जलवायु परिवर्तन : अभी भी वक्त है

पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन की धमक एक लंबे समय से सुनाई पड़ती रही है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण भारत को युद्ध जैसी विभीषिका का सामना भी करना पड़ सकता है, ऐसी एक गम्भीर चेतावनी पहली बार हमारे सामने आयी है और वह भी किसी साधारण अथवा सनसनी फैलानेवाले स्रोत से नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन से जुड़े अन्तरराष्ट्रीय पैनल की रिपोर्ट के माध्यम से। यह हमारे लिए सिर्फ चिंता की ही बात न होकर, अत्यन्त सतर्कतापूर्वक जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए कमर कस लेने की चेतावनी है। जलवायु परिवर्तन का सामना करने की तैयारी के लिए हमें यह जानना बेहद जरूरी है कि पृथ्वी पर होने वाला यह जलवायु परिवर्तन क्यों हो रहा है? इसका दायरा क्या है? यह हमें किस तरह से प्रभावित करने वाला है? जीव-जंतुओं, विशेष रूप से मनुष्यों पर इसका क्या असर होगा? इसका सामना हम कैसे करते हैं? इसका सामना करने के लिए हमारी अर्थात् पूरी दुनिया की क्या रणनीति होनी चाहिए? यहां, इन सब सवालों को मद्देनजर रखते हुए पूरी स्थिति की एक समीक्षा की जा रही है और इस बात की पड़ताल करने की एक कोशिश भी की जा रही है कि किस प्रकार से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से इस धरती को, इसके जीव-जन्तुओं को, तथा उसकि मौजूदा आर्थिक व व्यावसायिक ढांचे को बचाने की एक समुचित राह की तलाश की जा सकती है।

मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन आज एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है। इस परिवर्तन ने पिछले तीन-चार सौ वर्षों में काफी गति पकड़ ली है। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में मनुष्य ने विज्ञान का सहारा लेकर अपने हितों को साधने के लिए प्रकृति का तेजी से दोहन प्रारम्भ किया प्राकृतिक जलवायु परिवर्तनों के विपरीत मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप होनेवाले जलवायु परिवर्तन तेजी से घटित होते हैं, अतः उनका विश्व की भौगोलिक व आर्थिक परिस्थितियों पर भी तेजी से प्रभाव होता है। इन मानव-जनित जलवायु परिवर्तनों का मौसम पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण ऋतु-चक्र, वर्षा की मात्रा, तापमान इत्यादि में व्यापक रूप से जल्दी-जल्दी परिवर्तन होने लगते हैं। चाहे मनुष्य समुदाय हो, जीव-जन्तु हों अथवा कृषि से सम्बन्धित फसलें, वन एवं अन्य वनस्पतियां, इन सभी को ऐसे जलवायु परिवर्तन तेजी से प्रभावित करते हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन आज एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है। इस परिवर्तन ने पिछले तीन-चार सौ वर्षों में काफी गति पकड़ ली है, क्योंकि इस काल में विश्व में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का तेजी से विकास हुआ है और विश्व के अनेक देशों में औद्योगिक क्रांति आयी है। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में मनुष्य ने विज्ञान का सहारा लेकर अपने हितों को साधने के लिए प्रकृति का तेजी से दोहन प्रारम्भ किया है। उसने अपनी औद्योगिक व व्यावसायिक जरूरतों के लिए व्यापक तौर पर वनों के भीतर तथा बाहर सभी जगह पेड़ों की कटाई की है।

