जलवायु में आ रहे परिवर्तन से मानसून का समय आगे खिसका और रोहिणी नक्षत्र में पानी के दर्शन भी नहीं हो रहे हैं। आगे के नक्षत्रों में इतना अनियमित बरसात हुआ कि मड़ूवा और इसके जैसे संवेदनशील मोटे अनाजों के लिए जानलेवा साबित हो गए। इसके साथ ही बढ़ते तापमान के कारण भी मौसम इन अनाजों के अनुकूल नहीं रह पाया है।ग्रामीण लोक कथाओं में रोहा नाम का एक हट्टा-कट्टा किसान हुआ था। कहा जाता है कि किसी फौजदारी मामले में वह जेल चला गया। इसी बीच आषाढ़ का महीना आया और इस महीने का आया रोहिणी नक्षत्र। इस नक्षत्र में जेल के सीखचों से बाहर हो रही बारिश को देखकर उस रोहा की अचानक आह निकल गई। उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा- ह्यहाय रोहिणी, घर रोहा न रहा। हम ग्रामीण और किसान समाज में खेती को लेकर जो कुछ कहावतें प्रचलित रही हैं, उनमें इसे भी किसान बड़े चाव से कहा-सुना करते हैं। असल में हुआ यह था कि रोहा रोहिणी नक्षत्र में अपने खेतों में हर साल मड़ूवा की रोपनी करता था। यह मड़वा उसके पूरे परिवार के लिए साल भर के भोजन का आधार हुआ करता था। सो इस साल वह घर पर नहीं था और मड़ूवा न रोप पाने का उसका मलाल उसके साल भर के परिवार के भरण-पोषण का साधन छूट जाने को लेकर था। लोक कथा के अनुसार, जेलर ने उसकी व्यग्रता के बारे में पूछा तो रोहा ने अपनी व्यथा बताई। दयालु जेलर ने उसे मड़ूवा रोपने के लिए पेरोल पर छोड़ने की व्यवस्था करा दी। जब उसका रोहिणी में लगाया मड़ूवा कुछ बड़ा हुआ तो हाथी भी सूंड से उस पौधे के झुंड को नहीं उखाड़ पाया।
अपने इलाके यानी, उत्तर बिहार में बड़े-बुजुर्गो से सुना है कि मुफलिसी में मड़वा सहारा होता है। यानि मड़वा के पुआल को लोग संजोकर रखते थे। बरसात के समय या ऐसे ही दुर्दिन में जब गांव-गिराम के गरीब लोगों के पास अनाज की कमी हो जाती थी, तो इसी पुआल को मसला जाता था। कहा जाता है कि मड़ूवा गरीबों का ऐसा सहारा था और ऐसा विश्वासी साथी कि इस पुआल से कुछ न कुछ मड़ूवा निकल ही आता था। लेकिन आज 20 साल की हो चुकी पीढ़ी में मड़वा की रोटी खाने की बात तो दूर, शायद ही इस अनाज को किसी देखा भी हो।
इसी तरह का हाल परंपरागत रूप से पाए जानेवाले अनाजों का भी है। इन्हें आम तौर पर मोटा अनाज कहा जाता है। इन अनाजों में समां, कोदो, चीना, कउनी, आदि आते हैं। इनसे रोटी और भात बनाए जाते थे। खाने में भी इनका स्वाद कमाल का होता था। लेकिन अब इन अनाजों के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। पुरानी पीढ़ी के जिन लोगों ने इन अनाजों के स्वाद चख रखे हैं, आज वे इसका स्मरण कर लार टपकाते पाए जाते हैं।
असल में इन वर्षो में इन मोटे अनाजों के खत्म हो जाने के कई प्रमुख कारण रहे हैं। इनमें इन फसलों पर कृषि अनुसंधान केंद्रों में बहुत कम ध्यान देना या बिल्कुल ध्यान न देना एक कारण रहा है तो, दूसरी ओर ऐसी फसलें और फसलों के ऐसी-ऐसी नस्लें खेतों तक आ गई, जो उपज में इन मोटे अनाजों से कई गुणा अधिक हैं। ऐसे में किसानों के सामने एक तो लाभ के लिए अधिक उपज वाली फसलों को लगाने की मजबूरी आ गई वहीं फैशन के चलन में आने से इन मोटे अनाजों को छोड़ना भी एक गर्व की बात हो गयी। जो अधिक उपज वाली नस्लें आई, उनमें धान, गेहूं और हाईब्रीड मक्के की थी। इनमें मक्का भी मोटे अनाज में ही आता है। लेकिन अधिक उपज देने वाली नस्ल आ जाने से यह खेतों में बरकरार रहा। शोध संस्थानों में इस तरह के परिवर्तन अन्य मोटे अनाजों पर उतने उत्साह से नहीं हुए। धान और गेहूं की परिवर्तित नस्लों में न केवल इन मोटे अनाजों को बल्कि धान और गेहूं की परंपरागत नस्लों को भी खेतों से खदेड़ दिया।
