हमारे इंजीनियरों की जल संसाधन परियोजनाओं के सफलतापूर्वक नियोजन, परिचालन और देखरेख की क्षमता ने ‘वैपकोस’ (डब्ल्यू,ए.पी.सी.ओ.एस.) को जन्म दिया। ‘वैपकोस’ की स्थापना इस क्षेत्र में परामर्श सेवाओं के निर्यात के लिये की गई है। विभिन्न कृषि जलवायु परिस्थितियों में जल-संसाधनों को काम में लाने की भारतीय विशेषज्ञता अधिकांश अफ्रीकी और अरब देशों के उपयुक्त है। लेखकों का मत है कि इस क्षेत्र में हम भविष्य के प्रति आशान्वित हो सकते हैं क्योंकि हम उपयुक्त परामर्श के साथ-ही-साथ कम लागत में भी परामर्श सेवाएँ उपलब्ध करा सकने की स्थिति में हैं।
ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में जल को ‘आदम की शराब’ बताया गया है। यह इस महत्त्वपूर्ण संसाधन की सारगर्भित परिभाषा है। सभी जीवित प्राणी या पेड़-पौधे जल में या जल की मदद से जीवित रहते हैं। वायु के अतिरिक्त कोई भी अन्य प्राकृतिक या मानव निर्मित संसाधन जीवन के लिये उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना जल महत्त्वपूर्ण है। इसके बावजूद यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि पृथ्वी पर विभिन्न जगहों पर मानव के लिये उपलब्ध जल की गुणवत्ता और मात्रा आवश्यकता से काफी कम है। इन दोनों को सुनिश्चित करने के मनुष्य के प्रयासों ने ज्ञान के कई नए परिदृश्य खोल दिये हैं। यदि हम जल प्रौद्योगिकी को राजा मान लें तो विज्ञान के अन्य कई क्षेत्र जैसे मौसम विज्ञान, जल विज्ञान, हाइड्रोलिक, सागर विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान, रसायन शास्त्र तथा विद्युत और यहाँ तक कि समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और पुरातत्व जैसे विषय अमर कवित सैमुएल टेलर कोलरिज के शब्दों में, ‘चारण जो राजा की स्तुति में लगे रहते हैं’ जैसे प्रतीत होंगे। जीवन के लिये जरूरी जल प्राचीन सभ्यताओं के लिये घर जैसा रहा है जो अन्तरराष्ट्रीय और महत्त्वपूर्ण नदियों के तट पर विकसित हुई। जल उपलब्धता की समस्या कुछ क्षेत्रों में जरूरत से ज्यादा, कुछ में आश्यकता से कम और कुछ में पूरी तरह से शुद्ध न होने के रूप में दर्शाई गई है। संक्षेप में कहें तो जल संसाधनों के विकास के दोहरे उद्देश्य हैं। पहला तो उत्पादों और सेवाओं के सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि और दूसरा पर्यावरण के स्तर में सुधार।असाधारण विशेषताएँ
यदि अपने देश का उदाहरण लें तो यह बड़े सन्तोष और सौभाग्य की बात है कि प्रकृति ने हमारे देश को अनोखी भौगोलिक विशेषताओं, विशाल बारहमासी नदियों, लम्बे समुद्रतट और काफी फेरबदल वाली जलवायु का उपहार दिया है। निःसन्देह भारत के स्वर्ण युग के दौरान राजाओं ने प्रजा के कल्याण को उच्च प्राथमिकता दी होगी। इस बात का प्रमाण जल को काम में लाने की योजनाएँ, छोटे तटबन्ध और पानी से भरी लहरें हैं जो कल्पना से सत्य में बदल दिये जाने के कई शताब्दियों बाद आज भी वर्तमान हैं और उपयोगी ढंग से काम कर रही है।
प्रासंगिक प्रौद्योगिकी का विकास
