1.1 पर्यावरणीय अध्ययन की बहुविषयी प्रकृति
पर्यावरण की प्रकृति निरंतर परिवर्तनशील रही है जिसके अंतर्गत वर्तमान में पर्यावरण का अध्ययन विज्ञान एवं समाज विज्ञानों की विभिन्न शाखाओं में किया जा रहा है। फलस्वरूप इसकी प्रकृति बहुविषयी हो गई है। प्रारम्भ में पर्यावरण का अध्ययन प्राकृतिक विज्ञानों में ही किया जाता था लेकिन पर्यावरण के घटकों के तीव्र गति से दोहन से पर्यावरण की सुरक्षा एवं पारिस्थितिक तंत्र के सन्तुलन को बनाये रखने के लिये इसके अध्ययन का क्षेत्र विस्तृत किया गया, ताकि प्राकृतिक विज्ञानों के साथ-साथ प्राकृतिक उपक्रमों एवं मानवीय क्रियाकलापों का अध्ययन समाज विज्ञानों में भी किया जा सके। इस दृष्टि से वर्तमान में समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास एवं साहित्य में भी पर्यावरण अध्ययन का समावेश किया गया है। इसके कारण पर्यावरण अध्ययन की प्रकृति बहुविषयी बन गई है। ये सभी विषय मिलकर पर्यावरण में मानव की भूमिका एवं इसके क्रियाकलापों को समझने में सहायता करते हैं।
विज्ञान एवं समाज विज्ञानों की विभिन्न शाखाओं में किये गये पर्यावरण के विशेष पक्षों के अध्ययन द्वारा इसकी स्पष्ट व्याख्या संभव हुई है। प्रारम्भ में विज्ञान विषय में केवल पर्यावरण की संगठनात्मक प्रकृति का अध्ययन किया जाता था जो विभिन्न शाखाओं के विषय क्षेत्र तक ही सीमित था। उदाहरणार्थ, वनस्पति विज्ञान में वनस्पति एवं जलवायु जल मृदा आदि पर्यावरणीय तत्वों के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता था। इस आधार पर विभिन्न जीवोमों का अध्ययन इसमें सम्मिलित किया गया। इस प्रकार प्राणीशास्त्र में विश्व के जीव-जन्तुओं की विविध जातियों के विकास, स्थानान्तरण एवं वर्तमान वितरण का अध्ययन किया जाता है। रसायनशास्त्र में रासायनिक विश्लेषणों तथा भौतिक शास्त्र में तापीय एवं रेडियोधर्मिता तकनीकी का अध्ययन किया जाता है।
समाज विज्ञानों में प्राकृतिक पर्यावरण के उपयोग में सांस्कृतिक शक्तियों की भूमिका के अध्ययन पर बल दिया जाता है। इसमें जनसंख्या का पर्यावरण से सम्बन्ध तथा इसका उपयोग प्रमुख है। पर्यावरण के विभिन्न पक्षों का अध्ययन विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है जो किसी विशेष विषय से संबद्ध रहते हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री बारबारा वार्ड ने स्पष्ट किया है कि पर्यावरणीय मुद्दों की बढ़ती संख्या के कारण उनके समाधान की पहचान करना मुश्किल रहा है। लेकिन वर्तमान में पर्यावरण की बढ़ती बहुविषयी प्रकृति में विभिन्न विषयों में स्थान पाया है जिसके फलस्वरूप पर्यावरण का अध्ययन इसके विभिन्न पक्षों के अनुसार विभिन्न प्राकृतिक एवं समाज विज्ञानों में किया जा रहा है।
प्रकृति में विद्यमान जैविक तथा अजैविक घटक मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। इनमें अजैविक या भौतिक घटकों की प्रभावकारी दशाओं में विभिन्न जीव समायोजन कर जीवन संचालित करते हैं। भौतिक घटकों में स्थल, वायु, जल, मृदा आदि महत्त्वपूर्ण है। ये जीवन मंडल के विभिन्न जीवों को आधार प्रदान करते हैं तथा उनके विकास हेतु अनुकूल दशायें उत्पन्न करते हैं। प्रसिद्ध विद्वान एण्ड्री गाउडी ने अपनी पुस्तक ‘पर्यावरण की प्रकृति’ में पृथ्वी के भौतिक घटकों, जैसे; भू-आकारों, जलीय भाग, जलवायु मृदा आदि को पर्यावरण के तत्वों के रूप में स्वीकार करके इनके साथ जैविक घटकों की प्रतिक्रिया के अध्ययन के रूप में भू-दृश्य एवं पारिस्थितिकी तंत्र के मध्य भी घनिष्ट सम्बन्ध बताया है।
उन्होंने बताया कि पर्यावरण के तत्वों का अध्ययन प्रारम्भिक समय में भौतिक भूगोल में किया जाता था, लेकिन नूतन वर्षों में तीव्रता से आये परिवर्तन के तहत इनका स्वतंत्र अस्तित्व उभरकर सामने आया है। भौतिक भूगोल को मानव भूगोल से समन्वित करने के लिये इसे प्रमुख कड़ी के रूप में विकसित किया गया, जिसके अन्तर्गत पर्यावरण के तत्वों, पर्यावरणीय समस्याओं तथा पर्यावरण पर मानवीय प्रभाव को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। किसी क्षेत्र या भू-दृश्य के विकास एवं प्रकृति को समझने के लिये पर्यावरण के तत्वों का अध्ययन आवश्यक है। ये तत्व या कारक पृथक न होकर परस्पर अन्तर्सम्बन्धित होने चाहिए।
मानव पर्यावरण का प्रमुख घटक है, जो अपने कार्यों द्वारा इसे परिवर्तित करता है तथा स्वयं भी प्रभावित होता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण सदैव परिवर्तनशील रहता है, जिसमें मानवीय एवं प्राकृतिक दोनों शक्तियों की भूमिका रहती है। यह निर्धारित करना कठिन है कि पर्यावरण में होने वाले कोई भी परिवर्तन पूर्ण रूप से प्राकृतिक कारकों का परिणाम है या मानवीय योगदान है। इस प्रकार पर्यावरण किसी स्वतंत्र कारक का प्रभाव न होकर विभिन्न कारकों (जैविक-अजैविक) का अन्तःक्रियात्मक प्रभावकारी योग है, जो स्वयं परिवर्तनशील रहते हुए प्रत्येक कारक को भी प्रभावित करता है। पर्यावरण के कारक विभिन्न शृंखलाओं पारिस्थितिकीय चक्रों तथा तंत्रों के द्वारा परस्पर एक-दूसरे से संयोजित रहते हुए सन्तुलन की दशा को बनाये रखते हैं।
पर्यावरण एक खुला तंत्र है, जो सदैव परिवर्तनशील रहता है। इसके विभिन्न अजैविक घटकों के मध्य जीवों का परस्पर सहवास होता है, क्योंकि पर्यावरण तथा जीव एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं। ये जीव पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति अनुकूलन कर लेते हैं। जीव अनुकूलन करके ही पर्यावरण से अनुक्रिया करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जीव मण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र इनमें प्रभावित होता है। पर्यावरण प्रकृति की विषय विकास के साथ परिवर्तित होती रही है। इसमें प्रारम्भ में केवल भौतिक संघटकों को ही सम्मिलित किया गया जिसका गाउडी ने पुरजोर समर्थन किया लेकिन बाद में जैविक संघटकों को भी सम्मिलित किया गया तथा इनमें मानव को केन्द्रीय स्थान दिया गया। आगे चलकर 20वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में पर्यावरण को जीवों का पारिस्थितिकीय अध्ययन माना जाने लगा, इनमें टांसले महोदय का प्रमुख स्थान है। इन्होंने पर्यावरण के जैविक घटकों (पादप एवं जीव जन्तुओं) तथा इनके भौतिक परिवेश अथवा आवास के मध्य परस्पर अन्त: क्रिया को स्पष्ट किया तथा इस व्यवस्था को पारिस्थितिकी तंत्र शब्द दिया।
1.2 पर्यावरण की परिभाषा
पर्यावरण से अभिप्राय एक ऐसी प्रवृत्ति से है जो जन्तु तथा वनस्पति समुदाय को प्रभावित करती है, इस प्रवृत्ति में भौतिक तत्वों की प्रधानता होती है। पर्यावरण अंग्रेजी शब्द का भाषान्तर पुनरुक्ति है जो दो शब्दों Environ तथा ment के सामंजस्य से उत्पन्न हुआ है, जिनका अर्थ क्रमशः Encircle अर्थात आस-पास से घिरे हुये। कतिपय पारिस्थितिक वैज्ञानिकों ने पर्यावरण के लिये Environment शब्द के स्थान पर Habitat या Milieu शब्द का प्रयोग किया है जिसका अभिप्राय समस्त प्रवृत्ति से है। ए.एन. स्ट्रेहलर (1976) के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व जीव जंतुओं तथा पादप समुदाय के साथ संभव माना है। पार्क के अनुसार उन दशाओं का योग कहलाता है जो मानव को निश्चित समयावधि में नियत स्थान पर आवृत करती है। जर्मन के वैज्ञानिक फिटिंग के अनुसार “पर्यावरण जीवों के परिवृत्तीय कारकों का योग है। इसमें जीवन की परिस्थितियों के सम्पूर्ण तथ्य आपसी सामंजस्य से वातावरण बनाते हैं”।
