वर्षा तथा जलाधिशेष :
जल ही जीवन है। जल और मानव का संबंध घनिष्ठ है। जल संसाधन संभाव्यता, उपयोग एवं विकास की दृष्टि से वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता, वर्षा की प्रकृति एवं गहनता पर निर्भर करती है। ऊपरी महानदी बेसिन की 95 प्रतिशत वार्षिक वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा जून से सितंबर के मध्य प्राप्त होती है, शेष वर्षा शीतकालीन चक्रवातों द्वारा प्राप्त होती है। वर्षा की प्रकृति, पर्वतीय एवं मानसूनी विशेषताओं से युक्त है (गुप्ता, 1979, 11)। सामान्यत: बेसिन में मानसून का आगमन 10 से 15 जून के मध्य होता है एवं 10 अक्टूबर के मध्य इसका निवर्तन हो जाता है (दास, 1968, 13)। महानदी बेसिन में जहाँ मानसून का प्रारंभ एकाएक होता है, वहीं इसका निवर्तन क्रमिक होता है। बेसिन की औसत वार्षिक वर्षा 120 सेंटीमीटर है, जिसके वितरण में स्थानिक विशेषताएँ विद्यमान हैं।
बेसिन में जल प्राप्ति का मुख्य स्रोत वर्षा है। कभी अतिवृष्टि एवं कभी अनावृष्टि की स्थिति रहती है। जिसके कारण विभिन्न भागों में वर्षा की मात्रा के वितरण में क्षेत्रीय विभिन्नता मिलती है। वर्षा दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर क्रमश: कम होती जाती है। बेसिन के उत्तर में स्थित पेण्ड्रा में जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 140 सेमी है वहीं कवर्धा में 112 सेमी है।
वर्षा का मासिक एवं वार्षिक वितरण :
ऊपरी महानदी बेसिन में प्रमुख वर्षामापी 12 केंद्रों से 1950-1994 की अवधि के लिये प्राप्त आंकड़ों के आधार पर बेसिन की मासिक एवं वार्षिक वर्षा का अध्ययन किया गया है।
ऊपरी महानदी बेसिन में ग्रीष्मकालीन वर्षा एवं शीतकालीन वर्षा की मात्रा का आकलन किया गया है। साथ ही वर्षा दिवसों में वर्षा की परिवर्तनशीलता जून से अक्टूबर, नवंबर से फरवरी, मार्च से मई एवं वार्षिक वर्षा की विचलनशीलता का अध्ययन किया गया है। ऊपरी महानदी बेसिन में जुलाई एवं अगस्त सर्वाधिक वर्षा के महीने हैं। मानसूनकालीन वर्षा की औसत 1,218.53 मिमी (87.06 प्रतिशत), शीतकालीन वर्षा 89.20 मिमी (7.15 प्रतिशत) एवं ग्रीष्मकालीन वर्षा 80.06 मिमी (5.29 प्रतिशत) है। बेसिन में मानसून काल में सर्वाधिक वर्षा वाले केंद्र रायगढ़ (89.70 प्रतिशत), चापा (89.51 प्रतिशत) एवं महासमुंद (89.43 प्रतिशत) है जबकि न्यूनतम वर्षा कवर्धा (81.09 प्रतिशत) में होती है।
सितंबर अक्टूबर में निवर्तनकालीन मानसून से अधिकतम 16 एवं न्यूनतम 4 प्रतिशत वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है। सितंबर में प्राप्त होने वाली वर्षा की मात्रा में अनिश्चितता की स्थिति रहती है। सितंबर के पश्चात वर्षा की मात्रा तीव्रता से कम होती है। शीतकालीन वर्षा की औसत मात्रा (7.15 प्रतिशत) एवं ग्रीष्मकालीन वर्षा की मात्रा (5.29 प्रतिशत) है।
शीतकालीन चक्रवातों के प्रभाव में जनवरी के महीने में भी वर्षा हो जाती है। यद्यपि इस वर्षा की मात्रा नगण्य है, परंतु यह वर्षा लाभकारी है। इस अवधि में सर्वाधिक वर्षा कवर्धा (10.46 प्रतिशत) एवं न्यूनतम वर्षा महासमुंद एवं रायगढ़ में क्रमश: 5.06 प्रतिशत एवं 5.77 प्रतिशत है। महानदी बेसिन में मार्च, अप्रैल एवं मई सामान्यता, शुष्क महीने हैं।
सारिणी क्रमांक - 2.1 ऊपरी महानदी बेसिन - वर्षामापी केंद्रों में वर्षा एवं वर्षा की मात्रा (प्रतिशत में) (मिलीमीटर में) | ||||||||
क्र. | वर्षामापी केंद्र | दक्षिण-पश्चिम मानसून काल (वर्षा कालीन) | वर्षाकालीन वर्षा की मात्रा प्रतिशत | शीतकालीन वर्षा | शीतकालीन वर्षा की मात्रा प्रतिशत | ग्रीष्मकालीन वर्षा | ग्रीष्मकालीन वर्षा की मात्रा प्रतिशत | कुल वार्षिक वर्षा |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. | रायगढ़ चांपा पेण्ड्रा सरायपाली बलौदाबाजार कवर्धा महासमुंद रायपुर गरियाबंद डोगरगढ़ चौकी कांकेर | 1,468.60 1,279.20 1,146.40 1,220.30 1,189.80 905.70 1,385.80 1,135.10 1,357.30 1,129.00 1,264.20 1,141.00 | 89.70 89.51 82.85 88.57 88.21 81.09 89.43 86.12 87.60 87.81 87.18 86.76 | 83.00 90.40 129.00 81.80 86.40 116.90 89.50 101.20 105.00 99.40 106.80 89.10 | 5.06 6.32 9.32 5.93 6.40 10.46 5.77 7.67 6.77 7.73 7.36 6.77 | 83.00 59.50 108.20 76.60 72.50 94.20 74.20 81.70 87.10 57.30 79.00 84.90 | 5.24 4.17 7.38 5.56 5.39 8.43 4.78 6.19 5.62 4.45 5.44 6.45 | 1,637.20 1,429.10 1,383.60 1,378.70 1,348.70 1,116.80 1,549.50 1,318.00 1,549.40 1,285.70 1,450.00 1,315.00 |