यह वास्तविकता है कि व्यापारिक क्षेत्र में अंग्रेजों के आगमन से अन्य बातों के अलावा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में धीरे-धीरे किन्तु मूलभूत परिवर्तन आये। जल संसाधनों के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान के विपुल अवसरों को व्यर्थ नहीं जाने दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे पास केनेडी, लासी, बोस और खोसला जैसे स्तर के अनुसन्धानकर्ताओं की एक लम्बी फेहरिस्त रही है। इसके अलावा हमें यादगार और अमूल्य उपहारों के रूप में इंजीनियरी शिक्षा में कुछ अति उत्तम केन्द्र भी मिले। स्वतंत्रता के हमारे संघर्ष की सफलता के बाद अर्थव्यवस्था को राजनीति पर तरजीह दी गई। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता और विशेषज्ञता के विकास को, विशेषकर विदेशी तकनीकी विशेषज्ञों पर दीर्घकालिक निर्भरता के विकल्प के रूप में सबसे महत्त्वपूर्ण समझा गया। बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के रूप में कई बड़ी परियोजनाओं को हाथ में लिया गया और उन्हें सिर्फ स्वदेशी तकनीक और जानकारी की मदद से पूरा किया गया। इन परियोजनाओं ने अपने निर्धारित उद्देश्यों को बेहतर ढंग से पूरा किया है। इसके अतिरिक्त ये सुरक्षा, आर्थिक लाभ, जीव-जन्तु, वनस्पति और आबादी पर अधिक बुरे प्रभावों के न पड़ने के सन्दर्भ में समय की माँग पर खरे उतरे हैं। ये ही चीजें सम्बन्धित समीपस्थ पर्यावरण का हिस्सा होती हैं। यहाँ पर भाखड़ा नंगल, हीराकुण्ड और इन्दिरा गाँधी नहर जैसे इंजीनियरिंग के कुछ उदाहरणों का जिक्र करना धृष्टता नहीं होगी।
यह सम्भव है कि प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हो रही प्रगति के सन्दर्भ में इनमें से कुछ परियोजनाएँ नवीनतम प्रौद्योगिकी का दावा नहीं कर सकतीं। लेकिन यहाँ इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि एक तरफ संसाधनों की कमी और दूसरी ओर बड़ी मात्रा में उपलब्ध सस्ती मानव शक्ति के सन्दर्भ में, अपनाई गई प्रौद्योगिकी बिल्कुल उपयुक्त थी। उपयुक्त प्रौद्योगिकी की इसी धारणा ने विकासशील देशों की परामर्श सेवाओं के निर्यात के विचार को प्रोत्साहित किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में हमारे अधिकांश वरिष्ठ इंजीनियरों को उपरोक्त प्रतिष्ठित और महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं के कार्यान्वयन से अमूल्य अनुभव मिलने के अलावा विदेशी विशेषज्ञों से सहयोग और गहन विचार-विमर्श का भी सौभाग्य मिला। पड़ोस और सुदूर अफ्रीका के उदीयमान देशों ने हमारे इस अमूल्य अनुभव को तत्काल पहचाना क्योंकि यह उनके विकास प्रयासों से तत्काल और सीधा सम्बन्ध रखता था। कुछ विशेषज्ञों की सेवाएँ जुटाई गईं और उन्हें तत्काल उन सरकारों के लिये उपलब्ध करा दिया गया जिन्हें इनकी जरूरत थी। इस बीच हमारे नीति-निर्माताओं ने जल संसाधन विकास के क्षेत्र में जानकारी को पुष्ट करने के लिये मजबूत अनुसन्धान कार्य की आवश्यकता महसूस की।
सारणी-1 से वर्षा के भिन्न-भिन्न विस्तृत स्वरूपों और मात्रा का केवल सिंचाई के सन्दर्भ में अनुमान लगाया जा सकता है।
