जलीय पर्यावरण में धात्विक तत्व लेड (||) का खतरनाक स्तर (Dangerous level of element Lead (||) in aquatic environment)


औसत मनुष्य जीवन का दैनिक लेड सन्तुलनशहर के जलीय पर्यावरण को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। यथा, शुद्ध जल जो उपभोक्ता को उनके दैनिक कार्यों हेतु दिया जाता है। दूसरा प्रयुक्त जल, जिसका निस्सारण उपभोक्ता उपभोग के उपरान्त नालियों के रास्ते करते हैं और तीसरा औद्योगिक इकाइयों से निस्सारित जल। इन सभी जलस्रोतों से उत्सर्जित जल अन्तत: शहर के प्रकृतिक जल निकायों से जाकर मिलते हैं। अत: इन स्रोतों में उपस्थित सम्भावित प्रदूषणकारी अवयवों का अध्ययन एवं निराकरण सामयिक है। जैसा कि विदित है, प्रयुक्त जल के प्रदूषण स्तर को जानने के लिये निलम्बित ठोस कण, बी.ओ.डी. (बायलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड) घुलित ऑक्सीजन, पी.एच., भारी धातु आदि अवयवों का निर्धारण किया जाता है। वैसे तो सभी प्रदूषणकारी अवयवों का अपना दुष्प्रभाव है, पर शहरों के जलीय स्रोतों में हाल के दिनों में भारी धातुओं का पाया जाना चिन्ता का विषय है।

हमारे शोध –


अध्ययन के दौरान जो कि मुजफ्फरपुर शहर के जलीय पर्यावरण से सम्बन्धित था, यह पाया गया कि लेड (1) जो कि एक विशिष्ट और घातक भारी धातु है की मात्रा सभी नामित जलस्रोतों में ऊँचे स्तर तक पहुँच गई है – और किसी-किसी स्रोत में तो इसकी मात्रा खतरनाक स्तर तक पाई गई है। विभिन्न प्रदूषणकारी अवयवों को संलग्न सारिणी में दिखाया गया है। इन अवयवों का सान्द्रता के निर्धारण हेतु विभिन्न जलस्रोतों में से जल सैम्पल निर्धारित मानक विधि द्वारा एकत्रित किये गए। शुद्ध जल हेतु शहर के भूजल स्रोत, तथा नलकूप एवं बोरिंग दोनों एम.आई.टी. परिसर स्थित, एवं विभक्त-जल हेतु मुख्य नालों एवं बैटरी निर्माण की औद्योगिक इकाई से प्रवाहित जलस्रोतों का चुना गया। इनके साथ ही गंडक नदी के जल के सैम्पल विभिन्न ऋतुओं में एकत्रित किये गए और उनका विश्लेषण किया गया।

लेड (||) – एक घातक और खतरनाक भारी धातु


स्रोत : लेड (जिसकी रासायनिक संयोजकता दो है और लेड को ही सीसा कहते हैं) प्रकृति में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है। रासायनिक तत्व सारिणी (पीरिऑडिक टेबुल) के भारी धातुओं में शामिल यह एक ऐसा तत्व है जो जीवन के लिये आवश्यक नहीं है और जिसका किसी भी अवस्था में तथा किसी भी मात्रा में शरीर में उपलब्ध होना दुष्प्रभावी है। पर्यावरण में मुख्यत: यह प्राकृतिक रासायनिक क्रियाओं एवं मानव जनित क्रिया कलापों से संचयित होता है। वायुमण्डल में इसकी मौजूदगी अन्य भारी तत्वों की तुलना में ज्यादा है। मुख्यत: लेड-युक्त पेट्रोल एवं गैसोलीन के ज्वलन से यह धातु वायुमण्डल में पहुँचता है। जहाँ से वर्षा के जल द्वारा बहकर यह धरातल में जमाव होता है। लेड-युक्त औद्योगिक कचरों के बिना शोधन किये फेंका जाना सका दूसरा मुख्य स्रोत है। इन दोनों के चलते लेड का स्तर मिट्टी और भूजल के साथ तालाबों, नदियों में भी बढ़ता जा रहा है।