योग | औसत बेसिन | 1,218.53 | 87.06 | 89.20 | 7.15 | 80.06 | 5.29 | 1,396.80 |
स्रोत - जिलाभू-अभिलेख कार्यालय, रायपुर, म. प्र. |
वार्षिक वर्षा का वितरण :
ऊपरी महानदी बेसिन में वार्षिक वर्षा की मात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमश: बढ़ती जाती है। बेसिन के पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा की न्यूनता के प्रमुख दो कारण हैं -
1. ऊँची मैकल श्रेणी अरब सागरीय मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध डालकर इस क्षेत्र में वृष्टि छाया का प्रभाव पैदा करती है।
2. बंगाल की खाड़ी की मानसूनी पवन यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते पूर्वी क्षेत्र की तुलना में क्षीण हो जाती है। फलत: वर्षा की मात्रा कम हो जाती है।
सामान्यत: बेसिन में औसत वर्षा 139 सेमी होती है। तथापि वर्षा की मात्रा में मानसून की अनिश्चितता के कारण भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इसके परिणाम स्वरूप कभी-कभी अकाल की प्रतिछाया दिखाई देने लगती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष परिवर्तन होता है। बेसिन में कटघोरा में न्यूनतम वर्षा 1978 में 4.3 सेमी वर्षा हुई जबकि अगले वर्ष 198 सेमी वर्षा हुई।
वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता :
वर्षा की विचलनशीलता से तात्पर्य एक लंबी अवधि में वास्तविक वर्षा का सामान्य वर्षा से होने वाला विचलन है। वर्षा की विचलनशीलता ज्ञात करने के लिये सामान्यत: 30 या इससे अधिक वर्षा के वार्षिक आंकड़े होना आवश्यक है। वर्षा की परिवर्तनशीलता या विचलनशीलता ज्ञात करने की अनेक विधियाँ हैं, जिसमें विलियम एवं क्लार्क, विड, क्रोवे, नाकी आदि विद्वानों का सूत्र प्रमुख है। विंड महोदय ने समांतर माध्य के माध्यम से सापेक्ष विचलनशीलता ज्ञात करने की विधि का उल्लेख किया है। क्रोवे महोदय ने माध्यिका एवं नाकी ने मानक विचलन के माध्यम से वर्षा की विचलनशीलता ज्ञात करने हेतु सूत्र बताये हैं। इसमें नाकी महोदय द्वारा प्रस्तुत विधि भारतीय मानसूनी वर्षा वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है।
ऊपरी महानदी बेसिन की औसत वार्षिक विचलनशीलता गुणांक 139 प्रतिशत है। वर्षा की विचलनशीलता का विस्तार अधिकतम रायगढ़ (178.6) तथा न्यूनतम पेण्ड्रा (0.94) में है।
सामान्यत: बेसिन में विचलनशीलता की मात्रा दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमश: बढ़ती जाती है। यहाँ सामान्यत: वर्षा व परिवर्तनशीलता का विपरीत संबंध पूर्णत: लागू नहीं होता। बेसिन में रायगढ़ सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र है। इसका कारण यदि मानसून प्रारंभिक रूप से क्षीण है तो मानसून के प्रवेश के साथ ही आर्द्रता का अधिकांश भाग समाप्त हो जाने के कारण अनावृष्टि की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि वर्षा की मात्रा में यह अंतर संख्यात्मक रूप से अधिक नहीं होता फिर भी वर्षा की कुछ मात्रा से कम होने के कारण प्रतिशत परिवर्तनशीलता अधिक हो जाती है। बेसिन में जहाँ मानसून कालीन वर्षा सर्वाधिक होती है, वहाँ विचलनशीलता न्यूनतम है, और वर्षा न्यूनतम है।
बेसिन की सामान्य विचलनशीलता (सारिणी क्रमांक 2.3) के अनुसार स्पष्ट है कि सामान्यत: सितंबर एवं अक्टूबर के महिने में विचलनशीलता सर्वाधिक (70.80 प्रतिशत) है।
सारिणी क्रमांक - 2.2 ऊपरी महानदी बेसिन - वार्षिक वर्षा की विचलनशीलता | |||||
क्र. | वर्षामापी केंद्र | औसत वर्षा (सेमी) | मानक विचलन | विचलनशीता (%) | |
अधिकतम | न्यूनतम | ||||
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. | रायगढ़ चांपा पेण्ड्रा सरायपाली बलौदाबाजार कवर्धा महासमुंद रायपुर गरियाबंद डोंगरगढ़ चौकी कांकेर | 136.6 119.0 140.3 114.8 111.5 92.4 129.1 108.8 129.1 108.8 119.5 109.6 | 178.6 164.2 132.9 144.9 140.4 102.0 164.1 130.2 159.9 137.2 148.7 136.5 | 1.30 1.37 0.94 1.26 1.25 1.10 1.27 1.19 1.23 1.28 1.24 1.24 | 130 137 94 126 125 110 127 117 123 128 124 124 |
| औसत | 119.4 | 164.4 | 1.39 | 139 |
स्रोत - जिला भू-अभिलेख कार्यालय |
