जल संरक्षण से ही जन संरक्षण


सृष्टि का निर्माण प्रकृति के पाँच आधारभूत तत्त्वों अग्नि, वायु, भूमि, आकाश व जल से हुआ है। इन तत्त्वों में से किसी एक की भी कमी सृष्टि के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती है। जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये नितान्त आवश्यक है। कहा जाता है कि जल ही जीवन है। जल की महत्ता को प्रदर्शित करने के लिये हमारे यहाँ ऋषि, मुनियों ने जल को अमृत कहा है। हमारे दैनिक जीवन में जल से सम्बन्धित कई मुहावरे हैं - जैसे आँख का पानी जाना, मुँह में पानी आना इत्यादि। प्राचीन सभ्यताएँ जैसे हड़प्पा व मोहनजोदड़ों आदि का उद्भव जल के निकट ही हुआ था और इन सभ्यताओं के विकास व विनाश का कारण भी जल ही माना जाता है। पृथ्वी का अधिकांश भू-भाग जल से ढका होने के कारण पृथ्वी को जलीय ग्रह कहा जाता है। पृथ्वी पर लगभग 13380 लाख घन किलोमीटर जल उपलब्ध है लेकिन इसका 98 प्रतिशत भाग खारा या लवणीय होने के कारण मानव उपभोग के लिये अनुपलब्ध है। शेष जल का आधे से अधिक भाग बर्फ व गहरे भू-भाग में स्थित होने के कारण इसका सुगम मानव उपभोग सम्भव नहीं है। इस सबके बावजूद पृथ्वी पर मानव उपभोग के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध है। आज आवश्यकता इस उपलब्ध जल के उचित संरक्षण, वितरण व उपयोग की है।

वर्तमान में बढ़ती हुई आबादी व जल के बहुआयामी उपयोग व दुरुपयोग ने सम्पूर्ण विश्व को जल संकट के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। एक अनुमान के अनुसार यदि वर्तमान जनसंख्या वृद्धि व जल दुरुपयोग का यह दौर जारी रहा तो सन 2025 तक विश्व की कुल आबादी की एक तिहाई जनसंख्या को जल संकट का सामना करना पड़ेगा। सन 1990 में विश्व की कुल 530 करोड़ जनसंख्या में से अफ्रीका व मध्य पूर्व के 28 देशों के 33.50 करोड़ लोगों ने जल सकंट का सामना किया था और सन 2020 तक अनुमान है कि 18 और देशों के इस कतार में आ जाने से यह संख्या 330 करोड़ तक पहुँचने की आशंका है।

मानव शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल होता है और इसको सुचारु रूप से चलाने के लिये प्रतिदिन लगभग 2 लीटर जल की आवश्यकता होती है लेकिन प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कितनी मानक जलापूर्ति होनी चाहिये इसका अभी तक सही अनुमान नहीं लगाया जा सका है। उदाहरण के तौर पर कनाडा जहाँ जनसंख्या घनत्व 4 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है वहाँ प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 12000 घनमीटर जल उपलब्ध है। जबकि दूसरे कुछ देश, जैसे मिश्र जहाँ जनसंख्या घनत्व 90 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, वहाँ मात्र 1200 घनमीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष उपलब्ध होता है।

राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जल की मांग 820 मिलियन गेलन प्रतिदिन की है और 660 मिलियन गेलन प्रतिदिन उपलब्धता के आधार पर औसत 180 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन वितरण है जबकि सबसे कम महरौली में 29 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ही है। यह स्थिति लगभग सभी जगह है। जहाँ बड़े होटलों में बाॅथ टब व शावर में स्नान करके लोग लाखों लीटर पानी व्यर्थ गँवाते हैं वहीं बाहर कच्ची बस्ती के लोग सड़कों पर पीने के पानी हेतु सार्वजनिक नल पर घंटों इन्तजार करते हैं।

जल उपयोग में इस भारी असमानता का एक व्यावहारिक कारण जल की उपलब्धता माना जाता है। ऐसा देखा गया है कि जब जलापूर्ति आवश्यकता से अधिक होती है तो मनुष्य उसके प्रयोग (दुरुपयोग) के नए साधन ढूँढ लेता है फलतः जल की अनावश्यक बर्बादी होती है। इसके विपरीत जहाँ जल उपलब्धता कम है वहाँ लोगों ने कम जल में अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये जल की मितव्ययता के नये-नये तरीके अपनायें है। इस सन्दर्भ में पश्चिमी राजस्थान, जहाँ पानी की कमी है वहाँ लोगों द्वारा घरों की छत से वर्षाजल संग्रहण एक अनुसरणीय उदाहरण है।

.बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से अब तक जल की मांग में लगभग 8 गुना वृद्धि हुई है। वर्तमान में विश्व का कुल जल उपयोग संसार की सभी नदियों के जल बहाव का दसवां भाग है और इसका दो तिहाई भाग कृषि कार्यों में उपयोग होता है। कृषि कार्यों में जल की भारी अपव्ययता का मुख्य कारण कृषि की अकुशल व पुरानी तकनीकियाँ है। जरूरत से अधिक जल से न केवल जल हानि होती है बल्कि इससे भूमि की उत्पादकता में भी कमी आती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 125000 हेक्टेयर भूमि कृषि जल के अधिक प्रयोग से उत्पन्न जल ग्रसनता व लवणीयता के कारण खराब हो जाती है।

बढ़ते हुए जलसंकट ने बहुत सी स्वास्थ्य समस्याओं व अन्तरराष्ट्रीय विवादों को भी जन्म दिया है। विकासशील देशों में लगभग 80 प्रतिशत बीमारियाँ व एक तिहाई मौत केवल दूषित जल के प्रयोग के कारण होती हैं। यूनीसेफ का मानना है कि विश्व में लगभग 35000 बच्चे प्रतिदिन दूषित जल के प्रयोग से उत्पन्न बीमारियों से मरते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 730 लाख कार्य दिवस विभिन्न बीमारियों के नाम (सिक लीव) पर बर्बाद होते हैं। विश्व की लगभग 214 अन्तरराष्ट्रीय नदियों में आधे से अधिक नदियों में दो या अधिक राष्ट्रों की भागीदारी है। जलसंकट का यह दौर किसी भी क्षण इन राष्ट्रों में जल बँटवारे पर अन्तरराष्ट्रीय विवाद खड़ा कर सकता है। इस सन्दर्भ में हाल ही में हुआ भारत, बंग्लादेश गंगाजल समझौता उल्लेखनीय है।

भारत के विभिन्न राज्यों में अन्तरराज्जीय नदियों के जल बँटवारे को लेकर स्थिति बहुत सतोंषजनक नहीं है। तमिलनाडु व कर्नाटक के बीच कावेरी नदी जल विवाद काफी समय से अखबारों की सुखिर्यों में है, यमुना नदी के जल बँटवारे को लेकर हरियाणा, उत्तर प्रदेश व दिल्ली महानगर में काफी समय से विवाद है। इसी प्रकार दूसरे अन्य राज्यों के मध्य जल बँटवारे को लेकर विभिन्न विवाद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर उभरते रहते हैं। इस सन्दर्भ में ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई विवाद में प्रतिवर्ष हजारों लोगों की जान चली जाना विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

वर्तमान में जहाँ पानी की खोज और पानी उपलब्ध कराने के आधुनिक तरीके अपनाये जा रहे हैं, उसके साथ ही जल संरक्षण के पारम्परिक तरीकों को, जिन्हें हम भूल चुके हैं, पुनः अपनाने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में राजस्थान में वर्षाजल का भूमिगत तालाब बनाकर संरक्षण करना एक अनुसरणीय उदाहरण है। इसी प्रकार अमरीका के टैक्सास प्रान्त के ऊँचे मैदानी क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 2.5 से 3.0 मिलियन एकड़ फीट वर्षाजल कृत्रिम पुनःपूरण (रिर्चाज) द्वारा भविष्य के वायुमण्डल वाष्पन भण्डारण व महत्तम उपयोग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संरक्षित किया जा रहा है। आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश में भी भविष्य के सम्भावित जलसंकट को देखते हुए भवनों की छत से बरसात के पानी को संग्रहित करके उपयोग में लाया जा रहा है।