मानक मात्रा


विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रदत्त मानक में लेड (1) की जल में अधिकतम मात्रा 0.05 मि.ग्रा. प्रति लीटर है। जबकि यह अनुशंसा की गई है कि इसका जल में मौजूद न होना ज्यादा बेहतर है। अपने देश के सन्दर्भ में भी भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा इस धातु की अधिकतम मात्रा 0.05 मि.ग्रा. प्रति लीटर ही निर्धारित है।

भारतीय महानगरों की व्यस्त सड़कों के धूलकणों में इन धातु कणों का स्तर 1000 से 4000 माइक्रो ग्रा./कि.ग्रा. है, जो कि विभिन्न शारीरिक जैव क्रियाओं द्वारा शरीर के तन्तुओं एवं कोशिकाओं में संचित होते रहते हैं। बड़े औद्योगिक इकाईयों से प्रवाहित प्रयुक्त जल में इनकी मात्रा 2.0 से 5.0 मि.ग्रा./लीटर पाई गई है, जबकि सीवेज में इनका मानकीकृत अधिकतम निर्धारित स्तर 0.1 मि.ग्रा./लीटर किया हुआ है।

मुजफ्फरपुर के जलस्रोतों से नाले में ऋतु चक्रानुसार लेड (1) की मात्रालेड एक अति जीव घातक प्रभाव वाला भारी धातु है जो मुख्यत: शरीर के नस-समूहों में तेजी से संचित होकर उन पर खतरनाक प्रभाव डालता है। यह खाद्य शृंखला में एकत्रित होता रहता है। धरातलीय जल, में इसकी मौजूदगी से सर्वाधिक छोटे जलीय जीव प्रभावित होते हैं। इस धातु की 0.1 मि.ग्रा./ लीटर मात्रा जल में उपस्थित मछलियों एवं सम्बन्धित संवर्ग के प्राणियों के लिये घातक (टॉक्सिक) है सूक्ष्म जीवों पर भी इसका दुष्प्रभाव है। मुख्यत: प्रोटोजोआ, वाटरफॉली वर्म आदि पर इसके दुष्प्रभावों का अध्ययन किया गया है।

मनुष्यों में इसकी मौजूदगी खाद्य-पदार्थों के जरिए है। इसकी औसतन मात्रा 200-300 माइक्रोग्राम प्रति मनुष्य प्रतिदिन है। जबकि वायु एवं जल के रास्ते से मनुष्य में अतिरिक्त 25 माइक्रोग्राम प्रतिदिन इसका संचयन भी होता है। मल-मूत्र के रास्ते संचयित लेड का करीब 75 प्रतिशत एकत्रित होता रहता है। जिसका जैविक विघटन (बायोडिग्रिडेशन) नहीं होता है। यह एक कैंसरकारी धातु है जिसका शरीर में किसी भी मात्रा में मौजूदगी शरीर के लिये अत्यन्त हानिकारक है।

 

स्रोत

लेड (1) मि.ग्राम/ली.

सल्फेट आयन मि.ग्रा./ ली.

पी.एच.

भूजल बोरिंग से

0.11

49

6.7

ट्यूबवेल

0.125

45

6.9

गंडक नदी (विभिन्न बिंदु)

 

 

 

शहर का मुख्य सीवर

2 से 4.89

420

6.5

आउटफॉल नाला (विभिन्न स्टेज)

6.285 से 9.25

105

5.5

स्टोरेज बैटरी (उद्योग स्रोत विभिन्न स्टेज)

1.175 से 5.01

413

2.4

 

इसका मुख्य जैव रासायनिक प्रभाव इसके शरीर स्थित हेमोन्थेसिस प्रक्रिया में दखलन्दाजी के चलते होता है। परिणामस्वरूप हीमोग्लोबिन के क्षय के चलते शरीर रजतल्यता का शिकार हो जाता है। इसकी मात्रा और बढ़ने पर यह तत्व मनुष्य के शरीर की किडनी को क्षतिग्रस्त करता है और अन्तत: मस्तिष्क को निष्प्रभावी कर सकता है।

