जलागम संरक्षण एवं विकास एक परिचय

पाठ - 3
लोक विज्ञान संस्थान देहरादूर
जलागम क्या है?
जलागम विकास क्यों?
जलागम विकास के मूल सिद्धान्त।
जलागत विकास के सफल परिणाम।

.जल एवं जमीन के दीर्घकालीन प्रबंधन के लिए जलागम (या पनढ़ाल) एक आदर्श इकाई है।

जलागम विकास


जलागम के आकार के आधार पर वर्गीकरण

3,00,000

(हेक्टेयर से अधिक)

खण्ड

2,00,000-3,00,000

(हेक्टेयर में)

बेसिन

50,000-2,00,000

(हेक्टेयर में)

जलागम

10,000-50,000

(हेक्टेयर में)

उप जलागम

1,000-10,000

(हेक्टेयर में)

मध्य जलागम

100-1,000

(हेक्टेयर में)

सूक्ष्म जलागम

10-100

(हेक्टेयर में)

अति सूक्ष्म जलागम

 



.भारत को प्रतिवर्ष 420 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध होता है। यह पानी वर्षा, बर्फ व दूसरे देशों की नदियों से प्राप्त होता है। यदि इस पानी को देश की धरती पर समान रूप से फैलाया जाए तो करीब 128 सेमी पानी खड़ा नजर आएगा।

यह सारा पानी जाता कहां है ?
32 प्रतिशत पानी सतही बहाव के रूप में बह कर निकल जाता है।
और अपने साथ 5.5 बिलियन टन सतही मिट्टी बहा कर ले जाता है।
इस मिट्टी के साथ पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और भूमि अन-उपजाऊ हो जाती है।



जलागम क्षेत्र को प्रभावित करने वाले कारक


आकार: जलागम क्षेत्र का आकार विभिन्न मापदण्ड़ों को सुनिश्चित करता है जैसे जलागम क्षेत्र में कितनी वर्षा हुई, उसमें से जलागम क्षेत्र में कितना वर्षा जल संचित हुआ और कितना बह कर चला गया।

बनावट: जलागम की आकृति के आधार पर विभिन्न बनावटें जो कि भूविज्ञान संरचनाओं को निर्धारित करते हैं, जैसे लम्बे या व्यापक चौड़े जलागम क्षेत्र।

भौगालिक संरचना: जलागम की समुद्र तल से ऊँचाई एवं भौतिक निक्षेपण (भौतिक डिपोजिसन) भौगोलिक संरचना को निर्धारित करते हैं।

ढाल: वर्षा जल के वितरण एवं गति का नियंत्रित करता है।

जलवायु: जलवायु मात्रात्मक पद्धति को तय करती है।

जल निकासी: जल निकासी, जल बहाव की गति एवं अपरदन के व्यवहार को निर्धारित करता है।

वनस्पति: पौधों की प्रजातियों का ज्ञान, जलागम क्षेत्र में किन फसलों एवं पौधों को उगाना है। तय करता है।

जलागम क्षेत्र को प्रभावित करने वाले कारक


मिट्टी की संरचना: भू-आकृति एवं मिट्टी की संरचना जलागम क्षेत्र के आकार, बनावट, जल निकास प्रणाली, भूजल की अवस्था को निर्धारित करता है। मिट्टी एवं पत्थर (जो कि मिट्टी के मूल जनक हैं) जलागम क्षेत्र में हरियाली का मूल आधार है।

भू-विज्ञान: जलागम क्षेत्र में भू-जल की उपलब्धता की मात्रा को निर्धारित करता है।

जल विज्ञान: हरियाली के साथ-साथ जल विज्ञान जलागम क्षेत्र में जल की उपलब्धता की मात्रा को निर्धारित करता है।

सामाजिक आर्थिक विकास: जल, जंगल, जमीन, जन आर जानवरों के प्रबन्धन के अतिरिक्त जलागम के अन्तर्गत रहने वाले लोगों की आजीविका, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य भी जलागम विकास को प्रभावित करते हैं।

मिट्टी के महत्व के संदर्भ में कुछ तथ्य


1. औसतन 2.5 सेमी. ऊपरी मिट्टी को प्राकृतिक रूप से बनने के लिए 500 से 1000 वर्षाें का समय लगता है।

2. एक मुट्ठी भर मिट्टी में इस धरती की पूरी आबादी से अधिक सूक्ष्म जीवाणु होते हैं। इनमें से कुछ जीवाणु पौधों के विकास में सहायक होते हैं।

3. पौधों की जड़ें मुख्यतः मिट्टी को यथास्थान (अपने मूल स्थान में) बनायें रखने में मदद करती है।

4. पौधों की जड़ों के अभाव में मिट्टी के कण ढीले पड़ने लगते हैं और जल के बहाव के कारण मिट्टी बह कर चली जाती है। जिससे फसलों की उत्पादक क्षमता और उत्पादन में कमी आती है।

