जल संरक्षण के सदियों पुराने तरीके आजमा रहे गांववासी

करीब दो दशक पहले बनाई गई इन नहरों का मकसद था हिमालय से पानी उतारकर यहां की बंजर जमीन को खेती किसानी के लायक बनाना। कागजों पर असरदार दिखने वाली इस योजना पर करोड़ो रुपये खर्च किए गए। पाकिस्तानी सीमा के निकट स्थित गाडरा रोड तक फैली इस नहर की दूसरे चरण की लंबाई 125.20 किलोमीटर है।

नेत्सी। (जैसलमेर)। राजस्थान में एक ओर जहां आधुनिक तरीके से बनी नहरें सूख गई हैं वहीं पारंपरिक तरीके अब भी कामयाब हैं यूं तो पानी हम सबकी जीवनरेखा है लेकिन राजस्थान के कुछ इलाकों में बोतलबंद पानी के अलावा छोटी कुइंयों से निकलने वाला पानी भी लोगों की आजीविका का साधन बन गया है। इन्हीं में से एक हैं नीम सिंह। वे रोज कुइंया से पानी निकालकर उसे एक धातु के बने कंटेनर में भरते हैं। इस पानी को वह अपनी ऊंटगाड़ी पर लादकर (जिसके पहिए जेट विमानों के टायर की याद दिलाते हैं) नजदीक के गांव में बेचते हैं। आधे किलोमीटर के इस सफर से वे करीब 50 रुपये कमाते हैं। उनका गांव थार मरुस्थल के बीचों-बीच स्थित है जहां सालाना औसतन 16 सेंटीमीटर पानी (दिल्ली में 61.7 सेमी)बरसता है। दुखद बात यह है कि यहां का भूजल भी खारा है और वह पीने या कृषि के इस्तेमाल में नहीं आता। तो आखिर यहां लोग जिंदा कैसे रहते हैं? ये सवाल मन में नाचता है। सिंह का जवाब चौंकाता है, वे अपने कूबड रहित ऊंट की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि पानी तो यहां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है अगर कमी है तो जानवरों के लिए चारे की।
 

पारंपरिक तौर-तरीकों का कुशल प्रयोग


यह जानना दिलचस्प है कि आखिर बेहद कम बारिश और बगैर किसी नियमित स्रोत के वे पानी की प्रचुरता की बात कैसे कर रहे हैं? हम उनके गांव की चौपाल पर जाते हैं जहां सारी चर्चा पानी और बारिश के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। इसे समझा जा सकता है क्योंकि उसका प्रबंधन ही यहां पानी की आखिरी उम्मीद है। यहां जिन तरीकों से जल संरक्षण किया जाता है वे संभवत: 500 साल से भी अधिक पहले पालीवाल ब्राह्मणों ने विकसित किए थे। उन्हीं लोगों ने सबसे पहले यहां सतह के नीचे मौजूद जिप्सम की बेल्ट का पता लगाया था।

जिप्सम पानी को भीतर से रिसने नहीं देता। बारिश की बूंदे जब यहां की बलुई सतह पर गिरती हैं तो वह इसे बिलकुल स्पंज की तरह अपने भीतर सोख लेती है। समय के साथ भारी मात्रा में पानी बालू और जिप्सम के बीच एकत्रित हो जाता है। इसका संपर्क भूजल से नहीं होता इसलिए यह खारा भी नहीं होता है। इसी संचित जल का इस्तेमाल यहां के स्थानीय निवासी कुइंयों की मदद से करते हैं।

इसके महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नेत्सी के 30 घरों में 23 कुइंया हैं। स्वयंसेवी संगठन संभव के फरहाद कांट्रैक्टर बताते हैं कि इनमें से कुछ तो 500 साल से अधिक पुरानी हैं हालांकि इन पर किसी का मालिकाना हक नहीं है जाति और समुदाय से इतर गांव का कोई भी व्यक्ति इनके पानी का इस्तेमाल कर सकता है।

 

 

इंतजार में बदले वादे


रामगढ़ से लोंगवाला जाने वाली सड़क के दोनों ओर आपस में जुड़ी नहरों का जाल है। करीब दो दशक पहले बनाई गई इन नहरों का मकसद था हिमालय से पानी उतारकर यहां की बंजर जमीन को खेती किसानी के लायक बनाना। कागजों पर असरदार दिखने वाली इस योजना पर करोड़ो रुपये खर्च किए गए। पाकिस्तानी सीमा के निकट स्थित गाडरा रोड तक फैली इस नहर की दूसरे चरण की लंबाई 125.20 किलोमीटर है।

अब तक 92 किमी लंबाई का काम पूरा हो चुका है। परियोजना की लागत 725 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था। अब तक इसमें से 400 करोड़ रुपये की राशि खर्च हो चुकी है। लोगों ने कभी नहीं सोचा था कि उनके खेत में हरियाली आएगी लेकिन उन्होंने सरकार की दिल खोलकर मदद की। सरकार के आश्वासन पर कई किसानों ने अपनी परंपरागत जमीन बेचकर नहर के किनारे खेती के लिए जमीन ली लेकिन नतीजा सिफर। लेकिन सदियों बाद भी आज जबकि आधुनिक तकनीक भी पनाह मांग चुकी है।

 

 

 

 

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