जल सत्याग्रह: हमने भंवर बांध लिए पाँवों में

न कोई ख्वाब हमारे हैं न ताबीरें हैं,
हम तो पानी पर बनाई हुई तस्वीर हैं!

.कतील शिफाई

हमारा शहरी समाज अपने पड़ोसी गाँवों को अंधेरे में नहीं वरन पानी में डुबा कर सिर्फ अपने घर को ही नहीं बल्कि ऐशो-आराम के सारे मकामों को जगमगा रहा है। विकास की इस आंधी में उसकी हिम्मत सिर उठाकर खड़े होने की नहीं है। इस प्रकार की हृदयहीनता कभी भारतीय समाज को घेर लेगी ऐसी तो कल्पना ही नहीं की गई थी। स्थितियाँ तब और गंभीर हो जाती हैं जब हमारी चुनी हुई वैधानिक सरकारें संविधान के खंड-2 में मूल अधिकारों के संबंध में दिए गए इस निर्देश का भी पालन नहीं करती। मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी में एक वर्ष में दूसरी बार जल सत्याग्रह पर बैठा समुदाय कतील शिफाई की इन पंक्तियों पर शत-प्रतिशत खरा उतर रहा है। इंदिरा सागर बांध प्रभावित पिछले करीब दो हफ्ते से पानी में बैठे हैं। सात अलग-अलग स्थानों पर जलाशय में उतरे इन सैकड़ों लोगों में ऐसी घरेलू महिलाएं शामिल हैं, जिनके सिर पर रखा पल्ला इतनी असहनीय पीड़ा के बावजूद सिर से खिसका नहीं है। इसे उनकी दकियानूसी सोच कहकर नहीं नकारा जा सकता। क्योंकि इस तीखी गर्मी में यही उनका कवच है। ये उनके साहस का भी प्रमाण है कि इतने संकट के समय में भी वे पूरी शिद्दत और चेतना के साथ संघर्षरत हैं। पानी से बाहर दिखते गलते पैर उनके पैरों की नहीं बल्कि हमारे तंत्र की गलन को अभिव्यक्त कर रहे हैं। इस जल सत्याग्रह में इन महिलाओं के अलावा बड़ी संख्या में पुरुष और बच्चे ही नहीं, तिपहिया साइकल व चारपाई पर लेटे हुए विकलांग भी दिख जाते हैं जो अपनी विकलांगता पर विजय पाकर शासन की “विकलांगता’’ को उजागर कर रहे हैं। देशभर का मीडिया आज इन सत्याग्रहियों के साथ खड़ा है और शासन को समझा रहा है कि ठहरे पानी में आई यह सुनामी इस पूरे तंत्र को आज नहीं तो कल ध्वस्त कर देगी। लेकिन कबूतर की तरह आंख मींचकर स्वयं को सुरक्षित समझ रहा शासक वर्ग अपने कान में रुई ठूंसे और आंख पर पट्टी बांधे आने वाली सुनामी की आहट की जानबूझकर उपेक्षा कर रहा है।

मध्य प्रदेश शासन ने इस वर्ष बांध की ऊंचाई को 260 मीटर से 262 मीटर ऊपर कर कौन सा तीर मार लिया है, ये तो वे ही बता सकते हैं। लेकिन वे हर वर्ष सिंचाई क्षमता में वृद्धि को जोर-शोर से बताते हैं, लेकिन वास्तव में खेतों में इसका कितना उपयोग हुआ है, यह छुपा जाते हैं। मानसून की शुरुआत में ही अनेक स्थानों पर सिंचाई की मुख्य नहरें टूट गई थीं। इससे साफ जाहिर हो जाता है कि वस्तु स्थिति क्या है? पिछले दिनों इंदौर में एक वरिष्ठ शासकीय अधिकारी ने जल सत्याग्रह संबंधी ज्ञापन लेते हुए टिप्पणी की थी कि, यह सबकुछ तो “करार’’ में लिखा ही हुआ है। इस पर वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अनिल त्रिवेदी ने कहा था कि यह एक मात्र आंदोलन है, जिसकी संभवतः अपनी कोई मांग ही नहीं है और यह तो केवल शासन से उसके द्वारा किए गए वायदों को पूरा करने का आग्रह कर रहा है और बदले में उसे लांछन और जेल भुगतनी पड़ रही है।

जरा गौर करिए पानी में बैठा यह समुदाय क्या मांग कर रहा है, सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों के आदेशों के अनुसार इंदिरा सागर बांध का स्तर 260 मीटर के ऊपर न ले जाया जाए, किसानों को ज़मीन के बदले ज़मीन और न्यूनतम 5 एकड़ भूमि दी जाए (पुनर्वास नीति में प्रावधान के अनुसार), मज़दूरों को 2.5 लाख रु. अनुदान (ओंकारेश्वर बांध प्रभावितों को दिए गए अनुसार) दिया जाए, भू-अर्जन पूर्णता के साथ व पुनर्वास भी पूर्णता से हो, टापू बनी जमीनों व मकानों तक पहुंचने के लिए पुलिया और सड़कों का निर्माण किया जाए, जिन किसानों की जमीनें डूब गई हैं, उनके घरों का भी अधिग्रहण किया जाए (क्योंकि वहां अब कोई रोज़गार ही नहीं है), पुनर्वास स्थलों पर पानी और रोज़गार की व्यवस्था की जाए और बैक वाटर सर्वेक्षण में छोड़े गए गाँवों का सर्वेक्षण हो। इन बातों के क्रियान्वयन हेतु सरकार कानूनी रूप से बाध्य है, लेकिन सरकार की जवाबदारी तो अब संभवतः सर्वोच्च न्यायालय भी तय नहीं कर सकता!

