9.1 प्रस्तावना (Introduction)
यह सर्वविदित है कि अब भू-मंडल के दो तिहाई भाग पर जल एवं एक तिहाई भाग पर धरातलीय स्वरूप उपलब्ध है, किंतु प्रकृति प्राप्त उपलब्ध इस जल का लगभग 90 प्रतिशत भाग संप्रति प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के काम नहीं आता है। कुल उपलब्ध जल का 97.2 प्रतिशत भाग समुद्रों में खारे पानी के रूप में विद्यमान है, तो 22 प्रतिशत जल उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा पड़ा है। लगभग 1 प्रतिशत से भी कम शेष बचा यह जल, जो प्रकृति में संचरित हो रहा है, मनुष्य के काम आता है। तीव्रगति से बढ़ रही जनसंख्या एवं उसकी भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु प्रकृति में उपलब्ध यह 1 प्रतिशत से भी कम जल दिन-प्रतिदिन आनुपातिक रूप से कम होकर प्रति व्यक्ति उसकी उपलब्धता घटती जा रही है और आने वाली सदी में इस मात्रा में और भी कमी आने की सम्भावना है। अतः जलाभाव में किसी भी प्रदेश के भूमि एवं मानव संसाधनों की पोषणीयता की कल्पना नहीं की जा सकती है।
राजस्थान में हर जगह भूजल स्तर में एक से तीन मीटर प्रतिवर्ष की दर से गिरावट आ रही है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की त्रिवार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ है कि राजस्थान में वर्ष 1996-1998 के बीच भूजल के पुनर्भरण के मुकाबले, भूजल के दोहन की दर 10 प्रतिशत बढ़ गई है। प्रदेश का जल संकट बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न पूर्ति एवं विकास के नाम पर शुरू की गई हरित क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। 1970 के उपरांत भूमिगत जलस्रोतों का जिस तीव्र गति से प्रत्येक हेक्टेयर में कुआँ खोद कर भीमकाय मशीनों से दोहन किया गया है, वह निश्चय ही दर्दनाक एवं अवैज्ञानिक घटना रही है, दूसरी ओर जिस गति से भूजल दोहन किया गया है, वह उस अनुपात में उसका वर्षाजल द्वारा पुनर्भरण नहीं हो, पाया, क्योंकि पर्यावरण में गिरावट के फलस्वरूप प्रदेश में वर्षा की मात्रा एवं वर्षा के दिनों की संख्या दोनों में ही निरंतर कमी आती जा रही है।
साथ ही वनावरण के अभाव में वर्षाजल भूमि पर आते ही बहकर या वाष्पित होकर नष्ट हो जाता है जबकि पूर्व में भूजल का पुनर्भरण वृक्षों की जड़ों से अवरुद्ध होकर कहीं अधिक होता था। धरातल पर वृक्षों की सूखी पत्तियों एवं टहनियों का ऐसा स्पंज बनता था जिससे मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती थी, जबकि संप्रति वन विनाश के कारण ऐसा संभव नहीं रहा है। राज्य का 50 प्रतिशत भाग भूजल संसाधनों की दृष्टि से अंधकारमय (डार्क जोन) व अतिदोहन (ओवर एक्सप्लोइटेशन) का शिकार हो चुका है, क्योंकि प्रदेश में जल विदोहन भूजल पुनर्भरण की अपेक्षा अधिक रहा है। प्रदेश के भूजल भंडार के विकास के स्तर को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सर्वमान्य सूत्र को प्रयुक्त किया गया है-
भूजल विकास का स्तर = शुद्ध वार्षिक भूजल उपयोग x 100 सिंचाई के लिये उपलब्ध शुद्ध भूजल भंडार
सिंचाई के लिये उपलब्ध शुद्ध भूजल भंडार का मान, सकल (वार्षिक) भूजल भंडार का 85 प्रतिशत होता है। भूजल विकास की दर ज्ञात करने के लिये पिछले 5-10 वर्षों में भूजल के उपयोग की सकल वृद्धि का औसत मान ज्ञात किया जाता है, इस औसत को भूजल विकास की दर कहते हैं।
भूजल विकास का स्तर ज्ञात होने से भविष्य के लिये भूजल विकास की संभावनाओं की मात्रा एवं दिशा ज्ञात की जा सकती है। भूजल के अतिदोहन (ओवर ओवर एक्सप्लोइटेशन) की स्थिति से बचने के लिये भूजल विकास कोष के दोहन स्तर के आधार पर निम्नलिखित चार वर्गों में बांटा गया है-
तालिका-9.1 |
||
क्र.सं. |
भूजल विकास का स्तर |
क्षेत्र |
1 |
65 प्रतिशत तक |
सुरक्षित क्षेत्र (व्हाइट एरिया) |
2 |
65-85 प्रतिशत तक |
धूमिल संभावना क्षेत्र (ग्रे एरिया) |
3 |
85-100 प्रतिशत तक |
संभावना विहीन क्षेत्र (डार्क एरिया) |
4 |
100 प्रतिशत से अधिक |
(ओवर ओवर एक्सप्लोइटेशन एरिया) |
इस वर्गीकरण के अनुसार वे क्षेत्र जिनमें भूजल विकास का स्तर 85 प्रतिशत से अधिक है भूजल दोहन के लिये पूर्णतः प्रतिबंधित किए जाने चाहिए।
9.2 राजस्थान में जल संकट (Water problem in Rajasthan)
हरित क्रांति (1970) से पूर्व प्रदेश के भूजल भंडार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे, किंतु हरितक्रान्ति के लिये जल शोषण की दर उसके पुनर्भरण की अपेक्षा अधिक बढ़ती गई, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष औसत रूप से अढ़ाई प्रतिशत की दर (प्रतिशत 1 मीटर से 3 मीटर की दर से भूजल स्तर नीचे गिरता जा रहा है) से भूजल स्तर नीचे गिर रहा है और 1998 तक भूजल भण्डार लगभग 60 प्रतिशत समाप्त हो चुके थे और भविष्य में जल विदोहन, उपलब्ध जल की मात्रा से अत्यधिक होने की पूर्ण संभावना है जिसके फलस्वरूप 21वीं सदी के प्रथम दशक के अंत तक हमारे पास केवल 10-15 प्रतिशत भूजल संसाधन शेष बचेंगे और इन शेष बचे जल संसाधनों में लवणीय घोलों की इतनी अधिक मात्रा हो जाएगी कि जल कृषि एवं पेय योग्य नहीं रहेगा।
9.3 राजस्थान में जल संकट बनाम जल प्रबंधन (Water Problem V/S Water Management in Rajasthan)
राजस्थान के संदर्भ में जब हम विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि यही भूजल संसाधनों की प्रचुरता होते हुए भी जल के अभाव में प्रदेश का संतुलित विकास नहीं हो पा रहा है। प्रदेश में जल की न्यूनता और अधिकता दोनों ही स्थितियाँ समास्यामूलक बनी हुई हैं। प्रदेश के लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्रों में भूजल का इतनी अधिक मात्रा में विदोहन किया जा चुका है कि वहाँ भूमि जल के भण्डार लगभग समाप्ति की ओर हैं। जहाँ भविष्य में पेय एवं कृषि जल का संकट अत्यधिक विकराल रूप लेता जा रहा है तो दूसरी ओर प्रदेश में जहाँ अन्य क्षेत्रों से जल लाया गया है, वहाँ भी सिंचाई जनित भयंकर समस्याएँ उत्पन्न हो गई है। साथ ही प्रदेश में कभी-कभी अतिवृष्टि के कारण जल-धन के विनाश का तांडव नृत्य उत्पन्न होता है तो दूसरी ओर वैज्ञानिक जल प्रबंधन का अभाव एवं सिंचाई परियोजना के नवनिर्मित क्षेत्रों के अंतर्गत विस्थापितों का सामाजिक एवं पर्यावरणीय संकट भी कम रूप से मुखरित नहीं हो रहा है। यही नहीं भूजल प्रबंधन में जल सहभागिता की शून्यता अथवा कमी निश्चय ही हमारे सारे प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है।
9.4 जलग्रहण विकास कार्यक्रमों की सहभागी एवं सामुदायिक प्रक्रिया (Participatory and Community Procedure or Watershed of Development Programme)
जैसा कि पूर्व के अध्यायों में बताया जा चुका है, वर्षाजल के संरक्षण एवं उसके उत्पादन हेतु सतत उपयोग के लिये जलग्रहण पद्धति के आधार पर क्षेत्र का चयन किया जाता है। जलग्रहण क्षेत्र एक ऐसा चयनित भू-भाग होता है जिसमें कि वर्षा का गिरने वाला जल एक ही बिंदु से निकलता है, अर्थात भूमि का बरसात के साथ संबंध (एवं उतरोत्तर वर्षा जल का प्रबंध) जलग्रहण पद्धति से ही स्थापित हो सकता है। जब एक बार जलग्रहण क्षेत्र का चयन वैज्ञानिक आधार पर पूरा कर लिया जाता है उसके उपरांत विभिन्न संरक्षण एवं उत्पादन गतिविधियों के माध्यम से जलग्रहण क्षेत्र में आने वाली प्रत्येक इकाई भूमि, प्रत्येक परिवार, प्रत्येक मवेशी को ध्यान में रखते हुए उनका यथोचित विकास किया जाता है। विदेशों में जलग्रहण पद्धति पूर्व में अपनाई जा चुकी है।
