जल संरक्षण कर पानीदार हुआ मोरी

चिंवा गाँव
चिंवा गाँव
चिंवा गाँव (फोटो साभार - अमर उजाला)भूजल वैज्ञानिक डॉ. डीडी ओझा की किताब ‘जल संरक्षण’ में बताया गया है कि धरती का 70.87 प्रतिशत भाग पानी से घिरा हुआ है। बावजूद इसके पीने के पानी का जबरदस्त संकट है। आँकड़ों के अनुसार विश्व की जनसंख्या वर्ष 2050 में 903.6 करोड़ हो जाने की सम्भावना है। लेकिन 2050 में भी धरती पर पानी की उपलब्धता उतनी ही रहेगी, जितनी की आज है। इसलिये पानी को बचाने के लिये उपयुक्त जतन तो करने ही चाहिए। वे अपनी किताब के मार्फत आगे बताते हैं कि भूजल और वर्षाजल को भविष्य के लिये संरक्षित करना जरूरी हो गया है।

यहाँ इस किताब का जिक्र इसलिये किया जा रहा है कि जो आँकड़े किताब में प्रस्तुत हैं उनसे जल संरक्षण के प्रति हो रहे प्रयास कितना मुकाबला कर पाते हैं कि नहीं। पर आने वाले समय में प्रेरणास्पद हो सकते हैं। इधर वाटर टैंक कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में पानी को बचाने की मुहीम रंग ला रही है। लोग अपने-अपने स्तर पर जल संरक्षण के कार्य कर रहे हैं और उनके प्रतिकूल परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं।

जल सरंक्षण का पुरस्कार

उत्तराखण्ड के अन्तर्गत सीमान्त जनपद उत्तरकाशी की सरांश व चिंवा ग्राम पंचायतों में ग्रामीणों द्वारा छेड़ी गई जल संरक्षण की मुहिम ने देश भर को सन्देश दिया है। भारत-चीन सीमा से लगे मोरी ब्लॉक की इन दोनों पंचायतों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

मुख्यालय उत्तरकाशी से 225 किमी दूर मोरी ब्लॉक की चिंवा ग्राम पंचायत के प्राकृतिक जलस्रोतों में लगातार जलस्तर घट रहा था। इसके समाधान बावत वर्ष 2017 में पंचायत ने कार्ययोजना बनाई और क्षेत्र में पौधरोपण शुरू कर दिया। इसके साथ-साथ पानी की छोटी-छोटी धाराओं को एकत्र कर तालाब तक पहुँचाया गया। चिंवा गाँव के 63 वर्षीय मोहन सिंह ने बताया कि पहले उनके गाँव के तीनों प्राकृतिक जलस्रोत सूखने के कगार पर आ चुके थे। अब ग्रामीणों के सामूहिक प्रयास से गाँव के जलस्रोतों को रीचार्ज किया गया। गाँव की पेयजल की आपूर्ति के साथ-साथ यह पानी अब बाग-बगीचों की सिंचाई और पशुओं के पीने के काम में आ रहा है।

कैसे हुआ जल संरक्षण

ग्राम पंचायत चिंवा के प्रधान सतीश चौहान बताते हैं कि जल संरक्षण के लिये ग्रामीणों ने बिना किसी सरकारी सहायता के अगस्त 2017 में 500 पौधों का गाँव के आसपास रोपण किया। इन पौधों की देखभाल भी ग्रामीण ही कर रहे हैं। बताया कि गाँव में जल संरक्षण के साथ स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है। आज सभी परिवारों के पास शौचालय है। साथ ही कूड़ा निस्तारण के लिये भी ग्रामीणों को जागरूक किया गया है।

चिंवा की तरह ही मोरी ब्लॉक की सरांश ग्राम पंचायत ने भी जल संरक्षण के क्षेत्र में मिसाल पेश की है। यह ग्राम पंचायत भी पिछले दस सालों से जल संकट से जूझ रही थी। इससे निपटने के लिये ग्रामीणों ने पहले जल संस्थान और जल निगम के चक्कर लगाए, लेकिन जब कोई बात नहीं बनी तो ग्रामीण पारम्परिक जलस्रोत को रीचार्ज करने में जुट गए। पहले-पहल ग्रामीणों ने मनरेगा के तहत छह लाख की धनराशि खर्च कर 1500 पौधों का रोपण किया। साथ ही छोटे-छोटे तालाब भी तैयार किये।

