-10 के प्रयोजनों के लिये,

(क) अनुबन्ध-1 में बताई ई श्रेणियों की सूची के अनुसार उन जैवविविधता घटकों की पहचान करनी होगी जो संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उपयोग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं,

(ख) उपर्युक्त पैरा क के अनुसरण में चुने गए जैवविविधता घटकों का प्रतिचयन और अन्य तकनीकों द्वारा मानीटरन करना होगा, विशेषकर उन घटकों पर विशेष ध्यान देना होगा, जिनके संरक्षण के लिये तत्काल उपाय किये जाने आवश्यक हैं तथा जिनके सतत उपयोग की सबसे ज्यादा सम्भावना है,

(ग) ऐसी प्रविधियों और गतिविधियों की पहचान करेगा जिनका जैवविविधता संरक्षण और दीर्घकालीन उपयोग पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है तथा प्रतिचयन और अन्य तकनीकों द्वारा उनके प्रभावों को मानीटरन करना होगा तथा,

(घ) उपर्युक्त उप पैरा क, ख, और ग के अनुसरण में जैवविविधता की पहचान और मानीटरन सम्बन्धी गतिविधियों से प्राप्त आँकड़ों के अनुक्षरण और आयोजन की व्यवस्था करनी होगी।

अनुच्छेद-4: स्वस्थाने संरक्षण


प्रत्येक संविदाकार पक्ष को यथोचित रूप से, यथासम्भव

(ग) संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उपयोग सुनिश्चित करने की दृष्टि से संरक्षित क्षेत्रों मेें या उनसे बाहर जैवविविधता संरक्षण के महत्त्वपूर्ण जैविक संसाधनों का प्रबन्ध या नियमन करना होगा,

(घ) पारिस्थितिक तंत्रों/प्राकृतिक आवासों के संरक्षण को प्रोत्साहन तथा जीव जातियों के प्राकृतिक पर्यावरण में रख-रखाव को प्रोत्साहित करना होगा,

(ज) राष्ट्रीय कानून के अधीन, स्वदेशी और स्थानीय समुदाय की जैवविविधता के संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उसके उपयोग के लिये उनकी पारम्परिक जीवनशैलियों में समाहित परम्परागत ज्ञान, आविष्कारों और परम्पराओं को बनाए रखना, सुरक्षित रखना तथा आदर करना और उन लोगों की अनुमति और सहमति से जिन्हें इस ज्ञान, अविष्कारों और पद्धतियों पर अधिकार है, व्यापक अनुप्रयोग और ऐसे ज्ञान आविष्कार पद्धतियों से होने वाले लाभ के समान वितरण को प्रोत्साहित करना होगा।

अनुच्छेद-5: जैवविविधता घटकों का पर्यावरण के अनुकूल उपयोग


प्रत्येक संविदाकार पक्ष द्वारा यथोचित रूप से यथा सम्भव

(क) राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेते समय जैविक संसाधनों के संरक्षण और उनके पर्यावरण के अनुकूल उपयोग सम्बन्धी पक्षों पर विचार किया जाएगा,

(ख) जैविक संसाधनों के उपयोग के लिये ऐसे उपाय अपनाए जाएँगे जिससे जैवविविधता पर बिल्कुल भी नहीं या कम-से-कम प्रतिकूल प्रभाव पड़े,

(ग) परम्परागत सांस्कृतिक पद्धतियों के अनुसार जैविक संसाधनों के ऐसे पारम्परिक उपयोगों की रक्षा और प्रोत्साहित किया जाएगा जो संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल हैं।

(घ) उन क्षेत्रों में जहाँ जैवविविधता कम हो गई सुधार के उपाय विकसित करने और उन्हें लागू करने में स्थानीय जनता का समर्थन किया जाएगा।

अनुच्छेद-6: अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण


संविदाकार पक्ष, विकासशील राष्ट्रों को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए,

(क) जैवविविधता की पहचान, संरक्षण और जैविक संसाधनों के घटकों के पर्यावरण के अनुकूल उपयोग के लिये वैज्ञानिक, तकनीकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करेंगे तथा विकासशील राष्ट्रों की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये शिक्षा और प्रशिक्षण के लिये सहायता देंगे।

(ख) अन्य बातों के अतिरिक्त, विभिन्न पक्षों के सम्मेलन में वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रौद्योगिकी विषयक सलाहकार उपसमिति की सिफारिशों पर लिये गए निर्णयों के अनुसार, विशेषकर विकासशील राष्ट्रों में जैवविविधता संरक्षण और उसके पर्यावरण के अनुकूल उपयोग में योगदान के लिये अनुसन्धान को प्रोत्साहन देंगे, तथा

(ग) अनुच्छेद-16, 18 और 20 के अनुरूप जैविक संसाधनों के संरक्षण और पर्यावरण के अनुकूल उनके उपयोग की विधियाँ विकसित करने से सम्बन्धित जैवविविधता अनुसन्धान के क्षेत्र में हुई वैज्ञानिक प्रगति के उपयोग को प्रोत्साहित करेंगे और सहयोग देंगे।

अनुच्छेद-7: लोक शिक्षा एवं जन-जागृति


(क) जैव-विविधता संरक्षण के उपायों और उसके महत्त्व के विषय में जनसाधारण में सोच पैदा करने के लिये प्रचार माध्यमों से इसके प्रचार-प्रसार तथा इन विषयों को पाठ्यक्रमों में शामिल करने के लिये प्रोत्साहित करेंगे।

अनुबन्ध-1:


अत्यधिक विविधता वाले ऐसे पारिस्थितिक-तंत्रों और आवासों की जिनमें,

1. अनेक स्थानीय ऐसी जातियाँ हैं, जिनके विलुप्त होने की आशंका है, जो प्रवासी पक्षियों के लिये आवश्यक है, जो जंगली हैं या सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक या वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, जो किसी जाति का प्रतिनिधित्व करती है, अभूतपूर्व हैं, और मुख्य विकासात्मक या अन्य जैविक प्रक्रियाओं से सम्बन्ध हैं,

2. ऐसी जातियाँ और समुदाय हैं जो विनाश के कगार पर खड़े हैं, फसली जातियों की जंगली किस्में हैं या औषधि, कृषि या अन्य आर्थिक दृष्टि से उनका सामाजिक, वैज्ञानिक या सांस्कृतिक महत्त्व है, सूचक जातियों की जैवविविधता संरक्षण और उसके पर्यावरण के अनुकूल उपयोग विषयी अनुसन्धान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, पहचान तथा मानीटरन,

3. सामाजिक, वैज्ञानिक या आर्थिक महत्त्व के जीनोम, जीन की पहचान।


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