तापमान तथा पवन :
तापमान :
ऊपरी महानदी बेसिन में तापमापी केंद्रों से प्राप्त तापमान के आधार पर ग्रीष्म ऋतु (मई) का अधिकतम चांपा, रायपुर एवं कांकेर मेक 47.20 सेल्सियस है। इसी तरह रायगढ़ 46.70, 43.30 एवं राजनांदगांव 43.30 सेल्सियस है। शीतऋतु (जनवरी) में न्यूनतम तापमान रहता है। पेण्ड्रा सबसे ठंडा स्थान है जहाँ न्यूनतम तापमान बेसिन में 3.30 सेल्सियस है। इसी तरह शीतऋतु में क्रमश: कांकेर 5.0, राजनांदगाँव 5.1, दुर्ग 6.20, रायगढ़ 7.00 एवं चांपा 7.80 सेल्सियस है (सारिणी क्रमांक 2.3)। तापमान में विभिन्नता भौगोलिक परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर करता है।
सारिणी क्रमांक - 2.3 ऊपरी महानदी बेसिन - तापमापी केंद्रों में तापमान (अंश सेल्सियस में) | |||||
क्र. | केंद्र | शीत ऋतु (जनवरी) | ग्रीष्म ऋतु (मई) | ||
अधिकतम | न्यूनतम | अधिकतम | न्यूनतम | ||
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. | रायपुर पेण्ड्रा रायगढ़ कांकेर चांपा दुर्ग राजनांदगांव | 35.0 30.1 33.3 32.8 32.2 30.4 29.3 | 5.0 3.3 7.0 5.0 7.8 6.2 5.1 | 47.2 43.9 46.7 47.2 47.2 42.3 43.3 | 14.4 17.8 25.0 14.4 20.5 17.5 18.8 |
| औसत बेसिन | 31.8 | 5.6 | 45.4 | 18.3 |
पवन :
ऊपरी महानदी बेसिन में वायु ऊर्जा भी बहुत लाभदायक हो सकती है। क्योंकि क्षेत्र में अप्रैल से अगस्त तक वायु की गति अच्छी होती है। दिनवार वायु गति का अध्ययन से स्पष्ट है कि रायपुर में मई से अगस्त तक अधिकतम 20 दिन प्रतिमाह एवं 8 किलोमीटर प्रतिघंटा की क्षमता तक पवन चक्की चलाई जा सकती है।
इस आधार पर रायपुर में अप्रैल से अगस्त पेण्ड्रा व कांकेर में मई से अगस्त तक पवन चक्कियों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। हालाँकि हर क्षेत्र में प्रतिमाह कुछ दिन ऐसे होते ही है जिनमें वायु की गति 8 किमी प्रतिघंटा या उससे अधिक होती है दिनवार वायु गति का अध्ययन करने पर पता चलता है कि रायपुर में मई से अगस्त तक अधिकतम 20 दिन प्रति माह की क्षमता तक पवन चक्की चलाई जा सकती है।
वार्षिक वर्षा का उतार चढ़ाव :
ऊपरी महानदी बेसिन के किसी भी भाग में वर्षा के उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति का सामान्ययीकृत स्वरूप निर्धारित नहीं किया जा सकता, किंतु यह तथ्य अपेक्षाकृत स्पष्ट है कि सामान्यत: अधिक वर्षा की अवधि न्यून वर्षायुक्त अवधि का अनुसरण करती है।
ऊपरी महानदी बेसिन के विभिन्न केंद्रों में वर्षा की अनिश्चितता एवं परिवर्तनशीलता बनी हुई है। यह क्षेत्र जल संसाधन विकास की दृष्टि से उचित नहीं है, क्योंकि यदि कुल वार्षिक वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष गिरावट आये तो विकास संभव नहीं हो पाता। बेसिन में विभिन्न स्थानों पर वर्षा की प्रवृत्ति को दर्शाने वाली ‘‘प्रतीपगमन रेखा’’ वर्षा की मात्रा में क्रमश: ह्रास को प्रदर्शित करती है। ह्रास की इस दर में सभी स्थानों पर विभिन्नता के कारण ह्रास का स्थानिक स्वरूप निर्धारित नहीं होता है। ह्रास की दर अधिकतम (1.07 सेमी) मुंगेली में तथा न्युनतम (0.14 सेमी) कटघोरा में है। यद्यपि वर्षा की मात्रा में ह्रास की दर कम है तथापि धान उत्पादन क्षेत्र के लिये संकट का सूचक है। ह्रास की यह प्रवृत्ति निश्चित रूप से यह चेतावनी देती है कि क्षेत्र के जल संसाधनों का उचित एवं सही प्रबंधन किया जावे।
जलाधिशेष :
जल संतुलन मासिक वर्षा एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन के अंर्तसंबंधों का अध्ययन है जलाधिशेष विश्लेषण किसी भी क्षेत्र में जल की अधिकता या कमी की स्थिति को वर्षा की अपेक्षा अधिक सही-सही चित्रित करता है। महानदी बेसिन के विभिन्न स्थानों की मासिक वर्षा तथा सामान्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन के तुलनात्मक अध्ययन से मासिक वर्षा के संदर्भ में किसी क्षेत्र में जलाभाव एवं जलाधिक्य की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। साथ ही जलीय समस्याओं एवं जलीय आवश्यकताओं का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। (सुब्रम्हण्यम, 1984, 1)
किसी क्षेत्र अथवा स्थान के जल बजट की गणना सर्वप्रथम सी. डब्ल्यू थार्नथ्वेट (1948, 3) द्वारा की गई। वर्ष 1955 में उन्होंने अपनी संकल्पना को संशोधित किया। उन्होंने अधिकतम वर्षाकाल में जल संग्रहण एवं न्यूनतम वर्षाकाल में जल आपूर्ति के प्रमुख कारक के रूप में मिट्टी के साथ वर्षण एवं वाष्पोत्सर्जन का तुलनात्मक अध्ययन कर जल संतुलन की गणना की है।