जैसे-जैसे उद्योगीकरण हुआ, वैसे-वैसे ही विश्व में शहरीकरण भी बढ़ा। दुनिया के तमाम विकसित देशों के बड़े-बड़े शहरों में इन्फ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य-परिरक्षा व आवास की सुविधाएं बढ़ने के साथ ही साथ आबादी भी तेजी से बढ़ती चली गई। बढ़ती हुई आबादी को भोजन मुहैया कराने के लिए कृषि का विस्तार जरूरी था। इसके लिए अनेक देशों में वनों का तेजी से विनाश किया गया और उनकी जगह कृषि-फार्मों की स्थापना हुई। धीरे-धीरे लोगों का गांवों की ओर से औद्योगिक शहरों की तरफ पलायन हुआ। इसके फलस्वरूप कृषि के लिए श्रम की आपूर्ति में भी बाधा आई। इससे कृषि-फार्मों में तेजी से मशीनीकरण हुआ। तेजी से बढ़ रहे उद्योगों तथा यन्त्रीकृत खेती के लिए विकसित देशों में ऊर्जा की आवश्यकता तेजी से बढ़ती चली गयी। इस ऊर्जा की आपूर्ति के लिए विकसित देशों में विद्युत उत्पादन संयन्त्रों का भी तेजी से विकास हुआ। जल विद्युत परियोजनाओं के अतिरिक्त विश्व के अनेक विकसित देशों में तापीय तथा गैस व अन्य पेट्रो-पदार्थों पर आधारित विशाल विद्युत उत्पादन केन्द्रों की स्थापना हुई। इस सबका पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ना ही था, क्योंकि ऐसे ऊर्जा-संयन्त्रों से वायुमंडल में बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हाने लगा, विशेष रूप से विकसित देशों में। कृषि की बढ़ती हुई गतिविधियों के कारण भी धरती पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी वृद्धि हुई है।

वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों में हो रही वृद्धि के कारण पिछले लगभग चार सौ वर्षों से पूरे विश्व में तापन की प्रक्रिया चल रही है। इस वैश्विक तापन के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पूरी दुनिया के जीव-जगत पर पड़ रहा है और इसने लोगों की जीविका, स्वास्थ्य, आर्थिक गतिविधियों, सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण, मूलभूत सुविधाओं तथा पारिस्थितिक तंत्रों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करना शुरू कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र के अन्तरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल (इंटरनेशलन पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज- आई.पी.सी.सी.) द्वारा 31 मार्च 2014 को जारी की गयी पांचवीं रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के कारण पूरे विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में पड़ रहे प्रभावों के बारे में विस्तार से बताया गया है।

इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में ग्लेश्यिर सिकुड़ रहे हैं जिनके कारण मैदानी इलाकों की तरफ बहनेवाली नदियों के जल-प्रवाह तथा वहां के जल-संसाधनों में परिवर्तन हो रहा है। विश्व के विभिन्न हिस्सों में तमाम जल-थल वासी एवं समुद्री प्रजातियों के लंबे काल से स्थापित भौगोलिक पारिस्थितिकीय केन्द्र भी परिवर्तित हो रहे हैं और कई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन ने धरती के कई क्षेत्रों में फसलों की उत्पादकता पर भी नकारात्मक प्रभाव डालना शुरू किया है। कई देशों में गेहूं तथा मक्के की उत्पादकता कम होने लगी है। इनकी तुलना में चावल तथा सोयाबीन की उत्पादकता पर ज्यादा नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार फसलों की उत्पादकता पर पड़ने वाले इस तरह के प्रभावों के कारण विश्व के अनेक देशों की जलवायु में समय-समय पर तीव्र परिवर्तन होने लगे हैं और उसी के अनुरूप खाद्य वस्तुओं की महंगाई के दौर भी समय-समय पर जन-जीवन को प्रभावित करने लगे हैं।

रिपोर्ट के अनुसार आगे यह सिलसिला और भी तेजी पकड़ेगा तथा जलवायु परिवर्तन का खाद्य पदार्थों के बाजार पर सीधा प्रभाव पड़ेगा।

जैसे-जैसे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है, समुद्र के जल-स्तर में भी वृद्धि होती जा रही है। जल-स्तर में हो रही इस वृद्धि के कारण पृथ्वी के कई निचले तटीय हिस्सों के धीरे-धीरे जलमग्न होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। विश्व के अनेक देशों में ऐसे तमाम तटीय इलाके हैं, जहां घनी आबादी बसती है और यदि ये इलाके जलमग्न होते हैं, तो उससे विश्व में जन-धन की व्यापक हानि हो सकती है। समुद्री जल की मात्रा में वृद्धि होने से वाष्पीकरण की मात्रा भी बढ़ेगी, जिसके कारण वायु में अधिक नमी का संचार होगा।