पेयजलपरम्परागत तरीकों से वर्षाजल संग्रहण, भण्डारण व संरक्षण के सन्दर्भ में भारत के राजस्थान राज्य का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है लेकिन औसत वार्षिक वर्षा के आधार से यह सबसे अन्तिम है। भारतीय शुष्क क्षेत्र का 90 प्रतिशत भाग उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित है जिसका 62 प्रतिशत राजस्थान में है। राज्य में औसत वार्षिक वर्षा 60 से.मी. देश की औसत वार्षिक वर्षा से आधी है। कम पानी व ज्यादा गर्मी यहाँ के जीवन के दो मुख्य बिन्दु हैं। राज्य का पश्चिमी भू-भाग, जो थार मरुस्थल के नाम से भी जाना जाता है, वहाँ जलसंकट की समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। इस क्षेत्र के अधिकांश भाग में मरुस्थल होने के कारण सुदूर क्षेत्रों में पाइपों द्वारा नियोजित जलापूर्ति सम्भव नहीं है। ऐसी परिस्थति में यहाँ पर परम्परागत साधनों जैसे टांका, नाडी आदि से निवासियों की दैनिक जल आवश्यकताएँ पूर्ण होती है। जल संरक्षण यहाँ के निवासियों की दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है। जल यहाँ एक जीवन शैली है। नाडी व टांका यहाँ गाँव-गाँव व ढाणियों की पहचान बन गए है। कई गाँवों के नाम, नाडी या इसके बनाने वालों के नाम पर रखे गए हैं। सन 1960 के दशक तक जल के सन्दर्भ में राजस्थान की स्थिति लगभग ठीक थी, परन्तु विगत कुछ वर्षों में हुए तीव्र औद्योगिकीकरण व आधुनिकीकरण के कारण यहाँ के परम्परागत जल संरक्षण के तरीकों को उपेक्षा का सामना करना पड़ा है जिससे यहाँ का जल संकट गहरा हो गया है। राज्य सरकार ने इस जल सकंट से उभरने के लिये विश्व बैंक के अनुदान से इन्दिरा गाँधी नहर परियोजना प्रारम्भ की थी। यह परियोजना विभिन्न कारणों से अभी तक पूर्ण नहीं हो पाई है साथ ही यह नहर परियोजना जिन क्षेत्रों से गुजरती है वहाँ जल ग्रसता व भूलवणीयता जैसी समस्याएँ भी जन्म ले रही हैं।

राज्य में सन 2002 के अकाल में आया जलसंकट एक चेतावनी है। पानी की कमी के कारण राज्य सरकार द्वारा टैंकरों व ट्रेनों से अन्य शहरों में पीने के पानी की आपूर्ति की गई। जहाँ पेयजल के लिये एक शहर से दूसरे शहर ‘वाटर ट्रेन’ चलती हो वहाँ पानी कितना कीमती होगा यह हम समझ सकते हैं। यदि जल दोहन की यही स्थिति व गति रही तो पीने के पानी की कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती है। ऐसी स्थिति में हमें जल संरक्षण की परम्परागत विधियों को पुनर्जीवित करना होगा। वर्तमान जलसंकट के इस दौर में जल एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है। आज आवश्यकता जलसंरक्षण व इसके उचित व मितव्यय प्रयोग की है अन्यथा जल के बिना मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा यथा कवि रहीम के शब्दो में

‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गये न उबरे मोती, मानस, चून’


पानी तेरे रूप अनेक


1. जल जीवन का आधार है, आलू में 80 प्रतिशत, टमाटर में 90 प्रतिशत व मनुष्य के शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल होता है।
2. पृथ्वी का लगभग 80 प्रतिशत भाग जल या बर्फ से ढका हुआ है।
3. पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का मात्र 1 प्रतिशत भाग ही मानव उपभोग के लिये उपयुक्त है। शेष जल में 97 प्रतिशत खारे पानी के रूप में समुद्रों में बसा है व 2 प्रतिशत बर्फ के रूप में स्थित है।
4. उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों के अलावा हिमनदों के रूप में इतना पानी बर्फ के रूप में जमा है जितना संसार भर की नदियाँ एक हजार साल में भी नहीं बहा सकती है।
5. भारत में लगभग 1.19 मीटर (1190 मि.मी.) औसत वार्षिक वर्षा होती है, जो परिमाण के हिसाब से पर्याप्त है परन्तु वर्षा आगमन के समय व स्थान में अनिश्चितता व अस्थिरता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में सूखे व बाढ़ की स्थिति बनी रहती है।
6. शहरों व कस्बों में जहाँ जलदाय विभाग द्वारा नगरवासियों को उपचारित जल उपलब्ध कराया जाता है, उसका मात्र 1 प्रतिशत भाग ही वास्तव में मानव उपभोग में आता है। शेष 99 प्रतिशत जल बगीचों, लाण्ड्री, शौचालयों, नहाने व कूलर इत्यादि के काम में लिया जाता है।
7. एक व्यक्ति अपने जीवन काल में लगभग 61000 लीटर जल पीता है।
8. एक सामान्य व्यक्ति बिना भोजन के लगभग 2 महीने जीवित रह सकता है लेकिन बिना जल के वह एक सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रह सकता है।
9. डेयरी की एक गाय को 1 गैलन दूध देने के लिये 4 गैलन पानी की आवश्यकता होती है।
10. देश भर के सभी समाचार पत्रों की एक दिन की छपाई के लिये 2000 लाख गैलन पानी चाहिये।
11. एक किलोवाट जल विद्युत प्राप्त करने के लिये 400 गैलन पानी की आवश्यकता होती है।