इससे हमें प्राकृतिक रूप से उपलब्ध वृष्टिपात का अनुमान मिल सकता है। खेती के क्षेत्र और फसल के घनत्व के आधार पर जल की आवश्यकता को पूरा करने की सिंचाई योजनाएँ अनुपूरक का काम करती हैं। सारणी-2 में विभिन्न प्रकार के उत्पादों की खेती में प्रयुक्त भूमि का विवरण दिया गया है: -
सारणी-3 से सिंचाई के लिये उलपब्ध विभिन्न स्रोतों का अनुमान लगाया जा सकता है।
उपरोक्त तथ्यों पर दृष्टिपात करने से, अनुभव के उन विभिन्न पहलुओं की पुष्टि होती है जिनकी वजह से भूमध्यवर्ती, उष्ण कटिबन्धीय और शुष्क कटिबन्धीय क्षेत्रों से विकासशील देशों के लिये प्रासंगिक दक्षता हासिल करने में मदद मिली है। ‘वैपकोस’ ने समय-समय पर अपने निर्यात प्रयासों के लिये अनुभव के इस भण्डार का उपयोग किया है।
सारणी-1
भारत में वर्षा के वितरण का स्वरूप
सामान्य वार्षिक वर्षा (मि.मी. में) | मौसम सब डिविजनों की संख्या |
0-500 | 1 |
501-1000 | 18 |
1001-1500 | 8 |
1501-2000 | 2 |
2001-2500 | 3 |
2501-3000 | 1 |
3001-3500 | 1 |
3501-4000 | 1 |
सारणी-2
विभिन्न उत्पादों की खेती के लिये प्रयुक्त भूमि का विवरण
उत्पाद का नाम | खेती के लिये प्रयुक्त भूमि का क्षेत्रफल (हेक्टेयर) में |
धान | 38,944 |
बाजरा | 25,990 |
गेहूँ | 23,372 |
दालें | 21,701 |
तिलहन | 21,554 |
कपास | 7,190 |
अन्य अनाज | 6,357 |
फल | 5,943 |
ज्वार | 5,604 |
सब्जियाँ | 3,619 |
गन्ना | 3,391 |
अन्य | 10,386 |
कुल | 1,74,051 |
‘वैपकोस’ की स्थापना
विविध तराई एवं अनुवर्ती मानकों ने हमारे योजना निर्माताओं को मूलभूत अनुसन्धान के लिये संस्थान की स्थापना के लिये भूमिका और प्रोत्साहन उपलब्ध कराया। इस प्रयास का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि स्थानीय स्थितियों के अनुरूप सम्बन्धित क्षेत्रों के भारतीय मानकों का प्रकाशन हुआ। इन मानकों को तैयार करने में कार्यरत इंजीनियरों, शिक्षाविदों और अनुसन्धानकर्ताओं की जानकारी का खुला और विशुद्ध इस्तेमाल किया गया। इस प्रक्रिया में जल-संसाधन के क्षेत्र में नई परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार करते समय आवश्यक दक्षता को विकसित और परिमार्जित किया जा सका। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है इससे विकासशील दुनिया के बाजार तैयार करने और उसे विस्तृत करने में मदद मिली।
जटिल किस्म की जल-संसाधन परियोजनाओं को तैयार करने, कार्यान्वित करने, उनका परिचालन और देखभाल करने का आत्मविश्वास हासिल करने के बाद यह पाया गया कि मानव के प्रकृति के साथ सामंजस्य के इस विस्तृत क्षेत्र की परामर्श सेवाओं का निर्यात भी किया जा सकता है। ‘वैपकोस’ की परिकल्पना एक निर्यात संगठन के रूप में की गई और 26 जून, 1969 को इसकी स्थापना की गई। कुछ अन्य अनुकूल परिस्थितियाँ, जिनकी वजह से यह सम्भव हो सका, इस प्रकार हैं:-
1. पाश्चात्य परामर्शदाताओं के इस आकर्षण से इस सुविचारित तर्क की स्थापना हुई कि यदि वही परिणाम कम लागत पर हासिल किये जा सकते हैं तो इसके लिये पाश्चात्य परामर्शदाताओं को ज्यादा पैसे देने में कोई अक्लमन्दी नहीं है।
