जल संरक्षण में संचार माध्यमों की भूमिका


प्रधानमंत्री ने अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में देश में बढ़ते सूखे के बीच जल और जलाशय संरक्षण की बात कही है। इसके लिये उन्होंने मीडिया से भी सहयोग मांगा। इसी प्रकार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी दिल्ली में चौथे जल सप्ताह कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए कहा कि जलसंरक्षण और संवर्धन की दिशा में बेहतर परिणामों के लिये बच्चों को शुरू से ही इस विषय में शिक्षित और जागरूक करने की जरूरत है।

संचार और जल दोनों ही मानव की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। सतही जल की अल्पमात्रा के बावजूद पीने सहित तमाम घरेलू उपयोग, खेती, औद्योगिक इस्तेमाल और अन्य उपयोग के लिये मनुष्य इसी जल पर निर्भर है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण यह लगातार कम होता जा रहा है। लुप्त हो जाने से पहले इसे बचा लेने और बचाये रखने की चिंता व्यक्त की जाने लगी है। प्रत्येक स्तर पर नीति, योजना और कार्यक्रमों की रचना तैयार की जा रही है। इसमें संचार माध्यमों की सहभागिता भी महत्त्वपूर्ण है।

संचार माध्यमों की पहुँच और प्रभाव क्षमता असीमित है। इसका उपयोग नकारात्मक और सकारात्मक दोनों उद्देश्यों के लिये किया जाता है। सामान्यत: संचार माध्यमों का उपयोग सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के लिये किया जाता है। मीडिया के कारण व्यक्ति की आदतों, इच्छाओं, व्यवहारों और आकांक्षाओं, सामाजिक रूपों तथा विभिन्न संस्थाओं की नीतियों में तेजी से परिवर्तन दिखाई दे रहा है। इन परिवर्तनों को समाज की तात्कालिक और दीर्घकालिक समस्याओं से संदर्भ में भी देखा जाना जरूरी है। समाज के विभिन्न वर्गों तक मीडिया की पहुँच और पकड़ दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। संचार माध्यम अपनी प्रकृति के अनुसार समाज की निरंतरता और परिवर्तन की प्रवृत्ति को बढावा दे रहा है। अनिल कुमार ने अपने अध्ययन (कुमार 2015 : 184-185) में बताया है कि संचार माध्यमों के कारण ग्रामीण जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू, सामाजिक संस्थाओं – परिवार, विवाह, सामाजिक संस्तरण, शिक्षा, जाति आदि के साथ ही ग्रामीण अभिवृत्तियों – सामूहिकता, पारस्परिक सहयोग, पारस्परिक अवलंबन, मितव्ययिता, संचय, धार्मिकता और सामाजिक नियंत्रण आदि में निरंतरता की अपेक्षा परिवर्तन अधिक देखा जा रहा है।

इस दिशा में संचार माध्यमों की भूमिका, दायित्त्व और उद्देश्य को प्रतिपादित किया जाना आवश्यक है। अगर प्रधानमंत्री से लेकर शासन-प्रशासन के विभिन्न अंग और नीति-निर्माता जल-संचय के प्रयासों को और अधिक कारगर बनाने में मीडिया से अपेक्षा कर रहे हैं तो यह स्वाभाविक ही है।

देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जल की उपलब्धता, उपयोग, व्यवहार और समस्यायें बदल जाती हैं। दुनिया के विभिन्न देशों के संदर्भ में यह स्थिति देखने को मिलती है। ग्रामीण, शहरी और वनवासी क्षेत्रों में जल के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार की सोच दिखाई देती है। कहीं पीने के जल की समस्या है, तो कहीं सिंचाई और कहीं औद्योगिक उपयोग के लिये जल की किल्ल्त महसूस की जा रही है। प्राकृतिक जलस्रोतों के अनुसार जल की उपलब्धता में काफी विविधता और विषमता है। सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक पक्ष के अलावा जल से जुड़ा तात्विक और दार्शनिक पक्ष भी है। जल की समस्या को समझने के लिये इस पक्ष को भी समझना जरूरी है।

