झारखंड के सूखते जल प्रपात भी आने वाले जल संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। जंगलों से गुजरने वाले झरने जो वर्षभर जल के स्थाई स्रोत बने रहते थे और सम्पूर्ण क्षेत्र की पारिस्थितिकी को नियंत्रित करते थे, तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। राज्य के बहुत से जलप्रपात फरवरी माह से ही सूखने लग जाते हैं। जोन्हा, सीता तथा हिरनी जलप्रपात जो वर्षभर भ्रमणार्थियों के आकर्षण के केंद्र बने रहते थे, अब जाड़े के मौसम में ही सूखने लगते हैं। यद्यपि विश्वास नहीं होता तथापि यह उल्लेखनीय है कि कुछ कथित पर्यावरणविद इसे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानते हैं, जो हास्यास्पद है। जल संकट से जुड़ी इन समस्याओं का वस्तुतः जलवायु परिवर्तन से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस पृथ्वी की और इसके संसाधनों की चिन्ता करने वाले महापुरुष वर्षों से जनमानस को सचेत करने की कोशिशें कर रहे हैं, परन्तु कुछ भी सार्थक नहीं हो पा रहा है। जल के अतिशय उपयोग, दुरुपयोग, भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन, निर्माण-कार्यों में जल की बर्बादी, बहुमंजिली इमारतों में बसने वालों द्वारा भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन, मिनरल वाटर उद्योग, फैक्ट्रियाँ, विद्युत उत्पादक संयंत्रों द्वारा जल की बर्बादी, घरेलू, नगरीय तथा औद्योगिक जल प्रदूषण आदि कुछ ऐसी गतिविधियाँ हैं, जो सामूहिक रूप से एक भयानक जल त्रासदी को आमन्त्रित कर रही हैं। यदि इस आसन्न जल त्रासदी की रूपरेखा का आकलन करना है, तो झारखंड की सूखती नदियों, गिरते भूमिगत जलस्तर, भूमिगत जल में बढ़ता खनिज पदार्थों का सांद्रण, लुप्त होते तालाबों, सूखते झरनों, खेतों में भटकते हुए पशुओं की मौतों, पशु वधशालाओं की तरफ बढ़ती पशुओं की कतारों इत्यादि का अवलोकन, विश्लेषण और मनन किया जा सकता है।
सूखती नदियाँ : पिछले एक दशक से भी अधिक समय से झारखंड में प्रत्येक वर्ष जल की कमी विशेषतः ग्रीष्मकाल में अनुभव की जा रही है। कुएँ और चापाकल ग्रीष्म ऋतु के आने के पहले से ही सूखने लग जाते हैं। यहाँ की नदियाँ मार्च माह के पहले से ही सूखने लग जाती हैं और अप्रैल माह तक बालू की चमकीली रेखाओं के रूप में सिमट कर रह जाती हैं। पिछले वर्ष झारखंड की अधिसंख्य नदियाँ मार्च माह के अन्त तक सूख चुकी थीं और नगरीय जल आपूर्ति के लिये बाँधों के पीछे संग्रहित वर्षा का जल भी काफी हद तक सूख चुका था। ऐसी स्थिति में नदियों की कछारों में बसे हुए लोग गम्भीर जल संकट से जूझने लगे थे। पेयजल के लिये डीप बोरिंग के जल पर आश्रित लोगों को खनिजों से समृद्ध गाढ़ा पानी पीना पड़ रहा था, क्योंकि पूरे राज्य में भूमिगत जलस्तर नदियों की कछारों में भी उत्तरोत्तर नीचे गिरता जा रहा है।
गत वर्ष की स्थिति तथा जल की बर्बादी की दर को ध्यान में रखते हुए आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस वर्ष और आने वाले वर्षों में राज्य को गम्भीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। वर्षा कम होने से इस वर्ष अभी से अधिकांश नदियों में बहुत कम पानी बचा है। गत वर्ष मार्च माह से ही लोगों को सूखी नदियों के बालू की खुदाई करके पीने योग्य पानी का संग्रह करना पड़ रहा था। पानी लाने की यह पद्धति कछारों में बसने वालों के लिये रोजमर्रा के कार्यक्रम का हिस्सा बन चुकी थी। पिछले एक दशक से यही कहानी प्रत्येक वर्ष दोहराई जा रही है। लोग नियति के साथ जीना सीख रहे हैं, लेकिन कब तक?
