परीकथा नहीं है जलवायु परिवर्तन
हर बार की तरह पिछली बार भी गौरीशंकर ने पान की फसल 18 कतारों में लगाई थी। लेकिन इस बार वह किस्मत की बाजी हार गया। वह बताता है, हर साल वह 20 फरवरी से 20 मार्च के बीच पान की फसल लगाता आया है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फसल खूब लहलहाए और ढेर सारी कमाई दे। इसके लिए जरूरी है कि फसल को कम से कम तीन महीने तक तीखी धूप से बचाकर रखा जाए। फसल को मिलने वाला तापमान 30 डिग्री से ज्यादा नहीं होना चाहिए। इसी लिए इस इलाके के किसान फसल के क्षेत्र को टहनियों और धान के पैरे से बनाए अस्थायी ढांचे से ढंक देते हैं। लेकिन गौरीशंकर की व्यथा कुछ और ही है। वह कहता है कि जब उसने फसल लगाई वह सीजन पान लगाने वाला ही था लेकिन तब तापमान बढ़कर 35 डिग्री हो चुका था। यहां पान उत्पादक किसान तापमान जानने के लिए किसी वैज्ञानिक उपकरण का इस्तेमाल नहीं करते। वे अपने हाथों को सूरज की ओर फैलाकर या नंगे पैर जमीन पर चलकर पता कर लेते हैं कि कितनी गर्मी है। वर्तमान मौसमी संकेत अगले साल खूब गरम होने की चेतावनी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति अब तक कभी भी नजर नहीं आई थी। ताजा स्थितियों में मध्य और उत्तारी भारत ठोस जाड़े के मौसम में वातावारण गर्मी से तप रहा है।
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का सीधा असर देखा और महसूस किया जा सकता है। यह एक अहम अनाज उत्पादक इलाका रहा है पर यहां पिछले सात सालों में इसके चलते किसानों व पान उत्पादकों का जिंदगी बदल कर रख दी है। जलवायु परिवर्तन ने यहां कृषि आधारित आजीविका और खाद्यान्न उत्पादन पर खासा असर डाला है। बुंदेलखंड के जिलों में खाद्यान्न में 58 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। निश्चित तौर पर यह कृषि आधारित समाज तथा उसकी आर्थिक स्थिति के लिए बेहद गंभीर बात है। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में कृषि क्षेत्र में नाकामी अब एक चक्रीय परिघटना बन चुकी है।
बुदेलखंड के लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा और गहरा असर साफ महसूस किया जा सकता है। यहां पिछले आठ सालों में मानसून की अवधि साल में 52 दिन से घटकर अब महज 24 दिन की रह गई है।
रामपाल सिंह बताते हैं कि निवारी और टीला गांवों में इतनी ज्यादा सब्जियां पैदा होती थीं कि यहां सब्जी उनके लिए बेहद मामूली चीज हो गई थी। यहां हर किसी की थाली में गेहूं, दाल, चना व सब्जियां पर्याप्त मात्रा में देखी जा सकती थीं। लेकिन यहीं हालात कुछ इस कदर बदले कि पिछले चार-पांच सालों से वह अपनी 40 बीघा जमीन पर लौकी, ककड़ी या आलू की फसल तक नहीं ले पाए हैं। अब उन्हें खाने की सब्जियों के लिए भी बाजार का मुंह ताकना पड़ता है। रामपाल ने पिछले साल अपने किसान क्रेडिट कार्ड से इस भरोसे पर कर्ज लिया था कि अच्छी फसल के होते ही वह कर्ज चुकता कर देगा। लेकिन अभी तक वह कर्ज की एक भी किश्त नहीं चुका पाया है।
पिछले चार-पांच सालों में बेहद कम पानी बरसने या कई क्षेत्रों में सूखा पड़ने के चलते इस क्षेत्र के तकरीबन सभी कुएं सूख चुके हैं।