ऊपरी महानदी बेसिन के सभी वर्षामापी केंद्रों के लिये जल संतुलन की गणना थार्नथ्वेट एवं माथुर द्वारा प्रतिपादित ‘‘बुक कीपिंग प्रक्रिया’’ के आधार पर 1950-95 की अवधि के लिये गणना की गई।
सामान्य वाष्पोत्सर्जन :
संपूर्ण वनस्पति आवरण वाले किसी क्षेत्र से होने वाले जल उत्सर्जन की मात्रा सामान्य वाष्पोत्सर्जन है। (थार्नथ्वेट एवं माथुर, 1955-14)। संभावित वाष्पीकरण और वनस्पतियों द्वारा संभावित वाष्पोत्सर्जन के योग को कुल संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन कहते हैं, तथा कुल संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन की मात्रा को क्षेत्र विशेष की जल की आवश्यकता मानी जाती है। जल अधिशेष - जल पूर्ति - जल की आवश्यकता घटाने पर अवशेष यदि धनात्मक आये तो जलाधिक्य एवं ऋणात्मक आये तो जलाभाव को सूचित करता है।
1. वर्षा :
वर्षामापी केंद्रों के द्वारा प्राप्त वर्षा की मात्रा को जला-पूर्ति के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। सामान्य जलाधिशेष की गणना के लिये 35-40 का वर्ष लेना उपयुक्त रहता है, क्योंकि यह माना जाता है कि वृष्टिचक्र 35-40 वर्षों में पुनरावृत्ति होती है।
2. संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन :
इसके अंतर्गत जल की आवश्यकता अर्थात वाष्पीकरण एवं वनस्पतियों द्वारा वाष्पोत्सर्जन की संभावित मात्रा को लिया जाता है। यह तापमान, वायु दिशा, वनस्पति के प्रकार एवं वनस्पति के जड़ों की गहराई आदि पर निर्भर करता है।
3. वर्षा व संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन में अंतर :
वर्षा की मात्रा जल की आवश्यकता से अधिक है या कम, यह देखने के लिये वर्षा में से वाष्पीकरण की संभावित मात्रा को घटाया जाता है यह अंतर धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है, धनात्मक जलाधिक्य का एवं ऋणात्मकता जलाभाव का सूचक होता है।
4. संचयी संभावित जलहानि :
जिन महीनों में वर्षा वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन की संभावित मात्रा से कम होती है। उन्हीं महीनों में (पी - पी ई) ऋणात्मक होता है। ये जलहानि को दर्शाते हैं। जिस माह से जलहानि प्रारंभ हो रही है वहाँ से लेकर जब तक जलहानि बनी रहे वहाँ तक प्रत्येक की जल हानि में उसे पूर्व के महीने की जलहानि को जोड़कर संचयी जलहानि की संभावित मात्रा ज्ञात की जाती है। धनात्मक पी. -पी. ई. वाले महीनों में चूँकि जल आधिक्य होता है अत: उसमें जलहानि शून्य दर्शायी जाती है। इस जलहानि के कारण मिट्टी में संचित आर्द्रता कम होती है।
5. मिट्टी में संचित आर्द्रता :
जब वर्षा अधिक होती है अर्थात पी. -पी. -ई. धनात्मक होता है तब मिट्टियाँ अपनी अधिकतम जलधारण क्षमता के अनुरूप आर्द्रता रखने लगती हैं। भिन्न-भिन्न मिट्टियों की आर्द्रता क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। (सारिणी क्रमांक 2.8) एवं जलहानि के अनुसार उनकी धारित आर्द्रता से ह्रास प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है। मिट्टी के प्रकार व गहराई आदि पर निर्भर करती है।
6. संचित आर्द्रता में परिवर्तन :
यदि एक माह से दूसरे माह में मिट्टी की संचित आर्द्रता में परिवर्तन न हुआ हो, वे धरातलीय जल प्रवाह को दर्शाते हैं।
7. वास्तविक वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन :
वास्तविक वाष्पोत्सर्जन की गणना पेनमेन के सूत्रानुसार की गई है। जब वर्षा (पी) संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन (पी. ई.) से अधिक होती है तब वास्तविक वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन (पी. ई.) के बराबर होता है। किंतु यदि संभावित वाष्पोत्सर्जन (पी. ई.) से कम होता है। यह (पी. ई.) उपलब्ध वर्षा (पी.) एवं मिट्टी में संचित आर्द्रता की परिवर्तित मात्रा (एस. टी.) के बराबर होता है।
8. जलाभाव :
जल संभावित वाष्पोत्सर्जन (पी. ई.) और वास्तविक वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन (ए. ई.) में अंतर पाया जाता है तो यह अंतर जलाभाव को दर्शाता है।
9. जलाधिक्य :
जब वर्षा संभावित वाष्पीकरण वाष्पोत्सर्जन से अधिक होता है तब धनात्मक प्राप्त होता है। इसमें से मिट्टी की अधिकतम जलधारण क्षमता घटाने के बाद भी यदि कोई अतिरिक्त बचा रहता है तो वह जलाधिक्य को दर्शाता है।