2. तेल के क्षेत्र में आई तेजी के स्वाभाविक रूप से खत्म होने के बाद परामर्श एजेंसियों के चयन में उनकी लागत एक महत्त्वपूर्ण तत्व बन गई। इसकी वजह से कम लागत वाली भारतीय परामर्श सेवाएँ अन्य देशों की तुलना में आगे हो गईं।
3. व्यापार और उद्योग के विकास ने पर्यावरण के अनुकूल आवश्यक मूलभूत ढाँचे के अवलोकन और जलसंसाधन तंत्र की उपयोगी आयु सीमा के विस्तार को प्रोत्साहित किया। इस क्षेत्र में भारत की बहुमुखी दक्षता को तत्काल स्वीकृति मिली।
आशाजनक परिदृश्य
यदि हम परामर्श सेवाओं के क्षेत्र में अब तक हुए निर्यात का जायजा लें तो सन्तोष और गर्व करने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। वर्तमान परिदृश्य निःसन्देह आशाजनक है। हालांकि भविष्य की अप्रत्याशित समस्याओं को मद्देनजर रखते हुए हमें सन्तोष करके नहीं बैठ जाना चाहिए। निःसन्देह हम पर यह जिम्मेदारी आती है कि निर्यात की मात्रा के साथ-ही-साथ लक्ष्य वाले क्षेत्रों की भौगोलिक कवरेज की गति को भी कायम रखा जाये। इस सन्दर्भ में रणनीति का एक मूल तत्व ग्राहकों के मन से इस विचार को निकालना होना चाहिए कि परामर्श एजेंसियाँ पेशेवर सलाहकार होने के बजाय मात्र व्यापारिक प्रतिद्वन्दी हैं। ग्राहकों के मन में एक और भ्रान्ति यह होती है कि परामर्श संगठन की बजाय व्यक्तिगत परामर्शदाताओं से भी काम चलाया जा सकता है।
समस्याएँ और सम्भावनाएँ
परामर्श कम्पनियों ने कई वर्षों के अनुभव से जल-संसाधन नियोजन की दक्षता विकसित की है जो कि अक्सर एक बहुविध गतिविधि नहीं होती। कभी-कभी बातचीत के दौरान ग्राहक, परामर्श कम्पनियों पर दरें कम करने के लिये अनावश्यक दबाव डालते हैं। ऐसे में इन कम्पनियों के लिये उस स्तर का काम देना और भी कठिन हो जाता है जैसा वे स्वयं चाहती हैं या ग्राहक उनसे अपेक्षा रखते हैं। इन अधिकांश समस्याओं का निदान योग्यता और ग्राहक के हितों के प्रति प्रतिबद्धता के माध्यम से एक स्वस्थ ग्राहक परामर्शदाता सम्बन्धों की स्थान करके किया जा सकता है। एक परामर्शदाता कम्पनी को लगातार नई खोजों में लगा रहना पड़ता है। ‘लिओनार्डो द विंची’ ने इंजीनियरिंग के अपने ज्ञान और अपार कल्पना शक्ति की मदद से कई ऐसी परिकल्पनाएँ कीं जिन्हें उनकी बाद की पीढ़ियाँ ही पूरी कर पाईं।
परामर्श संगठन के पास अपनी कम-से-कम उतनी अनुसन्धान और विकास सुविधाएँ होनी चाहिए जिनका वे भार सहन कर सकें। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस तेजी से बदलते क्षेत्र में एक से अधिक समाधान हो सकते हैं जो एक जैसे नहीं भी लग सकते हैं। उपयुक्त प्रौद्योगिकी के चयन ने स्थानीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग, पर्यावरणीय प्रभाव से होने वाले अन्य ऐसे ही क्षेत्रों की ओर इंगित किया। आज के सन्दर्भ में परामर्श संगठन की भूमिका डिजाइन तैयार करके दे देने मात्र से ही समाप्त नहीं हो जाती है। अक्सर उन्हें कार्यान्वयन और परिचालन के स्तर पर भी जुड़ना होता है। यहाँ पर परामर्शदात्री कम्पनी को ठेकेदारों से प्रतिबद्धता