जलक्षेत्र सुधार एवं ढाँचागत बदलाव की समीक्षा

पानी की फिजूलखर्ची का प्रमुख कारण है कि लोगों को यह लगभग मुफ्त के भाव उपलब्ध करवाया जाता है। इसलिए मुफ्त में पानी की आपूर्ति को लोग अपना अधिकार समझते हैं। पानी की फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का तरीका यह है कि पानी की दरें लागत खर्च वापसी के हिसाब से तय की जाएँ। संचालन और संधारण खर्च के साथ निजी निवेश पर सुनिश्चित लाभ भी प्राप्त होना चाहिए। गत दो दशकों से विभिन्न स्तरों पर अखबारों, विचार गोष्ठियों और सभाओं में `पानी´ पर बहस जारी है। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियाई विकास बैंक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अनेक देशों कीसरकारों, संचार-माध्यमों आदि सभी ने इस मुद्दे को अत्याधिक महत्व दिया है। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और शोध-प्रबंधों में यह विषय छाया रहा है। इसकी वजह दुनिया के कई विकासशील देशों में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा प्रायोजित `सेक्टर रिफार्म´ लागू किया जाना रहा हैं। इन परिवर्तनों के संदर्भ में बुनियादी सुविधाओं की कमी और उनके कारणों को समझने की आवश्यकता है।अस्सी के दशक से प्रारंभ बदलावों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी परियोजनाओं को आर्थिक मदद देने की प्रवृत्ति कम होने लगी थी। इस दौरान अंतराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने पूँजी के बल पर विकासशील देशों की बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन प्रारंभ करवाए। इससे इन देशों की बुनियादी सुविधाओं की पुनर्रचना अथवा ढाँचागत बदलाव अथवा क्षेत्र सुधार की प्रक्रिया तेज हुई। इसकेलिए सार्वजनिक क्षेत्रों में संस्थागत बदलाव, विनिवेशीकरण तथा तकनीकी ज्ञान वृद्धि पर बल दिया गया।

इस संपूर्ण प्रक्रिया में पूँजी तथा आधुनिक तकनीकी ज्ञान की बड़ी आवश्यकता थी। अत: इन वित्तीय एजेंसियों ने धन के साथ तकनीकी सहयोग और प्रशिक्षण देने के लिए हाथ बढ़ाए। उम्मीद थी कि इससेआर्थिक विकास की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा और लोगों का जीवनस्तर सुधरेगा। अत: अनेक विकासशील देशों ने बाहरी मदद से बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में बड़ी परियोजनाएँ क्रियान्वित की। विश्व बैंक, यू.एस. एड, इंटर-अमेरिकन विकास बैंक, एशियाई विकास बैंक आदि ने इन प्रस्तावित परिवर्तनों के लिए हरसंभव प्रयास किए। ये प्रयास मुख्य रूप से निम्न तीन प्रकार के हैं -

अ) निजीकरण की जमीन तैयार करना

अस्सी के दशक में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की बुनियादी सुविधाओं की विफलता की समीक्षा प्रारंभ हुई। इन एजेंसियों के विश्लेषण के अनुसार, अनेक विकासशील देशों नेबुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में बड़ी पूँजी लगाई, परंतु ये देश अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाए। सार्वजनिक क्षेत्र को बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता, उनका स्तर, निरन्तरता, सेवा शुल्क का ढाँचा तथा सेवाओं की विश्वसनीयता आदि कसौटियों पर परखने पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि इन देशों की बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में सुधार की काफी संभावनाएँ थी। इन देशों में अनुदान प्राप्त योजनाओं का लाभ समाज के अपेक्षित वर्गों तक नहीं पहुँचा। जिससे इन देशों की आर्थिक विकास की प्रक्रिया सीमित रही और गरीबी उनमूलन के उद्देश्य को हासिल करने में खास प्रगति नहीं हो पाई। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने इस विफलता के लिए विकासशील देशों के संस्थागत ढाँचे और नीतियों को जिम्मेदार मानते हुए बुनियादी क्षेत्रों के ढाँचागत बदलाव की आवश्यकता जताई। इन एजेंसियों ने निष्कर्ष निकाला कि केंद्रीय तरीके से संचालित और लोगों की जरुरतों को नज़रअंदाज करने वाली योजनाएँ अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकती। बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने में सार्वजनिक क्षेत्रों का एकाधिकार अनेक समस्याओं की जड़ है। इस स्थिति में `सुधार´ हेतु निजी क्षेत्रों से पूँजी निवेश की अनिवार्यता तथा विकेंद्रीकरण की आवश्यकता प्रतिपादित की गई।