हमारे प्रयास होने चाहिए कि बरसात से गिरने वाला जल जहाँ पर गिरे वहीं संरक्षित हो जाए तथा भविष्य में उत्पादोन्मुख उपायों हेतु उपलब्ध हो। वर्षाजल का वेग अवरुद्ध करने के लिये विभिन्न ढांचों/संरचनाएँ नालों में बनाई जाती है जिनका डिजाइन करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि जैसे ही वर्षाजल का बहाव इरोजिव वेग (अर्थात भूमि को काटने एवं अपरदन प्रारम्भ होने की स्थिति) को प्राप्त करे उसे अवरोध के पीछे रोक लिया जाए। इस प्रक्रिया से पूर्व के बेकार पेड़ सूखे कुओं में जल की आवक बढ़ जाती है, कुओं का जलस्तर अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है, मृदा में सीरे खुल जाती है। जलग्रहण क्षेत्र का नजरिया नक्शे निम्न प्रकार हैं-
9.5 जलग्रहण विकास कार्यक्रम के उद्देश्य (Objective of Watershed Development Programme)
ग्रामीण क्षेत्र में भूमि जल एवं वन का बेहतर तथा उपर्युक्त प्रबंधन वर्तमान में एक बाध्यता बन चुका है और इसी को ध्यान में रखते हुए राज्य में व्यापक पैमाने पर जलग्रहण विकास परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। इन परियोजनाओं का उद्देश्य मिट्टी तथा जलस्रोतों का कुशल उपयोग करना है जिससे जल पूर्ति का संतुलन बना रहे एवं अनावश्यक बहने वाले जल को संरक्षित कर सके। इस प्रकार जलग्रहण विकास कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य जल एवं भूमि संसाधनों के संरक्षण द्वारा पर्यावरण को पोषणीय आधार (सस्टेनेबल बेस) प्रदान करना है। राज्य में संचालित जलग्रहण विकास कार्यक्रमों के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
9.5.1 भू-संरक्षण कार्यक्रमों को प्रेरित करना या बढ़ावा (Motivation and expansive of soil Conservation Programme)
(अ) मृदा एवं नमी संरक्षण द्वारा पर्यावरण अवनयन (डिग्रेडेशन) पर रोक लगाकर उसे संतुलित अवस्था में लाना।
(ब) भूमि की क्षमता अनुसार भूमि उपयोग को बढ़ावा देना एवं इसमें आधुनिक तकनीक का समावेश करना।
(स) अतिचारण (ओवर ग्रेजिंग) द्वारा मृदा अपरदन बढ़ रहा है अतः इसमें जैविक हस्तक्षेप रोक कर इस पर नियंत्रण करना।
(द) भू-संसाधनों का संतुलित विकास करना।
(य) अत्याधुनिक तकनीकी समावेश करके फसलों की गहनता एवं उत्पादकता को बढ़ावा देना।
(र) वर्षापोषित (रेनफेड) एवं सिंचित क्षेत्रों के बीच असमानता को कम करना।
(ल) मृदा अपरदन पर रोक लगाने के लिये वानस्पतिक अवरोध बनाना एवं समोच्चबंधी करना।
9.5.2 जल संरक्षण विधियों को बढ़ावा देना (Motivation to Water Conservation Methods/measure)
(अ) वर्षाजल का वैज्ञानिक उपयोग।
(ब) भूमिगत जल स्तर के पुनर्भरण की गति में वृद्धि करना।
(स) वर्षाजल द्वारा हो रहे अपरदन पर रोक लगाने के लिये संरक्षणात्मक गतिविधियों को अपनाना।
(द) सुविधाजनक स्थानों पर विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जल का संग्रह करना।
(य) वर्षा पोषित कृषि भूमि से अधिकतम उत्पादन हेतु नवीनतम सिंचाई पद्धतियों को अपनाना, ताकि जल का उचित उपयोग हो सके।
(र) शुष्क कृषि को बढ़ावा देना एवं जलग्रहण विकास द्वारा बाढ़ों व सूखों की पुनरावृत्ति को रोकना।
9.5.3 पारिस्थितिकीय संतुलन को पुनःस्थापित करना (Restoration of Ecological Balance)
(अ) प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित पोषणीय विकास की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना एवं उपयुक्त बायोमास के उत्पादन को बढ़ावा देना।
(ब) ग्रामीण समुदाय की मांग के अनुसार क्षेत्र में भोजन, चारा एवं इमारती लकड़ी तथा ईंधन की लकड़ी की उपलब्धता बढ़ाना।
(स) सीमांत भूमि पर चारागाह विकास, बागवानी, फर्मा फॉरेस्ट्री, कृषि वानिकी, सामाजिक वानिकी आदि का विकास करके वृक्षारोपण को बढ़ावा देना।
(द) वन्य जीवों के संरक्षण को बढ़ावा देना।
9.5.4 पशुपालन विकास (Livestock Development)
(अ) पशुओं की नस्ल में सुधार करना तथा कृत्रिम गर्भाधान प्रणाली को सुदृढ़ बनाना।
(ब) क्षेत्र में मांस, दूध व ऊन की दृष्टि से आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
(स) पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल के साथ-साथ बधियाकरण अपनाना।
(द) मत्स्यपालन को बढ़ावा देना।
9.5.5 आर्थिक सामाजिक स्तर में सुधार (Improvement in the Economic Status)
(अ) विभिन्न आर्थिक गतिविधियों द्वारा क्षेत्र में आर्थिक स्थिरता- कायम करना एवं जीवन स्तर में सुधार करना।
(ब) ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले गरीब, भूमिहीन किसानों एवं श्रमिकों की आजीविका सुधार हेतु तकनीकी जानकारी का प्रचार प्रसार करना तथा वर्तमान कृषि प्रणाली को उन्नत करना।
(स) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध करना।
(द) कृषि आधारित लघु उद्योगों को स्थापित करना।
(य) सभी विकासात्मक कार्यों में जनभागीदारी को बढ़ावा देना।
9.8 जलग्रहण प्रबंधन (Water Management)
i. राजस्थान के सीमित जल संसाधन के कारण कृषि उत्पादन प्रमुख रूप से वर्षा पर निर्भर है। कृषि योग्य क्षेत्रफल का मात्र 22 प्रतिशत भाग ही सिंचित है शेष 78 प्रतिशत भाग असिंचित बारानी है। बारानी क्षेत्र में वर्षा के असमान कम मात्रा व कम घनत्व आदि होने के कारण फसल उत्पादन प्रायः असुरक्षित रहता है। इस जोखिम में उभरने के लिये मिश्रित खेती, वानिकी पशुधन विकास, मधुमक्खी पालन आदि कार्य अपनाए जाते हैं।
ii. राज्य की शुष्क भूमि में उत्पादन में होने वाले उतार-चढ़ाव को कम करने, कृषि उत्पादन की समानता बनाए रखने, विकास कार्यों का समुचित उपयोग कर अन्न एवं चारा के उत्पादन की क्षमता बनाए रखने तथा निरंतर जल स्तर में होने वाले ह्रास को दृष्टिगत रखते हुए जलग्रहण आधार पर बारानी क्षेत्र में विकास कार्य कराया जाना आवश्यक समझा गया। इसमें लाभान्वित कृषकों का व्यापक समर्थन व सहयोग प्राप्त हो रहा है।
iii. जलग्रहण क्षेत्र में क्रियान्वित सभी योजनाएँ जन भागीदारी से संचालित होती है। प्रत्येक जलग्रहण क्षेत्र में स्थानीय ग्रामीणों द्वारा गठित यूजर्स समिति जलग्रहण कमेटी अथवा ग्राम पंचायत के माध्यम से विकास कार्य कराए जाते हैं। इसके अतिरिक्त गैर सरकारी संस्थाएँ जो जलग्रहण क्षेत्र के विकास में सहयोगी हो सकती है उनका भी यथा योग्य सहयोग जलग्रहण से जुड़े विभिन्न कार्यों, जैसे जन चेतना जागृत करने, प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करने, शैक्षणिक भ्रमण आयोजित करने इत्यादि में लिया जाता है।
iv. राज्य में 1957 से भू-संरक्षण कार्य कराए जा रहे हैं। इनमें से अधिकांश कार्य मरु विकास कार्यक्रम एवं सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम के तहत ही कराए जा रहे थे।
v. 7वीं पंचवर्षीय योजना के काल में बारानी क्षेत्र के विकास को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से जलग्रहण के आधार पर कार्य कराया जाना प्रारम्भ किया गया। 8वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत सरकार द्वारा शुष्क खेती पर विशेष ध्यान दिया गया और इस हेतु वरियता के आधार पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई।