टांसले नामक प्रसिद्ध पादप परिस्थितिविद ने बताया है कि प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग पर्यावरण कहलाता है, जिसमें जीव जन्तु रहते हैं। पर्यावरण भौतिक तथा जैविक परिस्थितियों का सम्मिलित आवरण है जो सम्पूर्ण जीवन मण्डल को घेरे हुये है तथा जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों की उत्पत्ति तथा वृद्धि को सीमित करता है। विश्व शब्दकोष में पर्यावरण की परिभाषा निम्न रूप से दी है-
पर्यावरण उन सभी दशाओं तथा प्रभावों का योग है जो जीवों व उनकी प्रजातियों के विकास, जीवन एवं मृत्यु को प्रभावित करता है।
डॉ. डेविस ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “मनुष्य के सम्बन्ध में पर्यावरण से अभिप्राय भू-तल पर मानव के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक स्वरूपों से है। जिनसे वह निरन्तर प्रभावित होता रहता है”।
डडले स्टाम्प के अनुसार, पर्यावरण प्रभावों का ऐसा योग है जो किसी जीव के विकास एवं प्रकृति को परिवर्तित तथा निर्धारित करता है।
हर्सकोविट्स के अनुसार, पर्यावरण उन सभी बाह्य दशाओं और प्रभावों का योग है, जो पृथ्वी तल पर जीवों के विकास-चक्र को प्रभावित करते हैं।
अतः पर्यावरण भौतिक एवं जैविक संकल्पना है जिसमें पृथ्वी के अजैविक तथा जैविक संघटकों को समाहित किया जाता है। अजैविक दशाएं जलमण्डल, स्थलमण्डल तथा वायुमण्डल में परिदर्शित होती है-
1.3. पर्यावरण का विषय क्षेत्र
वर्तमान में पर्यावरण अध्ययन का क्षेत्र व्यापक हो गया है जिसमें जीव मण्डलीय वृहद पारिस्थितिक तंत्र के तीनों परिमण्डलों; स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं वायुमण्डल के संघटन एवं संरचना का अध्ययन सम्मिलित है।
इससे स्पष्ट होता है कि पर्यावरण में स्थल, जल, वायु एवं जीवन मण्डल के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है जिसमें सम्पूर्ण मानवीय क्रियाओं का निर्धारण होता है। इस प्रकार पर्यावरण भौतिक तत्वों का ऐसा समूह है जिसमें विशिष्ट भौतिक शक्तियां कार्य करती है एवं इनके प्रभाव दृश्य एवं अदृश्य रूप से परिलक्षित होते हैं।
पर्यावरण अध्ययन की विषय वस्तु में पर्यावरण में पारिस्थितिकी के विविध घटकों, इनके पारिस्थितिकीय प्रभावों, मानव पर्यावरण अन्तर्सम्बन्धों आदि का अन्तर सम्मिलित किया जाता है। साथ ही इसमें पर्यावरणीय अवनयन, प्रदूषण, जनसंख्या, नगरीकरण औद्योगिकीकरण तथा इनके पर्यावरण पर प्रभावों तथा संसाधन उपयोग एवं पर्यावरण संकट, पर्यावरण संरक्षण एवं प्रबंधन के विभिन्न पक्षों का भी अध्ययन किया जाता है।
20वीं सदी के अन्तिम दशकों में पर्यावरण की प्रकृति में पर्यावरण के भौतिक एवं जैविक घटकों को सम्मिलित रूप से अध्ययन किया जाने लगा तथा इनकी प्रभावकारी दशाओं का पारिस्थितिकीय विश्लेषण भी आरम्भ हुआ। वर्तमान में पर्यावरण की प्रकृति परिवर्तित स्वरूप में अग्रसर हो रही है तथा इसमें निम्नलिखित तथ्यों के अध्ययन को समावेशित किया जा सकता है-
(1) पारिस्थितिक प्रणाली - इसमें मानव एवं पर्यावरण के पारस्परिक प्रभावों के अध्ययन के साथ ही मानव द्वारा अपनाये अनुकूलन तथा रूपान्तरण का भी अध्ययन किया जाता है।
(2) पारिस्थितिकीय विश्लेषण - इसमें किसी भौगोलिक प्रदेश के पर्यावरण के तत्वों और मनुष्य के मध्य जैविक एवं आर्थिक सम्बन्धों के समाकलित अध्ययन का मूल्यांकन किया जाता है।
(3) स्थानिक प्रणाली - एक प्रदेश का पर्यावरण दूसरे प्रदेश के भूगोल से प्रभावित होता है तथा उसे प्रभावित करता है। क्योंकि विभिन्न परस्पर स्थानिक सम्बन्ध रखते हैं।
(4) स्थानिक विश्लेषण - स्थानिक विश्लेषण के द्वारा किसी भौगोलिक प्रदेश के पर्यावरण की अवस्थितिय भिन्नताओं को समझा जा सकता है।
(5) प्रादेशिक समिश्र विश्लेषण - इसके द्वारा किसी पर्यावरण की क्षेत्रीय भिन्नताओं की प्रादेशिक इकाइयों में पारिस्थितिक विश्लेषण और स्थानिक विश्लेषण दोनों का समिश्र अध्ययन होता है।
(6) जैव मण्डल का अध्ययन - वर्तमान समय में जैव मण्डलीय वृहद पारिस्थितिक तंत्र का पर्यावरण के अभिन्न घटक समूह के रूप में अध्ययन किया जाता है।
(7) प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन - ज्वालामुखी, भूकम्प, बाढ़, सूखा, चक्रवातीय तूफान आदि को पर्यावरणीय अध्ययन में महत्व मिला है।
(8) पर्यावरण में मानवकृत परिवर्तनों की भविष्यवाणी के लिये वैज्ञानिक (भौगोलिक) विकास को भी महत्व मिला है।
1.4 पर्यावरण के घटक
पर्यावरण में जीवों का अस्तित्व कायम रहता है, यह पर्यावरण अनेक तत्वों से मिलकर बना है, इन कारकों का प्रभाव जीवधारियों पर परिलक्षित होता है। पर्यावरणीय कारकों के प्रभाव परिणामस्वरूप जीवधारियों में प्रयुक्त क्रिया-कलापों के कई अनुकूलन उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे वे जीव जीवित रह पाते हैं। पर्यावरण को अनेक कारकों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरणार्थ - मिट्टी, जल, वायु, जलवायु के तत्व आदि। अतः मनुष्य को प्रभावित करने वाले बाह्यीय बलों या परिस्थिति को पर्यावरण के कारक कहते हैं। दूसरे शब्दों में पर्यावरण का प्रत्येक भाग या अंग जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीव-जन्तुओं कि जीवनकाल को प्रभावित करता है, उसे कारक कहते हैं।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद डौबेनमिर ने पर्यावरण के सात तत्व-जल, मिट्टी, वायु, ताप, प्रकाश, अग्नि तथा जैविक तत्व आदि बताये हैं।
प्रसिद्ध वनस्पतिवेता ओस्टिंग ने पर्यावरण के निम्न घटक वर्णित किये हैं-
(1) पदार्थ या तत्व - मृदा एवं जल।
(2) दशायें - तापक्रम एवं प्रकाश।
(3) बल - वायु एवं गुरुत्व।
(4) जीव जगत - वनस्पति एवं जीव-जन्तु।
(5) समय
कुछ भूगोलवेत्ताओं ने जीवन के आधार पर मुख्यतया दो प्रकार जैविक तथा अजैविक तत्व बताये हैं- जैविक तत्वों में पादप, जीव-जन्तु तथा मानव को एवं अजैविक तत्वों में जल, वायु मृदा, ताप, धरातल आदि को सम्मिलित किया है। जबकि सामान्य रूप से अधिकांश भूगोलवेत्ताओं द्वारा निम्नलिखित घटकों को सम्मिलित किया गया है-
(1) अवस्थिति
(क) ज्यामितिय अवस्थिति।
(ख) सामुद्रिक एवं स्थलीय अवस्थिति।
(ग) निकटवर्ती देशों के संदर्भ में अवस्थिति।
(2) उच्चावच
(3) जलवायु
(4) प्राकृतिक वनस्पति
(5) जैविक कारक
(क) मानव
(ख) अन्य जीव-जन्तु
(6) मृदा कारक
(7) जल राशिया
1.4.1 अवस्थिति
