जलीय जीव-मछली का विकास नदी बचाकर करना होगा

उत्तराखण्ड राज्य नदी, पर्वत एवं उसमें विराजमान वन एवं जैव-विविधता से परिपूरित लगता है। वह चाहे मनुष्य हो या अन्य जीवधारी, यहां के निवासियों का जीवन एवं जीविका जल, जंगल एवं जमीन पर निर्भर है। हिमानी एवं जंगलों के बीच से निकलने वाले गाड़-गदेरों व नदियों के पानी से असंख्य जीव-जन्तु एवं वनस्पतियों के विकास की कहानी जुड़ी हुई है। अतः पानी में रहने वाले जीव-जन्तुओं की एक विशेषता यह है कि ये जल प्रदूषण को भी रोकते हैं। पानी में विचरण करने वाले जीव-जन्तु जैसे-मछलियों व अन्य प्राणियों का आपस में भी एक-दूसरे पर निर्भरता है।

जलीय जीव-जन्तु एवं शैवाल जल को शुद्व भी रखते हैं। उत्तराखण्ड राज्य में ‘‘सेलवानी’’ का जल’ बहुत ही शुद्ध एवं ताजा माना जाता है। इसका तात्पर्य है कि जल में शैवाल उगने से पानी का स्वाद भी अत्यंत ही मीठा एवं स्वस्थ्यवयवर्धक होता है। इसमें मछलियां भी पाई जाती है। इसके अलावा पुरानी झील, तालाब, एवं चालों में जहां पर जल का अविरल बहाव है, वहां पर भी मछलियों का जीवन शैवाल के साथ जुड़ा हुआ है। शैवाल पर मछलियों के अलावा पानी में अन्य कई छोटे-बड़े जीव-जन्तु पलते हैं, जिनका इस्तेमाल भोजन के लिए मछलियां या उनसे बड़े जीव आपस में करते हैं।

उत्तराखण्ड में हिमानियों से निकलने वाली नदियों में मछलियां बड़ी मात्रा में है। नदियों को फीड बैक देने वाले गाड़-गदेरों में भी मछलियां मौजूद है। इसी तरह वनों के बीच से निकलने वाली वर्षापोषित नदियों में मछलियों की बड़ी तादाद है। उत्तराखण्ड के अधिकांश गांवों की संख्या भी इन्हीं गाड़-गदेरों के पास रहती है, जो मछलियों को मारकर उससे जीवनयापन करते हैं। इस प्रकार गांव के लोग मछलियों को बाजार तक भी बेचते हैं। लोग नदियों एवं गाड़-गदेरों के किनारे की खेती, जहां फसल उत्पादन और घराट चलाकर आटा पीसने, पशु पालन आदि के साथ मछली भी जीविकोपार्जन का महत्पूर्ण साधन बनी रहती है।

उत्तराखण्ड की नदियां- भागीरथी, अलकनन्दा, जलकुर, भिलंगना, कोसी, सरयू, महकाली, मंदाकनी, पिण्डर आदि के जल से मछलियों को मारने और त्यौहार-पर्वों में इसका इश्तेमाल करने की संस्कृति के चिन्ह मात्र ही शेष रह जायेंगे। यह इसलिये कि नदियों को अब व्यापारिक दृष्टि से आंकने का नजरिया सामने आ रहा है, अब नदियों के किनारे नदी-तटों पर रहने वाले लोगों के लिए नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय मुनाफाखोरों के चुंगल में फंसते नजर आ रहे हैं। ऊर्जा विभाग के आंकड़ों एवं दावों की तरफ देखें तो जिस तरह सम्पूर्ण राज्य में 558 जलविद्युत परियोजनायें बनाने का लक्ष्य है, उसके कारण नदियों को बांध एवं बैराजों में तब्दील किया जा रहा है। नदियों पर श्रृंखलावद्ध तरीके से यदि बांध बनेंगे तो जलीय जीव-जन्तु पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

आजकल अधिकांश मनुष्यों के अस्तित्व को ही बचाने की बात होती है, लेकिन मनुष्य तो मछली समेत नदी-घाटी के पर्यावरण पर जीवित है, उनमें नदी और गाड़-गदेरे मृत तालाबों और बैराजों में तब्दील हो गये तो, जीव-जन्तुओं का संसार बच नहीं सकता है। हमारे पास जानकारी है कि उत्तराखण्ड की तमाम नदियों को बांधों के लिए सिरहाने से ही, ब्लास्टिंग से तोड़कर जलीय संसार का अस्तित्व तो समाप्त होगा ही, इसके साथ ही वन्य जीव भी नहीं बच पा रहें हैं। गांव के ‘‘सेलवानी का पानी’’ सुरंगों के निर्माण से सूखने लग गया है। उत्तराखण्ड में जलीय जीव-जन्तु विशेषकर मछलियों को बचाये रखने के लिये नदियों के तटों को बचाना होगा। इसके साथ ही पारम्परिक चाल-खाल, सेलवानी, झीलों व तालाबों का अध्ययन करके उसमें मछली पालन की संभावनाओं की जिम्मेदारी उन्हें देनी होगी, जिनकी आजीविका मछली पालन से चलती है। मछली के विकास के लिए एक नीति बननी चाहिये, जो भूमिहीनों की आजीविका चला सके, जो मछली पकड़ने व नदियों के अविरल बहाव की गारन्टी दे सकें।

