जल संसाधनों का वैज्ञानिक उपयोग (The scientific use of water resources)


सूखा, बाढ़ और फिर सूखा यह दुष्चक्र हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बार-बार प्रभावित करते रहे हैं। इनके कारणों तथा बहुमूल्य जल संसाधनों के नुकसान का विश्लेषण करते हुए लेखक ने इस लेख में जल संरक्षण के अनेक उपाय सुझाए हैं। उनका कहना है कि जल संसाधनों के भरपूर दोहन के लिये हमें जल-नियोजन व प्रबन्ध का कार्य थाले अथवा उप-थाले को इकाई मानकर करना होगा।

वर्षा कहीं कम, कहीं अधिक होने और कहीं न होने से सूखा, बाढ़ और फिर सूखा पड़ने का क्रम चलता है। इस कारण देश का एक-तिहाई भाग सूखे से ग्रस्त रहता है और करीब आठवें भाग में बाढ़ आ जाती है। अब तक अधिक से अधिक पानी के भण्डारण पर बल दिया जाता था। लेकिन भण्डारण के लिये जल सीमित मात्रा में उपलब्ध है।

भारत में जल का मुख्य स्रोत वर्षा का पानी है। लेकिन नदियों में लबालब पानी केवल मानसून की अवधि में ही रहता है। वैसे गंगा जैसी नदियों में बर्फ पिघलने से निकला पानी गर्मी के मौसम में भी खूब रहता है लेकिन सूखे से प्रभावित रहने वाले क्षेत्रों में नदियाँ गर्मी के मौसम में प्रायः सूखी रहती हैं। देश में जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति को उपलब्ध पानी की मात्रा में निरंतर कमी हो रही है। वर्ष 1950-51 में यह 5150 क्यूबिक मीटर से अधिक थी लेकिन अब यह घटकर लगभग 2300 क्यूबिक मीटर रह गई है। अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता बहुत अधिक नहीं है और जापान तथा अमेरिका की तुलना में तो यह आधी से भी कम है।

वर्षा कहीं कम, कहीं अधिक होने और कहीं न होने से सूखा, बाढ़ और फिर सूखा पड़ने का क्रम चलता है। इस कारण देश का एक-तिहाई भाग सूखे से ग्रस्त रहता है और करीब आठवें भाग में बाढ़ आ जाती है। हर वर्ष सूखे व बाढ़ से भारी नुकसान होता है जिसका राष्ट्र की अर्थव्यवस्था तथा जनता के जीवन-स्तर पर बुरा असर पड़ता है। अतः अगर देश की विकास की गति को बनाए रखना है तो वर्षा के मौसम में नदियों में पानी की विशाल मात्रा को बाँधना बहुत आवश्यक है।

विश्व में सिंचाई सुविधा के विस्तार के मामले में भारत को सबसे तेज गति से प्रगति करने वाला विकासशील देश माना गया है लेकिन हम अपनी नदियों के पानी का पूरा उपयोग करने के मामले में अब भी काफी पीछे हैं। यह तथ्य नीचे दी जा रही तालिका से स्पष्ट है:-

 

 

तालिका-1

कुल औसत वार्षिक पानी

1853.4 घन कि.मी.

पूर्ण हो चुकी परियोजनाओं की भण्डारण क्षमता

162.5 घन कि.मी.

निर्माणाधीन परियोजनाएँ

76.7 घन कि.मी.

कुल योग

239.2 घन कि.मी.

निर्माणाधीन परियोजनाओं की भंडारण क्षमता

130.9 घन कि.मी.