अवस्थिति एक ऐसा महत्त्वपूर्ण कारक है जिसका पर्यावरण के अंग के रूप में भौगोलिक अध्ययन किया जाता है। अवस्थिति स्थित होती है, परन्तु समय के साथ उसकी सापेक्षिक महत्ता परिवर्तित होती रहती है। अवस्थिति का महत्त्व स्पष्ट करते हुये हटिंगटन महोदय ने बताया कि, “ग्लोब-आकृति की गतिशील पृथ्वी पर अवस्थिति भूगोल को समझने के लिये कुंजी है। भूगोलशास्त्र में अवस्थिति को अग्र तीन रूपों में वर्णित किया गया है-
(क) ज्यामितिय अवस्थिति
(ख) सामुद्रिक एवं स्थलीय स्थिति
(ग) निकटवर्ती देशों के संदर्भ में स्थिति
(क) ज्यामितिय अवस्थिति - यह किसी भौगोलिक प्रदेश की अक्षांश व देशान्तरीय स्थिति होती है जिसके द्वारा उक्त प्रदेश की भू-संदर्भ में जानकारी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिये, भारत के राजस्थान राज्य की भू-सन्दर्भ स्थिति 23डिग्री 3’ से 30डिग्री 12’ उत्तरी अक्षांश व 69डिग्री 30’ से 78डिग्री 17’ पूर्वी देशान्तरों के मध्य है। इसी प्रकार भारत की भू-सन्दर्भ स्थिति 8डिग्री 4’ से 37डिग्री 6’ उत्तरी अक्षांश तथा 68’ से 97डिग्री 2’ पूर्वी देशान्तर के मध्य है। ग्रीक विद्वानों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्यामितिय आधार पर तीन प्रमुख ताप कटिबन्धों में विभाजित किया है जो क्रमश उष्ण कटिबन्ध 23डिग्री 3डिग्री उत्तरी से 23डिग्री 3डिग्री दक्षिणी अक्षांश, उपोष्ण कटिबन्ध 23डिग्री 30’ उत्तरी से 66डिग्री 30 व 23डिग्री 30’ द. से 66डिग्री 30’ दक्षिण अक्षांश व शीत कटिबन्ध 66डिग्री 30’ से 90डिग्री’ उत्तरी व 66डिग्री 30’ से 90डिग्री’ दक्षिणी अक्षांशों के मध्य विस्तृत है।
उपरोक्त अवस्थिति कारक का प्रत्यक्ष प्रभाव मृदा, कृषि तथा वनस्पति संसाधन पर परिलक्षित होता है। ज्यामितिय अवस्थिति का मानव पर प्रभाव के बारे में प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता बोदिन ने कहा है कि उत्तरी क्षेत्रों के मनुष्य शारीरिक शक्ति सम्पन्न एवं दक्षिणी क्षेत्रों के तकनीकी ज्ञान में एवं उच्च व्यवसायी है, जबकि मध्यवर्ती क्षेत्रों के मनुष्य राजनीति के नियंत्रण में श्रेष्ठ माने गये हैं मैं स्थिति प्रमुखतया जलवायु को नियंत्रित कर मानव द्वारा सम्पादित आर्थिक क्रियाकलापों को प्रभावित करती है।
(ख) सामुद्रिक एवं स्थलीय स्थिति - समुद्र से घिरे हुए तथा समुद्र के सहारे स्थित भौगोलिक प्रदेशों में सामुद्रिक स्थिति का प्रभाव पड़ता है, जबकि महाद्वीपीय स्थिति में प्रदेश विशेष का समुद्र से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। सामुद्रिक स्थिति को चार भागों में वर्गीकृत किया गया है जो क्रमशः निम्न है। एक सागरीय स्थिति (रूमानिया, बुल्गारिया, ईरान, पाकिस्तान बांग्लादेश आदि), द्विसागरीय स्थिति (इटली, भारत, चिली, स्पेन, ग्रीस आदि), तीन सागरीय स्थिति (कनाडा, फ्रांस, टर्की) तथा बहुसागरीय या द्वीपीय स्थिति (ग्रेट ब्रिटेन, जापान) आदि हैं।
महाद्विपीय स्थिति में समुद्र से ‘किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता है। इसमें राज्य स्थल आवृत्त होते हैं जिसे आन्तरिक स्थिति कहते हैं। महाद्वीपीय स्थिति में समुद्री भागों का समकारी लाभ न मिलने से कई आर्थिक क्रियाएँ अधूरी रहती हैं तथा स्थलीय सुविधाओं तक ही सीमित हो जाता है। इस श्रेणी में नेपाल, भूटान, पेराग्वे, स्विट्जरलैण्ड आदि देश प्रमुख हैं।
सामुद्रिक स्थिति - किसी भी देश की स्थिति वहाँ के पर्यावरण को सीमांकित करती है। जिन देशों की स्थिति समुद्र के सहारे होती है, उनमें समुद्री संसार पर आधारित व्यवसाय अधिक विकसित होते हैं। सामुद्रिक स्थिति निम्न प्रकार की होती है-
(अ) द्वीपीय स्थिति - कोई भी भू-भाग यदि चारों ओर से पानी से घिरा हुआ हो तो द्वीपीय स्थिति कहलाती है। द्वीपीय स्थिति आर्थिक दृष्टि से इसलिये लाभदायक होती है क्योंकि व्यापारिक भागों के लिये सुगमता रहती है। जापान, न्यूजीलैण्ड, ग्रेटब्रिटेन, हवाई द्वीप, श्रीलंका, सिसली तथा इण्डोनेशिया आदि की स्थिति द्वीपीय है।
(ब) तटीय स्थिति - यदि किसी देश की सीमा समुद्र को छूती है तो उसे तटवर्ती स्थिति कहते हैं। फ्रांस, भारत, नार्वे, स्वीडन तथा भूमध्य सागरीय देश तटवर्ती स्थिति वाले देश हैं। तटवर्ती स्थिति वाले देशों को सामुद्रिक संसाधनों की प्राप्ति के साथ-साथ व्यापारिक मार्गों का भी लाभ मिलता है। यदि कोई देश विकसित राष्ट्रों के मध्य समुद्र में स्थित है तो वह निश्चय ही व्यापारिक प्रगति की ओर अग्रसर होगा। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका तथा यूरोपीय देशों के मध्य तथा जापान का एशिया तथा उत्तरी अमरीका के मध्य द्वीपीय स्थिति होने के कारण ही व्यापार में उन्नति कर रहे हैं।
(स) प्रायद्वीपीय स्थिति - यदि कोई देश तीन ओर से समुद्र से घिरा हो तो उस स्थिति को प्रायद्वीपीय स्थिति कहते हैं। भारत, सऊदी अरब, दक्षिणी अफ्रीका स्पेन, इटली आदि देशों की स्थिति प्रायद्वीपीय हैं। प्रायद्वीपीय स्थिति वाले राष्ट्रों के लिये स्थलीय मार्गों के साथ-साथ जलीय मार्गों की सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण आर्थिक विकास में वृद्धि होती है। प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण भौगोलिक दृष्टि से भी महत्व बढ़ जाता है। तटीय भागों पर कई व्यवसाय विकसित हो जाते हैं।
(द) महाद्वीपीय स्थिति - सामुद्रिक प्रभाव से दूर स्थलीय भाग वाले देशों की स्थिति महाद्वीपीय होती है। यहाँ सामुद्रिक दशाएँ न होकर कठोर भौगोलिक वातावरण होता है जिसे किसी भी प्रदेश के विकास हेतु प्रतिकूल कहा जा सकता है। नेपाल, भूटान, बोलीविया, चाड़, नाइजर, जाम्बिया, अफगानिस्तान आदि महाद्वीपीय स्थिति वाले देश है। महाद्वीपीय स्थिति वाले देश है। महाद्वीपीय स्थिति में विदेश व्यापार को भी गति नहीं मिल पाती है।
(ई) व्यापारिक मार्गों पर स्थिति - जो देश अन्तरराष्ट्रीय व्यापारिक मार्गों पर स्थित होते हैं वे तीव्र आर्थिक विकास करते हैं। सिंगापुर के व्यापारिक मार्गों पर स्थित होने से विकास को गति मिली है। दक्षिणी अफ्रीका पूर्व में सिंगापुर के समान स्थिति में था लेकिन स्वेज नहर (1869) बनने से इसका महत्व घट गया है।
(ग) समीपवर्ती देशों के सन्दर्भ में स्थिति - समीपवर्ती देशों के सन्दर्भ में स्थिति को परिभाषित करते हुए वल्केनवर्ग ने लिखा है कि ‘राज्य के समीप स्थित देशों की संख्या एवं प्रकार क्या है?’ इसका प्रभाव राज्य के विकास पर पड़ता है।
1.4.2 उच्चावच
पृथ्वी पर धरातलीय आकृतियाँ पर्यावरण के प्रभाव की सीमा निर्धारित करती हैं, मुख्य रूप से धरातलीय आकृतियों का प्रभाव जलवायु पर दृष्टिगत होता है तथा जलवायुवीय दशाओं के आधार पर ही भौतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की प्रकृति निश्चित होती है। धरातलीय आकृतियों को मुख्य रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पर्वत पठार तथा मैदान।
