जल संरक्षण का इतिहास बताता है कि चेन्नई शहर में पानी की किल्लत दूर करने के लिए जितने प्रयास हुए हैं, उतने प्रयास, भारत के किसी अन्य शहर में शायद ही हुए हों। धन के मामले में भी कोई कोताही नहीं हुई। समाज का सहयोग स्वैच्छिक और लागू किए कानून, दोनों ही कारणों से काबिले तारीफ था। इसके अलावा, उन प्रयासों को सरकार और प्रशासन द्वारा जितना सहयोग मिला था उतना शायद ही कहीं और मिला होगा पर दो दिन पुरानी रिपोर्ट, जो कवरेज इंडिया में प्रकाशित हुई है से पता चलता है कि चेन्नई में 2000 फुट की गहराई तक का सारा भूजल सूख चुका है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन ने नए नलकूपों के खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। जिला प्रशासन द्वारा नागरिकों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे अपने घर के तलघर में बरसात के पानी को टांकों में संचित करें ताकि पेयजल संकट की विभीषिका को किसी हद तक कम किया जा सके। नगर पालिका ने अपनी भूमिका पेयजल आपूर्ति तक सीमित करने की बात कही है। विदित हो कि सन 1990 के दशक के अन्तिम बरसों से लेकर 2000 के प्रारंभिक सालों तक, छत के पानी के संरक्षण के लिए चर्चित और मिसाल बने चेन्नई में अब रुफ वाटर हार्वेस्टिंग की बात उतनी मुखरता से नहीं की जा रही है जितनी मुखरता से 20-25 साल पहले की जाती थी। अनुसंधान का मामला है। सबक भी लिए जा सकते हैं।
चेन्नई की सालाना बरसात लगभग 1400 मिलीमीटर है। यह मात्रा किसी भी पैमाने पर कम नहीं है। इतनी बरसात वाले इलाके में पानी की कमी के लिए कुदरत को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस कमी या संकट के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो नुस्खा पद्धति (Prescriptive approach) से किए जाने वाले वे प्रयास जो अस्थायी प्रकृति के हैं, परिणाम मूलक नहीं हैं, और प्रस्तावित करते समय जिनका बौनापन दिखाई नहीं देता। हमारी वह अनदेखी जिम्मेदार है जिसके चलते हम इतिहास से सबक नहीं लेते। समन्वित प्रयास नहीं करते। उल्लेखनीय है कि देश में 20 महानगर और हैं जो चेन्नई की राह पर अग्रसर हैं। उन पर मंडराता संकट दिखाई देने लगा है।
चेन्नई के जल संकट पर नागरिकों की प्रतिक्रिया लगभग औपचारिक है। नागरिक मानते हैं कि तालाबों की अनदेखी, उनकी धरती पर कालोनियों का विकास और सब जगह कंक्रीट का जंगल खडा करना ही समस्या की जड़ में है। बरसात की कमी को किसी भी नागरिक ने रेखांकित नही किया। वे वह सब करने को तैयार हैं जो सरकार कहेगी। यही उनकी भागीदारी की सीमा है। वे टिकाऊ तकनीक या तकनीक का ब्लूप्रिंट प्रदान नहीं कर सकते। वे थोड़ा-बहुत धन व्यय कर सकते हैं पर उन संरचनाओं का निर्माण नही कर सकते जो, उनका निर्माण करने वाले से, बडी राशि की व्यवस्था और तकनीकी समझ की अपेक्षा करती हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि गेंद सरकार के पाले में है। नेताओं या प्रशासनिक अधिकारियों के पाले में नहीं। अगर उनकी कुछ जिम्मेदारी है तो वह है राजनैतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक सहयोग प्रदान करने की। वह सहयोग, सफलता के पीछे-पीछे, बिना कुछ कहे, अपने आप चलता है।