vi. वर्तमान में राज्य में 6000 से अधिक जलग्रहण क्षेत्रों में कार्य क्रियान्वित किया जा रहा है तथा प्रत्येक वर्ष लगभग 500-600 करोड़ के जलग्रहण विकास कार्य विभिन्न संस्थाओं द्वारा राजस्थान में कराए जा रहे हैं।
राजस्थान में कराए गए जलग्रहण विकास कार्यों को राष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट पहचान प्राप्त हुई है तथा राज्य के जलग्रहण क्षेत्रों को अनेकों राष्ट्रीय स्तर के उत्कृष्टता पुरस्कार विगत 15-16 वर्षों से निरंतर प्राप्त हो रहे हैं। यह दर्शाता है कि राजस्थान का जन समुदाय प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं स्वयं के सामाजिक आर्थिक विकास के प्रति कितना सजग है एवं उसका सहयोगात्मक रवैया है। इसके अतिरिक्त परियोजना क्रियान्वयन कर्ताओं के सकारात्मक दृष्टिकोण, कठिन परिश्रम एवं अनुशासन में उत्कृष्टता हासिल करने में सहयोग प्रदान किया है।
9.6.1 जलग्रहण प्रबंधन के विस्तृत उद्देश्य (Detailed objectives of Watershed)
जलग्रहण विकास परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, जंगल, जमीन, जन-मानस, जानवर का स्थायी एवं सतत विकास सुनिश्चित करना, कृषि योग्य लुमइ से उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाना तथा स्थानीय स्तर पर रोजगार के साधन उपलब्ध कराना है।
i. प्रत्येक चयनित जलग्रहण क्षेत्र में भूमि का संरक्षण करने के उपाय करना ताकि भू-क्षरण को कम करके कृषि उत्पादन व आमदनी बढ़ाई जाए।
ii. जल संसाधन विकास लाभ के लिये जलग्रहण प्रबंधन, संरक्षण व प्रगति को बढ़ाना। जलग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाएँ जैसे सूखा आदि को प्राकृतिक संसाधनों को बढ़ावा देकर रोकथाम करना।
iii. जलग्रहण क्षेत्र के सामान्य आर्थिक विकास में संसाधनों एवं लाभान्वितों का स्तर बढ़ाना ताकि क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न समाज के लोगों में असमानता कम हो सके।
iv. प्राकृतिक संसाधनों के सक्षम उपयोग के लिये जलग्रहण क्षेत्र के सामुदायिक संगठन को मजबूत बनाना ताकि वे विकास कार्यक्रम को आगे बढ़ा सके।
v. रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना।
9.6.2 जलग्रहण रणनीति (Strategy for Watershed)
अ. पूर्व की हरियाली एवं बरसा जन सहभागिता मार्गदर्शिका के अनुसार
i. जलग्रहण योजना का सीमांकन एवं प्राथमिकीकरण जिला मानचित्र, माइक्रो वाटरशेड (25000 से 30000 हेक्टेयर) सर्वे विभाग एवं स्टेट रिमोट सेंसिंग एजेंसी के नक्शों पर करते हुए क्रमशः उप वाटरशेडों 5000-6000 हेक्टेयर में विभक्त करते हुए अंत में 500-500 हेक्टेयर की इकाई में किया जाता है, जिन्हें माइक्रो वाटरशेड कहते हैं। यह क्षेत्र जलग्रहण संस्था हेतु एक आदर्श इकाई होता है। इस परियोजना हेतु नोडल विभाग राजस्थान सरकार का जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग है। जिले पर जिला परिषद (ग्रामीण विकास प्रकोष्ठ) द्वारा परियोजना का कार्य देखा जाता है एवं ब्लाॅक स्तर पर पंचायत समिति, परियोजना क्रियान्वयन एजेंसी के रूप में नियोजित है।
ii. जलग्रहण विकास का प्रमुख उद्देश्य बारानी खेती को अधिक टिकाऊ और उत्पादन वाली कृषि प्रणालियों, में परिवर्तित करना और उस पर आश्रित जनसंख्या को बेहतर सहारा सतत रूप से देना है। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, विकास, उपयोग एवं पारिस्थितिकीय संतुलन की पुनर्स्थापना करते हुए ग्रामीण समुदाय के साथ-साथ भूमिहीनों के लिये रोजगार के सतत अवसर पैदा कर सिंचित एवं बारानी क्षेत्रों की क्षेत्रीय विभिन्नता में कमी किया जाना इस योजना का प्रमुख उद्देश्य है।
iii. योजनान्तर्गत चयन हेतु अन्य मापदंड लैंड डीग्रेडेशन की विभीषिका, जलग्रहण के ऊपरी भाग की स्थिति, ग्राम में पूर्व में जलग्रहण विकास परियोजना हेतु किए गए निवेश में कमी, निजी जोत में आने वाली कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता, अनुसूचित जाति जनजाति, संसाधनविहीन गरीबों की उपलब्धता और जन समुदाय की कार्यक्रम में भाग लेने की इच्छा शक्ति एवं सृजित परिसम्पत्तियों के रख-रखाव की जिम्मेदारी लेने का अभाव है।
iv. परियोजना क्रियान्वयन एजेंसी द्वारा जलग्रहण विकास दल की नियुक्ति की जाती है, जिसमें कृषि अभियांत्रिकी, कृषि, पशुपालन एवं सामाजिक-विज्ञान के विशेषज्ञ होते हैं। इनके परामर्श एवं तकनीकी मार्गदर्शन में ही जलग्रहण विकास गतिविधियाँ संचालित की जाती है। जलग्रहण समुदाय की आधार सभा जिसे-जलग्रहण संस्था कहा जाता है, का गठन करवाया जाता है, जो कि औपचारिक रूप से सहकारिता विभाग द्वारा सोसायटी अधिनियम अंतर्गत पंजीकृत कराई जाती है।
v. राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजनान्तर्गत स्वयं सहायता समूहों में चार, उपभोक्ता समूहों में से पाँच एवं ग्राम पंचायत व डब्ल्यू.डी.टी. में से एक प्रतिनिधि नामजद का ग्यारह सदस्यीय जलग्रहण समिति बनाई जाती है। समिति के रोजमर्रा के काम एवं लेखे आदि संधारण करने में मदद हेतु वेतनभोगी जलग्रहण सचिव एवं जलग्रहण कार्यकर्ताओं की पहचान की जाती है।
vi. ग्रामीण विकास की जलग्रहण विकास परियोजनान्तर्गत हरियाली मार्गदर्शिका के अनुसार जलग्रहण परियोजना के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत को दी गई है।
vii. परियोजना हेतु निधियों का आवंटन जलग्रहण संस्था द्वारा स्वीकृत कार्य योजना विपरीत राशि आवंटन पी.आई.ए. द्वारा इस कार्य के लिये विशेष रूप से खोले गए खाते में किया जाता है, जो कि जलग्रहण कमेटी के अध्यक्ष, जलग्रहण विकास दल के एक सदस्य और जलग्रहण सचिव के संयुक्त हस्ताक्षरों से संधारित होता है। राशि के मदवार आवंटन/व्यय पाँच वर्षों तक लगातार उपर्युक्त खाते में से किया जाता है।
viii. परियोजनान्तर्गत निर्मित सामुदायिक परिसम्पत्तियों के उपयुक्त। रख-रखाव की सुनिश्चितता हेतु अनुमोदित परियोजना लागत का एक प्रतिशत जलग्रहण विकास निधि (कोरपस) निधि के रूप में चिन्हित कर समुदाय को उपलब्ध कराया जाता है। स्थानीय ग्रामीण अपना अंशदान नियमानुसार अलग से उपलब्ध कराते हैं, जो कि एक बैंक खाते में रखा जाता है।
ix. परियोजना के अनुवेक्षण एवं मूल्यांकन हेतु भी व्यवस्थाएँ की गई हैं।
x. परियोजना में जनसमुदाय को परियोजना से लाभ उठाने एवं इसकी तैयारी के क्रम में स्थानीय जनसमुदाय की क्षमता निर्माण, योजना का प्रचार प्रसार, क्रियान्वयन प्रारम्भ करने के लिये (ताकि जनसमुदाय सरकार पर निर्भर नहीं हो कर आत्मनिर्भर बनना सीधे एवं स्वयं की योजना के विभिन्न पहलुओं से परिचित हों, अपने हाथों से अपना भविष्य संवार सके) प्रबंधक घटक अंतर्गत विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं दूरस्थ सफलतम जलग्रहण क्षेत्रों के भ्रमण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
xi. योजना में प्रवेश बिंदु गतिविधि अंतर्गत स्थानीय जनता की आकांक्षा के अनुरूप जनोपयोगी कार्य यथा भवन निर्माण, सड़क निर्माण/तलाई खुदाई आदि किए जाते हैं। यह कार्य स्थानीय ग्रामीणों एवं पी.आई.ए. के मध्य एक कड़ी का कार्य कर उन्हें आपस में जोड़ता है। योजनान्तर्गत दो प्रकार के समूह ग्राम/जलग्रहण स्तर पर गठित करवाए जाते हैं जैसे स्वयं सहायता समूह (भूमिहीन एवं सीमांत कृषकों का एवं घरेलू महिलाओं का)। उपभोक्ता समूह (चयनित जलग्रहण में आने वाले उपभोक्ताओं का) समूह गठन में ग्राम स्तरीय सामुदायिक संगठनकर्ता की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