पृथ्वी के धरातल का 26 प्रतिशत भाग पर्वत, 33 प्रतिशत भाग पठार तथा 41 प्रतिशत भाग मैदानी है। जबकि भारत का 293 प्रतिशत भाग पर्वतीय 27.77 प्रतिशत भाग पठारी तथा 43 प्रतिशत मैदानी है। पर्वतीय भाग असम होते हैं तथा जलवायु भी कठोर होती है। यहाँ प्रत्येक आर्थिक क्रिया सुगमतापूर्वक सम्पादित नहीं हो सकती है, यहाँ पर पारिस्थितिकीय सन्तुलन अच्छा पाया जाता है। पर्वतों पर घुमक्कड़ पशुचारण, एकत्रीकरण, शिकार तथा स्थानान्तरित कृषि मुख्य व्यवसाय है।
पठारी भाग धरातल के मुख्य भू-आकार हैं। इनके द्वारा पृथ्वी का एक विशाल भाग आवृत्त है। यह क्षेत्र धरातल से एकदम ऊँचा उठा हुआ समतल सतह वाला भाग होता है, जहाँ चोटियों का अभाव पाया जाता है। पठार क्षेत्र भी मानव जीवन के लिये कठोर परिस्थितियाँ प्रदान करता है। मैदानी भाग मानव जीवन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। विदित है कि विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ मैदानों में ही विकसित हुई हैं। मैदानी क्षेत्रों में आर्थिक व्यवसायों के लिये भी अनुकूल दशायें उपलब्ध हैं। विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ सिंधु गंगा, मिस्र में नील नदी, इराक में मेसोपोटामिया, नीचे हांगों, मेक्सिको में माया तथा पेरू में इकां आदि विकसित हुई हैं।
उच्चावच का प्रत्यक्ष प्रभाव जलवायु पर पड़ता है। जलवायु के तत्व क्रमश: तापमान, वर्षा, आर्द्रता तथा पवन आदि उच्चावच से नियंत्रित रहते हैं। ऊँचाई पर प्रति 1000 मीटर पर 65डिग्रीC तापमान का ह्रास होता है, उसी प्रकार गहरी घाटियों में तापीय विलोमता भी प्रभावित होती हैं। पर्वतीय धरातल के कारण किसी देश की जलवायु केवल ठण्डी होती है वरन वर्षा भी अधिक करती है, क्योंकि उष्णार्द्र हवायें पर्वतों को पार करने के कारण वर्षा करती हैं। ऐसा माना जाता है कि भारत में हिमालय पर्वत न होता तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत सहारा तुल्य मरुस्थलीय परिस्थितियों से युक्त रहता।
पर्वतीय स्थिति के कारण कोलम्बिया नदी घाटी का पश्चिमी भाग हरा-भरा है जबकि पूर्वी भाग में वनस्पति का अभाव पाया जाता है। हिमालय पर्वत की उपस्थिति के कारण भारत में साइबेरिया से आने वाली ठण्डी हवाएँ प्रवेश नहीं कर पाती हैं। ग्रीष्मकाल में पर्वतीय क्षेत्रों की ठण्डी जलवायु स्वास्थ्यवर्धक रहती है। स्विट्जरलैण्ड, कश्मीर, मसूरी, शिमला आदि क्षेत्र इसी कारण आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। पर्वत मानवीय प्रवास को भी अवरुद्ध करते हैं।
पठार भी आर्थिक क्रियाओं कि लिये उपयोगी नहीं माने गये हैं। ये क्षेत्र शुष्क अथवा अर्धशुष्क क्षेत्र होते हैं। पठार सामान्यतया कृषि के अनुकूल नहीं होते हैं। केवल ज्वालामुखी उद्गार से निर्मित धरातल वाले पठार ही कृषि के लिये अनुकूल दशाएँ प्रदान करते हैं। उष्ण कटिबंधियों पठारों पर अर्द्ध-उष्ण, शीतोष्ण और अर्द्धशीतोषण जलवायु पायी जाती है। अतः यहाँ मानव निवास की दशाएँ अनुकूल होती है। बोलीवीया एवं मेक्सिको में 75 प्रतिशत जनसंख्या पठारों पर रहती है।
1.4.3 जलवायु
जलवायु पर्यावरण को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कारक है, क्योंकि जलवायु से प्राकृतिक वनस्पति, मिट्टी, जलराशि तथा जीव जन्तु प्रभावित होते हैं। कुमारी सैम्पल ने कहा है कि ‘पर्यावरण के सभी भौगोलिक कारकों में जलवायु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक है सभ्यता के आरम्भ और उद्भव में जहाँ तक आर्थिक विकास का सम्बन्ध रहता है, जलवायु एक वृहत शक्तिशाली तत्व है।’ जलवायु मानव की मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती है। प्रो. एल्सवर्थ हंटिंग्टन के अनुसार, “मानव पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में जलवायु सर्वाधिक प्रभावशील है क्योंकि यह पर्यावरण के अन्य कारकों को भी नियंत्रित करता है।’ पृथ्वी पर मानव चाहे स्थल पर या समुद्र पर, मैदान में या पर्वत पर, वनों में या मरुस्थल में कहीं पर भी रहे व अपने आर्थिक कार्य करे उसे जलवायु प्रभावित करती है।
जलवायु के पाँचों तत्व क्रमशः वायुमण्डलीय तापमान एवं सूर्यातप वायुभार, पवनें, आर्द्रता तथा वर्षा आदि मानव को प्रभावित करते हैं। तापमान जलवायु के महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में वनस्पति को सर्वाधिक प्रभावित करता है। अनेक वनस्पति क्रियायें, जैसे-प्रकाश संश्लेषण, हरितलवक बनना, वसन तथा गर्मी प्राप्त कर अंकुरण आदि प्रभावित होती है।
वनस्पति की प्रकृति एवं वितरण भी तापमान से प्रभावित होता है। विषुवत रेखीय प्रदेशों में उच्च तापमान एवं अति वर्षा के कारण सघन वन पाये जाते हैं, जबकि मध्य अक्षांशों में पतझड़ तथा शीत प्रदेशों में कोणधारी वन पाये जाते हैं। जलवायु कृषि पेटियों को भी निर्धारित करती है। उष्ण कटिबन्धीय तथा मानसूनी प्रदेशों में चावल की कृषि होती है, जबकि शीतोष्ण घास के प्रदेशों में गेहूँ की कृषि होती है। मरुस्थलीय मरुद्यानों में खजूर एवं छुआरों की कृषि की जाती है।
पृथ्वी पर जनसंख्या वितरण भी जलवायु के कारकों द्वारा प्रभावित होता है। पृथ्वी के समस्त क्षेत्र के 30 प्रतिशत भाग पर संसार की सम्पूर्ण जनसंख्या निवास करती है। 70 प्रतिशत स्थलीय भाग जलवायु की दृष्टि से जनसंख्या निवास के अनुकूल नहीं है जिसका विवरण निम्न है-
(1) शुष्क मरुस्थल - 20 प्रतिशत
(2) पर्वतीय क्षेत्र - 20 प्रतिशत
(3) हिमाच्छादित ठण्डे क्षेत्र - 20 प्रतिशत
(4) अति उष्ण-आर्द्र क्षेत्र - 10 प्रतिशत
जलवायु के कारक पारिस्थितिक तंत्र को भी नियंत्रित रखते हैं। जल चक्र के रूप में वर्षा तथा वाष्पीकरण, जल का संचरण रखते हैं। वर्षा की मात्रा के अनुसार ही वनस्पति एवं अन्य जैव विविधता क्रियाशील रहती है, अतः जलवायु एक महत्त्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में पर्यावरण को प्रभावित करती है।
1.4.4 प्राकृतिक वनस्पति
प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय भौगोलिक दशाओं में स्वतः विकसित होने वाले वनस्पति से है, जिसमें पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, घास तथा लताएँ आदि सम्मिलित है। वनस्पति जात से अभिप्राय किसी विशिष्ट प्रदेश एवं काल में पाये जाने वाले समस्त जातियों के पेड़-पौधों तथा झाड़ियों के समूह से है। जैसे भारत पुराउष्ण कटिबन्धीय समूह में रखा गया है। वनस्पति से आशय पेड़-पौधों, घास या झाड़ियों के विशिष्ट जाति समूह से है, जबकि वन उस वर्ग को कहते हैं जिसमें वृक्षों की प्रधानता हो।
प्राकृतिक वनस्पति जलवायु उच्चावच तथा मुद्रा के सामंजस्य से पारिस्थितिकीय अनुक्रम के अनुसार अस्तित्व में आती है। प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में पारिस्थितिक तंत्र को सर्वाधिक प्रभावित करती है, जिसे जलवायु सर्वाधिक नियंत्रित करती है। अन्य कारकों में जलापूर्ति, प्रकाश, पवन तथा मुद्राएँ प्रमुख हैं, जो प्राकृतिक वनस्पति के विकास को प्रभावित करते हैं। वनस्पति के कुछ प्रमुख समुदाय होते हैं, जिन्हें पादप साहचर्य कहते हैं। प्राकृतिक वनस्पति के चार प्रमुख वर्ग माने गये हैं- (1) वन (2) घास प्रदेश (3) मरुस्थलीय झाड़ियाँ तथा (4) टुण्ड्रा वनस्पति।