बच्चों में इसकी मौजूदगी से उनका मानसिक विकास बाधित होता है और बच्चे मेंटली रिटार्डेड हो जाते हैं। आगे चलकर उन बच्चों में कल्वल्सन की बीमारी जन्म लेती है। इस धातु के घातक एवं विनाशकारी प्रभाव के चलते ही इससे निर्मित सामग्रियों, यथा लेडपाइप, लेड पेन्ट का निर्माण एवं उपयोग कम-से-कम होने लगा है। साथ ही लेड युक्त पेट्रोल/ गैसोलीन के इस्तेमाल पर भी सरकार ने रोक लगा रखी है। लेड के प्रभाव को एक शहरी नागरिक पर ‘दैनिक लेड सन्तुलन’ के जरिए (चित्र-1) से समझा जा सकता है।

मानक सैम्पल जो एकत्रित किये गए उनमें मौजूद लेड (1) एवं अन्य अवयवों की उपस्थिति टेबल में दर्शाई गई है। विदित हो कि जल में लेड (1) की अधिकतम घोषित मात्रा 0.05 मि.ग्रा./ली. है। जबकि इस्तेमाल के पश्चात प्रवाहित जल में अधिकतम सीमा 0.1 मि.ग्रा./ली. है।

ऊपर के विविरण से स्पष्ट है कि मुजफ्फरपुर-वासी लेड (1) युक्त खतरनाक एवं घातक प्रभाव वाले जल के पर्यावरण में रह रहे हैं। नालों में प्रवाहित शहरजनित सीवेज एवं औद्योगिक सीवेज का परिष्करण के पश्चात ही आगे निस्सारण होना अत्यावश्यक है। क्योंकि इस धातु की मात्रा किसी भी प्राकृतिक जलस्रोत को प्रदूषित करने में पर्याप्त है। इस धातु के भूजल में 0.11 मि.ग्रा./ली. मौजूदगी से यह दुखद स्थिति और भी भयावह दिखाई पड़ती है। अत: पेयजल को भी परिष्करण के पश्चात ही उपयोग में लाने के लिये वितरण किया जाना आवश्यक है। साथ ही सल्फेट की मौजूदगी लेड कॉम्पलेक्स (यौगिक) के निर्माण में सहायक है। ये सब अलग-अलग बिन्दु मिलकर शहर के नागरिक पर्यावरण की ओर खतरनाक इशारा कर रहे हैं।

ऊपर दर्शाए गए चित्र-2 में मुजफ्फरपुर शहर के जलस्रोतों एवं सीवर लाइन से जल सैम्पलों को विभिन्न ऋतुओं, तथा वसंत, गर्मी, वर्षा एवं शीत में एकत्रित किया गया। इन सभी सैम्पल के विश्लेषण से जो निष्कर्ष रूप में लेड (1) की मात्रा पाई गई। वह इसी चित्र में प्रदर्शित है।

उपसंहार : निष्कर्षत: शहर के नागरिकों एवं अन्य जीवों पर लेड (1) की घातक उपस्थिति निश्चय ही चिन्ताजनक है। शहर के नागरिक स्वास्थ्य पर्यावरण के विशेष अध्ययन से इसके दुष्प्रभाव की तीव्रता का आकलन किया जा सकता है। सावधानी के तौर पर शहर के सभी जल-उदभेदन पम्प हाउसों पर भारी धातु से निजात दिलाने वाले जल शोधन संयंत्रों की स्थापना अनिवार्य है। साथ ही जिले के धरातलीय जलस्रोतों की सुरक्षा हेतु मुख्य आउटफॉल सीवर पर भी सीवेज पर भी सीवेज जल शोधन संयंत्र लगाना उचित होगा ताकि यह जल शोधन के बाद ही पर्यावरण में प्रवाहित हो।

डॉ. आचिन्त्य - प्राध्यापक, सिविल इंजीनियरिंग विभाग, सह प्राचार्य, भागलपुर कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पोस्ट- सबौर, भागलपुर- 813210
डॉ. सुरेश कुमार – सह प्राध्यापक, सिविल इंजीनियरिंग विभाग, मुजफ्फरपुर इंस्टि. ऑफ टेक्नोलॉजी, पोस्ट-एम.आई.टी., मुजफ्फरपुर- 842003



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