जलनीति का मकड़जाल

राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद ने अंततः ‘राष्ट्रीय जल नीति-2012’ को स्वीकार कर लिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यक्षता में हुई राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की छठी बैठक में राष्ट्रीय जल नीति का रास्ता साफ हो गया। हालांकि भारत सरकार का तर्क यह है कि यह जल नीति पानी की समस्याओं से निपटने के लिए सरकार के निचले स्तरों पर जरूरी अधिकार देने की पक्षधर है। पर दरअसल सरकारों की मंशा पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन को कंपनियों के हाथ में सौंपने की है। आम आदमी पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए भी तरस जाएगा, बता रहे हैं डॉ. राजेश कपूर।

प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी। ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं ख़रीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है।

भारत सरकार के विचार की दिशा, कार्य और चरित्र को समझने के लिए “राष्ट्रीय जल नीति-2012” एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इस दस्तावेज़ से स्पष्ट रूप से समझ आ जाता है कि सरकार देश के नहीं, केवल मेगा कंपनियों और विदेशी निगमों के हित में कार्य कर रही है। देश की संपदा की असीमित लूट बड़ी क्रूरता से चल रही है। इस नीति के लागू होने के बाद आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा। खेती तो क्या पीने को पानी दुर्लभ हो जाएगा।

29 फरवरी तक इस नीति पर सुझाव मांगे गए थे। शायद ही किसी को इसके बारे में पता चला हो। उद्देश्य भी यही रहा होगा कि पता न चले और औपचारिकता पूरी हो जाए। अब जल आयोग इसे लागू करने को स्वतंत्र है और शायद लागू कर भी चुका है। इस नीति के लागू होने से पैदा भयावह स्थिति का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। विश्व में जिन देशों में जल के निजीकरण की यह नीति लागू हुई है, उसके कई उदहारण उपलब्ध हैं।

लैटिन अमेरिका और अफ़्रीका के जिन देशों में ऐसी नीति लागू की गयी वहाँ जनता को कंपनियों से जल की ख़रीद के लिए मजबूर करने के लिए स्वयं की ज़मीन पर कुएँ खोदने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बोलिविया में तो घर की छत पर बरसे वर्षा जल को एकत्रित करने तक के लिए बैक्टेल (अमेरिकी कंपनी) और इतालवी (अंतरराष्ट्रीय जल कंपनी) ने परमिट व्यवस्था लागू की हुई है। सरकार के साथ ये कम्पनियाँ इस प्रकार के समझौते करती हैं कि उनके समानांतर कोई अन्य जल वितरण नहीं करेगा। कई अनुबंधों में व्यक्तिगत या सार्वजनिक हैंडपंप/ नलकूपों को गहरा करने पर प्रतिबंध होता है।

अंतरराष्ट्रीय शक्तिशाली वित्तीय संगठनों द्वारा विश्व के देशों को जल के निजीकरण के लिए मजबूर किया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार सन् 2000 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़ ) द्वारा (अंतरराष्ट्रीय वित्तीय निगमों के माध्यम से) ऋण देते समय 12 मामलों में जल आपूर्ति के पूर्ण या आंशिक निजीकरण की ज़रूरत बतलाई गयी। पूर्ण लागत वसूली और सब्सिडी समाप्त करने को भी कहा गया। इसी प्रकार सन 2001 में विश्व बैंक द्वारा ‘जल व स्वच्छता’ के लिए मंज़ूर किये गए ऋणों में से 40 % में जलापूर्ती के निजीकरण की स्पष्ट शर्त रखी गयी।

भारत में इसकी गुप-चुप तैयारी काफी समय से चल रही लगती है। तभी तो अनेक नए कानून बनाए गए हैं। महानगरों में जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल प्रयोग के लिए नए कानून, जल संसाधन के संरक्षण के कानून, उद्योगों को जल आपूर्ति के लिए कानून आदि और अब “राष्ट्रीय जल निति-2012”।