xii. जनसहभागिता आधारित ग्रामीण सिंहावलोकन अभ्यास (पी.आर.ए.) द्वारा ग्राम के सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक परिदृश्य की जानकारी प्राप्त कर जनसहभागिता के माध्यम से करवाए जाने वाले कार्यों हेतु सर्वेक्षण करवाए जाते हैं। इसके परिणामों के आधार पर कार्य स्वीकृत कर कार्य योजना बनाई जाती है, जिसे जलग्रहण संस्था द्वारा स्वीकृत कर क्षेत्र में विकास करवाए जाते हैं।
ब. भारत सरकार की नई काॅमन मार्गदर्शिका के अनुसार
कलस्टर एप्रोच: नई पद्धति में लघु जलग्रहण क्षेत्रों के समूह को शामिल करके सामान्यतः 1000-5000 हेक्टेयर तक की औसत आकार की भूजलीय इकाइयों की विस्तृत संकल्पना शामिल है। यदि संसाधन और क्षेत्र उपलब्ध हो तो सटे हुए क्षेत्रों में अतिरिक्त जलग्रहण क्षेत्रों को सामूहिक रूप से आरम्भ किया जा सकता था तथापि पहाड़ी दुर्गम भू-भाग वाले क्षेत्रों में छोटे आकार की परियोजनाएँ स्वीकृत की जाएगी।
बहुस्तरीय पद्धति: इसमें एक बहु-स्तरीय पर्वत-शिखर से घाटी की ओर क्रमबद्ध पद्धति होगी जिसे वाटरशेड विकास परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिये अपनाया जाना चाहिए। ऊपरी स्थान या वन वास्तव में वे स्थान हैं जहाँ से जल स्रोतों का उद्गम होता है। अतः इस पद्धति के अंतर्गत ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में जहाँ सम्भव हो ऐसे क्षेत्र का पता लगाया जाना होगा और इसके लिये सबसे पहले वन तथा पहाड़ी क्षेत्रों पर ध्यान दिया जाएगा। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय या राज्य वन कार्यक्रमों या अन्य स्रोतों की सहायता से उपर्युक्त विकास कार्य शुरू किए जाने पर ही जलग्रहण के सबसे कठिन भाग का कार्य पूरा हो सकेगा। वन विभाग वनों के कटाव तथा अवक्रमण को रोकने के लिये रोक बांधों, समोच्च बांधों आदि जैसी संरचनाओं के प्रबंधन में लगा हुआ है, जिससे वास्तव में नीचले स्तरों को लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार ऊपरी स्थानों, जो अधिकांशतया पहाड़ी और वनीय हैं, में कार्यान्वयन की जिम्मेवारी मुख्यतया वन विभागों और संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (जे.एफ.एमसी.) की होगी।
काॅमन मार्गदर्शिका के अनुसार राज्य स्तर पर राज्य स्तरीय नोडल एजेंसी के गठन किए जाने का उल्लेख है जिसमें विभिन्न विभागों के उच्च स्तरीय अधिकारी सदस्य होंगे। राजस्थान में नई मार्गदर्शिका के अनुसार राज्य स्तरीय नोडल एजेंसी का गठन किया जा चुका है जिसकी अध्यक्षता अतिरिक्त मुख्य सचिव (विकास) करते हैं तथा उपर्युक्त, जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण सदस्य सचिव एवं मुख्य कार्यकारी है। राज्य स्तरीय नोडल एजेंसी को बहुसंकाय विशेषज्ञों का दल सहयोग करता है। जिलास्तर पर वर्तमान में जलग्रहण विकास कार्य जिला परिषदों के माध्यम से क्रियान्वित किए जा रहे हैं परंतु मार्गदर्शिका के अनुसार जिला जलग्रहण विकास इकाई की पृथक से स्थापना की जाकर परियोजना प्रबंधक के रूप में वर्तमान में कार्यरत अधिशासी अभियंता (भू-संसाधन) को जिला परिषद से पृथक कर स्वतंत्र कार्यभार दिए जाने की कार्यवाही होनी है।
परियोजना क्रियान्वयन संस्था के रूप में वर्तमान में पंचायत समितियों को नामित किया हुआ है परंतु पंचायत समितियों के पास व्याप्त अन्य योजनाओं का अत्यधिक कार्यभार होने के कारण राज्य स्तरीय नोडल एजेंसी द्वारा नए सिरे से अथवा नवीन परियोजना क्रियान्वयन संस्थाओं की पहचान/गठन की कार्यवाही भी निकट भविष्य में की जा सकती है। जलग्रहण विकास कार्यों के क्रियान्वयन के लिये सक्षम संगठित एवं उद्देश्यपूर्ण कार्यबल का होना आवश्यक है। जलग्रहण स्तर पर न्यूनतम 4 सदस्यीय जलग्रहण विकास दल के नियोजन किए जाने का उल्लेख मार्गदर्शिका में है जिसमें जल प्रबंधन, कृषि, मृदा विज्ञान, सामाजिक संगठक एवं संस्थागत निर्माण में व्यापक जानकारी रखने वाले सदस्य सम्मिलित होते हैं। राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में पशुपालन विशेषज्ञ को भी सम्मिलित किया गया है।
नई मार्गदर्शिका में जलग्रहण परियोजनाओं का क्रियान्वयन ग्राम पंचायत के स्थान पर कम से कम 10 सदस्यीय जलग्रहण समिति से कराए जाने का उल्लेख है जिसका सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकरण भी कराया जाना आवश्यक है। ग्राम सभा की अनुमति से जलग्रहण समिति का पृथक से वेतनभोगी सचिव रखा जाता है जिसकी जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से पर्यवेक्षण एवं रिकॉर्ड संधारण करने की होती है। ग्राम पंचायत की भूमिका के अंतर्गत जलग्रहण समिति का पर्यवेक्षण करना, उसे सहायता/सलाह देना/लेखों व्यय विवरण को प्रमाणित करना अन्य योजनाओं से समेकन सुनिश्चित करना परियोजना परिसम्पत्तियों का रख-रखाव करना सम्मिलित है।
प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत निजी भूमि संसाधनों हेतु कम से कम भूमि को जुता रखने एवं खेतों में पूर्ण रूप से नमी संरक्षित रखने के मार्गदर्शी सिद्धांतों के तहत अंशदान देने के इच्छुक कृषकों के यहाँ रिज टू वैली एप्रोेच से कार्य किया जाता है जिससे निजी एवं बंजर भूमि का सुधार भी शामिल है। जल एवं मृदा संरक्षण उपायों सहित समस्याग्रस्त भूमि भी उपचारित की जाती है। सामान्य (सामूहिक) भूमि संसाधन प्रबंधन अंतर्गत चारागाह विकास में संरक्षण के उपाय, वी डिच, बीजारोपण/पौधारोपण आदि कार्य किए जाते हैं। जल संसाधनों के विकास हेतु जहाँ की तहाँ (इन सिटू) नमी संरक्षण, विभिन्न संरचनाओं द्वारा संरक्षण, भूजल एवं अधिशेष वर्षाजल के संरक्षण हेतु अधिकतम देश ज्ञान का सदुपयोग किया जाता है।
1. भूमि की उत्पादकता एवं जल आधारित उपक्रमों के सुधार के लिये तकनीकी प्रबंधन व्यवस्था में नवीन एवं चिरस्थायी तकनीकों का परीक्षण एवं प्रदर्शन जैसे कि एकीकृत कीटनाशक, सूखा प्रतिरोधी अल्पावधि प्रजातियाँ, खेती पद्धति में विभिन्नीकरण पर जोर दिया जाता है। पशुधन के मामले में मौजूद नस्ल सुधार, बीमारी के नियंत्रण हेतु लागत प्रभावी पद्धतियों के अंगीकरण/पोषकों का वित्तीय प्रबंधन, मौसमी चारे की उपलब्धता, अनुत्पादक पशुओं की छंटनी कर पशुधन उत्पादकता में वृद्धि की जाती है। खेतीहर भूमि में बागवानी एवं वानिकी के सम्मिलित प्रयासों से चार, फल/लकड़ी आदि से नगद आय उपलब्ध कराई जाती है।
2. भूमिहीन परिवारों की आय एवं आजीविका की उन्नति हेतु संबंधित परिवारों द्वारा तैयार किए गए माइक्रो प्लान के विरुद्ध स्वयं सहायता समूहों को मैचिंग रिवोल्विंग निधि, परियोजना मद से उपलब्ध कराई जाती है। इसमें संसाधनहीन परिवारों एवं महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु पूरा ध्यान रखा जाता है जिसकी अधिकतम सीमा रु. 25000/- प्रति समूह है। ग्रामीण विकास योजनाओं में यह सीमा रु. 10000/- प्रति समूह है।
9.6.3 विकास की विभिन्न गतिविधियाँ
1. सर्वेक्षण एवं परियोजना का प्रारूप तैयार करना