 

हमारे देश में सालभर में कुल 4000 घन किलोमीटर वर्षा होती है व इसमें सतह पर उपल्बध उपयोग-योग्य जल की मात्रा 690 घन किलोमीटर तथा भूजल पानी की मात्रा 420 घन किलोमीटर है। कुल उपयोग-योग्य मात्रा 1100 घन किलोमीटर बनती है।

सिंचाई में तेजी से विकास के बावजूद हम सिंचाई योग्य सारी जमीन में सिंचाई की सुविधा नहीं दे पाए हैं। कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 18 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। इसमें से 14 करोड़ हेक्टेयर में पूरी तरह खेती होती है। उपयोग-योग्य पानी से कुल 11 करोड़ हेक्टेयर में सिंचाई की गुंजाइश है और सातवीं योजना के अंत तक केवल 7 करोड़ 89 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा दी जा सकी है।

सिंचाई के अतिरिक्त, पीने के लिये तथा उद्योगों के लिये पानी की मांग अत्यधिक बढ़ गई है। इसे पूरा करने के लिये हमें पानी के भण्डारण को बढ़ाना होगा या फिर वैज्ञानिक उपयोग के जरिए पानी की किफायत के उपाय ढूँढने होंगे। अब तक अधिक से अधिक पानी के भण्डारण पर बल दिया जाता था। लेकिन भण्डारण के लिये जल सीमित मात्रा में उपलब्ध है। अतः अब पानी के किफायत से उपयोग पर गम्भीरता से सोचना होगा।

पानी का नुकसान मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से होता है:-

1. वाष्प के कारण
2. रिसाव के कारण
3. नहरों व झीलों में खरपतवार और शैवाल के कारण
4. आवश्यकता से अधिक सिंचाई के कारण
 

वाष्प से नुकसान


पानी एक सीमित अवधि के लिये उपलब्ध होता है परन्तु हमारे देश में गर्म जलवायु के कारण वाष्प से जल का नुकसान सारे साल होता रहता है। भारत में लगभग 50 हजार छोटे तालाब हैं व लगभग 2900 बड़े बाँध हैं। छोटे तालाब कम गहरे और अधिक फैलाव में होते हैं। इसलिये उनका पानी वाष्प बनकर अधिक उड़ता है। बड़े बाँधों की गहराई अधिक होती है, अतः इनमें पानी को बचाए रखने की क्षमता भी अधिक होती है। पानी की समान मात्रा का भण्डार रखने के लिये वे जमीन अपेक्षाकृत कम घेरते हैं। जल भण्डारों से पानी के वाष्पीकरण को रोकने के लिये रसायनों के छिड़काव के उपाय भी किए जा रहे हैं।

 

 

सिंचित खेतों से नुकसान


सिंचित खेतों से जल का वाष्पीकरण लगातार होता रहता है। इसे रोकने के लिये घासपात के आवरण और प्लास्टिक की चादर का उपयोग किया गया है। इसमें प्लास्टिक की चादर बहुत उपयोगी साबित हुई है लेकिन महँगी होने के कारण इस्तेमाल नहीं हो रही है। इस बारे में किसानों को पर्याप्त जानकारी भी अभी नहीं है।

 

 

 

 

केशिका क्रिया


सूर्य की तेज रोशनी के कारण तीव्र केशिका क्रिया होती है व पानी के साथ लवण भी ऊपर आता है। इससे भूजल के नुकसान के अलावा भूमि में खारापन भी बढ़ जाता है।

 

 

 

 

रिसाव से नुकसान


नहरों में रिसाव से पानी का काफी नुकसान होता है। जमीन में पानी का अधिक रिसाव रोकने का एक तरीका यह है कि नहरों को पक्का किया जाए। इससे पानी का नुकसान भी बचेगा और आस-पास के क्षेत्र में पानी जमा भी नहीं हो पाएगा। लेकिन नहर पक्की करने में खर्च बहुत आता है और फिर अलग-अलग मौसमों के कारण इसके टिकाऊ होने की भी कोई गारण्टी नहीं है। नहरों को पक्का करने का बहुत कम लाभ हो पाया है। अब पक्का करने के अधिक टिकाऊ तरीकों की खोज हो रही है। भू-परिधान के उपयोग से नहर में पानी बहते रहने में भी उसे पक्का करने का काम जारी रखने जैसे उपायों से भविष्य में काफी आशाएँ हैं।