बुदेलखंड के लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा और गहरा असर साफ महसूस किया जा सकता है। यहां पिछले आठ सालों में मानसून की अवधि साल में 52 दिन से घटकर अब महज 24 दिन की रह गई है।
यहां आंगनवाड़ी केंद्रों द्वारा गांवों में मुहैया कराए जा रहे पोषाहार योजना पर भी नकारात्मक असर पड़ा है, क्योंकि पानी के अभाव में पोषाहार को पकाना एक समस्या बन गया है। अगर ग्रामीण अपने गांवों में ही रुके भी रहें तो उन्हें सूखे की मार झेलनी पड़ती है।
बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के लोग अब आसपास के शहरों के लिए पलायन करने लगे हैं ताकि वे गुजर-बसर के लिए कोई काम कर सकें। इसके चलते उनके बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। उनके मुताबिक उनके बच्चों के भोजन का एक बड़ा हिस्सा स्कूलों के मध्यान्ह भोजन व आंगनवाड़ी के मिलने वाले पोषाहार के रूप में पहले गांवों में मिल जाया करता था। लेकिन बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे ने इन गांवों में लोगों की आजीविका का आधार ही हिला कर रख दिया है। खासकर जल आपूर्ति और कृषि के अभाव में किसी और तरह की गतिविधि यहां संभव ही नहीं रह गई है।
बुंदेलखंड में जीने के लिए जूझती जिंदगी
दो साल पहले तक श्रीपाल अपने 30 सदस्यों वाले संयुक्त परिवार के साथ मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में छतरपुर जिले के एक छोटे से गांव में रहता था। उसका परिवार 40 बीघा जमीन पर खेती किया करता था, उनके पास 35 घरेलू जानवर भी थे। जाहिर है कि वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित और सम्मानपूर्ण जिंदगी जी रहा था। अच्छी खेती से उसे न केवल पर्याप्त अनाज मिल जाता था बल्कि दूध बेचकर वह ठीक-ठाक पैसे भी कमा ले रहा था। लेकिन हालात ने कुछ इस तरह करवट ली कि श्रीपाल और उसके तीन भाई अब रिक्शा चालक बन गए।
बुंदेलखंड के सूखे ने लोगों को असुरक्षा की भावना के साथ जीने के लिए मजबूर कर दिया। श्रीपाल और उसके भाईयों ने अपनी खेती के लिए जो कर्ज ले रहा था उसका निपटारा अब वे रिक्शा खींचने से होने वाली कमाई से कर रहे है। उन्हें सूखा राहत के तौर पर सरकार से फूटी कौड़ी तक नहीं मिली। रिक्शा चालक के तौर पर उन्हें छतरपुर शहर में एक जगह से दूसरी जगह जाने के बमुश्किल पांच से आठ रुपए मिलते हैं। एक रिक्शे के दिन भर के किराए के तौर पर उन्हें मालिक को 20 रुपए अलग से देने होते हैं। जाहिर है कि श्रीपाल और उसके भाई रोजाना की हाड़तोड़ मेहनत से केवल अपने परिवार के दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं। आलम यह है कि नए कपड़े भी उनके लिए सपना बनकर रह गए है।
हाल ही हुई थोड़ी बारिश के बाद चारों में एक भाई अपने गांव वापस लौट गया। लेकिन चारों अभी भी इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिरकार गरीबी के इस दुश्चक्र से बाहर कब निकल पाएंगे। इस बार मानसून से पहले ही बादलों के बरसने से गांवों में लोग खेतों में हल नहीं चला सके और कोई भी फसल नहीं बो पाए। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में बुंदेलखंड के गांवों के लोग राज्य सरकार से किसी तरह के सहयोग की उम्मीद लगाए बैठे है। लेकिन सूखे के चार साल बीतने के बावजूद राज्य और केंद्र के बीच विवादों के अलावा बुंदेलखंड को अपने लिए कुछ और नहीं मिला। होना तो यह चाहिए कि चिंता और परेशानी के दौर में लोगों के लिए राहत की राजनीति की जाए, लेकिन बुंदेलखंड में ठीक इसके उलट हो रहा है। यहां विभिन्न दलों की राजनीतिक विचारधारा भूख, आजीविका की असुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा सरीखे मुद्दों पर एकजुट होकर सामने नहीं आ पा रही है।
अगर इस साल (2008) की बात करें तो यह बारिश के संदर्भ में बेहतर माना जा सकता है। लेकिन यह भी बुंदेलखंड के लघु व सीमांत किसानों की जिंदगी में कोई सकारात्मक बदलाव ला पाने में सफल नहीं हो सका। इस बार लगातार तीन-चार दिन तक बारिश होने से निचले क्षेत्रों में पानी भर गया और किसान इनमें कुछ भी नहीं बो सके। अब वे अगली फसल के इंतजार में हैं लेकिन इसके लिए उन्हें ज्यादा निवेश करने की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि पहले जो बारिश आई वह तय खेती के लिए निर्धारित समय से पहले हो गई या फिर कई स्थानों पर वह इतनी देर से आई कि खेत तैयार होने के बाद भी बोए नहीं जा सके। जाहिर है कि इससे किसानों की जिंदगी की असुरक्षा की दर्दनाक तस्वीर साफ तौर पर उभर कर सामने आती है। सूखे के चलते वे अपनी तमाम जमा-पूंजी खर्च कर चुके है। ऐसे में इस साल बारिश के बावजूद वे ज्यादा निवेश करने की हालत में नहीं हैं। उनके पास बीज, खाद, दवा खरीदने के लिए पैसे ही नहीं हैं।
वास्तविक हालत तो यह है कि अब खेती के लिए कर्ज लेने का जोखिम उठाने की हालत में नहीं हैं। यहां रहते हैं रामपाल सिंह, 40 बीघा जमीन के मालिक । ऐसी जमीन जो कभी उर्वर थी और अच्छी तरह से सिंचित भी। रामपाल टीला गांव से हैं जो कभी बैंगन और लौकी के उत्पादन के लिए आसपास के इलाकों में काफी जाना जाता था। टीला पंचायत के 387 परिवारों में से 302 परिवारों का प्राथमिक पेशा खेतीबारी ही हुआ करता था। तीन साल पहले तक इस गांव से जबलपुर, भोपाल, इंदौर, झांसी व आगरा सरीखे शहरों को 17-18 ट्रक सब्जियां भेजी जाती थीं। इन शहरों की सब्जी की बड़ी मांग की आपूर्ति नेवारी ब्लाक से हुआ करती थी। लेकिन आज दुर्भाग्य से हालात बदल चुके हैं। हाल ये है कि अब हर दो दिन में महज एक ट्रक सब्जी ही यहां से बाहर जा पाती है। किसानों का अंदाजा है कि लौकी, आलू, शिमला मिर्च व बैंगन जैसी सब्जियों के उत्पादन में 70-80 फीसदी की गिरावट हुई है। उनका यह भी कहना है कि क्षेत्र के करीब 80 फीसदी किसानों ने सब्जियां उगानी बंद कर दी हैं, इनमें लघु और सीमांत किसान शामिल हैं।
यहां पिछले कुछ सालों में जलवायु में काफी ज्यादा बदलाव देखने में आया है। खासकर खेती की जमीनों को मुनाफे वाले औद्योगिक क्षेत्रों में देने के बाद यह बदलाव साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। और विडंबना तो यह है कि इसका खामियाजा उन्हें नहीं भुगतना पड़ रहा है जो इसके लिए जिम्मदोर है। इसका दुष्पगरिणाम भुगत रहे हैं बुंदेलखंड के स्थानीय वाशिंदे यहां के ग्रामीण। यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि यहां पिछले आठ सालों में सालाना मानसूनी बारिश के दिन 52 से घटकर महज 24 रह गए है। राज्य सरकार ने इस साल यह दावा करते हुए टीकमगढ़ और छतरपुर जिलों को सूखा प्रभावित जिलों से अलग कर दिया कि इस साल यहां औसत से ज्यादा बारिश हुई है। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या ऐसी घोषणा करने वाले राज्य के आला अधिकारी यह नहीं जानते थे यह बारिश 45-50 दिनों की निर्धारित अवधि की बजाय महज 20 दिनों में ही हो गई है और इससे खेती को फायदे की बजाय नुकसान हुआ है। इन तथ्यों से साफ तौर पर कहा जा सकता है कि समूचा बुंदेलखंड अभी भी सूखे की गंभीर त्रासदी से जूझ रहा है।
यहां के गरीब किसान पूरी तरह से किसान पर निर्भर है, लेकिन सरकार असल समस्या को पूरी तरह से दरकिनार कर दे रही है। यह अलग बात है कि प्रशासन ने सूखा पीड़ितों के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए एक एकड़ जमीन के बदले 1200 रुपए की क्षतिपूर्ति देने की शुरुआत कर दी। इससे यह पता चलता है कि प्रशासन की नजर में इन किसानों की अहमियत भिखारियों से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
इससे इस बात का भी अंदाजा होता है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता की सूची में खेती को कितनी अहमियत दी जा रही है। मुआवजे की इस मामूली रकम को देने की प्रक्रिया इतनी अमानवीय है कि ज्यादातर किसानों ने इसे लेने से साफ इनकार कर दिया है। यह मुआवजा पटवारी के पास मौजूद पुराने राजस्व रिकार्डों के आधार पर तैयार किया जा रहा है। इन पुराने रिकार्ड में जमीन का एक टुकड़ा 18 से 20 लोगों के नाम पर है, और यही कारण है कि मुआवजे का चेक भी इन सभी लोगों के नाम पर दिया जा रहा है। यानी, 1200 रुपए का चेक 20 लोगों के लिए। यही नहीं, सरकारी प्रक्रिया में यह भी अनिवार्य है कि मुआवजे के लिए मिले चेक के भुगतान के समय हर सदस्य को वहां मौजूद होना चाहिए। जबकि वास्तविकता यह है कि कई मामलों में परिवार के कुछ सदस्यों की या तो मौत हो गई है या फिर वे पलायन कर गए हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में सभी को कैसे मुआवजा दिया मिलेगा यह एक कठिन और बड़ा सवाल है। यह उदाहरण इस बात को दर्शाता है कि यहां के नौकरशाह और जन प्रतिनिधियों को यहां की जनता की नहीं बल्कि स्थानीय कृषि की जमीन को औद्योगिक घरानों को बेचने की ज्यादा फिक्र है।
बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन और आजीविका की चुनौतियां
अब बुंदेलखंड में मौसम का पूर्वानुमान लगा पाना बेहद मुश्किल हो गया है। पहले हम जलवायु पध्दति के आधार पर कृषि तथा पषुओं के लिए योजनाबध्द तरीके अपनाते थे। लेकिन अब हमारे बस में कुछ नहीं रहा। ठेठ गर्मियों में तूफान आते हैं और बारिश शुरू हो जाती है। वहीं मानूसन में बारिश के दर्शन तक नहीं होते। और शीत ऋतु में इतनी ज्यादा ठंड पड़ती है कि हमारी सब्जियां, गेहूं और दूसरी तमाम फसलें खराब हो जाती है। इस साल ठंड इतनी कम पड़ी कि खेती फिर संकट में आ गई है। यह कहना है कि मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में रह रह टीला गांव के किसानों के एक समूह का जो बीते कई सालों से यहां हो रहे जलवायु परिवर्तन की मार झेलने को अभिशप्त हैं। वर्तमान मौसमी संकेत अगले साल खूब गरम होने की चेतावनी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति अब तक कभी भी नजर नहीं आई थी। ताजा स्थितियों में मध्य और उत्तरी भारत ठोस जाड़े के मौसम में वातावारण गर्मी से तप रहा है।