इसका पहला कदम प्रचार साहित्य निर्माण था, जिसके तहत दुनियाभर की जल-स्थिति, जलक्षेत्र की समस्याओं और उन पर उपाय सुझाने वाले दस्तावेज तथा इस क्षेत्र के भविष्य के बारे में ढेरों प्रकाशन किए गए। इनके निष्कर्षो का शासकीय और गैर शासकीय स्तर पर खूब प्रचार किया गया। पानी की कम उपलब्धाता का सवाल विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मलनों का केन्द्रीय विषय बनाया गया। जिनमें बताया जाता है कि जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, आधुनिक कृषि, विलासितापूर्ण जीवनशैली आदि के कारण दुनिया में पानी कीजरूरत निरंतर बढ़ रही है, परंतु प्रकृति के जलस्रोत सीमित है। आने वाले वर्षो में पूरी दुनिया को पानी की जबरदस्त तंगी का सामना करना पड़ेगा। इक्कसवीं सदी में तेल के बजाय पानी की वजह से युद्ध होने की भविष्यवाणी की जा रही है। इस स्थिति को टालने के लिए और पानी की उपलब्धता बढ़ाने हेतु तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता पर जोर दिया जाना चाहिए। विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक आदि द्वारा पानी की कमी दूर करने हेतु जलक्षेत्र में ढाँचागत बदलाव कर इसके निजीकरण और बाजारीकरण का विकल्पसामने रखा गया है।

ब) ढाँचागत बदलाव की शुरूआत


अस्सी के दशक से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा सुझाए गए जलक्षेत्र की पुनर्रचना कार्यक्रम से जलक्षेत्र में जनभागीदारी, विकेंद्रीकरण, पारदर्शिता, निजी पूँजी निवेश आदि को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। नब्बे के दशक में यह प्रक्रिया तेज हुई। विश्व बैंक जैसी एजेंसियों ने बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में सार्वजनिक परियोजनाओं को कर्ज देने के बजाए निजी पूँजी निवेश पर बल दिया।
इस दौरान जलसंवर्धन तथा जल प्रबंधन में परम्परागत अभियांत्रिक दृष्टिकोण के स्थान पर जलग्रहण क्षेत्र विकास तथा समिन्वत जल प्रबंधन जैसे कार्यक्रमों पर बल दिया गया। इसके माध्यम से बड़ी परियोजनाओं पर निर्भरता कम करने का भ्रम पैदा किया गया था। परियोजना क्रियान्वयन में ग्रामीण समुदायों का सक्रिय सहयोग, आपूर्ति के बजाय माँग आधारित दृष्टिकोण, परियोजना के खर्चों में लोगों की सहभागिता आदि कुछ नए सिद्धांत लागू किए गए। ग्रामीण जल संग्रहण अभियान, स्वजलधारा, जलस्वराज्य परियोजना, जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना, संपूर्ण स्वच्छता अभियान आदि कार्यक्रमों के अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि इन सारी परियोजनाओं में `सुधार´ की अधिकांश बातें शामिल हैं। साथ ही विकासशील देशों को ऋण अथवा परियोजनाओें के लिए निवेश उपलब्ध करवाते समय इन्हीं सिद्धांतों के तहत कार्यवाही करने की शर्तें रखी गई। नब्बे के दशक में दुनियाभर में `जलक्षेत्र सुधार परियोजनाओं´ की बाढ़ सी आ जाना इस प्रक्रिया का हिस्सा रहा है। भारत में सन् 1999 में ग्रामीण जलसंग्रहण कार्यक्रम में प्रायोगिक तौर पर क्षेत्र सुधारपरियोजना प्रारंभ की गई। बाद में स्वजलधारा के रूप में देशभर में यह कार्यक्रम चलाया गया। पिछले कुछ वर्षो में इस प्रक्रिया को आगे धकेला गया है।

स) ढाँचागत बदलाव का दौर


किसी भी देश में संस्थागत तथा प्रक्रियागत बदलाव एक लम्बी तथा जटिल प्रक्रिया है। इसके लिए उस देश के प्रचलित कानून तथा नीतियों में परिवर्तन करना जरूरी होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए अस्सी के उत्तरार्ध में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने विकासशील देशों में नीतिगत परिवर्तन के प्रयास शुरु किए। इन परिवर्तनों की पूर्व तैयारी के रूप में अनेक देशों में जलक्षेत्र की स्थिति का `मूल्यांकन´ करने के लिए वित्तीय सहायता देने का दिखावा किया गया। इस सहायता के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने यह अपेक्षा भी की कि हर देश अपनी राष्ट्रीय जलनीति की घोषणा करें। जल क्षेत्र `मूल्यांकन´ के निष्कर्षो को विकासशील देशों की जलनीतियों में शामिल किया गया और जलक्षेत्र के `सुधार´ का आधार यही अध्ययन बने। इस प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि अनेक देशों ने पहली बार अपनी राष्ट्रीय अथवा राज्यस्तरीयजलनीतियाँ बनाई। कई विकासशील देशों ने अपने जल संबंधी कानूनों की समीक्षा कर उसमें बदलाव किए।