जल सम्बंधी जनसंचार की हकीकत


इस सम्बंध में सूचना, फिल्म-संगीत और साहित्य के जरिये जन-सामान्य का शिक्षण-प्रशिक्षण हो रहा है। मुद्रित, प्रसारण (इलेक्ट्रॉनिक) और डिजिटल माध्यमों के द्वारा जल की बातें चहुँओर हो रही हैं। हर तरफ जल को लेकर जागने-जगाने का प्रयत्न है। पत्र-पत्रिकाओं के परिशिष्ट और विशेषांक जल को समर्पित हो रहे हैं। टेलीविजन और रेडियो जल के सन्देश का प्रसारण कर रहे हैं। वेबसाइट और पोर्ट्ल्स पर जल से सम्बन्धित जानकारी दी जा रही है। नुक्क्ड़ नाटकों, कठपुतली प्रदर्शन, दीवार लेखन, पोस्टर-प्रदर्शनी सभा, चौपाल, कथा-सत्संग, धार्मिक आयोजनों के द्वारा जल-संचय और मितव्ययिता के संदेश दिये जा रहे हैं।

जल-पर्यावरण के मुद्दे पर अनुपम मिश्र, भरत झुनझुनवाला, पंकज चतुर्वेदी, दिनेश मिश्र, प्रमोद भार्गव, अरुण तिवारी, अरुण कुमार ‘जलबाबा’, मनीष वैद्य, पूजा सिंह, ज्ञानेन्द्र रावत, प्रेम पंचोली, अनिल सिन्दूर, अभय मिश्र आदि लेखकों की पहचान जल संसाधन के विशेषज्ञों के रूप में बनी है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, पत्रिका आदि अखबार जल संरक्षण हेतु अभियान चला रहे हैं और विशेष परिशिष्ट प्रकाशित कर रहे हैं। वहीं पांचजन्य, इंडिया टुडे, आउट्लुक जैसी पत्रिकाएं जल और पर्यावरण पर केन्द्रित अंक प्रकाशित कर रहे हैं। ‘इंडिया वाटर पोर्टल’ जैसे कई वेबसाइट और पोर्टल्स पर जल, पर्यावरण, जलवायु और खेती से जुड़े विषयों पर काफी सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं। यद्यपि रेडियो और टेलीविजन पर अपेक्षाकृत कम सामग्री है। स्वैच्छिक संस्थायें नुक्कड़ नाटक, चौपाल, सभा, प्रदर्शनी, कथा आदि का आयोजन कर रहे हैं। भोपाल स्थित स्पन्दन संस्था विकास और विज्ञान के विषयों पर ‘मीडिया चौपाल’ का आयोजन कई वर्षों से कर रही है। पिछले वर्षों में दो मीडिया चौपाल जल संरक्षण और नदियों के पुनर्जीवन पर केन्द्रित था। इन प्रयासों के द्वारा जन माध्यमों को समाजोन्मुखी और विकास केन्द्रित करने का इरादा परिलक्षित होता है।

वृत्तचित्र, साक्षात्कार, समाचार, धारावाहिक, गीत-संगीत, कथा-कहानी, लघु फिल्म, आलेख, फीचर, विज्ञापन, कविता, नारे आदि के द्वारा जल के बारे में न सिर्फ जानकारी दी जा रही रही है, बल्कि शिक्षा और मत-निर्माण का प्रयास भी किया जा रहा है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के द्वारा जल के बारे में सरकार और विशेषज्ञों की अपेक्षाओं से श्रोताओं-दर्शकों को सत्त अवगत कराया जा रहा है। शब्दों, ध्वनि और चित्रों के द्वारा आँख और कान को माध्यम बनाकर व्यक्ति को जागरुक, सतर्क और चैतन्य बनाने की कोशिश हो रही है। लेकिन ज्यादातर मामलों में यह देखने को मिल रहा है कि प्रिंट और प्रसारण माध्यम राष्ट्रीय और सामाजिक हितों एवं आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाये बहुराष्ट्रीय निगमों के हित साधन का माध्यम बन रही हैं। जल के मुद्दे पर भी कमोवेश यही स्थिति है।