मछली पालन के क्षेत्र एवं संभावनायें
उत्तराखण्ड में देखा जाय तो हर स्थान पर पानी ही पानी है, पर वह लोगों को दिखाई कम देता है। जहां पानी है, वहां जीवन एवं जीविका चलाना आसान हो जाता है। हर पनढाल की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्थानीय लोगों के सहयोग से हासिल करना चाहिये। इसके कारण ही जल इकत्रिकरण जलस्रोतों का पुनर्जीवीकरण जैसी व्यवस्था को गांव के निर्णय पर छोड़ने से वे अपने पारम्परिक ज्ञान का सही इश्तेमाल कर सकते हैं। हर पनढाल के जल को समेटने से जलीय जीव और जल में पैदा होने वाली हरियाली दोनों का क्रमिक विकास संभव है। अतः हम कह सकते हैं कि मछली पालन के लिये उपयुक्त वातावरण भी आज के जलवायु परिवर्तन के समय में पैदा करना चाहिये, उसके लिए निम्नतम सुझाव है -

नहरों का जल छोटे-छोटे पोखरों से होकर गुजारना - नहर सिंचाई का सबसे बड़ा साधन है। नदियों से निकलने वाली सिंचाई नहरों में मछलियां भी खेतों तक जाती है, जिससे उन्हें काफी नुकसान होता है। यदि नहर के पानी को बीच-बीच में पोखर बनाकर खेतों तक पहुंचाने की प्रव‘त्ति रखी जाय तो, इसमें मछलियों का विकास संभव है। यदि ऐसा किया जाय तो नहरों में पानी अविरल बहता रहेगा, इससे किसानों को दोहरा लाभ है। एक तो खेतों की सिंचाई होती रहेगी, दूसरा पोखरों में एकत्रित जल से मछली पालन हो सकता है। यह काम उन्हें खेतों के काश्तकारों की जिम्मेदारी में दिया जा सकता है, लेकिन इसके लिये नहरों की पुख्ता मरोम्मत पोखरों के चारों ओर सुरक्षा व्यवस्था के आदि का इंतजाम भी करना होगा।

चाल-खाल - उत्तराखण्ड के सभी पनढालों पर बहते पानी को गोल, चैकोर आदि आकारों में बांधकर इसके चारों ओर व‘क्षारोपण एवं क्रेटवाल बनाकर पूर्णतयः वानस्पितिक संरक्षण देकर मछली पालन किया जा सकता है।

नदी तटों एवं नदियों को बचाना - नदियों में मछली की विभिन्न प्रजातियां है, उसमें अविरल बहाव रहेगा तो मछलियां स्वयं ही बच सकती है, इसके लिये मानवीय हस्तक्षेप को जितना कम किया जा सकता है, उतना ही मछलियों का विकास संभव है। मछली मारने वाले लोगों को नदियों के किनारे साफ एवं स्वच्छ रखने के लिए प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है, उन्हें मछली मारने के अधिकार भी दिये जायें।

झील, ताल एवं तालाब - उत्तराखण्ड में असंख्य झील, ताल एवं तालाब हैं, वहां पर मछलियां भी दिखाई देती है। पर्यटकों का भी वहां आना-जाना है। लोग धार्मिक दृष्टि से इनको देखते हैं, लेकिन मछली पालन के लिये नदियों के बाद सबसे बड़ा स्रोत इन्हीं को माना जा सकता है। झीले अधिकांश घने जंगलों के बीच में विराजमान है जैसे- नचिकेता ताल, डोडीताल, मासर ताल, मंज्याड़ ताल आदि कई ताल हैं। इन तालाबों में मछली पालन को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय जनता से बातचीत करना पहली प्राथमिकात होंनी चाहिये।

जलस्रोत एवं धारा-पन्यारा - 80 प्रतिशत लोग आज भी पानी के लिए जलस्रोतों पर निर्भर है, जिसे धारा-पन्यारा के नाम से जाना जाता है। इन जलस्रोतों की एकीकृत विकास योजना बनाकर मछली पालन के काम को इसी से जोड़ कर किया जा सकता है।

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