जलते वनों के प्रति उपेक्षा और हमारा भविष्य


गर्मियों में मन को अत्यन्त व्यथित करने वाला एक दृश्य उत्तराखण्ड हिमालय में चारों ओर दिखाई देता है। वह है, वनों को निर्दयतापूर्वक नष्ट करती हुई वनाग्नि की धधकती लाल लपलपाती लपटें और उनसे उठते धुएँ के गुबार। यहाँ की खूबसूरत वादियाँ मानो कार्बन डाइ ऑक्साइड के गैस चैम्बर्स बन जाती हैं। पर मानव का संसार चलता रहता है, वन विभाग के ऑफिस भी सदैव की तरह चलते रहते हैं। वनकर्मियों की हड़तालें भी अपनी माँगों के पक्ष में चालू रहती हैं। इधर उत्तराखण्ड की सैकड़ों-हजारों छोटी-बड़ी घाटियों व पर्वतीय ढलानों पर बसे गाँवों के लोग भी निस्तेज से होकर जंगलों की ओर देख कर कहते हैं, ‘‘शिबौ, कैसे जल रहे हैं ये जंगल ? यह सब जंगलात वालों की कारस्तानी है।’’ उधर वन विभाग वाले एक स्वर में कहते हैं, ’’यह गाँव वालों की शरारत है। वे वन वृक्षों के बीच अच्छी घास पैदा होने के लोभ में जंगलों में आग लगाते हैं।‘‘ कुछ लोग इन दो आरोपों के दो छोरों को सन्तुलित करते हुए कहते हैं, ’’यह जंगलों के बीच या उनके चारों ओर चलते लोगों की बीड़ी-सिगरेट पीने में बरती गई या अपने खेतों में काँटे, खरपतवार या कूड़ा-कभाड़ को जलाने में की गयी लापरवाही का परिणाम है।‘‘

कारणों को खोजने व एक दूसरे पर लगाये जाने वाले दोषारोपणों का यह सिलसिला मानसून की पहली बारिश तक चलता है। फिर सब भूल जाते हैं कि फिर से गर्मी आयेगी, चीड़ की पत्तियाँ (पिरूल) सूखकर गिरेंगी, वर्षा की कमी धरती को सुखा देगी और पुनः हमारे वन हाहाकार कर उठेंगे। उनकी छोटी पौंध व झाड़ियाँ जल कर मर जायेंगी। बाँज, बुराँश, उतीस, खड़िक, क्वेराल, सानड़ जैसे चौड़ी पत्ती के हरे- भरे वृक्ष भी झुलस जायेंगे। इससे भी अधिक यह होगा कि जंगल की धरती की ऊपरी सतह की मिटटी, सैकड़ों वर्षों से संग्रहीत सेन्द्रिय पदार्थ ने परिपुष्ट किया है, भी जल जायेगी और पहली बरसात में ही धुल कर बह जायेगी।

हम मनुष्य उस प्रकृति के प्रति, जो हमारी जीवनदात्री है, कितने निर्दयी हैं, ? एक पत्रकार अपना कर्तव्य जरूर निभा देता है। वह लिखता है- ’’भयंकर आग से वनों की करोड़ों रुपयों की हानि हुई।‘‘ इसमें उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। खबर पढ़ कर वन विभाग, सरकार और नागरिकों के दायित्वों की भी पूर्णाहुति हो जाती है।

करोड़ों रुपयों में वन जैसी अनमोल विरासत को तोलना ही मानव जाति की बहुत बड़ी भूल है। प्राणहीन रुपया युगों से चली आयी जीवंत विरासत, जो समस्त सृष्टि का प्राणाधार हैं, की तुलना में कैसे खड़ा हो सकता है ? पर हमने इस तथाकथित विकास की रोशनी में अपनी अवधारणायें बदल दी हैं। इसी से वन जलते हैं। कोई यह नहीं कहता कि अगले साल की आग को कैसे रोकेंगे, इसकी तैयारी अभी से करो। साधन जुटायें, आग बुझाने का प्रशिक्षण दें, अपने कर्मचारियों को ही नहीं आम आदमियों को भी। वर्षों से आग बुझाने का काम वन विभाग के धरातलीय कर्मचारी करते हैं, पर उनके वश में आग नहीं आ पाती है। उनके हाथों में साधन नहीं होते। हम उन्हें अग्निशमन की नई तकनीकें दें, उनको नये व प्रभावी साधन दें, गाँवों के लोग भी सोचें कि आग न लगे, यह प्रयास वे कैसे करें। जंगलों में प्रविष्ट होने वाले रास्तों पर चेतावनी के बोर्ड लगायें। उस पर लिखें- ’’यहाँ सिगरेट, बीड़ी पीने की मनाही है।’’ ‘‘सावधान, जंगल अत्यन्त ज्वलनशील हैं। दियासलाई आदि का उपयोग न करें।’’ ग्रामसभा में हिदायत दी जाये, जंगल में आग न लगने पाये। सब चौकन्ने रहें। सबसे जरूरी यह कि वन विभाग व नागरिक आरोप-प्रत्यारोप के बदले कन्धे से कन्धा मिलाकर इस अमूल्य धरोहर को बचायें।