इन कानूनी बदलावों के तहत देश में नए संस्थागत ढाँचें बनाए गए। नए कानून और नीतियों में सेवाओं के विकेंद्रीकरण की आवश्यकता प्रतिपादित की गई। जलक्षेत्र को भी इसी प्रकार बदला गया। इन परिवर्तनों से न केवल विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हो रही है बल्कि अनेक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन भी महसूस किए जा रहे हैं। समाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों पर इन परिवर्तनों के गंभीर तथा दूरगामी असर हुए हैं।

ढाँचागत बदलाव : पैरोकारों के तर्क


अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा जलक्षेत्र की पुनर्रचना के तहत मौजूदा ढाँचे में परिवर्तन का उद्देश्य विकासशील देशों में आर्थिक विकास की गति तेज करने का बताया था। इन एजेंसियों के अनुसार राज्य द्वारानिजी क्षेत्र पर लगाए गए अनुचित बंधनों से निजी क्षेत्र की वृद्धि बाधित होती है और उसका प्रभाव आर्थिक विकास के लक्ष्य पर (अर्थात् समाज पर) पड़ता है। बुनियादी सुविधाओं में अगर निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी को बढ़ावा दिया जाए तो अधिकाधिक लोगों को स्तरीय सुविधाएँ देने का लक्ष्य पूरा होगा। सेवाओं में सार्वजनिकक्षेत्र के एकाधिकारवाद के बजाय मुक्त स्पर्द्धा का तरीका अपनाने से उसका लाभ ग्राहकों को होगा।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों की यह विचारधारा बाजार की बढ़ती भूमिका और निजीकरण की नीति को प्रोत्साहित करने वाली है। आज इन एजेंसियों की विचारधारा के पक्ष में विकसित राष्ट्रों की सरकारेंऔर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी हैं। केवल इतना ही नहीं, अनेक विकासशील देशों की सरकारें, नीति निर्माता, अर्थशास्त्रीगण तथा स्थापित संस्थाएँ भी इस मत की पक्षधर हो गई है कि आर्थिक सुधार की नीतियों को अपनाने के अलावा अब अन्य कोई विकल्प शेष नहीं है। इसका कारण आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से कमजोर, विकासशील राष्ट्रों का हितसंरक्षण बताया जाता है। जलक्षेत्र की पुनर्रचना में निम्नलिखित मुद्दे पर क्रियांवयन आवश्यक बताया गया है -

पानी एक बाजारी जिंस
जलक्षेत्र की पुनर्रचना के तहत पानी के प्रति दृष्टिकोण में `बुनियादी बदलाव´ की जरूरत पर बल दिया गया है। मनुष्य के लिए पानी की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए, दुनिया में पानी ही एक ऐसा संसाधन माना जाता रहा है जिस पर किसी का भी `स्वामित्व´ नहीं रहा। हालांकि उसके उपयोग में तत्कालीन समाजव्यवस्था की विषमता का प्रभाव दिखाई देता है। पूँजीवाद के उदय से और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौरान अन्य प्राकृतिक संसाधनों के साथ पानी भी राज्य के नियंत्रण में आ गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारत में पानी पर राज्य का अधिकार कायम रहा। परंतु, कल्याणकारी व्यवस्था में सभी नागरिकों को पानी देने की जिम्मेदारी राज्य की थी। इसलिए पीने और आर्थिक गतिविधियों के लिए पानी की आपूर्ति और इसके लिए आवश्यक निवेश सरकार का कर्तव्य माना जाता था।