हम सभी जानते हैं कि नर्मदा घाटी सभ्यता भारत की प्राचीनतम आरण्यक सभ्यता है और माना जाता है कि एशिया का पहला किसान इसी घाटी में विकसित हुआ है, लेकिन आज तो उसका अस्तित्व ही संकट में है। उसे अपने ही आंगन में जलसमाधि लेने की ओर बढ़ना पड़ रहा है। जबकि हमारा संविधान अनुच्छेद 2 (21) में प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण की गारंटी देता है। इतना ही नहीं इस मूल अधिकार को भारतीय परंपरा से जोड़ते हुए न्यायमूर्ति भगवती ने एक निर्णय में लिखा था, “ये मूल अधिकार वैदिक काल से इस देश के लोगों द्वारा संजोए गए आधारभूत मूल्यों का निरूपण करते हैं और व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने तथा ऐसी दशाएं उत्पन्न करने के लिए उपयुक्त हैं, जिनमें प्रत्येक मानव अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास कर सकता है।’’ इसी बात को आगे बढ़ाते हुए हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने मूल अधिकारों को’’ हमारी जनता के साथ किया गया वादा तथा सभ्य विश्व के साथ की गई संधि’’ बताया था।

लेकिन हम आज इन मूल अधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन देख कर भी चुप बैठे हैं। जबकि खुमार बाराबंकवी ने साफ लिखा है,
डूबा हो जब अंधेरे में हमसाए का मकान,
अपने मकां में शमा जलाना गुनाह है।


मगर हमारा शहरी समाज अपने पड़ोसी गाँवों को अंधेरे में नहीं वरन पानी में डुबा कर सिर्फ अपने घर को ही नहीं बल्कि ऐशो-आराम के सारे मकामों को जगमगा रहा है। विकास की इस आंधी में उसकी हिम्मत सिर उठाकर खड़े होने की नहीं है। इस प्रकार की हृदयहीनता कभी भारतीय समाज को घेर लेगी ऐसी तो कल्पना ही नहीं की गई थी। स्थितियाँ तब और गंभीर हो जाती हैं जब हमारी चुनी हुई वैधानिक सरकारें संविधान के खंड-2 में मूल अधिकारों के संबंध में दिए गए इस निर्देश, “राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।’’ का भी पालन नहीं करती।

भारत में जबरिया विस्थापन के विरुद्ध चल रहे संघर्षों के प्राण तो नर्मदा घाटी में ही बसते हैं। यहां इस अन्याय को नए सिरे से न केवल परिभाषित ही किया गया है बल्कि इसे जनआंदोलन का स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यहां एक और बात का उल्लेख करना शायद अनुचित नहीं होगा। मध्य प्रदेश की भाजपा नीत सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं को किसान का बेटा बताते नहीं थकते और उन्होंने ही पारित नए भूमि अधिग्रहण हेतु सिंचाई परियोजनाओं में किसानों को ज़मीन के बदले ज़मीन न दिए जाने का प्रस्ताव दिया। इसे प्रधानमंत्री ने असाधारण तीव्रता से स्वीकार कर हाथों-हाथ कानून में डलवा दिया। वहीं दूसरी ओर देखें तो कांग्रेस की भूमिका भी कम डरावनी नहीं है। यह बांध उनकी सर्वकालिक महान नेता पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम पर ही इंदिरा सागर बांध कहलाता है। कांग्रेस इंदिरा गांधी को गरीबों और वंचितों का मसीहा बताते नहीं थकती। आज उनके नाम पर बने बांध और जलाशय में हो रहे अन्याय पर कांग्रेस की चुप्पी बता रही है कि वे अपने “पूज्य’’ नेता का कितना सम्मान करते हैं।

नर्मदा घाटी में हो रहे अन्याय के खिलाफ नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवाई में चल रहा यह अहिंसक जल सत्याग्रह हमें समझा रहा है कि किसी आदर्श के लिए स्वयं को सूली पर चढ़ा देने वाला समुदाय आज भी इस ग्रह पर मौजूद है और उसने अपने हाथों से इस मानवता को सहेज रखा है। आवश्यकता इस बात की है कि इसमें हमारा हाथ भी जुड़े और हम सबका यानि सारी मानवता का भविष्य बच पाए।

कतील शिफाई के शब्दों में जल सत्याग्रहियों को कुछ ऐसे देखा जा सकता है,
कत्ल करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में,
हमने खुश होकर भंवर बांध लिए पांव में।


अब ये हमारी जवाबदारी है कि ऐसा हुक्मनामा रद्द हो।

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