संचार माध्यमों के जरिये इतनी अधिक सामग्री होने के बावजूद जल से जुड़ी समस्यायें विकराल रूप ले रही हैं। जल से जुड़ी प्रचार सामग्री बढ रही है, किन्तु मनुष्य के उपयोग के लिये जल लगातार कम हो रहा है। जल से जुड़े भारतीय मूल्यों की स्थापना और शिक्षा की बजाये मीडिया पश्चिमी मूल्य और व्यापारिक हितों की शिक्षा दे रहा है। मीडिया सामाजिक समस्याओं का निदान न देकर, बाजार और मनोरंजन उद्योग का साधन बन रहा है। यह सब राष्ट्रीय योजना समिति (1948) की उन सिफारिशों के खिलाफ है, जिसके तहत ‘विकासमूलक-संचार’ की अवधारणा प्रस्तुत की गई थी। भारत में इसी अवधारणा के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन को विकासमूलक संचार माध्यम के तौर पर विस्तार दिया गया था। लेकिन आज ये माध्यम अपने दायित्वों से विमुख हो गये प्रतीत होते हैं। संचार माध्यम भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास की नहीं, अपितु बाजार और मनोरंजन उद्योग की रीढ़ बन गये हैं। जन माध्यम का उपयोग लोगों की जीवन शैली और जीवन मूल्य बदलने के लिये हो रहा है। माध्यमों का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि इसकी संरचना एवं उद्देश्यों का निर्माण कौन करता है, इसका इस्तेमाल कौन करता है और कैसे करता है। संचार माध्यमों की प्रकृति का विश्लेषण करने से पता चलता है कि पुराने जमाने में संचार की अनुपस्थिति होती थी या बहुत ही धीमी उपस्थिति। लेकिन आज के जमाने में संचार, तीव्र संचार हर तरफ, हर जगह उपस्थित होता दिख रहा है। परम्परागत समाजों में तकनीकविहीन संचार माध्यम थे, किन्तु आज तकनीकयुक्त है। तब के संचार में मनुष्य की भूमिका प्रधान थी, आज तकनीक प्रधान है। इन विचारों के परिप्रेक्ष्य में आज के मीडिया को देखा जाना समीचीन होगा। आज का मीडिया समाज को सूचना, जानकारी और शिक्षा देने के स्थान पर जरूरत से ज्यादा मनोरंजन दे रहा है। यहाँ माध्यम ज्यादा, सन्देश कम है। ज्यादातर माध्यम एकतरफा संचार करते हैं। वे संचार सम्प्रेषण की प्रक्रिया में समाज और व्यक्ति को कमतर हिस्सेदार बनाते हैं।

जल और पर्यावरण जैसे मुद्दे पर भी मीडिया की स्थिति समाजोन्मुख नहीं, बल्कि बाजारोन्मुख है। मीडिया की प्रवृत्ति जल के बाजार को बढ़ावा देने वाली है। मीडिया संचार के कारण लोगों में जल के प्रति चेतना जागृत नहीं हुई, बल्कि जल के उपयोग और अपव्यय के प्रति औद्योगिक घरानों के प्रति सहिष्णुता पैदा हुई है। लोगों में जल के प्रति व्यवहार परिवर्तन की सख्त जरूरत है। लेकिन इस दिशा में संचार माध्यमों के द्वारा या तो प्रयास नहीं किया जा रहा है या उनके द्वारा किये जा रहे प्रयास निष्प्रभावी या असफल सिद्ध हो रहे हैं। यही कारण है कि जल के बारे में लोगों को जानकारी कम है या ज्यादा, लेकिन जल को लेकर व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर संजीदगी का घोर अभाव है। जल से सम्बंधित भारतीय मूल्यों का क्षरण हुआ है, और यह निरंतर जारी है। एक तरफ जल लगातार कम हो रहा है, किंतु दूसरी तरफ जल के प्रति पवित्र भावना, अल्प व्यय, संचय की प्रवृत्ति और जल के प्रति संवेदनशील व्यवहार नगण्य है।