 

 

 

 

खरपतवार


नहरों व झीलों में मौजूद तत्वों व प्रचुर सूर्य प्रकाश के कारण इनकी सतह पर खरपतवार व शैवाल बहुत जल्दी पनपते हैं ये न केवल बहुत पानी सोख लेते हैं बल्कि नहरों में पानी के बहाव में भी बाधा डालते हैं जिसमें पानी का रिसाव बढ़ जाता है। इनके नियंत्रण के समुचित उपाय निकालना वैज्ञानिकों के लिये एक चुनौती है। उन्हें इसमें अब तक इससे कोई विशेष सफलता नहीं मिल पाई है।

 

 

 

 

अत्यधिक सिंचाई


सिंचाई के लिये पानी देते समय अभी प्रायः खेत को पानी से भर दिया जाता है। सिंचाई का मतलब केवल जमीन में पानी छोड़ना नहीं है बल्कि पौधे की जड़ वाले स्थान पर पानी पहुँचाना है। खेतों में पानी ठीक तरह से देने की तकनीक अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि जड़ों की संरचना व विभिन्न भूमि-स्तरों से पानी सोखने की उनकी क्षमता की हमें पर्याप्त वैज्ञानिक जानकारी हो। इस सिलसिले में छिड़काव (स्प्रिंकलर) विधि से व पानी टपका कर (ड्रिप) सिंचाई की विधि बहुत उपयोगी साबित हुई है। इनसे पानी की मात्रा भी नियंत्रित होती है और उत्पादकता भी बढ़ती है। लेकिन इन विधियों में सामान की आवश्यकता पड़ती है जो गरीब किसान के बस के बाहर है। जड़ वाले स्थान पर सीधे पानी पहुँचाने का श्रम-प्रधान तरीका भारत में अधिक स्वीकार्य हो सकता है क्योंकि इसमें खर्च अधिक नहीं आता।

 

 

 

 

संरक्षण उपाय


1. भूमि की सिंचाई क्षमता : सिंचाई का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि भूमि किस प्रकार की है। भूमि की रासायनिक संरचना व उसके गुणव सिंचाई की क्षमता को प्रभावित करते हैं। विभिन्न प्रकार की भूमि की परिभाषा व उसकी सिंचाई की क्षमता निर्धारित करने के बारे में भारतीय मानकों को प्रकाशित कर दिया गया है। लेकिन ये पूरी तरह अभी प्रचारित नहीं हो पाए हैं। किसानों को प्रशिक्षण देने का एक व्यापक कार्यक्रम चलाना आवश्यक है ताकि उन्हें उत्पादकता, पानी के इकट्ठा हो जाने, मिट्टी की लवणता आदि के सन्दर्भ में सिंचाई सम्बन्धी जानकारी मिल सके।

2. कुशल जल उपयोग : खेत को बराबर करने और उसे एक शक्ल देने के वैज्ञानिक तरीके अपनाकर हम जल के उपयोग को अधिक कुशल बना सकते हैं। तालिका-2 के अनुसार ड्रिप स्प्रिंकलर और इंजेक्शन विधि से सिंचाई अधिक उपयोगी हो सकेगी।

3. जल प्रबन्ध : जल की कमी बढ़ते रहने के कारण जल की मात्रा को वैज्ञानिक विधि से मापने के आधार पर जल की सुव्यवस्थित प्रबन्ध प्रणाली बनाने पर हमें ध्यान देना होगा। जल की सही मात्रा की जानकारी लेने व इसके प्रभावी प्रबन्ध के लिये यह आवश्यक है कि ऊँचे पर्वतों में बर्फ पिघलने, नदियों की बाढ़ अथवा खेत में हल्के बहाव को मापने की तकनीकों को आधुनिक बनाया जाए।

