इन दिनों पानी का संकट गहरा रहा है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और कई राज्यों में पीने के पानी की किल्लत हो रही है। यह समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। अब यह संकट स्थायी हो गया है। यह समस्या प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित है, इसका हल भी हमें ही निकालना होगा।
बहुत ज्यादा लम्बा अरसा नहीं हुआ मध्य प्रदेश की सतपुड़ा घाटी में बहुत समृद्ध वन थे। सदानीरा नदियाँ थीं। गाँव में कुएँ, तालाब, बावड़ियाँ थीं। नदी-नालों में पानी की बहुतायत थी। वर्षाजल को छोटे-छोटे बन्धानों में एकत्र किया जाता था जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेशियों को पानी मिल जाता था। किसान पहले बैलों से चलने वाली मोट से सिंचाई करते थे।
गाँव में कच्चे मिट्टी के घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह होती थी। घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियाँ लगाई जाती थी। मुनगा, आम, अमरूद, नींबू के पेड़ होते थे। भूमि की सतह का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था।
होशंगाबाद जिले के पूर्वी छोर पर स्थित गाँव में मेरा बचपन बीता है। हमारे घर कुएँ से पानी आता था। हम नदी में नहाने जाते थे। मवेशी भी वहीं पानी पीते थे। वहाँ तरबूज-खरबूज की खेती होती थी। मछुआरे मछली पकड़ते थे। कम पानी वाली फसलें होती थीं। बिर्रा (गेहूँ और चना मिलवाँ) खेती होती थी।
लेकिन अब जंगल साफ हो गए हैं। सतपुड़ा पहाड़ों से निकलने वाली नदियाँ दम तोड़ रही हैं। कुएँ, तालाब, बावड़ियाँ सूख गए हैं। ज्यादा पानी पीने वाली बौनी किस्मों को पानी पिलाने के लिये नलकूप खोदे जा रहे हैं। तालाब पाट गए हैं। नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को रोककर बाँध बनाए जा रहे हैं। जो रेत स्पंज की तरह पानी को सोखकर रखती थी, उसका खनन बेतहाशा बढ़ रहा है।
जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। जीवन के लिये हवा के बाद पानी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, जिसे संजोया जाना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। भोजन के बिना तो 15-20 दिन जिया जा सकता है, पानी के बिना एक सप्ताह तक जीना मुश्किल है। पानी से मानव ही नहीं, समस्त जीव-जगत, पशु पक्षियों का जीवन जुड़ा हुआ है।
मध्य प्रदेश की स्थिति उत्तर भारत से भिन्न है। उत्तर भारत की नदियाँ हिमजा हैं, वहाँ वर्षा न भी हो तो उनमें बर्फ पिघलने से पानी आएगा, लेकिन मध्य प्रदेश की नदियाँ वनजा हैं, यानी वन नहीं होंगे तो ये शुष्क हो जाएगी। यह हाल यहाँ की नदियों का हो गया है, यहाँ की जीवनरेखा कहलाने वाली नर्मदा की ज्यादातर सहायक नदियाँ सूख चुकी हैं। इससे नर्मदा भी कमजोर हो गई है।
हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना। भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भण्डार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल-दर-साल बढ़ते जा रहा है।
अब सवाल है पानी कैसे बचाया जाये? यह सरल तरीका है। जैसे भी हो, जहाँ भी सम्भव हो, बारिश के पानी को वहीं रोककर कमजोर वर्ग के लोगों के खेत तक पहुँचाना चाहिए। जहाँ पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बाँधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे इसके लिये मेड़बन्दी की जा सकती है। गाँव का पानी गाँव में रहे इसके लिये तालाब और छोटे बन्धान बनाए जा सकते हैं। चेकडैम बनाए जा सकते हैं। चौड़ी पत्ती के पेड़, तरह-तरह की झाड़ियाँ व घास की हरियाली बढ़ाकर जल संरक्षण किया जा सकता है।
शहरों में हार्वेस्टर के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी बन्धान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है।
इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सींच के परम्परागत देशी बीजों की खेती करनी होगी और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल की गोबर खाद वाली की खेती की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं।
यहाँ उत्तराखण्ड में वनों के संरक्षण से पानी के परम्परागत स्रोत बचाने का अनूठा उदाहरण देना उचित होगा। यहाँ अस्सी के दशक में हेंवलघाटी के परम्परागत जलस्रोत लगभग सूख चुके थे। लेकिन जब लोगों को गहरा अहसास हुआ कि हमारा बांज-बुरांस का जंगल उजड़ रहा है और सदाबहार जलस्रोत सूख रहे हैं, उन्होंने इन्हें पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया। इसके बाद वे वनों के जतन में जुट गए।
इस काम के पीछे चिपको आन्दोलन की प्रेरणा थी। जड़धार गाँव में जहाँ पहाड़ी के वनों को लोगों ने संरक्षित किया, चिपको आन्दोलन के कार्यकर्ता विजय जड़धारी का गाँव है। उनकी जंगल को फिर पुनर्जीवित करने में महती भूमिका है। उनके और बीज बचाओ आन्दोलन के जंगल बचाने के प्रयास से वहाँ के जलस्रोत फिर सदानीरा हो गए। जब वन होंगे तो बादल आएँगे, बारिश होगी।
इस प्रकार वृक्षारोपण और जंगल बचाने के साथ मेड़बन्दी, तालाब बनाने का काम कई जगह हुआ है। राजस्थान में तो तरुण भारत संघ ने तालाब, स्टापडैम व जंगल बचाने के अनूठे काम से सूख चुकी नदियों को सदानीरा बना दिया। इस दिशा में अगर समन्वित प्रयास किये जाएँ तो जलसंकट का समाधान हो सकेगा।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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