चार साल बाद इस साल हमनें यहां बारशि देखी। लेकिन जून के दूसरे सप्ताह में ही हमारे क्षेत्र मौसम की करीब 32 फीसदी बरसात हो चुकी थी। लेकिन किसान इतनी जल्दी फसल बोने के लिए तैयार नहीं थे। बुंदेलखंड के ज्यादातर हिस्से में इस साल शुरू में ही सालाना बारिश का करीब 55 फीसदी हिस्सा बरस चुका था। यूं तो रिकार्ड के मुताबिक छतरपुर में 968.8 मिलीमीटर के मुकाबले 1108.3 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है यानी औसत से ज्यादा इसके आधार पर अब बुन्देलखण्ड के छतरपुर के ज्यादातर जिले सूखे की सरकारी परिभाषा से ही बाहर हैं किन्तु यहीं के राजनगर विकासखण्ड के ललपुर, गुन्चू और प्रतापपुरा जैसे 40 से ज्यादा गांवों को पानी की तरावट नसीब नहीं हुई है। यहां चारे, बिजली और सिंचाई के साधनों का भी संकट है, पर अभी वहां कोई राहत नहीं पहुंचेगी। मौसम के इस बदलाव से कई इलाकों में बाढ़ आई और उर्वर जमीन के क्षय के साथ-साथ पशुओं का भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ। बुंदेलखंड में कृषि की इस बदहाली का असर यहां के पशुओं पर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है।
प्रभावित क्षेत्र के ज्यादातर परिवारों ने या तो सूखे के असर के चलते अपने पशु गंवा दिए या फिर उनके अपनी किस्मत के भरोसे खुला छोड़ दिया गया। यहां लोग अपने और परिवार की जिंदगी के लिए हर दिन नई चुनौती से जूझ रहे थे, अपने पशुओं के बारे में सोचना उनके लिए काफी दूर की चीज थी। विगपुर के हकीम सिंह यादव के पास कभी 37 जानवर हुआ करते थे, अब वे काफी दुख के साथ बताते हैं कि उनके पास केवल 7 जानवर ही बचे हैं। जलवायु के इस अनिश्चित रवैये के चलते क्षेत्र में हुई पर्याप्त बारिश भी यहां की खेती के लिए कोई फायदा नहीं पहुंचा पाई। छतरपुर व पन्ना जिलों में भी इस असमान बारिश की मौजूदगी जरूर महसूस की गई लेकिन बीते 15 सालों से जारी सूखे तथा जंगलों के कटने के चलते बारिश के पानी को बटोरने तथा भविष्य के लिए इस्तेमाल करने की क्षमता भी बेहद सीमित नजर आई।
हाल के कुछ वर्षों में पूर्वी मध्यप्रदेश सूखे की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। वास्तव में पिछले साल (2007-08) तो करीब 39 जिले सूखा प्रभावित घोषित कर दिए गए थे, इनमें से ज्यादातर बुंदेलखंड क्षेत्र में ही थे। इस साल (2008-09) सूखे का असर पश्चिमी मध्यप्रदेश की ओर बढ़ गया है और करीब 21 जिले सूखा प्रभावित (वे जिले जहां बारिश -20 से -59 फीसदी तक कम हुई हो) के रूप में पहचाने जा चुके हैं। इन सात जिलों, छिंदवाड़ा, देवास, हरदा, होषंगाबाद, सीहोर, खरगौन तथा पन्ना में औसत की तुलना में करीब 40 फीसदी कम बरसात हुई है। इससे पता चलता है कि समूचा मध्यप्रदेश ही धीरे-धीरे सूखा प्रभावित भौगोलिक क्षेत्र बनता जा रहा है।