करनी पड़ती है। वास्तविकता की सही पहचान, टेंडरों की जाँच और प्रगति के आकलन (गुणवत्ता और मात्रा के पहलू) में निहित है। इसके अतिरिक्त यदि डिजाइन किसी और संगठन ने तैयार किया है तो इसमें आवश्यक समझे जाने वाले परिवर्तनों की ओर टेंडर जमा करते वक्त ही इंगित कर देने से लाभ होता है। परियोजना के लिये धन उपलब्ध कराने वाली एजेंसियाँ आजकल एक पेशेवर क्षतिपूर्ति शर्त को भी शामिल करने पर जोर देती हैं। हालांकि जोखिम उठाने के लिये बीमा कम्पनियों को प्राथमिकता दी जाती है लेकिन फिर भी परिणाम के रूप में समय की बर्बादी और बड़े विकास प्रयासों को धक्का पहुँचने की सम्भावना को ध्यान में रखना चाहिए। सक्षम परामर्शदाता संगठन अधिकांश मामलों में ग्राहकों का कुछ इस तरह विश्वास अर्जित करने में सफल हो जाते हैं कि भविष्य में परियोजना के विस्तार सम्बन्धी रूपरेखा को तैयार करने का काम भी उन्हें ही मिलता है।
सारणी-3
विभिन्न स्रोतों द्वारा सिंचित भूमि का विवरण
(हजार हेक्टेयर में)नहर | तालाब | कुएँ | अन्य स्रोत | कुल |
16,317 | 3,200 | 22,756 | 2871 | 45,144 |
एक विचारधारा वह भी है कि जिसके अन्तर्गत निर्माताओं या निर्माण कार्य करने वाले ठेकेदारों के साथ मिलकर परियोजना को पूरी तरह उसे ग्राहकों को सौंपने के तरीके को प्रोत्साहित किया जाता है। लेकिन इस तरीके में एक आशंका बनी रहती है। बोझिल होने के साथ-साथ इसमें परामर्शदाता संगठनों की स्वतंत्रता से भी समझौता करना पड़ता है।
निगरानी रखना
विभिन्न राजनीतिक कारणों से सरकार ने बाजार अर्थव्यवस्था, उदारीकरण और निजीकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित की है। निर्माणाधीन परियोजनाओं की प्रगति पर अन्तरराष्ट्रीय संगठन नजर रखते हैं। ये संगठन जनसाधारण के जीवनस्तर को सुधारने के क्षेत्र में अनुसन्धान करते हैं। इसने सम्भावनाओं का एक नया विश्व प्रस्तुत किया है। धन, उपकरणों व्यक्तियों और समय की उपलब्धता पर उस प्रचुर मात्रा में नहीं रही जितनी कि वह पहले होती थी। कम जस्टेशन अवधि की सुसम्बद्ध एवं व्यवहार्य परियोजनाएँ अक्सर जिक्र किये जाने वाले आदर्श योजना मॉडल की तुलना में जल संसाधनों के विकास की आवश्यकता का बेहतर समाधान हो सकती हैं।
कार्यान्वयन और साथ-ही-साथ परिचालन के स्तर पर भी परियोजना पर सटीक नजर रखना जरूरी है क्योंकि अब ग्राहक ज्यादातर इसकी आवश्यकता को महसूस करने लगे हैं। प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण उस सीमा तक अच्छा होता है जहाँ तक कि यह परामर्श संगठन के परिचालन को पारदर्शी बनाता है। इसके अतिरिक्त ग्राहक को दोषमुक्त प्रक्रिया से ही सन्तोष होता है, इस प्रकार परियोजना प्रबन्ध, प्रबन्ध सूचना पद्धति और अपने आप में सम्पूर्ण साफ्टवेयर पैकेज के क्षेत्र अब सरकारों के लिये समय की आवश्यकता बन गए हैं। दूसरी ओर शासित वर्ग एक स्वर में जल के अधिकतम उपयोग की माँग कर रहा है। क्षेत्रफल की प्रति इकाई की तुलना में अब प्रति इकाई प्रयुक्त किये जाने वाले जल की मात्रा महत्त्वपूर्ण हो गई है। प्रत्येक समझदार ग्राहक अब विश्वसनीय