पलामू की जीवन रेखा कोयल नदी अप्रैल माह तक पूरी तरह सूख जाती है। सर्वेक्षण बताते हैं कि इस नदी की कछार में भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिर रहा है। डालटनगंज क्षेत्र में कोयल नदी, गढ़वा क्षेत्र की कनहर नदी, लातेहार की औरंगा और कोयल नदियाँ, कोडरमा क्षेत्र की बराकर और मोहाना नदियाँ, चतरा क्षेत्र की जाम, नीलांजन और सातवाहिनी नदियाँ, लोहरदगा क्षेत्र की शंख और कोयल, गुमला क्षेत्र की शंख और पालमारा नदियाँ गत वर्ष अप्रैल माह तक सूख चुकी थीं। झारखंड क्षेत्र से जल का संग्रह करके यहाँ के खदान क्षेत्रों से गुजरकर पश्चिम बंगाल को पार करके समुद्र से मिलने वाली दामोदर नदी गत वर्ष अप्रैल के मध्य तक सूख चुकी थी। यदि इन परिस्थितियों पर गम्भीरता से विचार करें, तो आने वाले दिनों में यह राज्य एक भयावह जल त्रासदी की ओर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है।
भूमिगत जल में खनिजों का सान्द्रण: भूमिगत जल निदेशालय की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य के कई क्षेत्रों के भूमिगत जल में आर्सेनिक एवं कुछ अन्य खनिजों की मात्राएँ खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी हैं। साहेबगंज, राजमहल और पलामू के विभिन्न क्षेत्रों से लिये गए भूमिगत जल के कुल 2500 नमूनों में से लगभग 250-300 नमूनों में खतरनाक स्तर तक आर्सेनिक पाया गया था।
उत्तरोत्तर बढ़ती हुई बहुमंजिली इमारतों के कारण डीप बोरिंग द्वारा भूमिगत जल का दोहन और दुरुपयोग नए राज्य के गठन के बाद से तेजी से बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर वन विनाश के कारण भूमि की सतह मृदा रंध्रों के बन्द हो जाने से वर्षाजल का शोषण नहीं कर पा रही है। झारखंड की पठारी भूमि और इसके अन्दर पाई जाने वाली चट्टानें भी बहुत हद तक जल के अन्तः शोषण हेतु उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार वर्षा के जल का रिसाव भूमिगत जल के दोहन की तुलना में बहुत कम है।
बढ़ती हुई अपार्टमेंट सभ्यता पूर्णतः भूमिगत जल पर आश्रित है। भूमि के अन्दर जल की मात्रा के घटने से उस जल में चट्टानों से निकलकर घुल जाने वाले खनिजों की मात्रा बढ़ती चली जाती है और उस जल को पीने वाले खतरनाक बीमारियों के शिकार होने लगते हैं।
विलुप्त होते पारम्परिक तालाब : झारखंड के पूर्वजों ने अपनी वैज्ञानिक सोच के कारण यहाँ की पारिस्थितिक संरचना को ध्यान में रखकर प्रायः सभी क्षेत्रों में पारम्परिक तालाब खुदवाए थे। उन तालाबों में से बड़ी संख्या में तालाबों का नामोनिशान मिट चुका है। अत्यधिक मात्रा में तालाबों में गाद जमा होते रहने के से तालाबों का छिछला हो जाना और उनकी सफाई न किया जाना, तालाबों के लुप्त होने का एक कारण हो सकता है। लेकिन प्रायः ऐसा नहीं है।