सामान्य वाष्पोत्सर्जन :
संपूर्ण वनस्पति आवरण वाले किसी क्षेत्र से होने वाले जल उत्सर्जन की मात्रा सामान्य वाष्पोत्सर्जन है, (थार्नथ्वेट एवं माथुर, 1955, 14)।
ऊपरी महानदी बेसिन में सामान्यत: वाष्पोत्सर्जन की गणना के कुछ प्रमुख केंद्रों को चुना गया जैसे :- रायपुर, महासमुंद बलौदाबाजार, गरियाबंद, धमतरी, सरायपाली, दुर्ग, बालोद, बेमेतरा, कवर्धा, खैरागढ़ एवं चौकी आदि।
बेसिन में औसत सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा 1,596 मिलीमीटर है। जिसमें अधिकतम गरियाबंद (1857 मिमी) एवं न्यूनतम (904 मिमी) दुर्ग में है। सामान्यत: वाष्पोत्सर्जन की मात्रा उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ती जाती है। अर्थात दक्षिण-पूर्वी भाग में जल की आवश्यकता उत्तर-पश्चिम की तुलना में अधिक है। इसके निम्नलिखित कारण हैं :-
1. बेसिन के उत्तर-पश्चिम भाग में तापक्रम कम है जबकि दक्षिण-पूर्व भाग में तापक्रम अधिक है इस कारण उत्तर-पश्चिम भाग में कम तापक्रम के कारण सामान्यवाष्पोत्सर्जन की मात्रा भी घट जाती है।
2. वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया मिट्टी की आर्द्रता एवं उसकी क्षमता पर भी निर्भर करती है। यदि मिट्टी शुष्क हो जाती है तब सामान्य वाष्पोत्सर्जन हेतु जल की आवश्यक मात्रा में कमी आयेगी। इस प्रकार मिट्टी में संचित आर्द्रता जैसे-जैसे घटता जायेगा, सामान्य वाष्पात्सर्जन की मात्रा भी घटती जाती है (लौरी, 1957, 52)।
ऊपरी महानदी बेसिन में उत्तर पश्चिम भाग में आर्द्रता निवेश 109 सेमी दक्षिण पूर्वी भाग की तुलना में अधिक है। साथ ही मिट्टी में संचित आर्द्रता की मात्रा भी उत्तर-पश्चिम भाग में अधिक है। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिम की तुलना में दक्षिण पूर्वी भाग में वाष्पोत्सर्जन की मात्रा अधिक है।
औसत मासिक तापक्रम एवं सामान्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन अंर्तसंबंधित हैं। सामान्यत: अधिकतम सामान्य वाष्पोत्सर्जन अधिक तापक्रम वाले मई-जून के महिनों में तथा न्यूनतम सामान्य वाष्पोत्सर्जन दिसंबर-जनवरी माह में होता है।
मासिक वार्षा एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन का प्रतिलोम संबंध है। मासिक वर्षण एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन के अंर्तसंबंधों के कारण जलाभाव एवं जलाधिक्य की स्थिति विकसित होती है। मिट्टी में आर्द्रता संचयन की मात्रा भी वर्षण, वाष्पोत्सर्जन के द्वारा कुछ मात्रा में विपरीत होती है।
संचित आर्द्रता उपयोग एवं संचित सामान्य जलहानि :
ऊपरी महानदी बेसिन में संचित आर्द्रता की मात्रा समस्त मानसून काल में अपनी पूर्ण क्षमता (100-245 मिमी) से युक्त होती है, यह क्षमता अक्टूबर नवंबर से घटते जाती है क्योंकि सितंबर के पश्चात वर्षा की मात्रा क्रमश: कम होती जाती है, परिणामत: जलीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु मिट्टी में संचित आर्द्रता का उपयोग प्रारंभ हो जाता है। संचित आर्द्रता की मात्रा अक्टूबर-नवंबर में बेमेतरा में 40 से 70 मिमी दुर्ग, खैरागढ़ एवं चौकी में 70-100 मिमी के मध्य रहती है। इसके पश्चात आर्द्रता की मात्रा क्रमश: घटती जाती है। अप्रैल तथा मई तक प्राय: सभी स्थानों पर संचित आर्द्रता की मात्रा न्यूनतम (8 से 20 मिमी) होती है यह स्थिति मानसून आगमन तक बनी रहती है जबकि जुलाई एवं अगस्त में वाष्पोत्सर्जन की मात्रा में वर्षा की मात्रा अधिक होती है, एवं मिट्टी पुन: आर्द्रता से पूर्ण हो जाती है।
संकेत - (1) औ. मा. ता. = औसिक मासिक तापमान, सेल्सियस में
(2) औ. मा. सा. वा. = औसित मासिक सामान्य वाष्पोत्सर्जन, मिमी = मिलीमीटर
सारिणी क्रमांक - 2.8 ऊपरी महानदी बेसिन - औसत तापमान एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन का मासिक विवरण (तापमान अंश सेल्सियस में) | |||||
क्रमांक | माह | औ. मा. ता. | औ. मा. सा.वा. (मिमी) | औ. मा. ता. | औ. मा. सा. ता. (मिमी) |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. | जनवरी फरवरी मार्च अप्रैल मई जून जुलाई अगस्त सितंबर अक्टूबर नवंबर दिसंबर | 17.45 79.5 24.5 29.1 32.7 30.65 30.65 25.4 25.45 23.45 19.85 17.15 | 74 95 145 173 209 115 111 104 103 105 80 66 | 23.65 27.65 32.4 35.9 33.3 28.15 27.85 28.1 20.65 26.1 22.0 28.00 | 85 115 148 74 203 165 105 101 102 113 93 77 |