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भारत में जल की उपलब्धता के संदर्भ में विभिन्न परिस्थितियाँ


1. भारत के शहरों में पीने का पानी सबसे प्रमुख समस्या बन गई है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में टैंकर से पानी भरते स्थानीय वासी। एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में 3 करोड़ की आबादी गर्मियों में सीधे तौर पर रोजाना जल आपूर्ति के लिए टैंकरों पर निर्भर हैं।

2. 1 जून 2003 रविवार: नटवरघाड़ (गुजरात का एक गाँव) एक कुएँ से पानी निकालने का जद्दोजहद करते नटवरघाड के गाँववासी। 3 जून 2003 को 44 डिग्री तापमान पहुँच गया था। उन दिनों गाँव के तालाब, पोखर, कुएँ सूख रहे थे, जिस कारण गाँववासियों को जल आपूर्ति के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।

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भारत में जलवायु विविधतायें - एन नजर

1. जून के महीने के एक दिन में 50 डिग्री से. या इससे अधिक का तापमान चूरू क्षेत्र (राजस्थान) में रिकार्ड दर्ज किया गया।

1. इसी दिन तवांग क्षेत्र, अरूणाचल प्रदेश में 19 डिग्री से. दर्ज पाया गया।

2. भारत के अन्य  हिस्सों में केवल बारिश होती है।

2. हिमालय के क्षेत्रों में बर्फ बारी होती है।

3. तमिलनाडू के तटीय प्रदेश में जून से सितम्बर के महीने में वर्षा नही होती है।

3. भारत के अधिकतर भागों  में बारिश जून से सितम्बर के महीनों में होती है।

4. उत्तर पश्चिमी हिमालयी एवं पश्चिमी राजस्थान में मात्र 10 सेंमी. प्रति वर्ष की बारिश की प्राप्ति होती है।

4. मेघालय का तूरा क्षेत्र एक दिन में इतनी बारिश प्राप्त करता है, जितनी बारिश राजस्थान के जैसलमेर में दस वर्षों में प्राप्त होती है।

 



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खेतों और जंगलो की कम उत्पादकता से देश की ग्रामीण जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकताएँ जैसे अनाज, ईंधन, चारा, पानी व रोजगार की कमी लगातर बढ़ती ही जा रही है।

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मूल-भूत आवश्यकताओं की कमी ग्रामीण जनसंख्या, मुख्यतः गरीब एवे पिछड़े लोगों के जीवन को बदतर करती है।

वर्षा पर निर्भरता 80 प्रतिशत
सिंचित एवं शहरी क्षेत्र में रहे लोग 20 प्रतिशत

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भारत में जलागम विकस का इतिहास


1962-63

केन्द्र सरकार प्रयोजित योजना - मृदा संरक्षण कार्य में नदी घाटी परियोजनाओं में,  जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्र में गाद नियन्त्रण का  लक्ष्य रखा गया।

1972-73

ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा- सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम (डी पी ए पी)

1974-75

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश, एवं राजस्थान में - क्षारीय भूमि का सुधार

1977-78

ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा विशेष कार्यक्रम - गर्म मरूस्थलों में: (राजस्थान, गुजरात, हरियाणा) और ठण्डे मरूस्थलों में -  (जो पहले डी पी ए पी था) अब मरूस्थल विकास कार्यक्रम कहलाने लगा (डी डी पी)।

1980-81

कृषि मंत्रालय द्वार  बाढ़ ग्रस्त नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में एकीकृत जलागम प्रबंधन कार्यक्रम चलाया गया (एफपीआर)।

1984-85

ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा वर्षा सिंचित क्षेत्रों की 22 अवस्थितियों में एकीकृत जलागम प्रबंधन की अवधारणा को अपनाया गया।

1990-91

(एनडब्ल्यूडीपीआरए) 1990 में, वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलागम विकास कार्यक्रम में एकीकृत विकास संस्थागत रूप पहली बार भारत के 16 राज्यों के 99 जिल्लों शुरू किया गया।

 



भारत में जलागम विकास का इतिहास


1990

नाबार्ड द्वारा 200 करोड़ रूपये से जलागम विकास निधि स्थापना की गई।

1990

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा एकीकृत वनीकरण एवं पारिस्थितिकी विकास परियोजना शुरू हुई

1994

हनुमंत राव समिति द्वारा 5 विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत डीपीएपी, डीडीपी (आईडब्ल्यूडीपी), (आई-जेआरवाई and employment Assurance scheme (EAS) इक्कट्ठा किया गया।

2000

कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा NWDPRA  के मार्गदर्शक सिद्धांत को संशोधित किया गया ताकि सहभागिता, स्थायित्व और समता को लाया जा सके। ये WARASA जन सहभागिता मार्गदर्शी सिद्धांत कहलाए जाने लगे।