अध्ययन और संचार की द्रुत पद्धति से युक्त स्वचालित नहर परिचालन पर बल देने लगता है। परामर्शदाता संगठन के पास प्रणाली की सुचारू रूप से देखभाल और संचालन के बारे में अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने की क्षमता भी होनी चाहिए। तथा तथ्य सिर्फ ग्राहक के दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि परामर्शदाता संगठन के लम्बी अवधि के हितों के सन्दर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय अनुभव
भारत को 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र में अनुसन्धान संगठनों के माध्यम से कृषि के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकी विकसित की गई है। विभिन्न कृषि जलवायु परिस्थितियों की प्रौद्योगिकी को अधिकांश अफ्रीकी और अरब देश अपना सकते हैं। अब गहन खेती, विस्तृत खेती पद्धति का स्थान लेने लगी है। छोटी सिंचाई परियोजनाओं ने अधिक उपज वाली फसलों की साल भर खेती के अवसर उपलब्ध कराए हैं।
भविष्य के लिये योजना
अब आत्म विश्लेषण का समय आ गया है। एक बार जब कोई परामर्शदाता संगठन विकास का स्तर हासिल करने और उसे बनाए रखने में कामयाब हो जाता है तब उसे अपने भविष्य के बारे में योजनाएँ तैयार करनी पड़ती हैं। नानारूपकरण (डाइवर्सिफिकेशन) शब्द का इस्तेमाल आजकल फैशन हो गया है। परन्तु अक्सर लोग इसका सही अर्थ नहीं समझते। पहले परम्परागत क्षेत्रों में परियोजनाओं की तैयारी के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर गौर करना जरूरी है। बहुविध ग्राहकों (बहुविध उद्देश्यों वाले) में किस वर्ग को हम पहले सन्तुष्ट करना चाहेंगे? किसी परियोजना का डिजाइन ईमानदारी से तैयार करने में कम-से-कम किस तरह के और कितने आँकड़ों की जरूरत होती है? कितनी जल्दी हम इसे प्राप्त करते हैं? यह सुनिश्चित करने के लिये कि संसाधनों के विस्तार और विकास कार्यक्रमों की आड़ में प्रतिकारी कामों के लिये खर्च न किया जाये। नियोजन, कार्यान्वयन और संचालन के समक्ष किस तरह की जाँच-पड़ताल की जरूरत होगी? क्या उर्ध्वाधर (प्रयोगशाला से भूमि) और क्षैतिज (पायलट परियोजना से विशाल परियोजना दोनों प्रकार की प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण के समय सावधानी बरती जाती है? बड़ी संख्या में उपलब्ध विकास के विकल्पों में से कौन सा आकांक्षाओं और माँगों के ज्यादा अनुरूप है? परामर्शदाता इंजीनियर के समक्ष कुछ ऐसे विचारणीय प्रश्न होते हैं जिनका ईमानदारी से उत्तर देना होता है। नहर परिचालन के क्षेत्र में तेजी से बढ़ती स्वचालन और ‘टेलीमेट्री’ की माँग को देखते हुए, मिट्टी और जल संरक्षण की एकीकृत परियोजनाओं के क्षेत्र में दक्षता हासिल करना जरूरी है। इसके लिये तत्काल ‘फीडबैक’ प्रक्रिया पर आधारित ऐसी जटिल माँग पर आधारित प्रणाली में भी दक्षता हासिल करना जरूरी है।