स्रोत - इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (म. प्र.) |
जलाभाव :
1. पूर्व मानसून काल 7 मार्च में मध्य जून तथा
2. उत्तर मानसून काल (अक्टूबर से फरवरी)
मानसून काल में संचित आर्द्रता से शीतकालीन जलीय आवश्यकता की पूर्ति पूर्ण नहीं हो पाती फलत: शुष्कता की स्थिति निर्मित हो जाती है। मार्च तक मिट्टी में संचित आर्द्रता की अधिकांश मात्रा समाप्त हो जाती है एवं जलाभाव की द्वितीय स्थिति निर्मित हो जाती है। जिसका समापन मानसून के आगमन के साथ ही हो जाता है। जलाधिक्य -
सामान्यत: ऊपरी महानदी बेसिन में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र अधिकतम जलाधिक्य वाले क्षेत्र है। औसत अधिकतम वार्षिक जलाधिक्य वाले क्षेत्र उत्तरी पश्चिमी भाग में सरायपाली में (1394 मिमी) एवं न्यूनतम 459 मिमी गरियाबंद में है।
बेसिन के जलाधिक्य वितरण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि सामान्यत: अधिक जलाधिक्य वाले क्षेत्र नदियों के तटीय क्षेत्र में है जो नदियों के लिये जलावाह प्रदान करते हैं।
आर्द्रता पर्याप्तता :
किसी क्षेत्र की जलीय आवश्यकता एवं वर्षा के द्वारा आपूर्ति का अध्ययन आवश्यक है। आर्द्रता पर्याप्तता सूचकांक वास्तविक वाष्पोत्सर्जन का आनुपातिक स्वरूप है जिसके माध्यम से किसी क्षेत्र की जलीय आवश्यकता के अनुपात में जल उपलब्धता की सूचना प्राप्त होती है। आर्द्रता पर्याप्तता सूचकांक की निम्न प्रतिशत क्षेत्र में अपर्याप्त आर्द्रता निवेश की सूचक है (सुब्रम्हण्यम एवं सुब्बाराव 1963, 462)। सुब्रम्हण्यम के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता पर्याप्ता कृषि के लिये उपयुक्त है।
ऊपरी महानदी बेसिन के औसत आर्द्रता पर्याप्तता 60 प्रतिशत है। आर्द्रता पर्याप्तता का प्रतिशत वर्षा की लंबी अवधि, अधिक वार्षिक वर्षा एवं मिट्टी की उच्च जल धारण क्षमता से प्रभावित होती है। बेसिन में अधिकतम आर्द्रता धमतरी, बेमेतरा, कवर्धा, खैरागढ़, महासमुंद में औसत (65 प्रतिशत) एवं न्यूनतम आर्द्रता दुर्ग, बालोद तथा रायपुर में (45 प्रतिशत) है। बेसिन के अन्य भागों में सामान्यत: 50-60 प्रतिशत तक आर्द्रता पर्याप्तता की मात्रा रहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बेसिन की मिट्टियों में आर्द्रता पर्याप्त है एवं सर्वत्र कृषि कार्य किया जा सकता है, तथापि ऋतुगत विष्मताएं देखी जा सकती है। आर्द्रता पर्याप्तता मानसून काल में सर्वाधिक (90 प्रतिशत) तक होती है जो अक्टूबर के पश्चात क्रमश: कम होती जाती है।
सूखा एवं बाढ़ की प्रायिकता
सूखा :
‘‘सूखा वह अवस्था है जिसमें वाष्पोत्सर्जन तथा प्रत्यक्ष वाष्पीकरण के लिये आवश्यक जल की मात्रा मिट्टी में उपलब्ध मात्रा से अधिक हो।’’ (थार्नथ्वेट, 1948. 3)।
ऊपरी महानदी बेसिन में कम सापेक्षित आर्द्रता, वायु तथा उच्च तापमान के कारण वाष्पोत्सर्जन अधिक होने से शुष्कता होती है। भूमि में उपलब्ध आर्द्रता में अधिक मात्रा में वाष्पीकरण होना सूखा है। सूखे की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब 21 दिनों तक वर्षा ही न हो या सामान्य वर्षा 30 प्रतिशत से कम हो। सूखा प्रकार एवं बाढ़ का निर्धारण वर्षा की मात्रा के आधार पर निर्धारित करते हैं।
सारिणी क्रमांक - 2.9 ऊपरी महानदी बेसिन - सूखे की प्रवृत्ति | |||||||
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| अवधि | |||||
क्र. | केंद्र | 1901-60 | 1961-70 | 1971-80 | 1901-600 | 1980 के बाद | कुल का प्रतिशत |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. | जिला-रायपुर रायपुर धमतरी देवभोग गरियाबंद पिथौरा भाटागाँव बलौदाबाजार कनकी अर्जुनी महासमुंद राजिम | 3 4 4 5 5 5 5 3 6 4 4 | 4 2 6 9 5 5 4 7 6 2 3 | 6 7 6 9 5 5 4 7 4 8 9 |
- - - - - - - - - - - |
13 13 16 17 14 18 14 16 14 14 16 |
7.87 7.87 9.69 10.30 8.48 10.90 8.48 9.69 8.48 8.48 9.69 |
योग | रायपुर जिला | 48 | 49 | 68 | - | 165 | 100.00 |
जिला बिलासपुर | अवधि | ||||||
1901-60 | 1961-70 | 1971-80 | 1901-600 | 1980 के बाद | कुल का प्रतिशत | ||
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 |
