जलवायु परिवर्तन और भारत की ग्रामीण महिलाएँ


भारत के जलवायु सम्बन्धी प्रमुख दस्तावेज-नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) को लैंगिकता के सन्दर्भ में देखें तो पाएँगे कि एनएपीसीसी का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में करके ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहीं महिलाओं सम्बन्धी विषयों में दखल रखने वाले गैर-सरकारी संगठनों की अनदेखी की गई। वह भी उस स्थिति में जब जलवायु परिवर्तन की सूरत में महिलाएँ ही सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी तमाम फैसलों में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। भारत की 11वीं पंचवर्षीय योजना में महिलाओं और पर्यावरण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया है, जबकि इसी को आधार बनाते हुए एनएपीसीसी मिशन को कार्यान्वित किया जाना है। विश्व भर की तमाम महिलाओं की भाँति ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले की दुर्गा देवी अपने परिवार के लिये पीने और नहाने-धोने को पानी लाने के लिये हर रोज घंटों खटती हैं।

जिन कुओं से उनके परिवार को स्वच्छ पानी पर्याप्त मात्रा में मिल जाता था, उन्हें सूखे 20 साल से ज्यादा का समय गुजर चुका है। सो, दुर्गा देवी को अब काफी दूर से पानी लाना पड़ता है।

इस सारी कवायद में उन्हें उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने के दौरान असुरक्षा के माहौल से भी गुजरना पड़ता है। काफी देर तक लगातार पानी ढोने के कारण स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अपने बच्चे की शिक्षा-दीक्षा पर वह ध्यान नहीं दे पातीं। सूखे, तूफान और बाढ़ जैसी अति मौसमी स्थितियों के बढ़ते रुझान ने पहले ही अर्थव्यवस्थाओं, आर्थिक विकास और मानवीय विस्थापन के ढर्रे को बिगाड़ दिया है।

ये सब इस सदी की सबसे बड़ी चिन्ता के रूप में उभरने वाली घटनाएँ साबित होने जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति इनसे प्रभावित होगा। कोई कम तो कोई ज्यादा।

अध्ययनों से पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं, गम्भीर मौसमी घटनाओं और जलवायु परिवर्तन से महिलाएँ सर्वाधिक प्रभावित होती हैं।

ग्रामीण महिलाओं की संसाधनों तक सीमित पहुँच, सीमित अधिकार, पितृसत्तात्मक ढाँचे का व्यापक स्वरूप, सीमित आवाजाही और निर्णय लेने में न के बराबर भागीदारी जैसी तमाम बातों के चलते जलवायु परिवर्तन उनके लिये बेहद जोखिम भरा साबित होता है।

उदाहरण के लिये जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे या बाढ़ की स्थिति में महिलाओं को स्वास्थ्य, साफ-सफाई, रोज़गार, बच्चियों की स्कूल में उपस्थिति, हिंसा की आशंका आदि से तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।

खासकर हाशिए पर पड़ी ग्रामीण आबादी की महिलाओं की दिक्कत दोगुनी हो जाती हैं। उन्हें न केवल जाति, वर्गीय भेदभाव बल्कि सामाजिक स्तर पर लैंगिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है।

पानी को लेकर होने वाले संघर्ष से पानी की उपलब्धता घटेगी तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान दलित महिलाओं को होने वाला है क्योंकि श्रेष्ठता का भाव उनकी पानी तक पहुँच को मुश्किल भरा कर देगा।

जलवायु के कारण दुल्हन न मिलना एक समस्या के रूप में उभरेगा। कारण, माता-पिता अपनी बेटी का विवाह उन जगहों पर करने से बचेंगे जहाँ जल की दुर्लभता होगी। इस करके दुल्हनों की खरीद-बेच जैसी समस्या सिर उठा लेगी।

गरीब क्षेत्रों से लोग अपने लिये दुल्हन खरीद लाने को प्रेरित होंगे। इन तमाम कारणों से क्षेत्र विशेष की महिलाओं के लिये हालात साजगार नहीं रह जाने। उन्हें इन हालात में पुरुषों से ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।

जलवायु विमर्श में कहाँ हैं महिलाएँ


पर्यावरण को अरसे तक ढोंग माने जाते रहने के कारण वैज्ञानिक और राजनीतिक स्तर पर उपेक्षा का सामना करना पड़ा है। लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं। खासकर हाल में सम्पन्न कॉप 21 के आयोजन के बाद से।