मध्यप्रदेश की नई नीतियों व तथाकथित विकास योजनाओं, जिनमें खनन, सीमेंट उत्पादन व धूल पैदा करने वाले अन्य कई उद्योग शामिल हैं, से बुंदेलखंड क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन को और बल मिल रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने सागर में हुए निवेशक सम्मेलन के जरिए बुंदेलखंड के बेहतर भविष्य का वादा जरूर किया था लेकिन राज्य की प्राथमिकता सूची में कृषि अभी भी काफी नीचे है। बुंदेलखंड क्षेत्र पारंपरिक तौर पर मध्यप्रदेश के सर्वाधिक संपन्न क्षेत्रों में माना जाता रहा है। इस क्षेत्र में घरेलू जरूरतों के अलावा बाजार के लिए भी पीढ़ियों से भरपूर खाद्यान्न उत्पादन होता रहा है। लेकिन पिछले आठ सालों में यह उत्पादन लगातार नीचे की ओर गिर रहा है। आज हाल यह है कि इस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता घटकर लगभग आधी रह गई है। उधर, राज्य प्रशासनिक तंत्र कृषि क्षेत्र में हो रही इस असफलता के कारण ढूंढकर उनका निदान करने की बजाय औद्योगीकरण तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता देकर यहां के प्राकृतिक संसाधनों के ज्यादा से ज्यादा दोहन कराने में जुटा हुआ है।
एक ओर जहां दिन प्रति दिन इस क्षेत्र के लोगों की हालत खराब होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है कि उसने बुंदेलखंड में निजी कंपनियों से करीब 50 हजार करोड़ रुपए के निवेश के लिए सफलता हासिल की है। यह बात गौरतलब है कि इनमें से ज्यादा निवेशकों का ध्यान खनन आधारित उद्योगों पर है। मसलन, स्टील प्लांट, सीमेंट प्लांट, जैट्रोफा उत्पादन, प्रसंस्करित खाद्य उत्पाद आदि। आर्थिक विकास के ये तरीके पर्यावरण के लिये बेहद नुकसानदायक हो सकते हैं। राज्य सरकार इन निवेशकों को पानी, बिजली और तमाम अन्य सुविधाएं देने का वायदा कर रही है। लेकिन इनमें से कृषि क्षेत्र के लिए एक भी निवेश नहीं किया गया है। यहां होने वाले औद्योगीकरण से जमीनों की उर्वरता घटेगी, भूजल के अंधाधुंध दोहन से अपने उत्पादन और जंगलों के प्रसिध्द बुंदेलखंड की जमीन बंजर हो जाएगी। इसके चलते यहां के किसान, गरीब और उपेक्षित समुदाय असुरक्षा के अनुत्तरित सवालों के साथ अकेले छूट जाएंगे।
नई विकास नीतियों से मध्यप्रदेश के पशुधन पर संकट
कुपोषण के कारण खासा बदनाम हो चुका मध्यप्रदेश इसके निदान के उपायों पर भी संकट खड़ा करता नजर आ रहा है। एक ओर जहां प्रदेश में खाद्यान्न तथा दूसरे कृषि उत्पादों का उत्पादन तेजी से गिर रहा है वहीं दूसरी ओर पशुधन पर बढ़ते संकट से कृषि क्षेत्र के विकास के लिए बाधाएं खड़ी होती नजर आ रही है। अब किसान कहने लगे हैं कि अगर बाकी सारी चीजें ठीक हो भी जाएं, मसलन, पानी और बीज मुहैया करा दिए जाएं, तो भी पशुधन की अनुपलब्धता के चलते कृषि क्षेत्र का विकास बेहद सीमित हो जाएगा। हम मध्यप्रदेश को पहला जैविक खेती वाला राज्य बनाने की बातें कहते है, लेकिन पशुधन के अभाव में हम इस सपने को आखिरकार कैसे पूरा कर पाएंगे। जहां तक राज्य की प्राथमिकताओं का सवाल है, राज्य सरकार हमेशा पशुधन आबादी बढने की बात करती रहती है, लेकिन मौजूदा पशुधन को बचाने के लिए कोई धारणा नजर नहीं आती।