12. 13. 14. 15. 16. 17. योग- योग- | सक्ती पेंड्रा जांजगीर कटघोरा मुंगेली बिलासपुर बिलासपुर रायपुर+बिलासपुर | 4 1 6 3 4 7 25 73 | 6 5 6 6 8 5 36 85 | 4 7 7 2 6 4 29 97 | - - - - - - - - | 14 12 19 11 18 16 90 255 | 15.55 13.33 21.11 12.22 20.00 17.77 100.00 100.00 |
स्रोत - जिला भू-अभिलेख कार्यालय |
सारिणी क्रमांक (2.10) से स्पष्ट है कि वर्षा की कमी के कारण सूखे की स्थिति सर्वाधिक रायपुर जिले में 18 बार भाटागाँव तथा जांजगीर, बिलासपुर जिले में 19 बार हुआ है एवं बिलासपुर जिले में कटघोरा तहसील में 11 बार सूखे की स्थिति निर्मित हुई है, इसके बाद रायुपर, धमतरी में 13 बार यह स्थिति आई है।
ऊपरी महानदी बेसिन में उत्तरी भाग में शुष्कता की आवृत्ति दक्षिणी भाग की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। उत्तरी भाग में बिलासपुर जिले के पेंड्रा एवं कटघोरा में शुष्कता गहनता 35.45 प्रतिशत है वहीं जांजगीर एवु मुंगेली क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक है। जिले का उत्तरी भाग वनाच्छादित है। अत: शुष्क अवधि की आवृत्ति कम है। जबकि बेसिन के दक्षिण का मैदानी भाग सूखे की चपेट में अधिक आता है तथापि बेसिन का कोई भी भाग सूखे से अप्रभावित नहीं है।
संपूर्ण अध्ययन अवधि में वर्ष 1961, 1964, 1967 एवं 1986 सूखायुक्त वर्ष थे। रायपुर जिले के अंतर्गत भाठागाँव एवं गरियाबंद सर्वाधिक सूखाग्रस्त क्षेत्र थे। परंतु वर्ष 1950, 1979, 1973, 1976 एवं 1979 में संपूर्ण क्षेत्र सूखाग्रस्त था। वर्ष 1960, 1974 एवं 1981 में बेसिन के 90 प्रतिशत क्षेत्र में सूखे की गंभीर स्थिति रही। कुछ क्षेत्र जैसे बिलासपुर जिले के कटघोरा क्षेत्र सामान्य वर्षा वाला क्षेत्र रहा। 1974 में जिले के पश्चिमी भाग को छोड़ सभी क्षेत्रों में सूखे की स्थिति रही।
शुष्कता सूचकांक के आधार पर बेसिन को तीन प्रमुख शुष्कता क्षेत्र में विभक्त किया जा सकता है (मानचित्र क्र. - 2.4)
1. अत्यधिक शुष्क क्षेत्र (शुष्कता सूचकांक 75 प्रतिशत)
2. मध्यम शुष्क क्षेत्र (शुष्कता सूचकांक 45 प्रतिशत)
3. निम्न शुष्क क्षेत्र (40 प्रतिशत)
(1) अत्यधिक शुष्क क्षेत्र :
ऊपरी महानदी बेसिन के सूखे की दशकीय प्रवृत्ति के अध्ययन के आधार पर दो प्रमुख जिले रायपुर एवं बिलासपुर जिले के सूखे के आंकड़े उपलब्ध हुए हैं जिसके आधार पर रायपुर जिले में वर्ष 1901 से 1980 तक की स्थिति सम्मिलित है। रायपुर जिले में गरियाबंद एवं भाठागाँव अत्यधिक शुष्कता क्षेत्र माने गये हैं। यहाँ शुष्कता सूचकांक क्रमश: 60 प्रतिशत एवं 65 प्रतिशत है।
बिलासपुर जिले के पश्चिमी भाग (मुंगेली) एवं बिलासपुर तहसील के क्षेत्र इसके अंतर्गत सम्मिलित है। मुंगेली एवं बिलासपुर प्रतिनिधि केंद्र है। इन केंद्रों पर शुष्कता सूचकांक क्रमश: 51.1 एवं 46 प्रतिशत है।
(2) मध्यम शुष्क क्षेत्र :
बेसिन के दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं। रायपुर जिले के देवभोग, कनकी, राजिम, रायपुर एवं धमतरी तहसील का क्षेत्र मध्यम शुष्कता वाले क्षेत्र है। जहाँ औसत 45 प्रतिशत शुष्कता सूचकांक है।
बिलासपुर जिले के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र का जांजगीर एवं सक्ती तहसील इसके अंतर्गत है। जांजगीर एवं सक्ती दो प्रतिनिधि केंद्रों पर औसत शुष्कता सूचकांक क्रमश: 43.5 एवं 42.2 प्रतिशत है। वर्षा की अनिश्चिता इस क्षेत्र में सूखे की दशा निर्मित करने में विशेष सहायक है।
(3) न्यूनतम शुष्क क्षेत्र :
ऊपरी महानदी बेसिन का उत्तरी पर्वतीय एवं वनाच्छादित क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं। रायपुर जिले के बलौदाबाजार, महासमुंद एवं बिलासपुर जिले के कोरबा, कटघोरा, पेंड्रा तहसील इसके अंतर्गत सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों का औसत वार्षिक वर्षा 1300 मिलीमीटर है। मिट्टी की आर्द्रता संचयन की क्षमता भी अधिक है। अत: यहाँ पर शुष्कता की आवृत्ति अपेक्षाकृत कम है।
बाढ़ :
जब नदी का जल किनारे के ऊपर से प्रवाहित होकर समीपी वृहद भागों पर फैल जाता है तो उसे बाढ़ कहते हैं। बाढ़ में भौगोलिक एवं मौसम संबंधी दशायें प्रमुख हैं।
