संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के अन्तर्गत हुआ पेरिस समझौता ऐसा पहला अन्तरराष्ट्रीय दस्तावेज है जिसमें जलवायु न्याय शब्द को शामिल किया गया है। इसकी धारणा में उन तमाम सन्दर्भों को खोजा गया है, जिन्हें शुद्धतः कानूनी, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है।
साथ-ही-साथ जलवायु परिवर्तन के दृष्टिगोचर प्रभावों जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण अतीव मौसमी घटनाएँ हैं, जिन्हें जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों से जोड़ा गया है। उत्सर्जन के लिये समृद्ध एवं विकसित देशों में रहने वाले ज्यादा जिम्मेदार हैं बजाय विकासशील देशों के निवासियों के परन्तु जलवायु संकट के सबसे गैर आनुपातिक प्रभाव वे ही महसूस कर रहे हैं। अतएव ‘जलवायु न्याय’ शब्द को महत्त्व मिला और इसे वर्तमान पीढ़ी और भविष्य की पीढ़ी के लिये न्याय की गुहार मान लिया गया।
सन 1992 में ही यूएनएफसीसीसी ने यह समझ लिया था कि उन लोगों के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए जो कि जलवायु परिवर्तन में योगदान नहीं करते परन्तु सबसे ज्यादा जोखिम में पड़े रहते हैं। हालांकि उस समय ‘जलवायु न्याय’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था परन्तु यूएनएफसीसीसी का दस्तावेज जलवायु न्याय के सिद्धान्त पर ही आधारित था। इसके दिशा-निर्देश सिद्धान्तों में सभी पक्षों का वर्गीकरण किया गया था जिनकी भिन्न-भिन्न प्रकार की जवाबदेही बैठती है। इसमें साफ कहा गया था कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का मुख्य स्रोत विकसित देश हैं और विकसित देशों में बढ़ता उत्सर्जन भी कमोबेश उनकी (विकसित देशों) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही है।
गौरतलब है यूएनएफसीसीसी ने चिन्ता जताते हुए कहा था कि विकासशील देशों की विशेष आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रतिगामी प्रभावों से वे ही सबसे ज्यादा जोखिम में रहते हैं। वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में हो रही सतत वृद्धि के दौर में उपरोक्त शब्द ‘मसीहाई’ प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ भारत के 65 करोड़ लोग अपनी जीविका हेतु वर्षा आधारित खेती पर निर्भर हैं।
यदि समुद्र के स्तर में 1 मीटर की भी वृद्धि होती है तो बांग्लादेश के करोड़ों लोग विस्थापित हो जाएँगे। गरम हवाओं के बढ़ते थपेड़ों के चलते अरब क्षेत्र का बड़ा क्षेत्र रहने लायक ही नहीं बचेगा। सबसे बुरा प्रभाव अफ्रीका महाद्वीप पर पड़ेगा जहाँ पर पानी का जबरदस्त संकट खड़ा हो रहा है और सन 2020 तक फसलों की पैदावार में असाधारण कमी आ सकती है। जलवायु परिवर्तन के प्रतिगामी प्रभावों के चलते विकासशील देशों में विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी खटाई में पड़ सकते हैं।
इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर पेरिस समझौता महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जलवायु संकट से निपटने में यह ‘जलवायु न्याय’ की कुछ संकल्पनाओं को महत्त्वपूर्ण मानता है। यह यूएनएफसीसीसी में निहित समानता एवं साझा परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों एवं यथायोग्य क्षमताओं पर जोर दे रहा है। वास्तविकता यही है कि पेरिस समझौता लागू होने की स्थिति में पहुँच गया है।
55 देश, जो कि वैश्विक स्तर पर कम-से-कम 55 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं, इस पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। अभी भी इसे अपनाने हेतु 12 महीने का समय बाकी है। वैसे 4 नवम्बर को लागू होने के बाद पेरिस समझौता कार्यशील हो जाएगा। इसी के साथ दि कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) जो कि पेरिस समझौते के अन्तर्गत निर्णय लेने वाली इकाई है, वह भी गतिशील हो जाएगी।