अब तक यह होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। एक सवाल सामने आता है। क्या मनुष्य जाति इन वनों के प्रति कभी भी हार्दिक विनम्रता से कृतज्ञ होते हैं कि ये हमारी ही नहीं, मनुष्येतर प्राणियों के भी अस्तित्व के आधार हैं ? इनको देखने-परखने, नापने-तोलने की हमारी कौन सी दृष्टि है ? क्या हम इन्हें अपने उपभोग के संसाधन मात्र मानते हैं ? इन्हें अपनी धन लिप्सा के माध्यम मानते हैं ? अपने को प्रकृति की देन इन वनों के मालिक और इन्हें अपनी भोग्य वस्तु समझते हैं ? हाँ, आज का मानव यही कर रहा है और इसी विकृत दृष्टि के भीतर प्रति वर्ष होने वाली इस अग्नि की विनाश लीला का कारण छिपा है। हकीकत यह है कि हिमालय इस सारे महाद्वीप के लिए ऑक्सीजन पैदा करने वाले कारखाने हैं, जिसके बिना कोई प्राणी एक क्षण भी जी नहीं सकता। इन सघन वनों के कारण हिमालय ’दुनिया का सबसे बड़ा शुद्ध जल का स्तम्भ’ कहलाता है। यह जल ही समस्त प्राणी जगत के अस्तित्व की पहली आवश्यकता है। सोचिये, जल व वायु जैसे प्राणधारक तत्वों को देने वाले इन वनों का व्यावसायिक दोहन (नहीं, नहीं शोषण) करना क्या अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं है ?

वनों के कारण ही हमारे अस्तित्व को स्थायित्व मिलता है। ये पेड़, घासें और कई प्रकार के अर्धविकसित नम्र पौंधे धरती से तत्वों को लेकर हमारे लिए सुपाच्य खुराक के रूप में तैयार करते हैं। ये ही जल स्रोतों व नदियों को पैदा करते हैं। ये ही इस मिट्टी की रचना करते हैं, जो खाद्य पदार्थ इस सृष्टि में अन्न, फल, दूध, दही पैदा करने वाली एकमात्र देन है। मानव निर्मित कोई भी साधन यह उत्पादन नहीं कर सकता। जल याने नदी माता। जंगल याने वनदेवता और जमीन याने धरती माता। इस दृष्टि से देखने व व्यवहार करने लगें तो जल, जंगल, जमीन की यह कुदरती विरासत कभी किसी भी कारण नष्ट नहीं होगी। यह आत्मिक दृष्टि केवल गाँव या नगर समाज को ही नहीं, राज्य सरकारों, उनके प्रशासनिक विभागों तथा शिक्षण संस्थानों को विकसित करनी होगी और अपनी वन नीतियों के निर्धारण में क्रियान्वित करनी होगी। विशेष रूप से हिमालय के वन पैसा कमाने के साधन नहीं, वरन् प्राणिजगत व मानव समाज को जीने के लिए जल व साँस लेने को वायु देने के अखंड स्रोत हैं तथा हमारी धरती को उर्वर रखने के अखंड खजाने हैं।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन पर्वत श्रेणियों को केवल चौड़ी पत्ती के सघन वृक्षों से आच्छादित करना होगा। व्यापारिक लक्ष्य की पूर्ति करने वाले चीड़ जैसे वृक्षों की संख्या को न्यून से न्यूनतम सीमा में सन्तुलित कर देना होगा। जंगलों की भूमि नम रहे व पिरूल जैसी ज्वलनशील वस्तु कम से कम हो, अग्निशमन करने वाले संवेदनशील वनकर्मियों और वनों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने वाली जनता की सुसज्जित सेना आपसी सहकार सहित तत्पर रहे तो वनों की यह विरासत कभी भी अग्नि से तबाह नहीं हो सकती और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि ऐसे समृ़द्ध वन सूखती नदियों व जल स्रोतों, अनियमित होती वर्षा और जलवायु परिवर्तन के सारे खतरों का इलाज होंगे।
 
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