भारत में उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण की नीतियाँ स्वीकार किए जाने के बाद राज्य की भूमिका में आमूलचूल बदलाव हुए। आर्थिक विकास को बढ़ावा देने हेतु राज्य की सर्वव्यापी भूमिका को सीमित करके बाजार व्यवस्था के अनुकूल नीतियों का निर्माण किया जाने लगा। जलक्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रह पाया।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के मतानुसार पानी को आर्थिक वस्तु के रूप में देखना जरूरी है, क्योंकि इसे केवल संसाधन मानने से इसके नियोजन और वितरण में कई प्रकार की समस्याएँ पैदा हुईं है। इसे अन्य वस्तुओं के समान ही एक `वस्तु मानने से बाजार के माध्यम से इसका व्यापार अधिक कुशल तरीके से होगा। बाजार का `माँग और आपूर्ति´ का सिद्धांत पानी पर भी लागू होता है। आज इसकी आपूर्ति कम हो गयी है, अत: बाजार के सिद्धांत के अनुसार इसका सावधानीपूर्वक प्रबंधन जरूरी है। इसके लिए पानी का मालिकाना हक कायम कर उसके व्यापार की अनुमति देना आवश्यक है। पानी की खरीदी-बिक्री शुरू होने से बाजार के नियमानुसार इसकी माँग और आपूर्ति का संतुलन बना रहेगा। साथ ही, पानी कीमती होनेसे उसके उपयोग में सावधानी बरती जाएगी और अर्थव्यवस्था में सुधार होगा।

उद्योग, कृषि, घरेलू आदि उपभोक्ताओं के लिए जल उपयोग की सीमा निर्धारित करने और जल व्यवस्था को मुक्त तथा जवाबदेह बनाए बिना पानी का सफल नियोजन संभव नहीं होगा। जब लोगों को पानी के इस्तेमाल की सीमा समझ में आएगी तभी पूरी क्षमता से पानी का उपयोग होगा। अगर बचाए गए पानी का आर्थिक विनिमय संभव हुआ तो लोगों को पानी बचाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा पानी की अनौपचारिक व्यवस्था के बजाय वैधानिक और संस्थागत व्यवस्था कीतरफदारी की गई है।

आज तक जलक्षेत्र में `आपूर्ति-केन्द्रित´ दृष्टिकोण अपनाया जाता रहा है। अर्थात सभी को पानी उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से नीतियाँ-कार्यक्रम-योजनाएँ तय की जाती हैं। जलक्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं का निर्माण करके पानी के नये स्रोतों को विकसित कर और उस पानी को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने की व्यवस्था आदिपर बल दिया जाता रहा है। अब उसके स्थान पर `माँग-केंद्रित´ दृष्टिकोण पर जोर दिया जा रहा है।

माँग-केन्द्रित दृष्टिकोण से तात्पर्य यह है कि पानी का इस्तेमाल करने वालों की जलप्रदाय योजनाओं का आंशिक खर्च उठाने, योजना के क्रियान्वयन में हिस्सेदारी तथा परियोजना के संचालन-संधारण की जिम्मेदारी उठाने की तैयारी होने पर ही जलप्रदाय की योजना लागू की जाये। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी लोगों को पानी की सुविधा देने का लक्ष्य न रखकर, उपलब्ध पानी के उचित प्रबंधन को महत्त्व दिया जाता है।

लागत वापसी
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के अनुसार पानी की फिजूलखर्ची का प्रमुख कारण है कि लोगों को यह लगभग मुफ्त के भाव उपलब्ध करवाया जाता है। इसलिए मुफ्त में पानी की आपूर्ति को लोग अपना अधिकार समझते हैं। पानी की फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का तरीका यह है कि पानी की दरें लागत खर्च वापसी के हिसाब से तय की जाएँ। संचालन और संधारण खर्च के साथ निजी निवेश पर सुनिश्चित लाभ भी प्राप्त होना चाहिए। गरीबों को मुफ्त में पानी देने की दृष्टि से दी गई सब्सिडी से संपन्न समूहों को ही सस्ते में पानी मिलता है। गरीबों को कम कीमत में पानी देना चाहिए, मुफ्त में नहीं। गरीब लोग तो पानी की कीमत चुकाना चाहते हैं, परंतु उनसे जलकर वसूल नहीं किया जाता। जब लोगों को पानी की पूरी कीमत चुकानीपड़ेगी तो इसकी फिजूलखर्ची रूकेगी तथा पानी की बचत का लक्ष्य अपने आप हासिल हो जाएगा।

राज्य की भूमिका में बदलाव
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के मतानुसार बुनियादी सुविधाओं की समस्याओं की जड़ राज्य की सार्वजनिक भूमिका है। राज्य के पास बुनियादी सुविधाओं के स्वामित्व से लेकर उन सुविधाओं संबधी नीतितय करना, उन पर अमल करना तथा इस क्षेत्र का नियमन करना आदि सारे अधिकार हैं। इससे सत्ता का केंद्रीकरण और नौकरशाहीकरण हुआ है तथा सार्वजनिक क्षेत्र का कार्य अपारदर्शी बना है। अपारदर्शी व्यवहार के कारण निहित स्वार्थी समूहों के लिये उन पर प्रभाव डालना संभव हुआ और सार्वजनिक सुविधाओं संबंधी नीति का विपरीत परिणाम हुआ। प्रशासकीय, आर्थिक हितों के आधार पर निर्णय लेने के बजाय राजनीतिक लाभ की दृष्टि से निर्णय लिए जाने लगे। इन सबके कारण सेवा के स्तर में गिरावट आई, भ्रष्टाचार को बल मिला, संसाधनों की बबार्दी और उनका गलत इस्तेमाल होने लगा और विभिन्न विभागों का घाटा बढ़ा। इसके हल के रूप में राज्य की भूमिका में बदलाव की आवश्यकता प्रतिपादित की गई जिसमें मुख्यत: तीन बातों का समावेश है-