4. संयुक्त उपयोग : सिंचाई का अर्थ है कि प्राकृतिक जल विज्ञान चक्र में हस्तक्षेप। अतः सिंचाई सावधानी से करनी होगी ताकि भूमि में जल संतुलन न बिगड़े और पानी जमा होने अथवा लवणता जैसे दुष्परिणाम न हों। कमांड क्षेत्र के जल संतुलन को बनाए रखने का एक अच्छा तरीका यह है कि कमांड क्षेत्र से भूमि जल व्यवस्थित ढंग से निकाला जाए।

5. भूमि जल का उपयोग : भूमि जल का अब तक उपयोग मुख्यतः पीने व कारखानों में इस्तेमाल के लिये होता रहा है। भूमिगत जल भी अनेक कमांडरहित क्षेत्रों में सप्लाई का महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है। टिकाऊ नलकूपों का वैज्ञानिक विधि से विकास आज सम्भव है क्योंकि बोर होज कैमरा और नए पॉलीमरों से बने बेहतर स्ट्रेनर इस्तेमाल होने लगे हैं। इनमें जंग नहीं लगता और संचार में भी काफी समय तक रुकावट नहीं आती।

6. पानी का दोबारा उपयोग : जब कमांड क्षेत्र में सिंचाई का पानी छोड़ा जाता है तो कुछ पानी जमीन के नीचे चला जाता है। कुछ इधर-उधर बहता है और सतही बहाव के निचले भाग में पहुँच कर फिर सतही बहाव की धारा में आ जाता है। यह नया बना बहाव भूगर्भीय संरचना, भू-संरचना, मौसम तथा फसल के क्रम पर निर्भर करता है और पुनः उपयोग के लिये काफी मात्रा में होता है। जल उपयोग की विभिन्न परिस्थितियों में इस बहाव की मात्रा और किस्म के बारे में अभी तक कोई व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया गया है। प्रत्येक कमांड क्षेत्र में पानी की नालियों का पर्याप्त प्रबन्ध करने की बड़ी आवश्यकता है ताकि पानी जमा न हो और लवणता न पैदा हो। जहाँ सम्भव हो, हल्की नाली और सहायक नलकूप लगाने होंगे। इसके अलावा नाली के पानी को अलग ले जाना होगा और इस्तेमाल के लिये फिर उपयुक्त बनाना होगा। इसी तरह, शहरों में, घरों और कारखानों में इस्तेमाल हुए पानी को साफ करके फिर इस्तेमाल योग्य बनाना होगा। इस काम के लिये कम लागत वाली तकनीक निकालने पर आगे अध्ययन की आवश्यकता है।

 

 

 

 

 

 

 

तालिका-2

जल उपयोग कुशलता तथा उत्पादन

विधि

प्रयुक्त जल/हेक्टेयर

प्रतिशत

उत्पादन

प्रतिशत

जल उपयोग कुशलता

पानी भर देना

50

100

1713

100

100

स्प्रिंकलर

34

69

1953

114

156

ड्रिप

30

61

2842

166

279

इंजेक्शन

1

2

ड्रिप विधि से अधिक

 

2500

 

संरचना, मौसम, प्रकृति से उपलब्ध जल के आधार पर जल संरक्षण व उपयोग उपायों की मिली-जुली विधि वैज्ञानिक आधार पर तैयार करनी होगी। इसके लिये नियोजन व प्रबन्ध कार्य में थाले अथवा उप-थाले को इकाई मानकर चलना होगा। हमारे देश में अभी थालों अथवा उप-थालों के आधार पर संगठनात्मक ढाँचे मौजूद नहीं हैं जल के कुशल प्रबन्ध के लिये हमें थालों और उपथालों के अनुसार संगठनात्मक ढाँचे तुरन्त नए सिरे से तैयार करने होंगे।
 

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