वनों में उष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन, उष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती के पर्णपाती वन, शीतोष्ण चौड़ी पत्ती के पर्णपाती वन, शीतोष्ण मिश्रित वन तथा शीतोष्ण शंकुधारी वन प्रमुख हैं। घास के मैदानों में उष्ण कटिबन्धीय एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय घास प्रदेश प्रमुख है। उष्ण कटिबन्धीय घास प्रदेशों में सूडान के सवाना प्रदेश है, जो सवाना जलवायु के घास क्षेत्र हैं, जिनका विस्तार सूडान, वेनेजुएला जाम्बेजी नदी बेसिन तथा ब्राजील एवं ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भाग तक है। अफ्रीका एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया में इन घास प्रदेशों को स्थानीय नामों से जाना जाता है।
सूडान में सवाना, नाइजीरिया में कानों, जिम्बाब्वे में सेलिसबरी अमेजन नदी के उत्तर में ओरिनिको नदी बेसिन में लानोज अमेजन के दक्षिण में ब्राजील में कम्पाज तथा दक्षिण अफ्रीका में पार्कलैण्ड आदि प्रमुख घास क्षेत्र है। शीतोष्ण घास प्रदेशों में मध्य यूरेशिया में स्टेपी, उत्तरी अमरीका में प्रेरी, दक्षिणी अमरीका में पम्पास, ऑस्ट्रेलिया में डाऊन्स न्यूजीलैण्ड में केन्टरबरी तथा दक्षिणी अफ्रीका में वेल्ड प्रमुख है।
मरुस्थलीय क्षेत्रों में जहाँ वार्षिक वर्षा 30 सेमी से कम होती है, वहाँ काँटेदार वृक्ष तथा झाड़ियाँ मरुस्थलीय वनस्पति के रूप में विकसित होते हैं। टुण्ड्रा प्रदेशों में सर्वत्र बर्फ आच्छादित रहती है। केवल लघु ग्रीष्मकाल में माँस, शैवाल काई तथा नरकुल विकसित होती है।
पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में प्राकृतिक वनस्पति का विकास होता है लेकिन प्रगतिशील मानव निरन्तर उसे अवकृमित करने में प्रयासरत रहता है। मनुष्य अपनी परिवर्तनकारी क्रिया में आवश्यकता से अधिक आगे बढ़ता जा रहा है। वनस्पति को जलवायु का नियंत्रक माना जाता है। यह तापमान को नियंत्रित रखती है तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता को संतुलित रखने का कार्य करती है। पेड़-पौधों विभिन्न स्रोतों से सृजित कार्बन-डाई-आॅक्साइड को अवशोषित कर वातावरण को शुद्ध रखने में सहायता करते हैं। वनस्पति आवरण रेंगती हुई मृत्यु के रूप में प्रसिद्ध मरुस्थलीयकरण की प्रक्रिया को भी नियंत्रित करता है। वनों की जड़ें मृदा को जकड़कर रखती हैं जिससे मृदा अपरदन नियंत्रित होता है। प्राकृतिक वनस्पति जैव-विविधता के रूप में वन्य जीवन का भी आश्रय स्थल बनते हैं अतः प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में मानवीय विकास के लिये आवश्यक माने गये हैं।
1.4.5 जैविक कारक
विभिन्न जीव-जन्तु और पशु, मनुष्य के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करते हैं, जन्तुओं में गतिशीलता की दृष्टि से वनस्पति से श्रेष्ठता होती है। वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्राकृतिक वातावरण से अनुकूलन कर लेते हैं। जीव जंतुओं में स्थानान्तरणशीलता का गुण होने के कारण वे अपने अनुकूल दशाओं वाले पर्यावरण में प्रवास भी कर जाते हैं। फिर भी इन पर पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगत होता है। समान दशाओं वाले वातारण के प्रदेशों में जन्तुओं में भिन्नता मिलती है। मरुस्थलीय वातावरण के जन्तुओं में भिन्नता मिलती है, उदाहरणार्थ थार एवं अरब के ऊँटों में भिन्नता मिलती है।
जन्तुओं के सामान्य वर्ग पर्यावरणीय लक्षणों के अनुसार ही विकसित होते हैं। जैसे घास के मैदानों में चरने वाले पशु रहते हैं, जबकि वनों में मुख्य रूप से पेड़-पौधों की टहनियाँ खाने वाले पशु रहते हैं। पृथ्वी पर जीव जंतुओं का वितरण वनस्पति की प्रभावशीलता के अनुसार है, जिसे जलवायु, मृदा उच्चावच आदि तत्व नियंत्रित करते हैं। पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की जलवायु दशाओं एवं वनस्पति जगत के प्रकार के अनुसार चार प्रदेशों के जन्तु पाये जाते हैं-
(1) वनों के जन्तु - उष्ण कटिबन्धीय वर्षा प्रचुर सघन वनों में वृक्षों पर रहने वाले जन्तु इस वर्ग में सम्मिलित हैं। यहाँ वानर, छिपकली, पक्षी, विभिन्न प्रकार के सर्प तथा कीट-पतंगे प्रमुख हैं। कांगो, अमेजन जैसी नदियों घड़ियाल, मगरमच्छ आदि जलचर रहते हैं। मानसूनी तथा उपोष्ण कटिबंधीय वनों में हाथी, गैंडा, जिराफ, हिरन, भैंसा, भेड़िया, सियार तथा आदि थलचर पाये जाते हैं।
(2) घासभूमि के जन्तु - उष्ण तथा शीतोष्ण घास प्रदेशों में चरने वाले हिरन, जंगली चौपाये नीलगाय, जंगली भैंसा, स्प्रिंग वांक आदि शाकाहारी जीव प्रमुख हैं। इनका भक्षण करने वाले मांसाहारी जीवों में तेंदुआ, चीता, शेर प्रमुख हैं।
(3) मरुस्थलों के जन्तु - मरुस्थलों में मरुदभिद वनस्पति मिलती है जिसमें काँटेदार झाड़ियाँ, बबूल, नागफनी वर्ग के पौधे मुख्य हैं। यहाँ खरगोश, लोमड़ी, छिपकली, सर्प आदि जंगली तथा गधे, घोड़े, भेड़, बकरी आदि पालतू जानवर मिलते हैं।
(4) टुण्ड्रा के जन्तु - शीत दशाओं वाले इस क्षेत्र में मस्क, कैरिबू हिरण, खरगोश, ध्रुवीय भालू, कुत्ते, रेंडियर आदि मिलते हैं।
1.4.6 मृदा कारक
मृदा धरातलीय सतह का ऊपरी आवरण है जो कुछ सेंटीमीटर से लेकर एक दो मीटर तक गहरी होती है। मृदा की रचना मूल पदार्थ में परिवर्तनों के परिणामस्वरूप होती है, जो विभिन्न प्रकार की जलवायु में जैविक कारकों के सम्पर्क से एक निश्चित अवधि में निर्मित होती है। मृदा निर्माण में उच्चावच तथा ढाल की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मृदा में वनस्पति एवं जीव-जंतुओं के अवशेष मिलते रहते हैं, जिसे जैव तत्व कहते हैं। जैव तत्व के कारण मृदा का रंग काला होता है। मानव अपनी क्रियाओं द्वारा मृदा को निरंतर प्रभावित करता रहता है।
पृथ्वी पर शाकाहारी एवं मांसाहारी, जीव-जन्तु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मृदा निर्भर रहते हैं, शाकाहारी अपना भोजन कृषि द्वारा तथा मांसाहारी शाकाहारियों से प्राप्त करते हैं। अतः मानवीय उपयोग को दृष्टि से मृदा आवरण किसी देश की मूल्यवान प्राकृतिक सम्पदा होती है। सामान्यतः उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में मानव सभ्यता अनुर्वर क्षेत्रों की अपेक्षा उच्च रहती है। भारत में उत्तरी गंगा, ब्रह्मपुत्र का मैदान इसी दृष्टि से थार के रेगिस्तान से भिन्न है। पृथ्वी पर प्राचीन सभ्यताएँ भी उर्वर मृदा क्षेत्रों में ही पनपी हैं।
भूमध्यसागरीय जलवायु में लाल भूरी मृदाओं के प्रदेशों में रोमन साम्राज्य स्थापित हुआ। मृदा के भौगोलिक पक्ष के अनुसार यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती है। पौधे आवश्यक जल तथा पोषक तत्व मृदा से प्राप्त करते हैं। क्षारीय तथा अम्लीय मृदा पौधों की वृद्धि में बाधक होती है। वर्तमान समय में मृदा की प्रमुख समस्या मृदाक्षरण है जो तीव्र वन विनाश के कारण उत्पन्न हुई है। पर्यावरण के तत्व के रूप में मृदा पादपों को जीवन प्रदान कर कृषि व्यवस्था में सहायता करती है अतः मृदा का अनुरक्षण और संरक्षण आवश्यक है।