अधिसंख्य तालाबों को अवैध रूप से कब्जा करके उन पर निर्माण किए जा चुके हैं। यही कारण है कि बहुत से तालब बुजुर्गों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों तक सीमित हो चुके हैं। उल्लेखनीय है कि पारम्परिक तालाबों द्वारा जल का संरक्षण तो होता ही था, ये स्थानीय सूक्ष्म जलवायु को भी नियंत्रित रखते थे। इनसे स्थानीय जल चक्र भी सुचारू रूप से चलता रहता था। लेकिन इन तालाबों के विलुप्त होने से स्थानीय जलवायु में परिवर्तन, वर्षा में कमी तथा जैवविविधता की हानि जैसी अन्य समस्याओं ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया है।
सूखते जल प्रपात: झारखंड के सूखते जल प्रपात भी आने वाले जल संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। जंगलों से गुजरने वाले झरने जो वर्षभर जल के स्थाई स्रोत बने रहते थे और सम्पूर्ण क्षेत्र की पारिस्थितिकी को नियंत्रित करते थे, तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। राज्य के बहुत से जलप्रपात फरवरी माह से ही सूखने लग जाते हैं। जोन्हा, सीता तथा हिरनी जलप्रपात जो वर्षभर भ्रमणार्थियों के आकर्षण के केंद्र बने रहते थे, अब जाड़े के मौसम में ही सूखने लगते हैं। यद्यपि विश्वास नहीं होता तथापि यह उल्लेखनीय है कि कुछ कथित पर्यावरणविद इसे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानते हैं, जो हास्यास्पद है। जल संकट से जुड़ी इन समस्याओं का वस्तुतः जलवायु परिवर्तन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
नागरिक भावना : उपदेशों की आधुनिक परम्परा में सभी दूसरों को सिखाते हैं और दूसरों पर दायित्व मढ़ते हैं। यहाँ मानव बस्तियों में न तो जल निकासी की समुचित व्यवस्था है, न तो इच्छाशक्ति। सभी सरकार को दोषी ठहराते हैं। शहरी क्षेत्रों की कुछ अच्छी कॉलोनियों में भी ऐसे नाले हैं, जिनकी कोई मन्जिल नहीं। सभी प्रकार के कचरे नालियों में फेंके जाते हैं। बन्द नालियों में सड़ते हुए कचरे तरह-तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं। ये नालियाँ वर्षाकाल में सड़कों से होकर बहती हैं। यदि सम्पूर्ण समाज घर का कचरा नालियों में डालता है, तो क्या निगम कर्मचारियों के भरोसे नालियाँ साफ रह सकती हैं। झारखंड के शहरी क्षेत्रों में ऐसे उदाहरण कभी नहीं आते, जहाँ नागरिक समितियों ने जल संरक्षण के लिये कोई नवाचार किया हो। अलबत्ता ग्रामीण समाज से ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जहाँ ग्रामीणों ने जंगल बचाने और जल का संरक्षण करने का कोई प्रयास किया हो। परन्तु कमजोर, मासूम और गरीब ग्रामीण जनता माफिया ताकतों से कैसे लड़ेगी? तो क्या माफिया ताकतों को पर्यावरण संरक्षण की बातें समझ में नहीं आती हैं। प्राकृतिक संसाधन संयुक्त धरोहर है, जिनकी सुरक्षा तभी सम्भव है, जब सभी मिलकर संयुक्त प्रयास करें। जल संसाधनों के विनाश से उत्पन्न त्रासदी में सबको भागीदार बनना पड़ेगा। तो त्रासदी रोकने के लिये क्या सभी की भागीदारी आवश्यक नहीं है? जरूरत है नागरिक भावना के साथ नैतिक मूल्यों को अपनाने की।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
जल, जंगल व जमीन | |
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खनन : वरदान या अभिशाप | |
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