यह किसी कल्पनालोक की कथा या फिर किसी कहानी का हिस्सा नहीं, बल्कि हकीकत है। याद करें साठ-सत्तर का दशक जब जीवन की अहम जरूरत जल छोटे-छोटे गांवों, कस्बों व शहरों के तालाब, नाड़ियों, सरों व कुओं में लबालब भरा रहता था। मनुष्यों की ही नहीं, पशु-पक्षियों तक की जल जरूरतें स्थानीय स्तर पर ही पूरी हो जाया करती थीं। इसके पीछे लोगों की वह मेहनत काम कर रही होती थी, जिसके बल पर जलाशयों का निर्माण कराया गया था, बल्कि इनमें जल लाने वाले मार्गो में किसी भी कीमत पर अवरोध पैदा नहीं होने दिए जाते थे। ऐसे तालाब व नाड़ियां नहरों के माध्यम से खेती की जरूरतें भी पूरी करते थे। राजस्थान में तालाब, नाड़ियों के साथ-साथ जो कलात्मक बावड़ियां देखने को मिलती हैं, वे सब जल संरक्षण विरासत की कहानी ही तो कह रहे होते हैं। और फिर राजस्थान ही क्यों, देश में जहां जल संरक्षण की जरूरत महसूस की गई, वहां-वहां जल संरक्षण का जरिया बने उपयरुक्त स्थान किसी न किसी रूप में दिखाई दे जाते हैं, जो हमारे पूर्वजों की समझ और इंजीनियरिंग कौशल की अद्वितीय कहानी कहते हैं।
राजस्थान में तो सत्तर के दशक में बहुत से स्थानों पर भू-जल दो हाथ के फासले पर हुआ करता था। कई स्थानों पर नीझर (धरती पर मध्यम गति से पानी बहने वाले स्थान) वाले क्षेत्रों में जब किसी को प्यास लगती तो वह एक बेरी बनाकर छोड़ देता था। कुछ ही क्षणों में उसमें पानी के सोते फूट आते थे। वह ऐसा निर्मल जल होता था कि उसके आगे कीटाणु रहित पानी देने का दावा करने वाले आज के प्यूरीफायर भी शरमा जाएं। अधिकतम साठ फीट गहरे कुओं से कितना ही जल लाव-चड़स या रहट से निकाला जाए, उनकी तीर नहीं टूटती थी। खेत-खलिहानों में काम करने वाले तथा पशुओं को चराने वाले चरवाहे जब भी प्यास लगती एक बोदड़ा बनाते और कुएं में झबोला देकर पानी पी लेते थे।
ऐसे कुओं का जब खेतों और गांवों के पलसों में निर्माण कराया जाता था, तब अनुभवी लोग मिट्टी की खुदाई करते हुए कुओं की उल्टी चिनाई करते थे। जिधर से पानी की सीर (जलधारा) फूटती, उसमें गूदड़े, कूंचों (सरकंडों) से बने पूले भरकर उसे बंद कर दिया जाता था, ताकि फूटती जलधारा कुएं की चुगाई में बाधक नहीं बने, जिन्हें कुआं निर्माण के बाद निकाल दिया जाता था। तकरीबन यही प्रक्रिया विशाल बावड़ियों के निर्माण में भी अपनाई जाती थी। कम होती वर्षा और भूजल के बेतहाशा दोहन से आज स्थिति यह है कि साठ फीट गहरे कुओं में भूजल इतना गहरा चला गया है कि वे सूख गए हैं। पचास-साठ फीट गहरी बावड़ियां जल विरासत की कहानी तो कहती हैं, लेकिन अपने सूखे पेंदे के कारण गोता लगाकर उनका पेंदा नापने वाले साहसी युवाओं को आकर्षित नहीं कर पातीं। समय के साथ बावड़ियों और कुओं की खोखली हुई दीवारों में बने कोटरों में मिट्ठुओं, कबूतरों व चिड़ियाओं ने तो उनकी दीवारों में ही उग आए बड़, पीपल, नीम, कैर व खेजड़ी के पेड़ों में गोरैया ने झूलते घोंसले बना लिए हैं। कभी कुओं और बावड़ियों में बने कुओं से सिंचाई के लिए जल निकालने के काम आने वाले लाव-चड़स और इन्हें खींचने वाली गौ के जायों को लगाने वाली जूड़ियां किसानों के पास हैं तो सही, लेकिन वे तिबारियों व हवेलियों के तिबारों में खूंटियों पर टंगे हुए हैं। किसना सरीखे उम्रदराज किसान जब इन्हें देखते हैं तो उनके हिवड़े में हूक उठती है पुराने दिनों की, कीली-बारों की। बरबस वे कह उठते हैं - कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।
/articles/jala-vairaasata-kai-kahaanai-kahatae-jalaasaya