जल का सामाजिक संदर्भ


जल के प्रति दुर्व्यवहार, अपव्यय और दुरुपयोग तथा लापरवाही का नतीजा है कि विश्व के अधिकांश लोगों को पीने के लिये शुद्ध जल नहीं मिल रहा है। भारत के अनेक क्षेत्रों में जल को लेकर संघर्ष की नौबत है। अनेक स्थानों पर जल को लेकर कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो रही है। महाराष्ट्र में जल के लिये हाहाकार मचा हुआ है। लातूर और जलगाँव में जल के लिये लोग कानून-व्यवस्था अपने हाथ में ले रहे हैं। हालात काबू में रखने के लिये प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ रही है। महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्रों और बुन्देलखण्ड में जल के लिये त्राहि-त्राहि मची है। रेलगाड़ी से जल पहुँचाया जा रहा है।

जल सम्बंधी मीडिया अपेक्षायें


जल से जुड़ी समस्याओं के मद्देनजर जरूरत इस बात की है कि प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाये। जल के प्रति लोगों की सोच बदली जाये। मीडिया के द्वारा लोगों को इस बात के लिये सावधान किया जाना जरूरी है कि जल सस्ता जरूर है, लेकिन यह असीमित नहीं है। वर्षाजल संचय और किफायती उपयोग प्रवृत्ति ही आने वाली पीढियों के लिये जल उपलब्ध करा सकता है।

जल से सम्बंधित व्यवहार में परिवर्तन हो। अब जल का इस्तेमाल सिंचाई के साथ-साथ औद्योगिक व घरेलू कार्यों के लिये होता है। सिंचाई और औद्योगिक उपयोग को लेकर वर्तमान जल-नीति में परिवर्तन जरूरी है। इसके लिये नीति-निर्माताओं को प्रभावित करना होगा। कम सिंचाई की खेती के लिये किसानों को प्रवृत्त करना होगा। परिस्थितियों के मद्देनजर जैविक खेती की नीति अपनानी होगी। अधिक जल पर निर्भर उद्योगों को हतोत्साहित और जल प्रदूषण को कम करने की तकनीक अपनाने को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। घरेलू जल के उपयोग से सम्बंधित अनेक निषेधों के प्रति लोगों को न सिर्फ जागरूक करने बल्कि उनके व्यवहार को भी परिवर्तित करना जरूरी है। वर्षाजल को रोकना-टोकना और थामना ही जल संचय का बड़ा उपक्रम हो सकता है। इसके लिये छोटी-बड़ी जल संरचनायें बड़े पैमाने पर निर्मित की जाये, यह परिस्थितियों की मांग है। जल का संचय, स्थानीय उपयोग और आवश्यकता के अनुपात में होना जरूरी है। सुदूर क्षेत्रों से परिवहन के कारण जल बड़ी मात्रा में बर्बाद होता है। जल के आवागमन या परिवहन को कम कर, स्थानीय प्रबन्धन पर जोर दिया जाना जरूरी है।