(अ) राज्य द्वारा बुनियादी क्षेत्रों की व्यापक नीतियाँ प्रमुखता से तय की जाएँ तथा महत्त्वपूर्ण निर्णय और नियमन के लिए `स्वायत्त नियामक तंत्र´ स्थापित किए जाएँ।
(ब) जलप्रदाय सेवा, उसके प्रबंधन और प्रशासन आदि की जिम्मेदारी अलग सेवा प्रदाताओं को सौंपी जाए। इन सेवा प्रदाताओं का नियमन स्वायत्त नियामक तंत्र द्वारा किया जाए।
(स) जलक्षेत्र का प्रबंधन सिर्फ सरकारी तंत्र द्वारा करने के बजाय, उसमें लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाई जाए। संक्षेप में राज्य सेवा प्रदाता के बजाय अब `फैसिलिटेटर´ या सहायक की भूमिका निभाएगा।

`स्वायत्त नियामक तंत्र´ की स्थापना राज्य से, विशेषकर सरकारी तंत्र से, अलग की जाएँगी। नियामक तंत्र और उसमें कार्यरत लोगों पर सरकारी विभागों का कोई कानूनी अधिकार नहीं होगा। संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ, अधिकारी और व्यावसायिक उसके सदस्य होंगें। इस प्रकार ये तंत्र मुख्यत: प्रशासकीय-आर्थिक मामलों परविचार कर, दीर्घकालीन हित को ध्यान में रखकर निर्णय करेंगे। एक ओर यह तंत्र सरकारी और गैर सरकारी लोगों पर अंकुश रखेंगे तथा दूसरी ओर निजी कंपनियों के कारोबार पर नियंत्रण रख कर ग्राहकोंके अधिकारों का संरक्षण करेंगे। नियामक तंत्र द्वारा निर्णय प्रक्रिया में सरकारी दृष्टिकोण के बजाय आर्थिक, प्रशासकीय और वित्तीय दृष्टिकोण बढ़ाया जाएगा। इससे अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप बंद होगा तथा बुनियादी सुविधाओं की समस्याएँ हल करने में मदद मिलेगी

निजी क्षेत्र की भागीदारी
विकासशील देशों में बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए या तो सार्वजनिक क्षेत्र ने पूँजी निवेश किया है या अन्य देशों या वित्तीय एजेंसियों से कर्ज लेकर धन की कमी को पूरा किया गया है। इसमें पूँजी उपलब्धता की मुख्य जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र की रही।बाजार का मनुष्य की जरूरत से कोई लेना-देना नहीं होता है। मुनाफा बढ़ाने के लिए विभिन्न तरीकों से कृत्रिम जरूरतें और कृत्रिम संकट निर्माण किया जाएगा। पिछले अनुभवों से स्पष्ट है कि जरूरतों की पूर्ति करते समय पर्यावरणीय निरंतरता का विचार नहीं किया जाता है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत भले ही मुक्त स्पर्द्धा के लाभ बताते हों, लेकिन इससे बाजार में आर्थिक इकाईयों का एकाधिकारवाद पनपता है जो निहित स्वार्थों के लिए अवैध तरीके भी अपनाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के मतानुसार गतिशील आर्थिक वृद्धि के लिए बुनियादी सुविधाओं में जितने निवेश की आवश्यकता है वह कई देशों की सरकारों की क्षमता से बाहर है। इसलिए ऐसे देशों को बुनियादी क्षेत्रों के लिए अधिकाधिक निजी निवेश को आकर्षित करआर्थिक निवेश, प्रबंधन, तकनीकी-सेवा, परामर्शी ठेकों आदि के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर स्थानीय ठेकेदारों तक निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी की सलाह दी जाती है। बुनियादी सेवाओं में सार्वजनिक क्षेत्रों का एकाधिकार समाप्त होकर यह क्षेत्र निजी सेवा प्रदाताओं को चले जाने से सुविधाओं के प्रदाय में प्रतिस्पर्द्धाबढ़ती है। प्रतिस्पर्द्धा के कारण निजी सेवा प्रदाता कीमत कम रखकर सुविधाओं के स्तर में सुधार करते हैं। उपभोक्ताओं को इसका लाभ मिलता है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के अनुसार अगर निजी निवेशकों को प्रोत्साहन और उचित नियमन के ढाँचे से संतुलन में रखा जाए तो जलक्षेत्र की कार्यक्षमता सुधरेगी, सेवाओं की कीमत उचित होगी, नुकसान रूकेगा और गरीब लोगों को मिलने वाली सुविधाओं में वृद्धि होगी।