बेसिन में बाढ़ के प्राकृतिक कारणों में वर्षा की प्रवृत्ति, वर्षा की मात्रा, धरातल का ढाल, मिट्टी की प्रकृति, धरातल पर वनस्पति की मात्रा, नदी नालों के प्रवाह प्रतिरूप आदि है। मानव जनित कारणों में वन विनाश एवं नहरों के मार्ग को अवरुद्ध करने, अत्यधिक पशुचारण एवं भूमि पर मानव का असीमित अतिक्रमण आदि है। अनुपयुक्त स्थानों पर मानव द्वारा निर्माण कार्य तथा- पुल, बांध, रेल व सड़क मार्ग, जलाशय आदि का निर्माण, निम्न भूमि क्षेत्रों को भरकर व पक्का बनाकर अनियोजित नगरों का निर्माण करना, जल निकासी की अपर्याप्त व्यवस्था, उद्योगों व घरेलू अपशिष्टों को नदियों में छोड़ना, संचार साधनों की अपर्याप्त व्यवस्था भी प्रमुख कारण है।
ऊपरी महानदी बेसिन में प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से बाढ़ की स्थिति निर्मित हुई है।
सारिणी क्रमांक - 2.10 ऊपरी महानदी बेसिन - बाढ़ की स्थिति (1964-1990) | |||
क्रमांक | तहसील | बाढ़ की संख्या | वर्ष |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. | देवभोग गरियाबंद बलौदाबाजार महासमुंद रायपुर धमतरी राजिम सरायपाली | 7 6 6 6 5 5 5 4 | 1964-1993 1964-1990 1964-1990 1964-1990 1964-1990 1964-1990 1964-1990 1964-1990 |
स्रोत - जिला-भूअभिलेख कार्यालय |
बेसिन में रायपुर जिले में सर्वाधिक बाढ़ की स्थिति देवभोग तहसील में निर्मित हुई है जहाँ वर्ष 1964 से 1993 के बीच 7 बार बाढ़ें आई और अपार जनधन की हानि हुई है। वर्ष 1971, 1980, 1982, 1990, 1991, 1992, 1993 सर्वाधिक बाढ़ वर्ष रहे। इसके बाद गरियाबंद, महासमुंद, बलौदाबाजार में क्रमश: 6-6 बार, महासमुंद, धमतरी, राजिम में क्रमश: 5-5 बार एवं सरायपाली में 4 बार बाढ़ें आई। सर्वाधिक बाढ़ वर्ष तुलनात्मक रूप में 1964, 1970, 1980, 1985, 1990, 1993 रहे।
बाढ़ के प्रकार :
बाढ़ की तीव्रता या बाढ़ के द्वारा क्षति की मात्रा को आधार मानकर बाढ़ को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है –
1. छोटी बाढ़ें - (40 प्रतिशत) वर्षा की तीव्रता
2. मध्यम बाढ़ें - (50 प्रतिशत) वर्षा की तीव्रता
3. भारी बाढ़ें - (60 प्रतिशत) वर्षा की तीव्रता
साथ में 1964 के बाद अब तक बाढ़ से विभिन्न तहसीलों के मानव एवं पशु प्रभावित हुए है साथ ही फसलों, मकानों की भी अत्यधिक क्षति हुई है।
बाढ़ प्रभावित क्षेत्र :
रायपुर, बलौदाबाजार, बिलाईगढ़, राजिम, सिमगा तथा कसडोल प्रमुख हैं।
1. महानदी तटवर्ती बाढ़ प्रभावित क्षेत्र :
इसके अंतर्गत धमतरी कुरुद, राजिम, रायपुर, महासमुद, बलौदाबाजार, तथा कसडोल के महानदी तटवर्ती क्षेत्र के 650 गाँव एवं 7000 हे., कृषि क्षेत्र प्रभावित है। कारण- महानदी के जलग्रहण क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा तथा गंगरेल बांध द्वारा बिना पूर्व सूचना दिये बड़ी मात्रा में (3 लाख घनमीटर) पानी का छोड़ा जाना।
2. शिवनाथ तटवर्ती बाढ़ प्रभावित क्षेत्र :
इसके अंतर्गत सिमगा, भाटापारा के पश्चिमोत्तर क्षेत्र तथा बलौदाबाजार का उत्तरी तटवर्ती क्षेत्र के 300 गाँव तथा 36,012 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र अत्यधिक वर्षा के कारण प्रभावित हुये।
3. खारुन तटवर्ती बाढ़ प्रभावित क्षेत्र :
कुरुद, अभनपुर, रायपुर तथा तिल्दा के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र के 280 गाँव 11150 हे.। कृषि क्षेत्र अत्यधिक जल ग्रहण एवं अत्यधिक वर्षा से प्रभावित हुये।
4. अन्य प्रभावित क्षेत्र :
पैरी, सोंदूर, जोंक नदी के तटवर्ती क्षेत्र तथा कोल्हान, खोरसी, जामुनिया आदि नालों के तटवर्ती क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र रहे अतिवृष्टि के साथ वर्षा की गहनता, नगरीय क्षेत्रों में पानी निकासी की अपर्याप्त व्यवस्था आदि के कारण बाढ़ की स्थिति निर्मित हुई। निष्कर्षत: विगत (1964-93) वर्षों में बाढ़ का प्रभाव महानदी, खारुन तथा पैरी के तटवर्ती क्षेत्रों में सर्वाधिक रहा जिससे जनधन प्रभावित हुए। ऊपरी महानदी बेसिन में जल निकासी का व्यवस्थित नहीं होना, नदियों के किनारे भूमि पर मानव का असमीमित अतिक्रमण, नदियों में अवसादों का जमाव आदि कारणों से नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में तेजी से बाढ़ें आती हैं।
ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास, शोध-प्रबंध 1999 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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11 | सारांश एवं निष्कर्ष : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास |
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