जहाँ तक परिचालन का सवाल है एक परामर्शदाता संगठन (जो व्यापारिक आधार पर जल-संसाधन के क्षेत्र में कार्य कर रहा है) को, जिसने अपने शुरुआती वर्ष पूरे कर लिये हों, काफी सन्तुलन रख कर चलना पड़ता है। विभिन्न देशों में विकास के परिदृश्य भिन्न-भिन्न हो सकते हैं क्योंकि वह जलवायु, क्षेत्र, जनसांख्यिकी, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक विचारधारा से नियन्त्रित होते हैं। क्या एक संगठन को स्वयं को सिर्फ बहुआयामी परियोजनाओं को चलाने तक सीमित करना चाहिए या इसे अपने कर्मचारियों को प्रत्येक उपक्षेत्र में सघन विशेषता हासिल करने के लिये प्रेरित करना चाहिए। अनुभवों से यह सिद्ध हुआ है कि स्थायी तकनीकी कर्मचारियों की मदद से यथेष्ट लचीलापन भी लाना होता है। स्थायी तकनीकी कर्मचारियों की मदद के लिये ठेके पर लोगों की नियुक्ति भी जरूरी होती है जिनकी संख्या, स्तर और स्वरूप का निर्धारण, हाथ में आये काम के अनुरूप किया जाता है।
उज्जवल भविष्य
आमतौर पर जल संसाधन के क्षेत्र में परामर्श सेवाओं के निर्यात के भविष्य को उज्जवल कहा जा सकता है। वर्षा पर आधारित खेती, एकीकृत खेती, एकीकृत जलग्रहण प्रबन्ध, एक घाटी से दूसरी घाटी में जल का हस्तान्तरण, सूक्ष्म और लघु जल विद्युत परियोजना, जलप्लावित लवणीय और क्षारीय भूमि का सुधार, भूमि के अन्दर के जल को कृत्रिम रूप से पुनः चालू करना, तटीय प्रबन्ध (जिसमें नौवहन, ज्वारीय ऊर्जा और पर्यावरणीय पक्ष सम्मिलित हैं), सिंचाई और विद्युत परियोजनाओं का आधुनिकीकरण और पुनर्वास, नियोजन कार्यान्वयन और आकलन के लिये ‘सॉफ्टवेयर’ का विकास, दूरसंवेदी का प्रयोग, भौगोलिक सूचना प्रणाली, नियोजन और प्रबन्ध के क्षेत्र में लाभार्थियों की भागीदारी, मलजल, सूचना इत्यादि कुछ आशाजनक क्षेत्र हैं। हम उस भाग्यशाली और वांछनीय स्थिति में हैं जहाँ हमने सभी पहलुओं के बारे में मौके पर अनुभव हासिल किया है। यह अनुभव उन कार्यक्रमों और परियोजनाओं के जरिए हासिल किया गया है जो लाभार्थियों की आकांक्षाओं पर खरी उतरी हैं।
अनुभवों से यह सिद्ध हुआ है कि विकसित देशों की परामर्शदाता कम्पनियाँ भी भारत जैसे विकासशील देशों की कम्पनियों के साथ गठबन्धन करने को उत्सुक हैं। इन गठबन्धनों के निम्नलिखित फायदे हैं:-
1. अपेक्षाकृत कम प्रति व्यक्ति उत्तरदायित्व,
2. समान वातावरण के फलस्वरूप मौके की परिस्थितियों की अच्छी जानकारी,
3. मजबूत तकनीकी आधार,
4. मौके पर पहुँचकर जाँच-पड़ताल के लिये पर्याप्त मूलभूत ढाँचा और दक्षता।
सफलता की कुंजी, मुख्यतया स्तरीय सामान, सेवाओं के विक्रय, सिर्फ लाभ के उद्देश्य से विचौलियों की सेवाएँ न लेने और जालसाजी और झूठ का सहारा न लेने जैसे कामों में सच्चाई और ईमानदारी के प्रति दृढ़ रहना है। सम्पूर्ण गुणवत्ता प्रबन्ध (टी.क्यू.एम.) जिसकी पहली सीढ़ी आई.एस.ओ. हजार सीरीज के मानक हैं, हमारी सेवाओं की विदेशों में विश्वासनीयता और स्वीकृति को बढ़ाने में बहुत मददगार साबित होगा। वास्तव में इस तरह की संकाय गतिविधि के लिये टी.क्यू.एम.के. दर्शन को अपनाना अपने आप में एक चुनौती है। जहाँ अन्य विशेषज्ञों, एजेंसियों और संगठनों के साथ विचारों का आदान-प्रदान अपरिहार्य हो, वहाँ भी यह अपने आप में एक चुनौती है।
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