परियोजना का प्रारूप लाभान्वित कृषकों से विचार विमर्श कर उनके अनुभवों के आधार पर तैयार किया जाता है। जलग्रहण क्षेत्र के टोपोग्राफिकल (ग्रिड आधार पर कन्टूर तैयार करना एवं निकास नालियों का क्राॅस सेक्शन एवं एल सेक्शन) सर्वेक्षण, भू-सर्वेक्षण, सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर स्थानीय लाभार्थियों से विचार विमर्ष कर उनकी इच्छा उनके अनुभव आदि को ध्यान में रखते हुए परियोजना के प्रारूप को अंतिम रूप दिया जाता है।
2. प्रशिक्षण
जलग्रहण परियोजनाओं के क्रियान्वयन हेतु प्रशिक्षण एक आवश्यक अंग है अतः प्रशिक्षण लाभार्थियों, परियोजना क्रियान्वयन में कार्यरत कर्मचारी एवं अधिकारियों को दिया जाता है। मुख्यतः भूमि एवं नमी संरक्षण की तकनीकी तथा सामुदायिक एवं व्यक्तिगत विकास कार्य के रख-रखाव, उन्नत कृषि विविध, उद्यानिकी, कम्पोस्ट एवं घरेलू बागवानी, पशुधन विकास कार्य, चारा विकास कार्य, मत्स्य पालन, सकल घरेलू उत्पाद आदि में दक्षता हासिल किए जाने के उद्देश्य से प्रशिक्षण दिया जाता है।
3. सामुदायिक संगठन एवं जनभागीदारी
जलग्रहण विकास कार्यों के स्थाई लाभ प्राप्ति हेतु स्थानीय समुदाय की प्लानिंग स्तर पर ही सहभागिता की आवश्यकता है क्योंकि जलग्रहण विकास कार्य स्थानीय समुदाय द्वारा स्थापित कमेटी ग्राम पंचायत के माध्यम से कराए जाते हैं अतः जलग्रहण विकास में जनभागीदारी एवं सामुदायिक संगठन की विशेष भूमिका है। स्वयं सहायता समूह, यूजर्स समूह आदि का गठन किया जाता है तथा जलग्रहण विकास कार्यक्रम संबंधी जानकारी बढ़ाने हेतु भ्रमण कैम्पस आदि आयोजित किए जाते हैं।
4. संरक्षण कार्य
समोच्च खेती, पानी के बहाव को रोकने के लिये कंटूर/वानस्पतिक अवरोध, गली कंट्रोल के तरीके, बैंक ट्रेसिंग, ग्रेडेड बंडिंग, छोटे नालों की रोकथाम दूर करने के साथ-साथ ड्रेनेज लाइन उपचार कराना, नाले के किनारों को मजबूत कराना, एलएससीडी, गैबियन, चेकडैम, ब्रुशवुड, चेकडैम।
5. शष्य क्रियाएँ
i. चारा लकड़ी, ईंधन, उद्यान की फसल, नर्सरी तैयार करना, चारागाह विकास, वानिकी विकास, कृषि वानिकी एवं उद्यानिकी विकास।
ii. फसल प्रदर्शन द्वारा कृषि क्रियाओं का विकास जैसे मिश्रित फसल, अंतःफसल, एले क्रॉपिंग फसल चक्र इत्यादि।
iii. कार्बनिक खेती, किचन गार्डन का विकास।
6. पशुधन विकास
जलग्रहण क्षेत्रों में पशुओं का सुधार करना, ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण अंग है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत विशेष रूप से निम्न कार्य करवाए जा रहे हैं-
i. नस्ल सुधार, बधियाकरण।
ii. पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल हेतु कैम्पस आयोजित करना।
7. हाउस होल्ड प्रोडक्शन सिस्टम
जलग्रहण क्षेत्र के भूमिहीन श्रमिक, लघु एवं सीमांत कृषकों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये घरेलू उत्पादन के साधनों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जैसे मुर्गीपालन, बकरी पालन, कुटीर उद्योग, लुहार कार्य, मधुमक्खी पालन, सेरीकल्चर आदि लघु उद्योगों को कृषकों द्वारा अपनाए जाने हेतु बढ़ावा दिया जाता है।
9.7 जलग्रहण परियोजना सार (Summary of Watershed project)
राजस्थान में बरसात और बारहमासी नदियों की कमी को देखते हुए जलग्रहण विकास पानी की समस्या को हल करने का एक अच्छा साधन माना गया। जलग्रहण विकास का एक प्रमुख नारा “खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में” इस कार्यक्रम का मूल सिद्धांत है।
जलग्रहण विकास में हालाँकि पानी मुख्य बिंदु है परन्तु यहाँ से एक पूरी विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। इसमें पशुपालन और कृषि भी शामिल है। एक तरीके से देखें तो जलग्रहण विकास के अंतर्गत पूरे गाँव का एकीकृत विकास हो सकता है। आप किसी नदी नाले पर खड़े हो तो वह पूरा क्षेत्र जिसका पानी बहकर वहाँ से निकलता हो वह क्षेत्र जलग्रहण क्षेत्र कहलाएगा। जलग्रहण में पहाड़, खेत, चारागाह, रास्ते, छोटे-छोटे नाले आदि सभी आते हैं अतः जलग्रहण विकास कार्यक्रम पूरे क्षेत्र के विकास का कार्यक्रम है।
आम तौर पर जलग्रहण क्षेत्र में 5 मुख्य संसाधनों का विकास करना होता है-
1. जल - बरसात के जल को रोकना, भूमि में जलस्तर को बढ़ाना, जल का उपयुक्त उपयोग करना।
2. जमीन - भूमि का कटाव रोकना, भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाना, फसलों की ज्यादा पैदावार लेना।
3. जंगल - चारे की पैदावार बढ़ाना, ज्यादा पेड़ लगाना, कम पेड़ काटना।
4. जानवर - पशुओं की पैदावार बढ़ाना, अच्छी नस्ल के पशु रखना, पशुओं की बीमारियों को रोकना।
5. जन मानस - लोगों का संगठन मजबूत करना, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध की उचित व्यवस्था करना बच्चों की अच्छी शिक्षा एवं महिलाओं के स्वास्थ्य की उचित व्यवस्था।
इन्हीं 5 संसाधनों का लोगों द्वारा संतुलित एवं सतत विकास एवं प्रबंधन के लिये जलग्रहण विकास परियोजनाओं के उद्देश्य/लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं।
सामान्यतः भौगोलिक स्थिति के अनुसार जलग्रहण गतिविधियाँ स्पष्ट हो जाती है लेकिन यह सम्भव नहीं है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में जलग्रहण कार्यक्रम का स्वरूप बदल जाता है। पर अक्सर ऐसी गतिविधियाँ ली जाती है जिसमें सूखे का प्रभाव कम किया जा सके।
पूर्व में (रा.ज.ग्र.वि.प.) कार्यक्रम में 8 प्रतिशत से कम ढलान वाले क्षेत्रों में 4500 रुपए प्रति हेक्टेयर एवं 8 प्रतिशत से अधिक ढलान वाले क्षेत्रों में 6000 रुपए प्रति हेक्टेयर इकाई लागत रखी थी। लघु जलग्रहण क्षेत्र आम तौर पर 500 हेक्टेयर का होता था और इस हिसाब से पूरे जलग्रहण क्षेत्र के लिये रुपए 22.5 लाख अथवा 30 लाख रुपए क्रमशः तय होते थे।
पूरा कार्यक्रम 5 साल का होता है और पूरी धनराशि के दो मदों तथा छः उप मदों में बाँटा गया है। यह भी तय कर दिया गया है कि पी.आई.ए. और जलग्रहण संस्था को कितनी-कितनी रकम परियोजना खर्च के लिये दी जाएगी।
एक आम 500 हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र में उपलब्ध मदवार प्रतिशत प्रावधानों का वितरण इस प्रकार है-
क्र.सं. |
घटक |
निधि का आवंटन (प्रतिशत) |
क |
प्रबंधन घटक |
|
प्रशासनिक घटक |
10.00 |
|
सामुदायिक संगठन |
7.50 |
|
प्रशिक्षण कार्यक्रम |
5.00 |
|
उपयोग (क) |
22.50 |
|
ख |
विकास घटक |
|
1. प्राकृतिक स्रोत प्रबंधन |
50.00 |
|
2. भूमि मालिक परिवारों के लिये प्रक्षेत्र (फार्म) उत्पादन पद्धति |
20.00 |
|
3. भूमिहीन परिवारों के लिये जीविका सहायता पद्धति |
7.50 |
|
उपयोग (ब) |
77.50 |
|
कुल योग (क+ख) |
100 |
9.7.1 हरियाली मार्गदर्शिका (Haryali guidelines)
ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा ग्राम पंचायतों के सहयोग से लाई जा रही मरु विकास परियोजना, सूखा सम्भाव्य क्षेत्र विकास परियोजना, एकीकृत बंजर भूमि विकास परियोजना अंतर्गत पारदर्शिता को निम्नानुसार बढ़ावा दिए जाने का उल्लेख है।
i. ग्राम पंचायत द्वारा जल संग्रहण के लिये कार्य योजना को जल संग्रहण विकास दल के सदस्यों के सहयोग से तथा स्वयं सहायता समूहों/प्रयोक्ता समूहों के साथ परामर्श करके तैयार करना।
ii. कार्य योजना को ग्राम सभा की खुली बैठकों में स्वीकृति देना।
iii. अनुमोदित कार्य योजना को ग्राम पंचायत कार्यालय, गाँव सामुदायिक भवन और ऐसे अन्य सामुदायिक भवनों के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित करना।