इन तात्कालिक और आर्थिक कारणों के अलावा एक स्थायी परिस्थिति भी इस दौरान विकसित हो रही थी जो इन कारणों के न रहने पर भी इन अनाजों को हटाने के लिए जिम्मेदार थी। यह कारण मौसम में हो रहे परिवर्तन का रहा। जलवायु में आ रहे परिवर्तन से मानसून का समय आगे खिसका और रोहिणी नक्षत्र में पानी के दर्शन भी नहीं हो रहे हैं। आगे के नक्षत्रों में इतना अनियमित बरसात हुआ कि मड़ूवा और इसके जैसे संवेदनशील मोटे अनाजों के लिए जानलेवा साबित हो गए। इसके साथ ही बढ़ते तापमान के कारण भी मौसम इन अनाजों के अनुकूल नहीं रह पाया है। कृषि के विशेषज्ञों का कहना है कि न केवल ये मोटे अनाज बल्कि धान और गेहूं की कई परिवर्धित किस्में भी इस मौसम बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर सकीं और इनकी जगह नए मौसम के अनुकूल देर से लगने वाली नस्लों को विकसित कर खेतों में लाया जा रहा है।
जहां इतनी प्राकृतिक और अमानवीय उपेक्षा झेलनी पड़े तो कहां मड़वा और कहां धान। यही कारण है कि आज न तो रोहा जैसा कोई किसान मिलेगा और न ही यह पता चल पाता है कि रोहिणी कब आई और कब निकल गई।
अपने इलाके यानी, उत्तर बिहार में बड़े-बुजुर्गो से सुना है कि मुफलिसी में मड़वा सहारा होता है। यानि मड़वा के पुआल को लोग संजोकर रखते थे। बरसात के समय या ऐसे ही दुर्दिन में जब गांव-गिराम के गरीब लोगों के पास अनाज की कमी हो जाती थी, तो इसी पुआल को मसला जाता था। कहा जाता है कि मड़ूवा गरीबों का ऐसा सहारा था और ऐसा विश्वासी साथी कि इस पुआल से कुछ न कुछ मड़ूवा निकल ही आता था। लेकिन आज 20 साल की हो चुकी पीढ़ी में मड़वा की रोटी खाने की बात तो दूर, शायद ही इस अनाज को किसी देखा भी हो।
इसी तरह का हाल परंपरागत रूप से पाए जानेवाले अनाजों का भी है। इन्हें आम तौर पर मोटा अनाज कहा जाता है। इन अनाजों में समां, कोदो, चीना, कउनी, आदि आते हैं। इनसे रोटी और भात बनाए जाते थे। खाने में भी इनका स्वाद कमाल का होता था। लेकिन अब इन अनाजों के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। पुरानी पीढ़ी के जिन लोगों ने इन अनाजों के स्वाद चख रखे हैं, आज वे इसका स्मरण कर लार टपकाते पाए जाते हैं।
असल में इन वर्षो में इन मोटे अनाजों के खत्म हो जाने के कई प्रमुख कारण रहे हैं। इनमें इन फसलों पर कृषि अनुसंधान केंद्रों में बहुत कम ध्यान देना या बिल्कुल ध्यान न देना एक कारण रहा है तो, दूसरी ओर ऐसी फसलें और फसलों के ऐसी-ऐसी नस्लें खेतों तक आ गई, जो उपज में इन मोटे अनाजों से कई गुणा अधिक हैं। ऐसे में किसानों के सामने एक तो लाभ के लिए अधिक उपज वाली फसलों को लगाने की मजबूरी आ गई वहीं फैशन के चलन में आने से इन मोटे अनाजों को छोड़ना भी एक गर्व की बात हो गयी। जो अधिक उपज वाली नस्लें आई, उनमें धान, गेहूं और हाईब्रीड मक्के की थी। इनमें मक्का भी मोटे अनाज में ही आता है। लेकिन अधिक उपज देने वाली नस्ल आ जाने से यह खेतों में बरकरार रहा। शोध संस्थानों में इस तरह के परिवर्तन अन्य मोटे अनाजों पर उतने उत्साह से नहीं हुए। धान और गेहूं की परिवर्तित नस्लों में न केवल इन मोटे अनाजों को बल्कि धान और गेहूं की परंपरागत नस्लों को भी खेतों से खदेड़ दिया।
इन तात्कालिक और आर्थिक कारणों के अलावा एक स्थायी परिस्थिति भी इस दौरान विकसित हो रही थी जो इन कारणों के न रहने पर भी इन अनाजों को हटाने के लिए जिम्मेदार थी। यह कारण मौसम में हो रहे परिवर्तन का रहा। जलवायु में आ रहे परिवर्तन से मानसून का समय आगे खिसका और रोहिणी नक्षत्र में पानी के दर्शन भी नहीं हो रहे हैं। आगे के नक्षत्रों में इतना अनियमित बरसात हुआ कि मड़ूवा और इसके जैसे संवेदनशील मोटे अनाजों के लिए जानलेवा साबित हो गए। इसके साथ ही बढ़ते तापमान के कारण भी मौसम इन अनाजों के अनुकूल नहीं रह पाया है। कृषि के विशेषज्ञों का कहना है कि न केवल ये मोटे अनाज बल्कि धान और गेहूं की कई परिवर्धित किस्में भी इस मौसम बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर सकीं और इनकी जगह नए मौसम के अनुकूल देर से लगने वाली नस्लों को विकसित कर खेतों में लाया जा रहा है।
जहां इतनी प्राकृतिक और अमानवीय उपेक्षा झेलनी पड़े तो कहां मड़वा और कहां धान। यही कारण है कि आज न तो रोहा जैसा कोई किसान मिलेगा और न ही यह पता चल पाता है कि रोहिणी कब आई और कब निकल गई।
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