1.4.7 जल राशियाँ
जल राशियाँ मानव जीवन का आधार है। विभिन्न भू-आकृतियों की भाँति जल राशियाँ भी पर्यावरण को प्रभावित करती है। जीन ब्रुंश के शब्दों में, जल एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक सम्पत्ति है। अधिक सत्य तो यह है कि यह मानव के लिये कोयला या स्वर्ण से अधिक मूल्यवान सम्पत्ति है। सभी जगह जल क्षेत्र मानवीय क्रियाकलापों पर प्रभुत्व रखते हैं। प्राकृतिक जल राशियों के अन्तर्गत महासागर, सागर, नदियाँ, झीलें तथा जलाशयों को सम्मिलित किया जाता है। जल चक्र इनके नियमित परिसंचरण में सहयोग करता है। महासागर एक महत्त्वपूर्ण जल-राशि के रूप में सम्पूर्ण जीवमण्डलीय पारिस्थितिकी तंत्र को नियंत्रित करता है।
स्थलीय जलराशियों और जनसंख्या के वितरण में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जल राशियों के द्वारा ही विभिन्न प्रकार के उच्चावच निर्मित होते हैं। महासागर एवं सागर प्रमुख जलराशियों के रूप में जलवायु को प्रभावित करते हैं। वायु में नमी की मात्रा, वाष्पीकरण तथा तापमान में न्यूनता आदि प्रभाव जलराशियों के होते हैं। विभिन्न जलराशियों के स्वतंत्र पारिस्थितिकी तंत्र विकसित होते हैं। समुद्रों का अपना पारिस्थितिकी तंत्र होता है, जिसमें समुद्री जीव एवं पादप विकसित होते हैं। इसी प्रकार झील, नदी तथा तालाबों के पारिस्थितिकी तंत्र विकसित होते हैं।
जल राशियाँ पर्यावरण के एक विश्वव्यापी तत्व के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी को संयोजित करने का कार्य करती हैं, जिस हेतु समुद्री एवं अन्तःस्थलीय जल मार्गों को अख्तियार किया जाता है। यातायात के मार्गों के साथ ही व्यापार को भी गति मिलती है। अन्तःस्थलीय जलमार्ग राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करते हैं। उत्तरी अमरीका की महान झीलें संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा को उत्तम अन्तर्देशीय जलमार्ग प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त मत्स्य व्यवसाय भी पनपता है।
उपरोक्त तत्वों के अतिरिक्त खनिजों को भी पर्यावरण के तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। किसी भी प्रदेश की पर्यावरणीय स्थिति को निर्धारित करने में खनिजों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस प्रकार के पर्यावरण में औद्योगिक संस्कृति का विकास होता है। खनिज क्षेत्रों में सांस्कृतिक वातावरण नीरस, छिन्न-भिन्न और अस्त-व्यस्त होता है। खनिज खनन से वनोन्मूलन होता है तथा पर्यावरण अवनयन को गति मिलती है।
1.5 पर्यावरण का महत्त्व
1. पर्यावरण के अध्ययन के द्वारा हमें वन, वृक्ष नदी-नाले आदि का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है, इसकी उपयोगिता की जानकारी होती है।
2. पर्यावरण अध्ययन से पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत होने, सकारात्मक अभिवृत्तियाँ तथा पर्यावरण के प्रति भावनाओं का विकास होता है।
3. वर्तमान में विश्व में बढ़ते पर्यावरणीय प्रदूषण की जानकारी, इसके प्रभाव तथा सामान्य जनता के प्रदूषण के प्रति उत्तरदायित्व तथा कर्त्तव्य आदि के बारे में पर्यावरण अध्ययन अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रखता है।
4. पर्यावरण अध्ययन आधुनिक समय में सर्वसाधारण को पर्यावरणी समस्याओं की जानकारी, इनके बारे में विस्तृत विश्लेषण तथा समस्याओं के समाधान में उपयोगी योगदान प्रदान करता है।
5. पर्यावरणीय अध्ययन का महत्त्व उन क्षेत्रों में अधिक है जहाँ शिक्षा एवं ज्ञान का उच्च स्तर पाया जाता है। अज्ञान तथा अशिक्षा वाले क्षेत्रों में पर्यावरणीय सुरक्षा तथा संरक्षण के प्रति जनसाधारण में उदासीनता पायी जाती है।
6. पर्यावरण अध्ययन के द्वारा जनसाधारण को विभिन्न प्रदूषणों की उत्पत्ति, उनसे होने वाली हानि तथा प्रदूषण को रोकने के उपायों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
7. शहरीकरण एवं नगरीयकरण की प्रवृत्ति से उत्पन्न समस्याओं के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है।
8. वर्तमान समय में परिवर्तन के विभिन्न साधनों की बढ़ती संख्या के कारण प्रदूषण का स्तर तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। पर्यावरणीय अध्ययन का परिवहन द्वारा उत्पन्न प्रदूषण की रोकथाम में विशेष महत्त्व है।
9. हमारी संस्कृति जिसके अहिंसा, जीवों के प्रति दयाभाव, प्रकृति-पूजन आदि मुख्य मूसलाधार है, पर्यावरण अध्ययन संस्कृति के इन मूलाधारों के संरक्षण में सहायक है।
10. औद्योगिकीकरण से उत्पन्न पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकने तथा इसे उत्पन्न समस्याओं के समाधान में पर्यावरणीय अध्ययन का महत्त्वपूर्ण योेगदान है।
11. वर्तमान समय की विश्व की मुख्य समस्या तीव्र जनसंख्या वृद्धि है। पर्यावरण अध्ययन हमें जनसंख्या नियंत्रण के विभिन्न उपायों के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
1.6 जनजागृति की आवश्यकता
पर्यावरण संचेतना जनजागृति में पर्यावरण सम्बन्धी ज्ञान एवं शोध की प्राप्ति होती है, इसमें पर्यावरण के भौतिक तथा जैविक पक्षों की जानकारी तथा पारस्परिक निर्भरता का बोध होता है। बेलग्रेड में सम्पन्न अन्तरराष्ट्रीय कार्यशाला (1975) में प्रस्तुत विभिन्न शोध प्रपत्रों के आधार पर पर्यावरण शिक्षा की वास्तविक स्थिति का बोध होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1994 को पर्यावरण संचेतना का वर्ष घोषित किया था। इस वर्ष पर्यावरण चेतना तथा जागरूकता के प्रयास किये गये। जिनकी नींव 1992 में रियो डि जेनेरो में सम्पन्न अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण संचेतना सम्मेलन में रखी गई थी। पर्यावरण संचेतना के अन्तर्गत अनेक अनुसंधान हुए, जिनके द्वारा पर्यावरणीय दशाओं में मानव कल्याणकारी कार्य सम्पन्न हुए जिनमें बढ़ते मरुस्थल, घटते वन क्षेत्र, घटती वर्षा की मात्रा तथा बिगड़ते पृथ्वी के सन्तुलन पर ध्यानाकर्षित किया गया।
पर्यावरण संचेतना या जागरूकता के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) प्राकृतिक पर्यावरण, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु तथा मनुष्य की पारस्परिक निर्भरता की पहचान एवं पर्यावरणीय विकास को समझना।
(2) सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकास के लिये व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से क्रियाकलापों को शुरू करना।
(3) पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से मानव उपयोगी सामग्री, स्थान, समय और स्रोतों को चिन्हित करना।
(4) विभिन्न पर्यावरणीय स्रोतों का उपयुक्त दक्षता से दोहन हो तथा इसके लिये विभिन्न विधियों को चिन्हित किया जाना।
(5) पर्यावरण के प्राकृतिक स्रोतों के उपयोग के लिये उपयुक्त निर्णय लेना ताकि इनका विशिष्ट उपयोग सम्भव हो सके।