वैज्ञानिकों ने इस बारे में यह निष्कर्ष निकाला है कि इससे विश्व के अनेक स्थानों पर चक्रवातों तथा अन्धड़ों की संख्या बढ़ती जाएगी, जिससे व्यापक विनाश व नुकसान हुआ करेगा। ग्लेशियर पिघलने के कारण मैदानी इलाकों में होनेवाली बाढ़ आदि का प्रकोप भी बढ़ जाएगा तथा नदियों में सिल्ट की मात्रा भी बढ़गी, जिसके कारण वर्षा-ऋतु में बाढ़ की विभीषिकाओं का प्रकोप बढ़ जाएगा। ग्लेश्यिर सिकुड़ने के कारण वर्षपर्यन्त नदियों को प्राप्त होने वाले जल की मात्रा में कमी आएगी तथा वर्षा के अलावा अन्य ऋतुओं में नदियों में जल ही नहीं होगा।

पृथ्वी पर बने रहे बड़े-बड़े बांधों तथा शहरी क्षेत्रों में हो रहे अन्धाधुंध निर्माण कार्यों व अन्य मानवीय गतिविधों के कारण भूकम्प व ऐसी ही अन्य विपत्तियों के आने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। इसके कारण सुनामी जैसी विनाशकारक आपदाएं भी पहले की तुलना में ज्यादा विनाशकारी तोर पर पृथ्वी को प्रभावित कर सकती हैं। जल-संसाधनों की कमी के कारण उस पर आधारित उद्योगों जैसे विद्युत, कागज, औषधि तथा रसायनों के निर्माण से जुड़े उद्योगों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। धरती के तापमान में वृद्धि के कारण अन्य जीव-जन्तुओं तथा समुद्री जीवन पर भी व्यापक प्रभाव पड़ने की आशंका है।

आईपीसीसी. का आकलन है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले सालों में विभिन्न फसलों की उत्पादकता में होनेवाले परिवर्तनों की गति व विविधता बढ़ती चली जाएगी और जिन उत्पादों की मांग बाजार में ज्यादा होगी उनके सन्दर्भ में उत्पादकता पर ज्यादा दबाव बनेगा। यदि 20 वीं सदी के उत्तरार्ध की तुलना में 21 वीं सदी में वैश्विक तापमान में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है और साथ में खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ती है तो जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व की खाद्य सुरक्षा गम्भीर रूप से खतरे में पड़ जाएगी, विशेष रूप से पृथ्वी की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में। पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध में खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव ज्यादा होगा। एक अनुमान के मुताबिक 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर भारत जैसे देश की सकल घरेलू उत्पाद में 1.7 प्रतिशत की गिरावट आएगी जिसका गरीब लोागों पर ज्यादा प्रतिकूल असर होगा।

आईपीसीसी के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. आरके पचौरी का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से इस पूरे ग्रह पर कोई भी जीव-जन्तु अप्रभावित नहीं रह सकेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार भारत का अधिकांश हिस्सा आपदाओं की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। आईपीसीसी के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. आरके पचौरी का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से इस पूरे ग्रह पर कोई भी जीव-जन्तु अप्रभावित नहीं रह सकेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार भारत का अधिकांश हिस्सा आपदाओं की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है और यहां समय-समय पर विभिन्न प्रकार की आपदाएं आती रहती हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वैसे-वैसे भारत में इन आपदाओं का प्रकोप बढ़ता जा रहा है और इनका समय भी अनियमित होता जा रहा है। वैश्विक तापन के कारण भारत की बाढ़-सुरक्षा भी खतरे में पड़ गयी है।