प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए अहम इन जैविक संसाधनों के लिए चारे, छाया या पीने के पानी के लिए सरकार की योजनाओं में किसी तरह के आर्थिक संसाधन मुहैया नहीं कराए गए हैं। गायों की रक्षा की योजना पूरी तरह से राजनीतिक है और इसका गांवों में किसी तरह का असर कतई नजर नहीं आता। बुंदेलखंड की एक खौफनाक सच्चाई यह है कि यहां गेहूं और पशुओं का चारा लगभग एक ही दाम पर खरीदा जा रहा है। यहां एक ट्रॉली चारे की कीमत करीब 2500 रुपए है जबकि गांव वाले इतना ही चारा 2004 में महज 200 रुपए में खरीदत थे। पर्यावरणीय चक्र में गड़बड़ी का भी चारा संकट बढ़ाने में खासा योगदान रहा है। जलवायु परिवर्तन का बुंदेलखंड में असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इसके चलते पिछले सात साल में पान के उत्पादकों तथा किसानों की जिंदगी बदल चुकी है। जलवायु परिवर्तन ने बुंदेलखंड के जिलों में कृषि आधारित आजीविका तथा खाद्यान्न उत्पादन में 58 फीसदी की गिरावट से यहां के समाज और उसकी आर्थिक स्थिति को खासा नुकसान पहुंचाया है।
बुंदेलखंड की धरती और यहां के लोग पिछले चार-पांच सालों से लगातार सूखे की विभीशिका झेल रहे है। सूखे ने इन सालों में स्थानीय ग्रामीणों की सम्मानजनक जीवन जीने की आशाओं पर पानी फेर दिया है। इस साल तो बारिश के बावजूद उनके पास अपनी हालत सुधारने के लिए ज्यादा मौके नहीं मिल पाए। यह अजीब संयोग था कि इस साल बुंदेलखंड में काफी ज्यादा बारिश हुई। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह बारिश बुंदेलखंड को लगातार सूखे की वजह से मिले भूख, जल संकट, खाद्य सुरक्षा और आजीविका के संकट से छुटकारा दिलाने के लिए काफी थी। इस साल जब मानसून ढेर सारा पानी लेकर आया तो किसान खाली हाथों और सूनी आंखो से उसे अपनी जमीनों पर बरसते देखते रहे। क्योंकि उनके पास खेती के लिए जरूरी बीज या दूसरे संसाधन खरीदने के लिए पैसे ही नहीं थे। बुंदेलखंड के करीब 76 फीसदी किसान सूखे के इन सालों में अपना लगभग सब-कुछ खो चुके हैं। अपनी खेती की जमीन, पशुधन, संपत्ति और कुछ के तो सिर पर छाया तक नहीं बची। बुंदेलखंड की संस्कृति में कृषि आधारित आजीविका के लिए पशुधन एक अहम कारक माना जाता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि मध्यप्रदेश में कृषि की ही तरह पशुधन संरक्षण के लिए भी कोई नीति नहीं है।
टीकमगढ़ जिले में परहित संस्थान की ओर से किए गए एक क्षेत्र सर्वेक्षण में पाया गया कि बीते चार सालों में बड़ी संख्या में पशुधन हानि हुई है। इस अध्ययन के मुताबिक 10 गांवों में 2004 में जहां गाय, भैंस, बकरी, भेड़ समेत कुल 55400 पशुधन था, यह 2008 में घटकर महज 15960 हो गया। यानी चार सालों में इन गांवों में 71 फीसदी पशुधन या तो चारे और पानी के अभाव में काल कवलित हो गए या जंगलों में पलायन कर गए। बरनहोनी आपदा गांव के परिवारों में अब केवल 1500 पशुधन ही बचे हैं, जबकि चार साल पहले इनके पास 8000 पशुधन हुआ करते थे। सरकारी नियमों में पशुधन के मरने पर मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। सीधी