इस तारतम्य में सभी पक्षों की यह जिम्मेदारी है कि अपने तापमान के औद्योगिकरण पूर्व स्तर को 2 डिग्री सें. से नीचे लेकर आएं और साथ ही ऐसे प्रयास करें कि यह तापमान 1.5 डिग्री तक सीमित हो जाए और उससे ऊपर ना जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस समझौते के नियम, स्वरूप एवं प्रक्रियाएँ तैयार करने का काम सम्बन्धित पक्ष ही करेंगे।
मारकेश में चुनौतियाँ- कॉप-22 (मारकेश सम्मेलन) के सामने मुख्य चुनौती यह है कि ऐतिहासिक रूप से अलाभकारी परिस्थिति में रह रहे वैश्विक दक्षिण के लिये समानता आधारित प्रणाली विकसित की जाये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि राष्ट्रीय तयशुदा योगदान (नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन या एनडीसी) यानी सभी पक्षों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी तय करने की प्रक्रिया, पारदर्शी बनाने में सहयोग करना।
पेरिस समझौते ने कमोबेश सभी पक्षों को ‘यथाशीघ्र ग्रीनहाउस उत्सर्जन के शिखर पर पहुँचने’ एवं ‘घरेलू तौर पर इसे कम करने के तरीकों’ पर विचार करने पर राजी कर लिया है। परन्तु एनडीसी को क्रियान्वित करना सम्बन्धित पक्षों राष्ट्रों पर बाध्यकारी नहीं है।
सभी पक्षों ने पेरिस समझौता क्रियान्वयन सम्बन्धित अस्थायी कार्य दल को सूचित किया है कि वे ‘एनडीसी को राष्ट्रों द्वारा तय किये जाने’ के पक्षघर हैं। अतएव उत्सर्जन में कमी एवं खत्म करने की रणनीति, जिसका मूल सिद्धान्त है तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाये, जलवायु न्याय के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है पेरिस समझौते के विकास हेतु नियमावली तैयार करना। इसके अन्तर्गत उत्सर्जन की समाप्ति एवं टिकाऊ विकास (अनुच्छेद-6) जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन (अनुच्छेद-7) कार्य करने एवं सहयोग हेतु एक पारदर्शी ढाँचे को निर्माण (अनुच्छेद-13), जिनकी वजह से एनडीसी को अपनाने जलवायु वित्त, तकनीक का हस्तान्तरण एवं क्षमता निर्माण, समझौते के क्रियान्वयन को लेकर समय-समय पर आकलन करना (अनुच्छेद-14) एवं समझौते को लागू करने हेतु प्रोत्साहन देने हेतु क्रियान्वयन समिति के गठन (अनुच्छेद-15) को दिशा देने में नियमावली से सहायता मिलेगी। नियमावली जलवायु कार्यवाही की रिपोर्टिंग एवं जवाबदेही तय करने में भी सहायक सिद्ध होगी।
ध्यान देने वाला एक और क्षेत्र है ग्रीन क्लाइमेंट फंड (हरित जलवायु कोष) में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी एवं पेरिस समझौते को अपनाने के लिये प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर की आर्थिक मदद उपलब्ध करवाना। कुछ अमीर देश वित्तीय संस्थानों जैसे विश्व बैंक आदि के माध्यम से धन इकट्ठा करने को लेकर बेहद सतर्क हैं, जबकि अन्य लोग निजी बैंकों की ओर पहल करना चाहते हैं। इसके अलावा देश एवं परियोजना आधारित वित्तीय आबंटन हेतु यह तय किया जाना आवश्यक है कि कौन सा देश कितना योगदान करेगा।
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष का आधार ही जलवायु न्याय के क्षेत्र में प्रगति है। पिछले कुछ वर्षों में जलवायु न्याय आन्दोलन को जबरदस्त गति मिली है। परन्तु विकासशील देशों को मुख्य चुनौती मारकेश में होने वाले कॉप सम्मेलन में इस गति को बनाए रखने में सामने आएगी।
सुश्री जीनत मसूदी, अधिवक्ता हैं और श्रीनगर में रहती हैं।
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Post By: RuralWater