iv. ग्राम सभा की आवधिक बैठकों में कार्यान्वयन संबंधित कार्य की वास्तविक और वित्तीय प्रगति की समीक्षा करना।
v. श्रमिकों को सीधे और जहाँ कहीं भी सम्भव हो, चेक द्वारा भुगतान करना।
वित्त पोषण पद्धति
वर्तमान लागत मापदंड 6000/- रुपये प्रति हेक्टेयर है। इस राशि को निम्नलिखित परियोजना संघटकों के बीच प्रत्येक के सामने उल्लेख की गई प्रतिशतता के अनुसार विभाजित किया जाएगा-
जल संग्रहण उपचार/विकास कार्य/गतिविधियाँ |
85 प्रतिशत |
सामुदायिक संगठन एवं प्रशिक्षण |
5 प्रतिशत |
प्रशासनिक व्यय |
10 प्रतिशत |
योगः |
100 प्रतिशत |
जो कोई गतिविधि जलग्रहण क्षेत्र के जल, जंगल, जमीन, जानवर और जनमानस के विकास के लिये हो, वह जलग्रहण विकास कार्यक्रम का हिस्सा हो सकती है।
वर्ष वार मदवार उपलब्ध कराई जाने वाली राशि का विवरण निम्न प्रकार है- |
||||||
वर्ष |
किस्त |
% |
अभिकरण |
% |
संघटकों का ब्योरा |
% ब्योरा |
प्रथम |
पहली |
15 |
परियोजना कार्यान्वयन अभिकरण |
4 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
सामुदायिक विकास एवं प्रशिक्षण |
3 |
|||||
ग्राम पंचायत |
11 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
|||
कार्यगत लागत |
10 |
|||||
द्वितीय |
दूसरी |
30 |
परियोजना कार्यान्वयन अभिकरण |
2 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
सामुदायिक विकास एवं प्रशिक्षण |
1 |
|||||
ग्राम पंचायत |
28 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
|||
कार्यगत लागत |
27 |
|||||
तृतीय |
तीसरी |
30 |
परियोजना कार्यान्वयन अभिकरण |
2 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
सामुदायिक विकास एवं प्रशिक्षण |
3 |
|||||
ग्राम पंचायत |
28 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
|||
कार्यगत लागत |
27 |
|||||
चतुर्थ |
चौथी |
15 |
परियोजना कार्यान्वयन अभिकरण |
1 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
ग्राम पंचायत |
14 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
|||
कार्यगत लागत |
13 |
|||||
पंचम |
पाँचवी |
10 |
परियोजना कार्यान्वयन अभिकरण |
1 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
ग्राम पंचायत |
9 |
प्रशासनिक लागत |
1 |
|||
कार्यगत लागत |
8 |
नई काॅमन मार्गदर्शिका अनुसार जलग्रहण परियोजनाओं हेतु विभिन्न घटकवार बजट आवंटन निम्नानुसार होगा
बजट घटक |
कुल बजट का प्रतिशत |
प्रशासनिक व्यय |
10 |
मॉनीटरिंग |
1 |
मूल्यांकन |
1 |
तैयारी चरण, जिसमें सम्मलित हैं |
|
प्रवेश बिन्दु गतिविधियाँ |
4 |
संस्थान व क्षमता निर्माण |
5 |
विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन (डी.पी.आर.) |
1 |
जलग्रहण कार्य चरण |
|
जलग्रहण विकास कार्य |
50 |
संसाधनहीन व्यक्तियों हेतु आजीविका गतिविधियाँ |
10 |
उत्पादन व्यवस्था एवं सूक्ष्म उद्यम |
13 |
सघनीकरण चरण |
5 |
कुल |
100 |
परियोजना बजट अंतर्गत विभिन्न घटकों में किए जाने वाला व्यय निम्नलिखित शर्तों के अधीन होगा-
i. डब्ल्यू डी.टी./7 डब्ल्यू सी. के सचिव आदि का वेतन प्रशासनिक मद घटक से चार्ज होगा।
ii. परियोजना लागत के प्रत्येक घटक में, यदि कहीं, बचत है तो वह जलग्रहण कार्यों में ही उपयोग की जा सकती है।
iii. गाड़ी एवं अन्य उपकरण खरीद आदि व भवन निर्माण की अनुमति नहीं है।, हालाँकि कम्प्यूटर एवं संबंधित सॉफ्टवेयर खरीदे जा सकते हैं।
iv. लाइन विभागों से संबंधित पी.आई.ए. प्राथमिकतापूर्ण तरीके से स्वयंसेवी संस्थाएँ सी.बी.ओ. को सामुदायिक गतिशीलता एवं क्षमता निर्माण गतिविधियाँ आउटसोर्स कर सकती है।
राशि किश्तें निर्मुक्त करने की क्रियाविधि
परियोजना अवधि अंतर्गत क्रियान्वयन के तीन चरणों हेतु निम्नानुसार या नोडल मंत्रालय द्वारा निर्धारित किए अनुसार राशि का केन्द्रीयांश डी. डब्ल्यू यू.डी.यू/अभिकरण को निर्मुक्त किया जाएगा।
किस्त के प्रकार |
निर्मुक्त कब की जाएगी |
केन्द्रीयांश का प्रतिशत जो निर्मुक्त होगा |
प्रथम किस्त तैयारी चरण गतिविधियों सहित |
एस.एल.एन.ए. द्वारा परियोजना स्वीकृति पश्चात |
20 |
द्वितीय किस्त |
तैयारी चरण के पूर्ण होने के पश्चात सही प्रमाणन व दस्तावेजों की प्रस्तुति करने व प्रथम किस्त के 60 प्रतिशत राशि का व्यय करने के उपरान्त |
50 |
तृतीय किस्त |
कुल निर्मुक्त राशि के 75 प्रतिशत व्यय के सही प्रमाणन जो की संबंधित दस्तावेजों से समर्थित ही |
30 (परियोजना के कार्य चरण हेतु 25 व सघनीकरण चरण हेतु 5) |
9.7.2 रणनीतिक कार्य योजना क्या है और कौन बनाएगा? (What is Strategic Plan and who will prepara it?)
रणनीतिक कार्य योजना बनाना, पी.आर.ए. अभ्यास के पश्चात परियोजना के अंतर्गत उपलब्ध मदवार/वर्षवार वित्तीय प्रावधानों के अनुसार गतिविधियों के निर्धारण की प्रक्रिया है। रणनीतिक कार्य योजना में गाँव की मुख्य समस्याओं, उन्हें दूर करने के लिये समाधान तथा उन पर आने वाली लागत का विवरण होता है। समाधान ऐसा होना चाहिए जो-
1. कम खर्च में अच्छा परिणाम दे
2. तकनीक साधारण हो
3. रखरखाव आसान हो
जलग्रहण समिति को यह तय करना है कि-
कौन सी गतिविधि कहाँ पर करने की जिम्मेदारी। किसकी है और लागत कितनी आएगी चयनित गतिविधि अनुमानित लागत के साथ कार्ययोजना ग्रामसभा में अनुमोदित की जाएगी।
9.7.3 गतिविधियों का चुनाव कैसे किया जाता है? (How the Activities are identified?)
ऐसी गतिविधियाँ चुननी चाहिए जिनसे ज्यादा से ज्यादा लोगों की समस्याओं का हल हो सके। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि चुनी गई तकनीक सस्ती, सरल, स्थानीय और टिकाऊ हो। उदाहरण के लिये अगर किसी पुराने एनीकट की मरम्मत से सिंचाई का क्षेत्र बढ़ता है और गाँव के बहुत सारे किसानों को फायदा होता है तो उसे चुनने में समझदारी है। ऐसे कार्यों की मनाही नहीं है। ऐसे कार्यक्रम भी चुनने चाहिए जिनसे भूमिहीन लोगों को रोजगार मिले।
9.7.4 जलग्रहण विकास परियोजनान्तर्गत नई काॅमन मार्गदर्शिका के अनुसार संगठनात्मक संरचना। (Institutional Arrangement as per common Guidelines for Watershed Development Schemes)
नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी
राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न मंत्रालयों (कृषि, ग्रामीण विकास, वन एवं पर्यावरण इत्यादि) के नोडल विभाग
राज्य स्तरीय नोडल एजेंसी (अतिरिक्त मुख्य सचिव (विकास) की अध्यक्षता में)
प्रमुख शासन सचिव, ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग,
आयुक्त, जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग
जिला नोडल एजेंसी - जिला परिषद स्तर पर (अधिशासी अभियंता (भू संसाधन) जिला परिषद/परियोजना प्रबंधक, जिला जलग्रहण विकास इकाई
परियोजना क्रियान्वयन एजेंसी (पंचायत समिति, वन विभाग, गैर सरकारी संस्थाएँ)
बहुसंकाय जलग्रहण विकास दल
जल प्रबंधन विशेषज्ञ कृषि पशुधन मृदा विज्ञान सामाजिक संगठन तथा संस्थागत निर्माण
जलग्रहण समिति/ग्राम सभा (अध्यक्ष एवं सचिव जलग्रहण समिति,)
प्रवेश बिंदु गतिविधि
प्रवेश बिंदु गतिविधि, परियोजना के पहले 6-8 महिनों में करवाई जाने वाली वह गतिविधि है जिसमें जलग्रहण समुदाय जलग्रहण कार्यक्रम तथा उसकी क्रियान्वयन संस्था की पहचान एवं साख हो सके।
पशुपालन में क्या?