गाँव के 68 वर्षीय सूरत सिंह बताते हैं कि गाँव के पास सेरी स्रोत से अब पानी की सप्लाई हो रही है। प्रधान कमलेश चौहान बताते हैं कि यहाँ-वहाँ बिखरे हुए पानी को एकत्र कर तालाब में डाला गया। यह पानी पशुओं के पीने के साथ बागवानी के भी काम आ रहा है। यानि सरांश और चिंवा ग्राम पंचायत ने वर्षाजल एकत्रिकरण के लिये चाल-खाल को पुनर्जीवित किया, साथ-साथ वृक्षारोपण भी किया। इसके अलावा गाँव के आस-पास के जलागम को सुरक्षित भी किया। परिणामस्वरूप इसके गाँव में पानी की सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान होने लगा।

डुगरा गाँव की वन पंचायत की अनूठी पहल

पौड़ी जनपद के अर्न्तगत कल्जीखाल विकासखण्ड की वन पंचायत डुंगरा में वन और जल संरक्षण के लिये ग्रामीणों ने कमर कस ली है।

चाल-खाल और वनीकरण के जरिए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अहम कार्य ग्रामीणों की तरफ से किये जा रहे हैं। सिविल और सोयम वन प्रभाग के माइक्रो प्लान में ग्रामीण बराबर की सहभागिता निभा रहे हैं। दिलचस्प यह है कि उत्तराखण्ड वन संसाधन प्रबन्धन परियोजना के तहत ग्रामीणों ने जल संरक्षण के कार्यों को सहभागिता के आधार पर क्रियान्वित किया है। इसके तहत क्षेत्र में चाल-खालों का निर्माण किया जा रहा है। साथ ही ग्रामीण पौधरोपण कार्यक्रम को भी सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।

सिविल एवं सोयम वन प्रभाग के प्रभागीय अधिकारी लक्ष्मण सिंह रावत ने बताया कि आने वाले दिनों में यह क्षेत्र जल संरक्षण के लिये नजीर के तौर पर पेश होगा। बता दें कि डुगरा के ग्रामीण पुरानी चाल-खाल को पुनर्जीवित करने के लिये सामूहिक प्रयास कर रहे हैं तो वहीं पर्यावरण सन्तुलन के लिये वृक्षारोपण व जलागम संरक्षण का कार्य संगठनात्मक रूप से क्रियान्वित कर रहे हैं। यही वजह है कि जो गाँव पहले पानी की बूँद-बूँद के लिये मोहताज था वह गाँव आज जलापूर्ति के लिये उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुआ है।

सरांश ग्राम पंचायत ने पिछले दस सालों से जल संकट से जूझ रही थी। इससे निपटने के लिये ग्रामीणों ने पहले जल संस्थान और जल निगम के चक्कर लगाए, लेकिन जब कोई बात नहीं बनी तो ग्रामीण पारम्परिक जलस्रोत को रीचार्ज करने में जुट गए। पहले-पहल ग्रामीणों ने मनरेगा के तहत छह लाख की धनराशि खर्च कर 1500 पौधों का रोपण किया। साथ ही छोटे-छोटे तालाब भी तैयार किये।

इसी तरह चौंदकोट क्षेत्र के संघर्षशील युवा भला कैसे खामोश रह सकते थे। सूखते जलस्रोतों के कारण गायब हो रही हरियाली और भविष्य के पेयजल संकट से चिन्तित इन उत्साही युवाओं ने चौंदकोट क्षेत्र में पुरखों के बनाए चाल-खालों को पुनर्जीवन करने का संकल्प लिया। यह वही चौंदकोट क्षेत्र है जहाँ वर्ष 1951 में इस क्षेत्र के हजारों पुरुषार्थियों ने श्रमदान के बूते चन्द दिनों में ही 30-30 किमी के मोटर मार्गों का निर्माण कर डाला।