अनेक मीडिया संस्थानों ने स्वयं जल संरक्षण अभियान जारी कर दिया है। यह भी प्रयासों का अतिरेक है। मीडिया का काम जागरूकता, शिक्षण और व्यवहार परिवर्तन तक ही उचित प्रतीत होता है। मीडिया की सफलता-असफलता का पैमाना भी यही हो सकता है, न कि मीडिया संस्थानों का खुद ही मैदान में कूद जाना। अत: संचार माध्यमों को स्वधर्म के प्रति आत्मवलोकन करना पड़ेगा। उन्हें प्रयासों के अतिरेक का नियमन करना होगा। जल-पर्यावरण जैसे मुद्दों पर जन-शिक्षण और लोक-व्यवहार में परिवर्तन के चुनौतीपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करना होगा। जल सम्बंधी सूचनायें संप्रेषित करने भर से काम नहीं चलेगा, अपितु संप्रेषण के शासकीय और जन-अपेक्षाओं को भी पूरा करना होगा। जल संचय, जल के प्रति मितव्ययी व्यवहार, जल बचत और जल शुद्धता के प्रति लोगों को प्रेरित करने और सम्यक व्यवहार के लिये उन्मुख करने का दायित्व भी जन माध्यमों का है। जल को लेकर मीडिया को ‘अलार्म-बेल’ की स्थिति पैदा करनी होगी। जल और पर्यावरण के मुद्दे को भी ग्लैमर्स बनाने की जिम्मेदारी मीडिया की ही है। जल को लेकर आधुनिक मीडिया अधिक सक्रिय है। इससे ज्यादा सक्रियता परंपरागत मीडिया को अपनानी पड़ेगी। मीडिया संस्थानों में जल-पर्यावरण के लिये समर्पित संचारकों-पत्रकारों की नियुक्ति, उनका उन्मुखीकरण होना जरूरी है। संचारकों के लिये विशेषज्ञता आधारित संचार के लिये उन्मुखीकरण कार्यशालाओं का आयोजन भी जरूरी है।

निष्कर्ष और सुझाव


समाज में जल सम्बंधी ज्ञान और जानकारी की कमी नहीं है, बल्कि चेतना, समझदारी और यथोचित व्यवहार की कमी है। लोगों में जल कम होने की जानकारी है, लेकिन जल संचय, किफायती उपयोग की प्रवृत्ति नहीं। जल सम्बंधी सावधानी, सतर्कता, सहयोग और अनुशासन की कमी है। संचार माध्यमों के लिये व्यवहार परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है। लोग अभी भी नल और पाइप से गाड़ियाँ और कपड़े धोते दिख जाते हैं। खुले नल के प्रति लापरवाह हैं।

पृथ्वी पर जल बहुत है। उपयोग, खासकर पीने योग्य जल जरूर कम है। लेकिन इतना भी कम नहीं है। अगर जल के लिये पृथ्वी पर हाहाकार मचा है या आने वाले समय में मचने वाला है तो इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण जल के प्रति मानव व्यवहार है। मानव व्यवहार को अन्य कारकों के साथ संचार प्रक्रिया प्रमुखता से निर्धारित करती है। जल से जुड़ी समस्याओं का निदान मानव व्यवहार में ही हैं। संचार माध्यमों को जल संचय को लेकर बहुआयामी रणनीति बनानी होगी। प्रभावी संचार के द्वारा नीति-निर्माताओं, मत-निर्माताओं के साथ ही हितग्राहियों और सामान्य जन को भी सम्बंधित विषय के बारे में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक योग्यता प्रदान करना होगा। अगर जल समस्या से निजात पाना है तो जल के प्रति सम्यक मानवीय व्यवहार अपनाना जरूरी है।

संदर्भ :
www.cwc.nic.in
कुमार अनिल, (2015) : “जनसंचार माध्यमों की पहुँच, उदभासन एवं प्रभाव (भोपाल जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के विशेष संदर्भ में” अप्रकाशित विद्यावारिधि (पीएच.डी.) शोध प्रबंध, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल, पृ. 184-185.
www.spandanfeatures.com
चतुर्वेदी जगदीश्वर, (2012) : जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 42

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