भारत का लगभग दो-तिहाई कृषि क्षेत्र वर्षा पर आधारित है और प्रायः सूखे से प्रभावित होता रहता है। इसमें से लगभग आधा क्षेत्र, समय-समय पर भयानक सूखे की चपेट में आता रहता है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त् राष्ट्र की प्रतिज्ञा (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज: यू. एन. एफ. सी. सी. सी.) की रिपोर्ट के अनुसार भारत के मध्य-पश्चिम क्षेत्र की लूनी, माही, पेन्नार, साबरमती तथा ताप्ती जैसी नदियां जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की भयंकर कमी से रू-ब-रू होंगी। वहीं दूसरी तरफ समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि होने के कारण सुन्दरवन क्षेत्र के अनेक निचले द्वीप पानी में डूब जाएंगे और धीरे-धीरे उसका एक बड़ा हिस्सा समुद्र में समाहित हो जाएगा, जिसका मैन्ग्रोव-वनों, कोरल रीफ आदि पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।

बार-बार आने वाली बाढ़ की विभीषिकाओं, अधिक प्रभाव वाले तूफानों, जल्दी-जल्दी पड़ने वाले सूखों तथा बढ़ते हुए तापमान के कारण जो लोग प्रभावित होंगे, उसमें उनकी संख्या ज्यादा होगी जो गरीब हैं और निरन्तर भोजन तथा आवास की समस्या से घिरे रहते हैं। अतः निश्चित रूप से अन्य देशों की तुलना में भारत सरकार को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले प्रतिकूल प्रभाव से देश की जनता को बचाने के लिए विशेष कदम उठाने होंगे और इन परिवर्तनों के प्रति अनुकूलन की प्रक्रिया जल्दी से हो सके इसके लिए समुचित जन-जागृति पैदा करनी होगी। कृषि की विभिन्न गतिविधियों के कारण वातावरण में कार्बन-डाईऑक्साइड, मीथेन तथा नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों की उत्पत्ति अधिक मात्रा में हो रही है।

भारत की दृष्टि से देखा जाए तो 2007 में देश में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का आकलन करते हुए यह पाया गया था कि उस वर्ष देश में 133.16 करोड़ टन कार्बन-डाईऑक्साइड के तुल्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ। यह भी पाया गया कि 1994 की तुलना में उस समय तक देश में इन गैसों के उत्सर्जन में 402 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हो रही थी। हालांकि भारत का कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन विश्व के कुल कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन का केवल 4 प्रतिशत है, लेकिन फिर भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो यह भारत के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।

भारत यूएनएफसीसीसी को रिपोर्ट करने के लिए समय-समय पर जलवायु परिवर्तन के संबंध में अपनी स्थिति पर आकलन करता रहता है। इन आकलनों के मुताबिक भारत में इस शताब्दी के अंत तक तापमान 3.5 से 4.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने की उम्मीद है। भारत में समुद्र का जल-स्तर लगभग 1.3 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की औसत दर से बढ़ रहा है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में होने वाले जलवायु परिवर्तन का 21 वीं सदी में मनुष्यों के स्वास्थ्य, कृषि, जल-संसाधनों, जैव विविधता तथा पर्यावरण पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस दिशा में सतर्कता से कार्य करने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय सलाहकार समिति का गठन किया गया है।

भारत जैसे विकासशील देशों को भी बिना अपने विकास, कृषि व खाद्य-सुरक्षा की जरूरतों को दरकिनार किए, अन्य हर तरीके से जलवायु परिवर्तन का सामना करने की तैयारियों में जुट जाना चाहिए। अभी खतरे का सिर्फ आगाज हुआ है, अभी ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है। हमारे लिए अभी भी जलवायु परिवर्तन के प्रति सचेत एवं सक्रिय हो जाने का समय है और हमें इस अवसर पर उदासीन बने रहने की आत्मघाती प्रवृत्ति से दूर रहना चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि हम मिल-जुलकर इस बारे में सोचेंगे तो इस जलवायु परिवर्तन का सामना करने तथा उसके प्रभाव को सीमित करने का रास्ता जरूर निकलेगा।

कवि, अनुवादक व समालोचक। मोः 08826262223।

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Post By: pankajbagwan
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