पेरिस मसौदे पर अप्रैल, 2016 में तमाम देशों के प्रमुखों की मुहर लग जानी है। जहाँ प्रदूषण को लेकर होने वाला ऐतिहासिक विमर्श पेरिस मसौदे में अपना स्थान पा चुका है और उत्सर्जन में कटौती का बोझ भी विकसित देशों पर ज्यादा रहने वाला है, वहीं यह बात अखरती है कि लैंगिकता का मुद्दा अभी भी नदारद है।

जलवायु परिवर्तन की बाबत संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि मैरी रॉबिंसन ने सही ही इंगित किया है कि पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन में लैंगिक असमानता भी रही। पुरुषों का दबदबा ग्लोबल वार्मिंग से लोगों को बचाने की गरज से फैसला करने में आड़े आ सकता है।

महिलाओं की भागीदारी सम्बन्धी आँकड़ों पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि किसी भी चर्चा के उपरान्त फैसले या सौदे में महिलाओं की भागीदारी कम-से-कम रही है।

सरकारों और अन्तरराष्ट्रीय संगठन द्वारा किये जाने वाले प्रमुख पर्यावरणीय समझौतों में महिलाओं के सरोकारों को अनदेखा कर दिया जाता रहा है। माना जाता रहा है कि जलवायु सम्बन्धी तमाम प्रयासों का लैंगिकता से कोई लेना-देना नहीं है, जबकि ऐसी बात नहीं है।

भारत के जलवायु सम्बन्धी प्रमुख दस्तावेज नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) को लैंगिकता के सन्दर्भ में देखें तो पाएँगे कि एनएपीसीसी का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में करके जमीनी स्तर पर कार्य कर रहीं महिलाओं सम्बन्धी विषयों में दखल रखने वाले गैर-सरकारी संगठनों की अनदेखी की गई।

वह भी उस स्थिति में जब जलवायु परिवर्तन की सूरत में महिलाएँ ही सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी तमाम फैसलों में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए।

भारत की 11वीं पंचवर्षीय योजना में महिलाओं और पर्यावरण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया है, जबकि इसी को आधार बनाते हुए एनएपीसीसी मिशन को कार्यान्वित किया जाना है। भारत में जलवायु परिवर्तन नीति में मात्र दो लैंगिक हवाले मिलते हैं।

पहला इस प्रकार है: ‘जलवायु परिवर्तन, समावेशी और टिकाऊ विकास के जरिए समाज के गरीब और इससे प्रभावित होने वाले कमजोर वर्ग का संरक्षण’; तथा दूसरा तकनीक सम्बन्धी दस्तावेज की धारा 1.1 में लैंगिकता का विशेष तौर पर उल्लेख मिलता है।

उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन महिलाओं को खासतौर पर प्रभावित कर सकता है। जलवायु परिवर्तन के चलते पानी की बेहद कमी हो जाएगी जिससे महिलाएँ विशेष रूप से प्रभावित होंगी। वन्य उपज में कमी आ जाएगी। बच्चों, महिलाओं और उम्रदराज लोगों के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा। खाद्यान्न की कमी की आशंका के चलते कुपोषण बढ़ने का भी खतरा पैदा हो सकता है। इन तमाम कारणों से पहले से ही सख्त हालात में गुजर-बसर कर रहीं महिलाओं को वंचना का शिकार होना पड़ सकता है। इस करके लैंगिक पहलू पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यही सब कुछ है, जो हम 56 पृष्ठों वाले इस दस्तावेज में पाते हैं।

समस्या यह है कि इस दस्तावेज में चिन्ता तो जतलाई गई है लेकिन असल कार्रवाई क्या हो, इसका जिक्र नहीं है। महिलाओं की केन्द्रीय भूमिका को अनदेखा किया गया है।

निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी, उत्पादक संसाधनों के स्वामित्व और उन पर नियंत्रण के मामले में उन्हें सशक्त बनाए जाने की दरकार है। यह जान लेना महत्त्वपूर्ण है कि महिलाएँ घरेलू स्तर पर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।

श्रम के लैंगिक आधार पर विभाजन के चलते ग्रामीण महिलाएँ अपने घरेलू कार्यकलाप में प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत ज्यादा निर्भर रहती हैं। यही कारण भी रहा कि पर्यावरणीय लिहाज से उनका कामकाजी ज्ञान और समझ ज्यादा है। लेकिन नीति-निर्माताओं ने उनकी चिन्ताओं और क्षमताओं को लेकर ठंडा रवैया अपनाया है।

इसलिये जरूरी है कि लैंगिक संवेदनशीलता दिखाते हुए नीतिगत फैसलों में उन्हें स्थान दिया जाये। साक्षरता, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के जरिए महिलाओं को जलवायु तकाजों के मद्देनज़र सशक्त बनाया जा सकता है।

लेखिका, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की सहायक प्रोफेसर हैं।

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