2003

2001 में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा, 1994 की समान मार्गनिदेर्शिका को पुनः संशोधित करके, अप्रैल 2003 में, हरियाली मार्गदनिर्शिका लाई गई।

2008

वर्ष 2008 में पार्थसार्थी समिति की सिफारिशों पर सभी मंत्रालयों द्वारा चलाए जा रहे जलागम योजनाओं के लिए समन्वित मार्गनिर्देशिका निकाली गई।

 



जलागम कार्यक्रमों में मुख्य मूल्यांकन सूची


1973

डा. बी. एस. मिन्हास टास्क फोर्स द्वारा जलागम कार्यक्रमों की समीक्षा

1982

डा. एम. एस. स्वामीनाथन टास्क फोर्स द्वारा जलागम कार्यक्रमों की समीक्षा

1984

अंर्तविभागीय ग्रुप द्वारा जलागम कार्यक्रमों की समीक्षा

1994

हनुमंत राव तकनीकी समिति

2001

देश के 16 राज्यों के 221 जिलों में ग्रामीण विभाग द्वारा  जलागम कार्यक्रमों का व्यापक मूल्यांकन

2005

ICRISAT द्वारा जलागम विकास की 311 सफल कहानियों के प्रभाव पर आधारित व्यापक विश्लेषण किया गया

2006

पार्थसार्थी समिति

 



जलागम विकास के नाम पर कई कार्यक्रम किए गये
1. वर्षा आधारित खेती वाले क्षेत्र में राष्ट्रीय जलागम विकास कार्यक्रम या National Watershed Development Programme. (कृषि मंत्रालय)
2. नदी-घाटी परियोजना River Valley Project (RVP) (कृषि मंत्रालय)
3. समुचित जलागम विकास कार्यक्रम या Comprehensive Watershed Development Programme (COWDEP) (महाराष्ट्र सरकार)
परन्तु लोगों की भागीदारी की कमी एवं गैर उपयोगी तकनीकों के कारण ये सारे कार्यक्रम अप्रभावी हो गये।

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भारत के जलागम कार्यक्रमों की कमजोरियाँ


1. गाँवों की सीमाओं को उपेक्षित कर जलागम को, जलग्रहण क्षेत्रों के उल्लेख में परिभाषित करना।
2. अधिकतर राज्यों द्वारा, जलागम विकास कार्यक्रमों में, समाजिक, आर्थिक, समता की अधिकतर उपेक्षा की गई।
3. अधिकतर केसों में, संतोषजनक रूप में विवादों को निपटाने की रणनीति का अभाव दिखा।
4. भूमिहीन एवं सम्पत्तिहीन लोगों का जलागम कार्यक्रमों में जुड़ाव का अभाव रहा।
5. अधिकतर केसों में, लिंग समानता का न होना।
6. जहाँ भी जलागम कार्यक्रमों उपरान्त, जल की बढ़ोतरी हुई, वहाँ पीने के पानी को प्राथमिकता न देकर, सिंचाई को प्राथमिकता दी गई।
7. भारत के अधिकतर जलागम विकास कार्यक्रमों में किए गए वर्षा जल संग्रहण को, अंतिम उपभोक्ता द्वारा प्रयोग कैसे किया जाए, इसके उपर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
7. इन जलागम कार्यक्रमों में, एकीकृत पशुधन प्रबन्धन को, प्रमुख रूप से शामिल नहीं किया गया, और कमजोर वर्गों को, कोई महत्व नहीं दिया गया।
8. हरियाली मार्गनिर्देशिका में, ग्रामीण जलागम समिति की जिम्मेवारी, ग्राम पंचायत को दी गई, और जलागम एजेंसी का कर्तव्य ग्राम सभा को दिया गया।
9. परियोजना अवधि के पश्चात् (परिसम्पतियों के रख रखाव के अभाव के कारण) जलागम में विकसित परिसम्पत्तियों से लम्बे समय तक मिलने वाले लाभों की निरंतरता को बनाए रखने का अभाव रहा।

जलागम विकास, समान मार्गनिर्देशिका - 2008, स्रोत : पार्थसार्थी रिपोर्ट-2007

जलागम विकास का लक्ष्य, लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे अनाज, ईंधन, चारा, जल एवं रोजगार, की पूर्ति के लिए क्षेत्र के जल एवं जमीन का उचित प्रबन्धन करना है।

जलागम संरक्षण एवं विकास कार्यक्रम मूल सिद्धांत जलागम पर आधारित - चोटी से घाटी तक की भूमि एवं जल संसाधनों के दीर्घकालीन विकास को प्रोत्साहन

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संसाधनों के उपयोग, जलागम सुधार कार्यक्रमों एवं सृजित कार्यों के प्रबन्धन में लोगों की खास कर उपेक्षित वर्ग जैसे महिला, दलित एवं भूमिहीनों की सहभागिता निर्धारित करना।

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