चेन्नई के संकट पर कुछ बात करने के पहले हालिया प्रयासों की बात कर लें। जल शक्ति मंत्रालय ने नगरीय निकायों (Urban Local Bodies ) के लिए मार्गदर्शिका जारी की है। इस मार्गदर्शिका के अनुसार दक्षिण-पश्चिम मानसूनी इलाकों के लिए 22 मार्च 2021 से 30 सितम्बर 2021 तक और उत्तर-पूर्व मानसूनी इलाकों के लिए 1 अक्टूबर 2021 से 30 नवम्बर 2021 तक अभियान चलाया जावेगा। अभियान में लिए जाने वाले कामों का उल्लेख है। संक्षेप में काम हैं - पुरानी वर्षा जल संरक्षण का जीर्णोद्धार और नई संरचनाओं का निर्माण, वृक्षारोपण, कुओं के माध्यम से भूजल रीचार्ज के लिए स्वच्छ जलवाहनी चैनल निर्माण, पुरानी जल संरचनाओं का जीर्णोद्धार, गंदे पानी के पुनः उपयोग के लिए प्रयास, पारगम्य ( Permeable ) हरित भूमि का विकास और महानगरों में रेन वाटर पार्क का निर्माण। यह सारा काम उल्लेखित अवधि में पूरा किया जाना है। प्रश्न है कि क्या यह अवधि और तदर्थ काम समस्या को सुलझा सकेगे ? अब लौटें चेन्नई की समस्या के समाधान पर चर्चा के लिए।
पहला समाधान चेन्नई के जिला प्रशासन ने सुझाया है। इस सुझाव के अनुसार नागरिक अपने-अपने घर के तलघर में पानी जमा करने के लिए टंकी का निर्माण करें। यह सुझाव राजस्थान के अल्प वर्षा वाले इलाके तथा खारे पानी वाले इलाकों में सदियों से अपनाया जाता रहा है। यह व्यवस्था समय की कसौटी पर खरी हैं। यह व्यवस्था लोगों की साल भर की पेयजल आवश्यकता पूरा करती है। इसलिए सुझाव सही है पर यदि इसे स्थानीय अमले द्वारा सम्पादित कराया गया तो लाभ नहीं होगा क्योंकि वे इसकी बारीकियों से अनजान हैं। इसलिए इस काम की जिम्मेदारी राजस्थान के उन दक्ष लोगों अर्थात कारीगरों को दी जाना चाहिए जो इस तरह के काम को बरसों से त्रुटिरहित परंपरागत तरीके से कर रहे हैं और बिना किसी समस्या के भवन स्वामी को साल भर कीटाणु मुक्त शुद्ध पानी उपलब्ध करा रहे हैं।उनकी तकनीक पर हस्तक्षेप वर्जित हो।
चेन्नई की तालाबों का रकबा 1983 से 2017 के बीच 12.6 वर्ग किलोमीटर से घट कर 3.2 वर्ग किलोमीटर रह गया है। परिणाम सामने है। उसे बहाल करना चाहिए। बहाल करने का अर्थ जलकुम्भी की सफाई नहीं है। उसका अर्थ केवल गाद हटाना नहीं है। उसका अर्थ है कैचमेंट से शुद्ध पानी की वांछित मात्रा में आवक सुनिश्चित करना। भविष्य में अतिक्रमण और गन्दे होने से बचाना। गाद के निपटान को कुदरती बनाना। उल्लेखनीय है कि चेन्नई में 210 वाटर बाडी हैं। उनमें से केवल 5 को ही पुनर्जीवित किया गया है। उनका जीर्णोद्धार, उनकी मूल डिजायन के अनुसार करना चाहिए अन्यथा टिकाऊ फायदा नही होगा। यहाँ के प्रमुख जलाशयों यथा पोन्डी, रेड हिल, चोलावरम और चेम्बरामबक्क्म की 20 प्रतिशत जल संग्रह क्षमता घट चुकी है। उल्लेखनीय है कि हम लोगों ने प्राचीन तालाबों का विज्ञान अर्थात कैचमेंट ईल्ड और जल भराव तथा सिल्ट निकासी के सम्बन्ध को बहुत अच्छी तरह नहीं समझा है। उसे समझने की आवश्यकता है। उस पर अनुसंधान की आवश्यकता है।
उल्लेखनीय है कि चेन्नई में खारे पानी को साफ पानी में बदलने की व्यवस्था है। उस व्यवस्था को चाक-चौबंद रखने की और उसके लिए धन की व्यवस्था हमेशा कठिन होती है इसलिए कैचमेंट में इष्टतम क्षमता के परकोलेशन तालाब बनाना बेहतर होता है। यह किया जाना चाहिए। गहराई बढ़ाकर उनका रकबा कम रखा जा सकता है क्योंकि मूल मुद्दा, रकबा नहीं अपितु पानी की मात्रा होता है। अन्त मे, जल संकट को काबू में रखने का काम निरन्तर करने वाला काम है। उसे अभियान चलाकर प्रारंभ तो किया जा सकता है पर उस तर्ज पर उसे समाप्त नहीं किया जा सकता।
अप्रैल 1994 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास विभाग को सौंपी प्रोफेसर हनुमंथ राव रिपोर्ट को याद करना बेहतर होगा। यह रिपोर्ट सूखा प्रवण इलाकों (Drought Prone Areas Program) और मरूस्थल विकास (Desert Development Program) के लिए प्रस्तुत की गई थी। इस रिपोर्ट का उद्देश्य मिट्टी और नमी के संरक्षण की मदद से इकालाजिकल संन्तुलन बहाल करना था।
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