विश्व में विभिन्न अभियानों के तहत पर्यावरण संचेतना का प्रयास संयुक्त राष्ट्र संघ का अभिन्न अंग बन गई है, जिसके अन्तर्गत विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण संरचना का बोध कराया जा रहा है। इस संदर्भ में विभिन्न संगठनों, ग्रीनपीस संस्था, पृथ्वी के मित्र तथा विश्व वन्य निधि आदि महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। इनके तहत अफ्रीका महाद्वीप में वृक्षारोपण तथा विशिष्ट जंगली जड़ी-बूटियों के संरक्षण एवं हिमालय के तराई में स्थित कुछ दुर्लभ जड़ी-बूटियों को संरक्षित करने के प्रयास किए गये हैं। इस सन्दर्भ में अफ्रीकी एशियाई देशों के राजनीतिक संगठन भी साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण में जुट गये हैं।
भारत में पर्यावरण चेतना के अभियान सफल रहे हैं; इनमें 1970 के दशक के चिपको आन्दोलन (हिमालय क्षेत्र के वन एवं जैव विविधता को बचाने के लिये), ‘अप्पिको आन्दोलन’ (पालनी तथा नीलगिरी पर्वतीय क्षेत्रों के वन बचाने के लिये), शान्तघाटी आन्दोलन (केरल में प्रस्तावित जल विद्युत परियोजना के विरुद्ध जिससे पश्चिमी घाट के वनों एवं जैव विविधता का संरक्षण हुआ), राजस्थान का अरावली बचाओ आन्दोलन (इससे सरिस्का वन्य अभ्यारण्य व बाघ परियोजना को संरक्षण मिला), तथा दून घाटी आन्दोलन महत्त्वपूर्ण है जो पर्यावरण संचेतना विकसित करने में सफल रहे।
इनके अतिरिक्त ताजमहल को बचाने के लिये मथुरा तेल शोधनशाला पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा जिसमें से ताजमहल को हानि पहुँचाने वाला प्रदूषण तत्व सल्फर-डाई-आॅक्साइड निःसृत हो रहा था। राजस्थान के अलवर जिले के गाँवों में तरुण भारत संघ के श्री राजेन्द्र सिंह ने जल संरक्षण के प्रति जनचेतना विकसित की तथा लोगों को इसके वास्तविक पक्ष का बोध कराया, जिसके परिणामस्वरूप आज वहाँ पर्यावरण संरक्षण की संचेतना इस स्तर पर विकसित हो चुकी है कि लोगों ने ‘जनता के वन्य अभ्यारण्य’ के नाम से स्वयं के प्रयास से एक वन्य अभ्यारण्य स्थापित किया है। यहाँ जलस्तर में भी सुधार हुआ है तथा मृत नदियाँ पुनः प्रवाहित हो गई हैं। इसी प्रकार का जल संरक्षण अभियान राले गाँव सिद्दी (महाराष्ट्र) में सफल रहा है जिसका संचालन प्रसिद्ध पर्यावरणविद अन्ना हजारे ने किया है।
1.7 भारत में पर्यावरण जनजागृति में सफलता
भारत में पर्यावरण आन्दोलन के प्रारम्भिक वर्षों (1970-80) में अगर कोई पर्यावरण की बहुत चिन्ता करता दिखाई देता था, तो उसे तुरन्त ही सीआईए का एजेंट और अमरीका का दलाल घोषित कर दिया जाता था। ऐसा करने वालों में यूँ तो सभी प्रकार की राजनीतिक विचारधारा के लोग थे, लेकिन वामपंथियों की तादाद इसमें कुछ ज्यादा थी। उनका तर्क था-यह पर्यावरण आदि अमीर देशों के चोंचले हैं। भारत में जो यह कर रहे हैं इससे हमारी आर्थिक और सामाजिक न्याय की लड़ाई से लोगों का ध्यान हट जाता है।
बाद के वर्षों में पता चला कि यह धारणा गलत थी और पर्यावरण में सुधार का फायदा गरीबों को ही अधिक मिला है। राजस्थान के राजेन्द्र सिंह और महाराष्ट्र के अन्ना हजारे सीआईए के एजेंट नहीं, बल्कि ग्रामीण जीवन में भारी सुधार लाने वाले लोग हैं, जिनके कारण सूखे कुएँ भर गए, उजड़े गाँव बस गए। मरुभूमि में भी हरियाली आई और जीवन स्तर ऊँचा उठा है।
दूसरे स्तर पर काम करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता भी मसीहा साबित हुए। दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एण्ड इन्वायरमेंट के संस्थापक अनिल अग्रवाल कम ही आयु में गुजर गए (सन 2002 में), फिर भी बहुत कुछ कर गए। देश ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी संस्था ने शोध कार्य किए, जिससे सरकारी पाॅलिसी पर असर पड़ा और पर्यावरण कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन मिला।
अनिल अग्रवाल की संस्था जैसी और भी संस्थाएँ देश में उभरी जिनमें टाटा की ‘टेरी’ (टाटा एनवायरनमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट) भी है। देश के विश्वविद्यालयों में भी पर्यावरण सम्बन्धी पाठ्यक्रम विभिन्न स्तरों पर पढ़ाए जाने लगे हैं, बहुत सारी सरकारी संस्थाएँ भी पिछले 20-25 सालों में बनी है।
1.8 पारिस्थितिक तंत्र
पारिस्थितिकी तंत्र की संकल्पना
पृथ्वी के परिमण्डलों क्रमशः स्थलमण्डल जलमण्डल तथा वायुमण्डल के सभी जीव-जन्तु एवं पादप एक निश्चित व्यवस्था के क्रम में परिचालित होते रहते हैं। किसी भी समुदाय में अनेक प्रजातियों के प्राणी साथ-साथ रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं तथा अपने पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस सम्पूर्ण व्यवस्था को पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। जीवमण्डल एक विस्तृत एवं विशाल पारिस्थितिक तंत्र हैं। प्रकृति में सम्पूर्ण जीव-जन्तुओं तथा पदों के पर्यावरण के साथ क्रियात्मक अन्तर्सम्बन्धों को सर्वप्रथम ब्रिटिश पारिस्थितिकीविद ए.जी. टान्सले ने 1935 में पारिस्थितिकी तंत्र नाम दिया। उन्होंने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि, पारिस्थितिकी तंत्र या परितंत्र वह तंत्र हैं, जिसमें वातावरण के जैविक और अजैविक कारक अन्तर्सम्बंधित होते हैं। इससे पूर्व भी अनेक विद्वानों ने पर्यावरण जीव अन्तर्सम्बंधित को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया है। थियनेमान ने 1939 में शब्द प्रयुक्त किया।
विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न समय में अलग-अलग नाम दिये जैसे- सन 1987 में कार्ल मोबियस एक फोरबेस 1887 में बी. डोकुचायव फेडरिच आदि प्रमुख हैं। परंतु शब्द को सर्वमान्य स्वीकार किया गया। यह दो शब्दों “Eco” एवं “System” से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः eco=oikos अर्थात घर तथा System = व्यवस्था या अन्तःनिर्भरता से उत्पन्न एक व्यवस्था है।
पीटर हैगेट के अनुसार, “पारिस्थितिकी तंत्र ऐसी पारिस्थितिक व्यवस्था हैं जिसमें पादप तथा जीव-जन्तु अपने पर्यावरण से पोषण शृंखला द्वारा संयोजित रहते हैं।”
स्ट्रेलर के अनुसार “पारिस्थतिक तंत्र ऐसे घटकों का समूह हैं जो जीवों के समूह के साथ परस्पर क्रियाशील रहता है, इस क्रियाशीलता में पदार्थों तथा ऊर्जा का निवेश होता है जो जैविक संरचना का निर्माण करते हैं।”
पार्क के अनुसार, “पारिस्थितिक तंत्र एक निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत समस्त प्राकृतिक जीवों तथा तत्वों का सकल योग होता है और इसे भौतिक भूगोल में एक दृष्टिगत आधारभूत उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।”
मूलतः पारिस्थितिक तंत्र एक विशिष्ट क्रियात्मक पर्यावरणीय व्यवस्था है जिसमें किसी निश्चित स्थान एवं समय वाले पारिस्थितिक घटकों के उसके क्षेत्र के सन्दर्भ में सभी जीवधारियों एवं भौतिक पर्यावरण का सकल सन्तुलन रहता है।