व्यवस्था का विकेंद्रीकरण
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों की दृष्टि से बुनियादी सुविधाओं के दोषों का महत्त्वपूर्ण कारण प्रक्रियागत त्रुटियाँ है। इन त्रुटियों को दूर करने का प्रमुख रास्ता है-सेवाओं का विकेंद्रीकरण। इस विचार के तहत जलक्षेत्र में नियोजन से लेकर क्रियांवयन और संचालन-संधारण तक सभी स्तरों पर हितग्राहियों और हितसंबंधियों को हिस्सेदार बनानाआवश्यक है। इससे केंद्रीकृत कार्य प्रणाली की त्रुटियाँ दूर कर लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में लिया जाएगा।
लोगों की हिस्सेदारी से उनमें अपनत्व निर्माण होगा और जलक्षेत्र के प्रबंधन में मदद मिलेगी। लोगों का सक्रिय सहयोग मिलने पर पानी का प्रबंधन धीरे-धीरे उपयोगकर्ताओं को सौंपा जाएँ।अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा सुझाए गए पुनर्रचना के ढाँचे और विचारधारा की दुनियाभर में गंभीर समीक्षा हो रही है। अनेक विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस व्यवस्था को चुनौती दी जा रहीहै। जिन देशों में बुनियादी सुविधाओं की पुनर्रचना हुई है, वहाँ के लोगों के अनुभवों से सीखने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।जलक्षेत्र में सेक्टर रिफार्म की असलियत इस हिस्से में भी उन्हीं मुद्दों पर चर्चा की गई है जिनकी पिछले अध्याय में की गई है। लेकिन फर्क इतना है कि यहाँ इन मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के दृष्टिकोण की पड़ताल की गई है। जिसमें स्पष्ट हुआ है कि सेक्टर रिफार्म के संबंध में इन वित्तीय एजेंसियों के तर्क काफी लचर है। बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकारों का दायित्व हैं।

बिन पानी सब सून
पानी न केवल मानव बल्कि संपूर्ण जीव जगत के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है। घरेलू इस्तेमाल, आर्थिक उद्यमों, जीवन बनाए रखने एवं पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में पानी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पानी को `वस्तु´ मानने का अर्थ उसके विशिष्ट और व्यापक महत्त्व की उपेक्षा करके उसे साबुन, तेल की हैसियतमें ला खड़ा करना है। बुनियादी जरूरत के नाते पानी की उपलब्धता प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। पानी की खरीदी-बिक्री शुरू होने से बाजार व्यवस्था के सभी दुष्परिणाम यहाँ दिखाई देंगे। बाजार का मनुष्य की जरूरत से कोई लेना-देना नहीं होता है। मुनाफा बढ़ाने के लिए विभिन्न तरीकों से कृत्रिम जरूरतें और कृत्रिम संकट निर्माण किया जाएगा। पिछले अनुभवों से स्पष्ट है कि जरूरतों की पूर्ति करते समय पर्यावरणीय निरंतरता का विचार नहीं किया जाता है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत भले ही मुक्त स्पर्द्धा के लाभ बताते हों, लेकिन इससे बाजार में आर्थिक इकाईयों का एकाधिकारवाद पनपता है जो निहित स्वार्थों के लिए अवैध तरीके भी अपनाते हैं।