इन अंतरराष्ट्रीय निगमों की नज़र भारत से येन-केन प्रकारेण धन बटोरने पर है। भारत में जल के निजीकरण से 20 ख़रब डालर की वार्षिक कमाई का इनका अनुमान है। शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के व्यापारीकरण की भूमिका बनाते हुए विश्व बैंक ने कहना शुरू कर दिया है कि इनके लिए “सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर” बनाया जाए और इन्हें बाज़ार पर आधारित बनाया जाय। अर्थात इन सेवाओं पर किसी प्रकार का अनुदान न देते हुए लागत और लाभ के आधार पर इनका मूल्य निर्धारण हो। इन सेवाओं के लिए विदेशी निवेश की छूट देने को बाध्य किया जाता है। कंपनियों का अनुमान है कि भारत में इन तीन सेवाओं से उन्हें 100 ख़रब डालर का लाभकारी बाज़ार प्राप्त होगा।

लागत और लाभ को जोड़कर पानी का मूल्य निर्धारित किया गया (और वह भी विदेशी कंपनियों द्वारा) तो किसी भी किसान के लिए खेती करना असंभव हो जायेगा। इन्ही कंपनियों के दिए बीजों से, इन्हीं के दिए पानी से, इन्हीं के लिए खेती करने के अलावा और उपाय नहीं रह जाएगा। भूमि का मूल्य दिए बिना ये कम्पनियाँ लाखों, करोड़ों एकड़ कृषि भूमि का स्वामित्व सरलता से प्राप्त कर सकेंगी।

इस निति के बिंदु क्र. 7.1 और 7.2 में सरकार की नीयत साफ़ हो जाती है कि वह भारत के जल संसाधनों पर जनता के हज़ारों साल से चले आ रहे अधिकार को समाप्त करके कॉरपोरेशनों व बड़ी कंपनियों को इस जल को बेचना चाहती है। फिर वे कम्पनियां मनमाना मूल्य जनता से वसूल कर सकेंगी। जीवित रहने की मूलभूत आवश्यकता को जन-जन को उपलब्ध करवाने के अपने दायित्व से किनारा करके उसे व्यापार और लाभ कमाने की स्पष्ट घोषणा इस प्रारूप में है।

उपरोक्त धाराओं में कहा गया है कि जल का मूल्य निर्धारण अधिकतम लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से किया जाना चाहिए। लाभ पाने के लिए ज़रूरत पड़ने पर जल पर सरकारी नियंत्रण की नीति अपनाई जानी चाहिए। अर्थात जल पर जब, जहां चाहे, सरकार या ठेका प्राप्त कर चुकी कंपनी अधिकार कर सकती है। अभी अविश्वसनीय चाहे लगे पर स्पष्ट प्रमाण हैं कि इसी प्रकार की तैयारी है। यह एक भयावह स्थिति होगी।

प्रस्ताव की धारा 7.2 कहती है कि जल के लाभकारी मूल्य के निर्धारण के लिए प्रशासनिक खर्चे, रख-रखाव के सभी खर्च उसमें जोड़े जाने चाहिए।

निति के बिंदु क्र. 2.2 के अनुसार भूस्वामी की भूमि से निकले पानी पर उसके अधिकार को समाप्त करने का प्रस्ताव है। अर्थात आज तक अपनी ज़मीन से निकल रहे पानी के प्रयोग का जो मौलिक अधिकार भारतीयों को प्राप्त था, जल आयोग (अर्थात कंपनी या कॉरपोरेशन) अब उसे समाप्त कर सकते हैं और उस जल के प्रयोग के लिए शुल्क ले सकते हैं जिसके लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं है कि शुल्क कितना लिया जाएगा।

बिंदु क्र. 13.1 के अनुसार हर प्रदेश में एक प्राधिकरण का गठन होना है जो जल से संबंधित नियम बनाने, विवाद निपटाने, जल के मूल्य निर्धारण जैसे कार्य करेगा। इसका अर्थ है कि उसके अपने कानून और नियम होंगे और सरकारी हस्तक्षेप नाम मात्र को रह जाएगा। महँगाई की मार से घुटती जनता पर एक और मर्मान्तक प्रहार करने की तैयारी नज़र आ रही है।