सी बात है कि राज्य के नियमों में पशुधन को संसाधन के तौर पर गिना ही नही जाता। ऐसे में ग्रामीणों का यह कहना जायज ही लगता है कि हम और क्या कर सकते हैं, हम अपने जानवरों को चारा मुहैया नहीं करा सकते, उधर सरकार ने भी उनके लिए चारे या पानी की कोई व्यवस्था नहीं की है। हम उन्हें ऐसे ही मरता नहीं देख सकते, इसलिए उन्हें खुला छोड़ देते हैं ताकि वे अपने लिए जीने का कोई तरीका ढूंढ सकें। जाहिर है कि पशुधन आधारित लोगों की आजीविका अब और भी कठिन हो गई है। ऐसे लोगों की सुरक्षा के लिए योजना बनाना विकास नीति बनाने वाले लोगों की प्राथमिकता की सूची से बाहर है।
मध्यप्रदेश में पशुधन बढ़ाने की कई योजनाओं के बावजूद यहां पशुधन संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। 1992 में कुल 28687 हजार पशुधन थे जो 2004 में घटकर 17943 हजार हो गए। यहां भैंस अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं, इनकी संख्या 7970 हजार से गिरकर 7026.8 हजार तक पहुंच गई है। इसी तरह 836 हजार भेड़ें तथा 8370 हजार बकरे, बकरी भी घटकर क्रमश: 570.4 हजार व 7530.7 हजार ही रह गए। ये आंकड़े राज्य के वेटनरी विभाग से हासिल किए गए हैं। बजट का प्रावधान भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि राज्य सरकार कृषि व पशुधन आधारित समाज के लिए कितनी गैर जिम्मेदार है। मध्यप्रदेश सरकार ने पशुपालन विभाग के लिए कुल 272 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया है। इसका मतलब यह हुआ कि गाय या भैंस सरीखे एक जानवर के लिए 0.01 रुपए। वैसे भी इस बजट का 78.31 फीसदी हिस्सा वेतन व अन्य मदों पर खर्च हो जाता है। देश में सबसे ज्यादा दूध उत्पादक पशुधन रखने वाला मध्यप्रदेश दूध उत्पादन के मामले में सातवें नंबर पर है। यह जानकारी भी चौंकाने वाली है कि प्रदेश की कुल घरेलू आय में 6 फीसदी का योगदान करने वाले पशुधन के विकास व संरक्षण के लिए कुल बजट का महज 0.66 फीसदी हिस्सा दिया जाता है। हाल के वर्षों में एक ओर तो मध्यप्रदेश सरकार ने चराई की भूमि को राजस्व की जमीन में बदलकर निजी या व्यावसायिक हितों के लिए इस्तेमाल किया है। 15 साल पहले तक साझा प्राकृतिक संसाधन या 10-12 फीसदी राजस्व की जमीन का इस्तेमाल चारा उगाने के लिए किया जाता था। लेकिन यह घटकर अब महज 1.5 फीसदी ही रह गया है। इसके चलते ग्रामीणों को मजबूरी में चारा बाजार से बेहद महंगी दरों पर खरीदना पड़ता है। इसके चलते पशुधन के जीने के अवसर भी सीमित हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर वन विभाग जंगली जानवरों की सुरक्षा के नाम पर पशुओं को चारे के लिए जंगल में जाने से रोकने पर अड़े हुए हैं। ऐसे में ग्रामीणों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच हर दिन होने वाले संघर्षों का कारण आसानी से समझा जा सकता है। वर्तमान में ऐसे संघर्षों के 17682 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। ऐसे में यह समझना ज्यादा कठिन नहीं है कि आखिर कौन है जो कानून का उल्लंघन कर रहा है और किस लिए कर रहा है।
/articles/jalavaayau-paraivaratana-aura-baundaelakhanda