पशुपालन को सुधारने के लिये स्वयं सहायता समूहों को प्रशिक्षण कार्यक्रम, भ्रमण, चारा सुधार कार्यक्रम, पशु नस्ल सुधार व प्रबंधन जैसे कई कार्यक्रम किए जा सकते हैं। चारागाह विकास भी पशुपालन का हिस्सा हो सकता है।
कृषि में क्या कर सकते हैं?
कृषि में सुधार लाने के लिये मेड़बंदी, सिंचाई क्षेत्र बढ़ाने, जल, बीज भण्डारण, फसल एवं चारों का प्रदर्शन व प्रबंधन जैसे कार्यक्रम लिये जा सकते हैं।
चारागाह विकास से
गाँव के सभी लोगों का फायदा होता है। सफल चारागाह विकास से गाँव का एक संसाधन बन जाता है। गाँव के सामूहिक संसाधन विकास से गाँव में एकता की भावना बढ़ती है। चारागाह विकास को दूसरे साल में कर लेने से परियोजना के अंत तक उसमें पेड़ों और घास के रूप में परिणाम नजर आ सकते हैं।
9.7.5 जलग्रहण विकास कोष क्या है? (What is Watershed Development Fund)
भौतिक काम में प्राप्त हुए अंशदान को जलग्रहण समिति के कोरपस खाते में जमा करवाया जाता है। यह राशि परियोजना समाप्ति के बाद भौतिक कार्यों के रख रखाव के लिये उपलब्ध होती है। 10 प्रतिशत राशि व्यक्तिगत राशि व 5 प्रतिशत सामुदायिक गतिविधियों के लिये अंशदान के रूप में ली जाती है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से केवल 5 प्रतिशत अंशदान वसूल किया जाता है।
काॅमन मार्गदर्शिका के अनुसार जलग्रहण विकास कोष संधारण एवं परियोजना पश्चात रखरखाव
अ. उपयोगकर्ता द्वारा चुकाए जाने वाला शुल्क
जलग्रहण समिति के जरिए ग्रामसभा उपयोगकर्ताओं द्वारा चुकाए जाने वाले शुल्क को एकत्र करने के लिये व्यवस्था बनाएगी। भूमिहीनों, संसाधनहीन या विकलांग (डिसएबल्ड)/ऐसे परिवार जिनकी मुखिया विधवा हो, से निजी या सार्वजनिक भूमि पर किए गए कार्य के लिये कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। परियोजना के दौरान सृजित परिसम्पत्तियों के रख रखाव हेतु, डब्ल्यू.डी.एफ. (जलग्रहण विकास कोष) में उपयोगकर्ता शुल्क जमा किया जाएगा।
ब. जलग्रहण विकास कोष (डब्ल्यू.डी.एफ.)
जलग्रहण परियोजनाओं के लिये ग्राम चयनित करते समय आवश्यक शर्तों में से एक डब्ल्यू डी.एफ में व्यक्तियों का अंशदान देना है।
स. जलग्रहण विकास कोष में अंशदान
गतिविधि |
गैर अनुसूचित जाति/जनजाति, लघु व सीमान्त कृषकों से लिये जाने वाला अंशदान |
अनुसूचित जाति/जनजाति लघु व सीमान्त कृषकों से लिये जाने वाला अंशदान |
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन कार्यों हेतु जो कि सिर्फ निजी भूमि पर किए गए हो |
कुल लागत का 10 प्रतिशत |
कुल लागत का 5 प्रतिशत |
सघन लागत वाली कृषि व्यवस्थाओं जैसे कि एक्वाकल्चर, उद्यानिकी, कृषि वानिकी, पशुपालन आदि जो कि व्यक्तिगत लाभार्थी की निजी भूमि पर उसके लाभ हेतु किए गए हो |
कुल लागत का 40 प्रतिशत व्यक्ति द्वारा अंशदान व 60 प्रतिशत परियोजना से देय होगा। लाभार्थी हेतु परियोजना अंश अधिकतम परियोजना के लिये लागू मानक इकाई लागत नार्मस का दोगुना हो सकता है |
कुल लागत का 20 प्रतिशत व्यक्ति द्वारा अंशदान व 80 प्रतिशत परियोजना से देय होगा। लाभार्थी हेतु परियोजना अंश अधिकतम परियोजना के लिये लागू मानक इकाई लागत नार्मस का दोगुना हो सकता है |
उपयोगकर्ताओं द्वारा चुकाये जाने वाले शुल्क को एकत्र करने के लिये व्यवस्था बनाने का कार्य |
ग्राम सभा (डब्ल्यू सी. के जरिए) |
यह अंशदान कार्य क्रियान्वित करते समय नकद अथवा स्वैच्छिक होंगे। स्वैच्छिक श्रम के मामले में श्रम को नकद कीमत (मोनेटरी वैल्यू) जलग्रहण परियोजना खाते से डब्ल्यू डी.एफ.बैंक खाते में स्थानान्तरित कर दी जाएंगी। डब्ल्यू सी. एवं डब्ल्यू.डी.एफ. बैंक का खाता पृथक-पृथक होगा।
द. जलग्रहण विकास कोष में निम्न जमा होगी।
- उपयोगकर्ता द्वारा चुकाए जाने वाला शुल्क।
- सामूहिक सम्पदा संसाधनों पर सृजित परिसम्पत्तियों से प्राप्त होने वाली आमदनी।
- निजी भूमि पर क्रियान्वित कार्य का अंशदान।
- संसाधन से बिक्री रूप में प्राप्त आय।
- मध्यवर्ती उपयोग अधिकारों को निस्तारित करने पर प्राप्त राशि
य. जलग्रहण विकास कोष का संचालन
गतिविधि |
जिम्मेदारी |
पर्यवेक्षण/अधिस्वीकृति |
डब्ल्यू.डी.एफ के आय व्यय का सम्पूर्ण व पृथक रिकॉर्ड संधारण करना |
सचिव, डब्ल्यू, सी. |
ग्राम पंचायत |
डब्ल्यू डी.एफ. के संचालन हेतु नियम तैयार करना |
डब्ल्यू.सी. |
ग्राम सभा |
डब्ल्यू.डी.एफ खाते का संचालन |
सरपंच (ग्राम पंचायत अध्यक्ष बतौर) व एस.एच.जी. का ग्राम सभा द्वारा नामांकित व्यक्ति |
ग्राम सभा सह हस्ताक्षरकर्ता सदस्य एस.एच.जी. को नामित करेगी |
9.7.6 जलग्रहण समिति के खाते में धनराशि के सही उपयोग की जिम्मेदारी किसकी है? (Who is responsible for the utilisation of fund Watershed Committee Account)
सभी कार्यों की योजना बनाने से लेकर भुगतान तक की, जिम्मेदारी जलग्रहण समिति, विशेषकर अध्यक्ष और सचिव की ही है। अध्यक्ष का चुनाव गाँव करता है, इसलिये गाँव की जिम्मेदारी बनती है कि वे अध्यक्ष का चुनाव सोच समझ कर करें। जलग्रहण समिति और अध्यक्ष की मदद के लिये जलग्रहण विकास दल को रखा गया है अतः जलग्रहण विकास दल आपके प्रति जवाबदेह है।
9.7.7 बैंक से रकम कौन निकाल सकता है? (Who can withdraw funds from bank?)
जिला नोडल एजेंसी परियोजना क्रियान्विति के लिये राशि को जलग्रहण समितियों के बैंक खाते में जमा करवा देता है। यह खाता किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक या सरकारी बैंक में खोला जा सकता है। गाँव के पास के बैंक में खाता खोलने में आसानी होती है। बैंक से राशि निकालने के लिये अधिकृत व्यक्तियों के हस्ताक्षर जरूरी होंगे जिसमें जलग्रहण समिति के अध्यक्ष, सचिव और जलग्रहण विकास दल के सदस्य के हस्ताक्षर जरूरी होंगे।
9.7.8 कार्यों की नपती कौन करेगा? (Who will measure works?)