सूचनाओं के अनुसार प्रारंभ में जल के मूल्यों पर अनुदान दिया जाएगा। इसके लिए विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक धन प्रदान करते है। फिर धीरे-धीरे अनुदान घटाते हुए मूल्य बढ़ते जाते हैं। प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी। ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं ख़रीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है। पहले से ही लाखों किसान आर्थिक बदहाली के चलते आत्महत्या कर चुके हैं, इस नियम के लागू होने के बाद तो खेती असंभव हो जायेगी। अनेक अन्य देशों की तरह ठेके पर खेती करने के अलावा किसान के पास कोई विकल्प नहीं रह जाएगा।

केन्द्रीय जल आयोग तथा जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत में जल की मांग और उपलब्धता संतोषजनक है। लगभग 1100 (1093) अरब घन मीटर जल की आवश्यकता सन 2025 तक होने का मंत्रालय का अनुमान है। राष्ट्रीय आयोग के अनुसार यह मांग 2050 तक 973 से 1180 अरब घन मीटर होगी। जल के मूल्य को लाभकारी दर पर देने की नीति एक बार लागू हो जाने के बाद कंपनी उसे अनिश्चित सीमा तक बढ़ाने के लिए स्वतंत्र हो जायेगी। वह आपने कर्मचारियों को कितने भी अधिक वेतन, भत्ते देकर पानी पर उसका खर्च डाले तो उसे रोकेगा कौन?

केंद्र सरकार के उपरोक्त प्रकार के अनेक निर्णयों को देख कर कुछ मूलभूत प्रश्न पैदा होते हैं। आखिर इस सरकार की नीयत क्या करने की है? यह किसके हित में काम कर रही है, देश के या मेगा कंपनियों के? इसकी वफ़ादारी इस देश के प्रति है भी या नहीं? अन्यथा ऐसे विनाशकारी निर्णय कैसे संभव थे? एक गंभीर प्रश्न हम सबके सामने यह है कि जो सरकार भारत के नागरिकों को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को असमर्थ बतला रही है, देश के हितों के विरुद्ध काम कर रही है, ऐसी सरकार की देश को ज़रूरत क्यों कर है?

ज्ञातव्य है कि सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि वह देश की जनता को जल प्रदान करने में असमर्थ है। उसके पास इस हेतु पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसी प्रकार भोजन सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, सबको शिक्षा अधिकार देने के लिए भी संसाधनों के अभाव का रोना सरकार द्वारा रोया गया है और ये सब कार्य प्राइवेट सेक्टर को देने की सिफारिश की गयी है। ऐसे में इस सरकार के होने के अर्थ क्या हैं? इसे सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार है भी या नहीं।

रोचक तथ्य यह है कि जो सरकार संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, सन 2005 से लेकर सन 2012 तक इसी सरकार के द्वारा 25 लाख 74 हज़ार करोड़ रु. से अधिक की करों माफी कॉरपोरेशनों को दी गयी। (Source: Succcessive Union Budgets)। स्मरणीय है की देश की सभी केंद्र और प्रदेश सरकारों व कॉरपोरेशनों का एक साल का कुल बजट 20 लाख करोड़ रुपया होता है। उससे भी अधिक राशि इन अरबपति कंपनियों को खैरात में दे दी गयी। सोने और हीरों पर एक लाख करोड़ रुपये की कस्टम ड्यूटी माफ़ की गयी। लाखों करोड़ के घोटालों की कहानी अलग से है। इन सब कारणों से लगता है कि यह सरकार जनता के हितों की उपेक्षा अति की सीमा तक करते हुए केवल अमीरों के व्यापारिक हितों में काम कर रहे है। ऐसे में जागरूक भारतीयों का प्राथमिक कर्तव्य है कि सच को जानें और अपनी पहुँच तक उसे प्रचारित करें। निश्चित रूप से समाधान निकलेगा।

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