कुछ दशकों से चौंदकोट क्षेत्र में पानी की समस्या लगातार गहराती गई। नतीजा, क्षेत्र में हरियाली का गायब होना, गाँवों से बेतहाशा पलायन का बढ़ना आदि आदि। हालात से व्यथित क्षेत्र के युवाओं ने अपने पुरखों का अनुसरण करते हुए क्षेत्र में चाल-खालों को पुनर्जीवन देने का संकल्प लिया। बस एक वर्ष बाद जल संरक्षण के इस लोक विज्ञान के कारण जलधारों का पानी वापस लौटता दिखाई दिया। अब तो आस-पास के लोग डुगरा गाँव का अनुसरण करने लग गए हैं। डबरा चमनाऊं निवासी सुधीर सुंद्रियाल दिल्ली स्थित मल्टीनेशनल कम्पनी में लाखों का पैकेज छोड़ गाँव में जल संरक्षण के काम में लग गए।

चार वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद सुधीर ने गाँव के जलस्रोतों का पानी वापस लौटा पाया। वह मानता है कि जल संरक्षण की जो पुरातन पद्धति पूर्वजों ने इजाद की हुई है उसे कम-से-कम सरकार अनिवार्य कर दे तो पहाड़ के गाँव पानी की समस्या का सामना नहीं करेंगे। उन्होंने तो अपने गाँव में वर्षाजल एकत्रिकरण के लिये चाल-खाल की परम्परा को अपनाया है। यही वजह है कि गाँव में पेयजल से लेकर सिंचाई के साधन उपलब्ध हो पा रहे हैं।

अब वन विभाग की समझ बनी

बताया जाता है कि पूर्वजों द्वारा जंगलों में बनाई गई चाल-खाल इसलिये नष्ट हुईं कि वन विभाग ग्रामीणों को वनों में कुछ करने से पहले कानून के डरावने डंडे का खौप दिखाते थे। जिस कारण जल संरक्षण की यह लोक परम्परा नेस्तनाबूद हुई और पहाड़ों के गाँव में पानी का संकट बड़े पैमाने पर सामने आया। खैर! देर आये दुरस्त आये वाली कहावत यहाँ वन विभाग पर चरितार्थ होती है।

ज्ञात हो कि लम्बे इन्तजार के बाद ही सही आखिरकार वन महकमे को बारिश की बूँदों का मोल समझ आ ही गया। राज्य में हर साल बड़े पैमाने पर आग से तबाह हो रही वन सम्पदा को बचाने के लिये उसने वर्षाजल संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। बताया जाता है कि वन विभाग मानसून सीजन में ही वनों में जलाशय और जलकुंडों के जरिए लगभग 17 करोड़ लीटर पानी को एकत्रित करने का काम करने जा रहा है। जिस हेतु वे खाल-चाल, ट्रैंच व चेकडैम जैसे कार्यों को क्रियान्वित करने जा रहे हैं। वन विभाग का तर्क है कि जल संरक्षण के इस लोक ज्ञान के कारण एक तो पानी के रिचार्ज के काम होंगे दूसरी तरफ वनों में लगने वाली आग पर काबू पाया जा सकता है।

बरसात के पानी का इस्तेमाल हो

बता दें कि उत्तराखण्ड में साल भर में सामान्य तौर पर 1581 मिमी वर्षा होती है, जिसमें मानसून सीजन का योगदान 1229 मिमी का है। बारिश का यह पानी यूँ ही जाया न हो, इसे सहेजने के लिये वन महकमे ने जंगलों में तीन हजार जलाशय व जलकुंड तैयार करने आरम्भ कर दिये हैं। जिनकी क्षमता 16.75 करोड़ लीटर है। इसके साथ ही 12 हजार ट्रैंच, चेकडैम भी तैयार किये गए हैं। यही नहीं, वनों में वर्षाजल संरक्षण के लिये पारम्परिक तौर तरीकों खाल-चाल पर भी फोकस किया जा रहा है। प्रमुख मुख्य वन संरक्षक उत्तराखण्ड जयराज के मुताबिक इस बार 20 लाख से अधिक खाल-चाल (तालाबनुमा छोटे-बड़े गड्ढे) बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। जलाशय, जलकुंड, टैंच, खाल-चाल, चेकडैम के जरिए बड़े पैमाने पर वर्षाजल को वनों में रोकने की तैयारी है।

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