प्रकृति स्वयं एक वृहद पारिस्थितिक तंत्र हैं, जिसमें विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र क्रियाशील हैं। ये तंत्र विभिन्न पर्यावरणीय घटकों के साथ-साथ भिन्नता रखते हैं जो क्रमशः उच्चावच, जलवायु, मृदा, वनस्पति आदि हैं। यह प्रकृतिरूपी वृहद पारिस्थितिक तंत्र अनेक वृहद खण्डों से निर्मित हैं, जिसे जैवसंहति कहते हैं, अतः पृथ्वी पर क्रियाशील पारिस्थितिक तंत्रों को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
1.8.1 प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र
मानवीय हस्तक्षेप से रहित ये ऐसे स्वचलित तंत्र होते हैं, जिनमें मूल प्राकृतिक सन्तुलन बना रहता है एवं मानवीय प्रभाव शून्य रहता है। आवास प्रकारों के आधार पर इन्हें दो रूपों में वर्गीकृत किया गया है-
(i) स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र इसमें वानिकी, घास क्षेत्र तथा मरुस्थल आदि सम्मिलित हैं।
(ii) जलीय पारिस्थितिक तंत्र ये दो प्रकार के होते हैं-
(A) शुद्ध जलीय इसके भी दो प्रकार होते हैं-
(i) प्रवाही जलीय जैसे- नदी, नाले, झरने व स्रोत आदि।
(ii) स्थिर जलीय जैसे- झीलें, तालाब, पोखर, दलदल आदि।
(B) सागरीय, इसमें विस्तृत गहरे महासागर तथा कम गहरे सागर आदि प्रमुख हैं।
1.8.2 कृत्रिम या मानव निर्मित पारिस्थितिक तंत्र-
ये मानव निर्मित तंत्र होते हैं जिन्हें मानव प्राकृतिक परितंत्र की सहायता से अपने बौद्धिक तकनीकी एवं वैज्ञानिक स्तर के अनुसार विकसित करता हैं। इसमें कृषि पारिस्थितिक तंत्र, चरागाह तथा नगरीय पारिस्थिक तंत्र प्रमुख हैं, इनका सृजन मानव अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिये प्राकृतिक पर्यावरण में सुनियोजित फेरबदल करते हुए करता है।
1.9 प्रकृति में प्रमुख पारिस्थितिक तंत्र
प्रकृति एक वृहद पारिस्थितिक तंत्र हैं जिसे जीवमण्डल कहते हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के क्षेत्रीय एवं सूक्ष्म पारिस्थितिक तंत्र संचारित हैं। इस दृष्टिकोण के आधार पर अग्र पारिस्थितिक तंत्र महत्त्वपूर्ण हैं-
(1) वन पारिस्थितिक तंत्र- पृथ्वी के लगभग 40 प्रतिशत भाग पर वन पाये जाते हैं, भारत में सम्पूर्ण भू-भाग के 19.4 प्रतिशत पर वन आच्छादित हैं। मानवीय हस्तक्षेप के कारण वन पारिस्थितिक तंत्र का विनाश हो रहा है।
(2) घास का मैदान: एक पारिस्थितिक तंत्र-पृथ्वी के 24 प्रतिशत भाग पर घास के मैदान पाये जाते हैं। इनमें उष्ण कटिबन्धीय तथा पर्वतीय प्रदेशों के घास के मैदान सम्मिलित हैं।
(3) मरुभूमि पारिस्थितिक तंत्र- सामान्यतया पृथ्वी पर 25 सेमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मरुस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र पाया जाता है। संसार का 20 प्रतिशत भूभाग इसके अन्तर्गत है। यही सदैव जल की कमी बनी रहती है। मरुप्रदेश की प्राकृतिक वनस्पति में कंटीली झाड़ियाँ, छोटी घास एवं शुष्कता सहने वाले पौधे पाये जाते हैं।
(4) सागरीय पारिस्थितिक तंत्र- पृथ्वी के कुल क्षेत्र के 70.87 प्रतिशत भाग पर पानी पाया जाता है। जो जीवों के लिये वृहद पारिस्थितिक तंत्र के रूप में पोषक तत्वों की पूर्ति के साथ ही जीवन की आवश्यक परिस्थितियाँ प्रदान करता है। समुद्र की औसत गहराई लगभग 4000 मीटर है। सागरीय पारिस्थितिक तंत्र में जल की संरचना उसमें विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं, पादपों आदि के अनुकूल होती है।
(5) तालाब पारिस्थितिकी तंत्र- तालाब एक छोटे पारिस्थितिक तंत्र का ऐसा उदाहरण है, जिसमें किसी पारिस्थितिक तंत्र के संरचनात्मक एवं कार्यात्मक गुणों का समन्वय पाया जाता है।
(6) ज्वारनदमुखी पारिस्थितिक तंत्र- समुद्र का वह तटीय क्षेत्र जहाँ नदी जलधाराएँ समुद्र में गिरती हैं वहाँ समुद्री ज्वार जल तथा जलधारा के स्वच्छ जल के मिलन बिन्दु पर कम गहराई युक्त दलदली जलीय क्षेत्र को बेला संगम कहते हैं। नदी डेल्टा द्वारा निर्मित इस बेला संगम में अधिकतर समुद्री जीव-जन्तु एवं पादप पाये जाते हैं।
(7) कृषि पारिस्थितिक तंत्र- प्राकृतिक रूप में व्यवस्थित पर्यावरण में मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सुनियोजित परिवर्तन करता रहता है। इसी सुनियोजित परिवर्तन द्वारा कृषि पारिस्थितिक तंत्र का विकास हुआ।
1.10 सारांश
पर्यावरण के अध्ययन की प्रकृति बहुविषयी हो गई है, इसमें समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास एवं साहित्य को भी प्राकृतिक विज्ञानों के साथ अध्ययन हेतु सम्मिलित किया गया है। पर्यावरण के मुख्य घटक अवस्थिति, उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, जैविक, कारक, मृदा कारक एवं जल राशियां है। पारिस्थितिक तंत्र के अध्ययन में दोनों प्रकार के तंत्र अर्थात प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र एवं कृत्रिम या मानव निर्मित पारिस्थितिक तंत्र के बारे में जानना महत्त्वपूर्ण है।
1.11 संदर्भ सामग्री
1. जलग्रहण मार्गदर्शिका - संरक्षण एवं उत्पादन विधियों हेतु दिशा निर्देश - जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
2. जलग्रहण विकास हेतु तकनीकी मैनुअल - जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
3. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना के लिये जलग्रहण विकास पर तकनीकी मैनुअल
4. वाटरशेड़ मैनेजमेन्ट - श्री वी.वी ध्रुवनारायण, श्री जी. शास्त्री, श्री वी.एस. पटनायक
5. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास - दिशा निर्देशिका
6. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास - हरियाली मार्गदर्शिका
7. Compendium of Circulars जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
8. विभिन्न परिपत्र - राज्य सरकार जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग
9. Environment Studies डॉ के.के.सक्सेना
10. पर्यावरण अध्ययन - डॉ राजकुमार गुर्जर, डॉ. बी.सी.जाट
11. A Text book Environment Education डॉ. जे.पी.यादव
12. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी वरसा जन सहभागिता मार्गदर्शिका
जलग्रहण विकास - सिद्धांत एवं रणनीति, अप्रैल 2010 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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मिट्टी एवं जल संरक्षणः परिभाषा, महत्त्व एवं समस्याएँ उपचार के विकल्प |
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प्राकृतिक संसाधन विकासः वर्तमान स्थिति, बढ़ती जनसंख्या एवं सम्बद्ध समस्याएँ |
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जलग्रहण विकास में संस्थागत व्यवस्थाएँःसमूहों, संस्थाओं का गठन एवं स्थानीय नेतृत्व की पहचान |
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जलग्रहण विकासः दक्षता, वृद्धि, प्रशिक्षण एवं सामुदायिक संगठन |
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जलग्रण प्रबंधनः सतत विकास एवं समग्र विकास, अवधारणा, महत्त्व एवं सिद्धांत |
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