वैसे तो बाजार व्यवस्था के कार्यक्षम होने का दावा किया जाता है, परंतु व्यवहार में बाजारव्यवस्था में काफी फिजूलखर्ची और कार्यक्षमता का अभाव होता है। सूक्ष्म (माईक्रो) स्तर पर कार्यक्षम होने वाली इकाईयों में स्थूल (मैक्रो) स्तर पर सामाजिक दृष्टि से कार्यदक्षता का अभाव हो सकता है। (उदाहरण के लिए निजी दो पहिया,चार चार पहिया वाहनों का उत्पादन तथा प्रयोग कार्यक्षमता से होता है। परंतु इन वाहनों के निर्माण में लगे संसाधन, उन वाहनों का ईंधन-प्रयोग और उनसे यात्रा करने वाले लोगों की संख्या ध्यान में रखने पर यहसेवा काफी अपव्ययी और अकार्यक्षम साबित होती है। इसकी तुलना में सार्वजनिक परिवहन सेवा अधिक कार्यक्षम होती है।) बाजार से संबंधित इन त्रुटियों का प्रतिबिंब जलक्षेत्र में किस तरह होगा ताकतवर कंपनियाँ अपनी आर्थिक सत्ता के प्रयोग से पानी के स्रोतों पर कब्जा करेंगी। पानी की बढ़ती माँग को ध्यान में रखकर मुनाफाबढ़ाने के उद्देश्य से पानी की कीमतें बेहद बढ़ाई जाएगी। जिनके पास पानी खरीदने की क्षमता होगी उन्हें ही पानी मिलेगा। बाजार के नियमानुसार क्रयशक्तिविहीन लोगों की पानी की जरूरत पूरी करने की जिम्मेदारी बाजार या सेवा प्रदाताओं पर नहीं होगी। मुनाफा बढ़ाने का दूसरा तरीका है कि पैसे वाले लोगों की पानी की आवश्यकता बढ़ाई जाए। इससे इस प्रकार की परिस्थितियाँ निर्मित होगी कि मौज-मस्ती के लिए अथाह पानी उपलब्ध होगा लेकिन गरीब पीने के पानी से वंचित होंगें। उदाहरण के लिए गरमी के दिनों में गोल्फ कोर्स कोहराभरा रखने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध होगा लेकिन बस्ती वाले साफ पानी के लिए तरसते रहेंगें। ऐसी परिस्थिति को टालने के लिए पानी को व्यक्ति का बुनियादी अधिकार मानना जरूरी है।

मजेदार तथ्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियाँ भी आज पानी के अधिकारों की भाषा बोल रही हैं। परंतु यह सिर्फ बाजार अधिकार (मार्केट राइट्स) है तथा लोगों के बुनियादी अधिकारों से इसका कोई संबंध नहीं है।

पानी लोगों का अधिकार
समाज के सभी घटकों तक विकास के लाभ पहुँचाने की नैतिक जिम्मेदारी कल्याणकारी राज्य की होती है। इसमें माना गया है कि समाज की आर्थिक विषमता, प्रतिकूल सामाजिक संरचना (जाति व्यवस्था, पुरुष प्रधान व्यवस्था आदि) तथा अन्य कारणों से सभी लोग आर्थिक विकास की प्रक्रिया में शामिल नहीं हो सकते। साथ ही, प्रचलित अर्थव्यवस्था में उत्पादन व्यवस्था का केंद्रीकरण होता है। इससे विभिन्न उत्पादक वर्गो द्वारा निर्मित संसाधन समाज के किसी छोटे हिस्से में केंद्रित होते हैं और काफी बड़ा समूह पर्याप्तक्रयशक्ति से वंचित रहता है। एक दृष्टि से ये वंचित लोग आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के शिकार रहते है। अत: जरूरी है कि उनकी ओर से राज्य हस्तक्षेप करें और उनकी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में मदद करें। साथ ही उन्हें इस दृष्टि से सक्षम बनाए कि वे भविष्य में विकास प्रक्रिया में सम्मिलित हो सके। गरीब लोगों द्वारा पानी की कीमत चुकाने की तैयारी का मतलब यह नहीं है कि उनकी पानीखरीदने की क्षमता रहती है। अत्यावश्यक होने पर भले ही वे पानी का खर्च उठाएँगे, परंतु इसका विपरीत परिणाम उनकी बुनियादी जरूरतों पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में लोगों की लाचारी को उनकी`खर्च उठाने की तैयारी´ समझना गलत है।

हालांकि कल्याणकारी व्यवस्था में भी वंचित समूहों की परिस्थिति में कहीं कोई गुणात्मक परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। उनकी स्थिति बदतर होती जा रही है। लेकिन ढाँचागत बदलाव से उनकी दशा अत्यंत दयनीय हो जाएगी। पूर्ण लागत वापसी के सिद्धांत से बुनियादी सुविधाओं की कीमतें कई गुना बढ़ जाएगी और इन सुविधाओंको प्राप्त करना गरीब लोगों के लिए मुश्किल होगा। सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर पानी का उपयोग करने वाले किसान अपनी आजीविका से हाथ धो बैठेंगें। `पूर्ण लागत वसूली´ का सिद्धांत अभी तक स्वीकृत कल्याणकारी राज्य संकल्पना का विरोधी है।

जल नियामक आयोगेगेग एक अवांछित कदम विकास के लाभ गरीबों तक पहुँचाने में सार्वजनिक क्षेत्र नाकाम हुआ है लेकिन इसका हल सार्वजनिक क्षेत्र में ही खोजा जाना चाहिए। आशंका है कि राज्य के बजाय नियामक तंत्र के पास महत्त्वपूर्ण अधिकार केंद्रित होने से जनतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया को धक्का लगेगा। राज्य के नीतिगत अधिकारों को सिर्फ आर्थिक-तकनीकी पहलुओं पर विचार करनेवाली नियामक संस्थाओं पर सौंपना कहाँ तक उचित है?