भारतीय थार मरुस्थल में जल संकट के कुछ कारण


कम वर्षा के अतिरिक्त मरुस्थल में जल संकट के कुछ अन्य मानव निर्मित कारण भी हैं जैसेः-

1. विश्व के अन्य शुष्क क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा आबादी घनत्व
2. तीव्रता से बढ़ता औद्योगिकीकरण
3. अकुशल कृषि जल प्रबन्धन
4. कम भूजल वाले क्षेत्रों में नलकूपों द्वारा सिंचित खेती व भूजल का अन्धाधुन्ध प्रयोग।
5. प्रतिबन्धित क्षेत्रों में अधिक संख्या में निजी जलकूपों द्वारा भूजल दोहन।
6. शहरों व कस्बों में बगीचों, शौचालय, तरणताल, कूलर इत्यादि में जलदाय विभाग द्वारा प्रदत्त महंगे उपचारित जल का अन्धाधुन्ध प्रयोग।
7. आवासीय भवनों में दैनिक प्रयोग के लिये कम जल उपयोग करने वाले मानक साघित्रों का अभाव।
8. जलदाय विभाग द्वारा प्रदत्त जल के वितरण में असमानता व नियमित देखभाल के अभाव में पाइपों से जल रिसाव।
9. गाँवों व कस्बो में परम्परागत जल संग्रहण के तरीकों की उपेक्षा व जलदाय विभाग द्वारा प्रदत्त जल पर पूर्ण निर्भरता।
10. जल के दुरुपयोग को रोकने के लिये प्रभावी कानून का अभाव।

कुछ सम्भावित समाधान


1. शुष्क क्षेत्रों में प्रभावी कानून द्वारा अवशोषित जल द्वारा जल प्रदूषण करने वाले उद्योगों व कारखानों पर प्रतिबंध व अधिक जल प्रयोग करने वाले उद्योगों पर कड़ा नियन्त्रण।
2. जल के घरेलू दुरुपयोग पर प्रभावी मापन (मीटरिंग) द्वारा पूर्ण नियत्रंण। आवासीय भवनों को उपलब्ध पेयजल का निर्धारण पारिवारिक अनुपात में। निर्धारित मात्रा से अधिक जल प्रयोग पर देय राशि में आनुपातिक वृद्धि।
3. विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत निर्मित आवासीय भवनों में निजी लाॅन की अपेक्षा सामुदायिक बाग बगीचों के विकास पर अधिक जोर।
4. हाउसिंग बोर्ड, नगर सुधार न्यास इत्यादि द्वारा निर्मित भवनों में वर्षाजल संग्रहण के लिये आवश्यक प्रावधान।
5. घरों मे दैनिक प्रयोग के लिये कम पानी का उपयोग करने वाले मानक उपकरणों का प्रयोग।
6. जल वितरण व्यवस्था की आवश्यक व नियमित देखभाल।
7. शुष्क क्षेत्रों में अधिक पानी वाली फसलों (मिर्च, प्याज व अन्य सब्जियों) के स्थान पर कम पानी वाली वैकल्पिक फसलों को उगाने के लिये कृषकों को प्रोत्साहन।
8. ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिये आवश्यक कदम।
9. कुशल कृषि जल प्रबन्धन के लिये कृषकों को आवश्यक प्रशिक्षण व प्रोत्साहन।
10. प्रतिबन्धित क्षेत्रों में निजी जलकूपों के खोदने पर दण्ड व विद्युत आपूर्ति पर रोक।
11. कानून द्वारा जलकूपों, कुँओं व अन्य जल स्रोतों को सरकारी सम्पत्ति घोषित करना।
12. कृत्रिम जल पुनःपूरण द्वारा उपलब्ध जल स्रोतों का सुनियोजित संरक्षण व उपयोग।
13. विद्यालयों में पाठयक्रम के माध्यम से छात्र-छात्राओं में जल के महत्त्व के बारे में चेतना जगाना।
14. समाज को जल के संरक्षण व उचित प्रयोग के लिये प्रोत्साहित करने के लिये कोई पुरस्कार आदि।

सम्पर्क : डॉ. राजेश कुमार गोयल, वरिष्ठ वैज्ञानिक केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर, मो.: 9414410251, ई.मेल: rkgoyal24@rediffmail.com ; rkgoyal@cazri.res.in]

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