भौतिक रूप से पूरे हुए कार्यों की नपती जलग्रहण सचिव/स्वयं सेवक द्वारा की जाती है। माप की जाँच जलग्रहण विकास दल का तकनीकी सदस्य करेगा।
9.7.9 राशि का भुगतान कैसे करना चाहिए? (How the payment will be made?)
भुगतान हमेशा ज्यादा से ज्यादा लोगों के सामने करना चाहिए ताकि विवाद या झगड़े की स्थिति कम से कम हो। क्या सभी कार्य जलग्रहण समिति द्वारा करवाए जाते हैं? सभी भौतिक निर्माण कार्यों के लिये जैसे जलस्रोत, वृक्षारोपण, चारागाह विकास, सामूहिक मेड़बंदी आदि के लिये अलग-अलग उपभोक्ता समूह बनाए जा सकते हैं।
ये कार्य किसी व्यक्ति को मेठ की तरह चुनकर नहीं करवाने चाहिए। यह दिशा निर्देशों के विपरीत तो है ही साथ ही ऐसा करने से तैयार ढाँचे/संसाधन की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी तय नहीं हो पाती। इसके चलते उपयोग भी ढंग से नहीं हो पाता। अक्सर यह भी देखा गया है कि ऐसे कार्यों का फायदा अमीर लोगों को मिलता है और गरीब वंचित रह जाता है।
9.7.10 क्या महिलाएँ केवल स्वयं उपभोक्ता बचत समूह बना सकती है? (Whether only women can from Self Help Groups?)
हरगिज नहीं, महिलाएँ चाहें तो अपना अलग उपभोक्ता समूह बना कर अपनी जरूरत के हिसाब से काम ले सकती हैं, चाहे वह खेतों की मेड़बंदी हो या चारागाह विकास, तलाई, बंधा बनाना।
9.7.11 योगदान क्यों लिया जाता है? (Why beneficiation contribution is taken?)
यह स्पष्ट हो चुका है कि सामुदायिक या निजी संपत्तियों का रखरखाव वहाँ बेहतर होता है जहाँ लोगों ने अपना पैसा लगाया हो अथवा मेहनत की हो। यही कारण है कि लोगों से योगदान लिया जाता है। योगदान का मतलब हरगिज यह नहीं है कि मजदूरों का पैसा काटा जाए, योगदान उनसे लिया जाता है जिनको उस गतिविधि से लाभ हो। जैसे चारागाह विकास में सभी से योगदान लिया जाना चाहिए, पर छोटे एनीकट में उन्हीं से जिनको एनीकट से लाभ हो।
9.8 सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता (Social Audit and Transparency)
समुदाय के सदस्यों के बीच विरोधाभास कम करने के लिये ग्राम स्तर पर सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता होना एक महत्त्वपूर्ण तकनीक है। इससे समुदाय में कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों की अपेक्षा सदस्यों के बहुमत को सशक्त बनाने में, अल्प संसाधन वाले परिवारों की सहभागिता को बढ़ाने में भी सहायता मिल सकेगी। कार्यक्रम में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से निम्नलिखित 9 कदम उठाने चाहिए-
1. विशिष्ट पहलुओं जैसे रणनीतिक योजना (स्ट्रैटेजिक प्लान) योजना के मुख्य बिंदु एस.एस.आर. आदि से संबंधित पोस्टरों को दीवार पर लगाना।
2. समुदाय के सदस्यों को परियोजना दृष्टिकोण (प्रोजेक्ट एप्रोच) रीतियों आदि के बारे में सदस्यों का अनुस्थापना (ओरिएंट) करने की दृष्टि से प्रारम्भिक स्तर पर समुदाय के साथ अनेकों खुली बैठकों का आयोजन।
3. सहभागियों से प्रस्ताव प्राप्त करने हेतु औपचारिक प्रार्थना पत्र पद्धति लागू करना।
4. वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर्स जिनकी लागत अधिक है, के मामले में संबंधित व्यक्तियों को चेक के माध्यम से भुगतान करना।
5. संबंधित उपभोक्ताओं के परामर्श से प्रत्येक कार्य का तकनीकी प्राक्कलन तैयार करना।
6. क्रियान्वयन कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व संबंधित उपभोक्ताओं के अंशदान का सुनिश्चयन (उन मामलों के अतिरिक्त जिनमें कि उपभोक्ता श्रमिक के रूप में अपना अंशदान करते हैं)।
7. बी.एस.आर के अनुसार श्रमिकों को पूर्ण भुगतान।
8. क्रियान्वयन चरण के दौरान भौतिक और वित्तीय प्रमाणों की समीक्षा हेतु बार-बार डब्ल्यू.ए की बैठकें आयोजित करना
9. डब्ल्यू.ए. को निर्णय करने का निकाय जबकि डब्ल्यू.ए. को उसके कार्यकारी निकाय के रूप में कार्य करने को बढ़ावा (फेसिलिटेट) देना।
9.9 जलग्रहण विकास कार्यक्रम के बारे में कुछ धारणाएँ (Some myths about the watershed development programme)
- क्या जलग्रहण केवल पानी रोकने और भूमि सुधार का ही कार्यक्रम है?
यह सच है कि जलग्रहण में अधिक काम पानी रोकने और भूमि सुधार का ही है परंतु इसमें कई अन्य गतिविधियाँ भी सम्मिलित हैं, जैसे-
- पशुपालन की गतिविधियाँ
- कृषि क्षेत्र में सुधार
- चारागाह विकास
- महिला समूह बनाना और प्रत्येक समूह के लिये 25000 रूपये का चक्रीय कोष (रिवॉल्विंग फंड) का प्रावधान
- भूमिहीन और गरीब लोगों को प्राथमिकता से मजदूरी देना।
9.10. परियोजना की गतिविधि कौन तय करता है? (Who decides activity of the scheme?)
परियोजना की गतिविधियाँ गाँव के लोग, जलग्रहण संस्थान और समिति के साथ मिलकर करते हैं। इस काम में जलग्रहण विकास दल उनकी मदद करता है।
9.11 सारांश (Summary)
जलग्रहण विकास कार्यक्रम में भू-संरक्षण कार्यक्रम को बढ़ावा, जल संरक्षण विधियों को बढावा पारिस्थितिकीय संतुलन को पुनः स्थापित करना, पशुपालन विकास, आर्थिक सामाजिक स्तर में सुधार मुख्य उद्देश्य है। आमतौर पर जलग्रहण क्षेत्र में 5 मुख्य संसाधन जल, जमीन, जंगल, जानवर एवं जन मानस का विकास करना होता है।
9.13 संदर्भ सामग्री (Reference Material)
1. जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग के वार्षिक प्रतिवेदन।
2. भू एवं जल संरक्षण - प्रायोगिक मार्गदर्शिका सृंखला - 3 श्री एस.सी.महनोत एवं श्री पीके सिंह।
3. प्रशिक्षण पुस्तिका - जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी।
4. जलग्रहण मार्गदर्शिका - संरक्षण एवं उत्पादन विधियों हेतु दिशा-निर्देश-जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी।
5. जलग्रहण विकास हेतु तकनीकी मैनुअल - जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी।
6. राजस्थान में जलग्रहण विकास गतिविधियाँ एवं उपलब्धियाँ - जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी
7. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना के लिये जलग्रहण विकास पर तकनीकी मैनुअल।
8. वाटरशेड मैनेजमेंट - श्री वी.वी ध्रुवनारायण, श्री जी. शस्त्री, श्री वी.एस पटनायक।
9. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास दिशा-निर्देशिका।
10. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी जलग्रहण विकास हरियाली मार्गदर्शिका।
11. Compendium of Circulars जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी।
12. विभिन्न परिपत्र - राज्य सरकार 7 जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग।
13. जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा स्वयं सहायता समूह मार्गदर्शिका।
14. इन्दिरा गांधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान द्वारा विकसित संदर्भ सामग्री - जलग्रहण प्रकोष्ठ
15. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी वरसा जन सहभागिता मार्गदर्शिका।
16. जलग्रहण का अविरत विकास - श्री आर.सी.एल.मीणा।
17. जलग्रहण प्रबंधन - श्री बिरदी चन्द जाट।
18. भारत, सरकार द्वारा जारी नई काॅमन मार्गदर्शिका।
जलग्रहण विकास - सिद्धांत एवं रणनीति, अप्रैल 2010 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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मिट्टी एवं जल संरक्षणः परिभाषा, महत्त्व एवं समस्याएँ उपचार के विकल्प |
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प्राकृतिक संसाधन विकासः वर्तमान स्थिति, बढ़ती जनसंख्या एवं सम्बद्ध समस्याएँ |
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जलग्रहण विकास में संस्थागत व्यवस्थाएँःसमूहों, संस्थाओं का गठन एवं स्थानीय नेतृत्व की पहचान |
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जलग्रहण विकासः दक्षता, वृद्धि, प्रशिक्षण एवं सामुदायिक संगठन |
9 |
जलग्रण प्रबंधनः सतत विकास एवं समग्र विकास, अवधारणा, महत्त्व एवं सिद्धांत |
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