स्वायत्त नियामक की कार्यपद्धति सामान्यत: न्यायालयों के समान होती है। उनके सामने संबंधित क्षेत्रों की कंपनियाँ, सरकार, ग्राहक और समाज के अन्य दल जो मुद्दे रखते हैं, उन पर विचार करके निर्णय लिये जाते है। समाज के जो वर्ग आर्थिक, तकनीकी, वित्तीय जानकारी रखते हैं तथा विश्लेषण करने में सक्षम है वे ही नियमनकी प्रक्रिया में प्रभाव डाल सकते हैं। अधिकांश गरीबों के पास इस विधा का अभाव रहता है। विशेषज्ञों की सेवाएँ लेने की क्षमता भी उनमें नहीं होती। इसलिए वे खुद को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण मामलों में भी प्रभाव नहीं डाल पाते। वंचित समुदाय की ओर से हस्तक्षेप करने वाले अधिकांश संस्था-संगठनों के पास भी इस प्रकार की क्षमताएँ नहीं होतीं। इस प्रकार की विशेषज्ञता आधारित निर्णय प्रक्रिया में राजनैतिक हस्तक्षेप को कम किया जाता है। इस प्रक्रिया में माना गया है कि विवेकपूर्ण और कार्यक्षम निर्णय लेने का काम केवल विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।

लेकिन ऐसी जटिल निर्णय प्रक्रिया से सार्वजनिक हितों का संरक्षण का दावा करना छलावा मात्र है। स्वायत्त नियामक तंत्र लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं है, अत: जनविरोधी निर्णय लिए जाने पर उसकेविरोध का कोई तरीका लोगों के पास नहीं रहता। सवाल यह भी है कि क्या स्वायत्त नियामक तंत्र वास्तव में `स्वायत्त´ होते हैं? हितसंबंधी समूहों की आर्थिक-राजनैतिक ताकत और नियामक तंत्रों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण वे इस तंत्र को कब्जे में लेने के प्रयास करते हैं। नियामक तंत्रों के पास व्यापक अधिकार होने के बावजूद इसमें आवश्यक पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जनसहयोग की कारगर व्यवस्था नहीं की जाती है। इसी कारण नियामक तंत्रों के व्यापक अधिकारों पर सवाल उठाए जाते है। नियामक तंत्र को दिए गए व्यापक अधिकारों के कारण वह संबंधित क्षेत्र में निर्णय का प्रमुख केंद्र रहता है। अत: उस तंत्र के सदस्यों की चुनाव प्रक्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। जरूरी है कि इनके सदस्य विश्वसनीय,किसी दबाव में न आनेवाले तथा किसी निजी उद्योग में हितसंबंध रखने वाले न हो। प्रचलित मॉडल में इन सदस्यों का चुनाव एक चयन समिति द्वारा होता है। इस चुनाव समिति में उच्चपदस्थ नौकरशाहों का बहुमत होता है।

अगर नियामक तंत्र में सभी नौकरशाह होंगे तो संभावना है कि उस व्यवस्था में उनके हितसंबंध पहले से ही हो तथा आवश्यक प्रक्रिया के बारे में उनकी कुछ धारणानाएँ बनी हुई हों। प्रचलित व्यवस्था में कार्यरत रहे लोगों के हाथों में नये ढाँचे के सूत्र देने से उसमें गुणात्मक अंतर आने की संभावना पर प्रश्नचिन्ह है। जानकारों केअनुसार जिन विकसित देशों में स्वतंत्र नियामक तंत्र कार्यरत हैं, वहाँ भी उन्हें अपनी जड़ें जमाने में काफी समय लगा। ऐसे देशों में वहाँ के नागरिक समुदाय का स्वरूप और राजनीति में दबाव समूहों की भूमिका आदि का बड़ा योगदान रहा है। विकासशील देशों की सामाजिक, राजनैतिक विविधताओं और नागरिक समुदायों की स्थितिको ध्यान में रखने पर यह कहना ठीक नहीं होगा कि नियामक तंत्र आमतौर पर सभी देशों में उपयोगी होंगें।

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