अनेक विसंगतियों के बावजूद लाख टके का सवाल है...पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता। उपलब्धता पर गौर फरमाएं तो बहुसंख्य आबादी को काम चलाने लायक पानी भी उपलब्ध नहीं हो पाता। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तयशुदा मानदंडों तक पहुँच पाना हमारे लिए कल्पना से भी परे है। ऐसी बस्तियों की संख्या अनगिनत है जहां पर्याप्त पानी साल भर सुलभ नहीं हो पाता। अनेक जगहों पर दिन का शुभारंभ जल-महाभारत से होता है और अंत निराशाजनक पछतावे के साथ। गर्मी में हालात और बदतर हो जाते हैं जब खपत में एकाएक वृद्धि होने लगती है और आपूर्ति में अनिश्चितता, ऐसे में कई स्थानों पर खून-खराबा हो जाता है। दुख की बात यह है कि इन सारी परस्थितियों पर चिंतन-मनन भी गर्मियों में शुरु होता है बाकी समय नहीं। वे सारे प्रयास जो गर्मी आने पर किए जाते हैं उन्हें पहले से लागू किया जाना चाहिए।
इसी दौर में आंदोलन उपजते हैं, पानी बचाने के लुभावने संदेश प्रसारित किए जाते हैं। कुछ तात्कालिक उपायों पर युद्ध स्तर पर अमल भी किया जाता है पर जैसे ही बरसात की आरंभिक बूंदें धरती पर प्रकट होती हैं हम ‘चातक’ की भाँति संतुष्ट हो जाते हैं। जल-समस्या की असली जड़ यही संतुष्टि भाव है। सरकार के साथ हमें भी जल बचाने, उसकी उपलब्धिता सुनिश्चित करने जैसे मसलों पर सतत चिंतन करने की आवश्यकता है।
उपलब्धता के साथ पानी की गुणवत्ता भी अहम सवाल है। जनगणना 2011 के प्राथमिक आँकड़ों से यह विदित होता है कि 20 प्रतिशत घरों में लोगों को पेयजल लाने के लिए आधे किलोमीटर से ज्यादा दूर का सफर तय करना पड़ता है और ग्रामीण भारत में यह स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। यही नहीं 20 प्रतिशत से अधिक भारतीय आबादी असुरक्षित स्त्रोंतों से पानी का प्रबंध करने को विवश है।
दरअसल जलसंकट की चुनौती का सामना करना किसी एक के बलबूते की बात नहीं इसके लिए स्वयंसेवी संगठन, प्रशासन, मीडिया आदि के समन्वित प्रयासों की महती आवश्यकता है।
यह सही है कि दुनिया भर में जनसंख्या विस्फोट के कारण जल की गुणवत्ता पर गहरा असर पड़ा है। तेजी से अंधाधुंध शहर-पलायन, औद्योगीकरण, अनियोजित विकास, बढ़ती आबादी, बढ़ता प्रदूषण और क्रांकीट के जंगलों की बेतहाशा वृद्धि जलसंकट को और बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रही है। आज जल समस्या अकेले हमारे देश की नहीं समूची दुनिया की बन चुकी है।
जलचिंतक बार-बार अंदेशा जता रहे हैं कि यदि समय रहते जलसंकट दूर करने के ठोस और कारगर कदम नहीं उठाए गए तो बात हाथ से निकल जाएगी और मानव अस्तित्व पर सवालिया निशान लग जाएंगे। यदि समय रहते हम कुछ सार्थक कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं का अस्तित्व समाप्त कर लेंगे। अभी तक यह होता आया है कि हर साल जब गर्मियों में पानी के लिए परेशानी पैदा हो जाती है तो सारा ठीकरा बिना सोचे समझे सरकार के माथे फोड़ दिया जाता है कि हमें जो पानी तक ना दे सके ऐसी सरकार का क्या फायदा। लेकिन इस हेतु हम स्वयं पहल नहीं करते। कितनी दुखद बात है कि जब पानी पर्याप्त आ जाता है उस दौरान घरों से घंटों तक पानी व्यर्थ बहते आसानी से देखा जा सकता है।
जब तक पानी की प्रत्येक बूँद का हिसाब नहीं रखा जाएगा और समाज को उसके महत्व के बारे में जानकारी नहीं प्रदान की जाएगी तथा पानी के अपव्यय के मामले में समुचित दंड हेतु प्रावधान नहीं किया जाएगा तब तक जलसंकट से छुटकारा मिल पाना मुमकिन नहीं लगता।
विचारणीय प्रश्न यह है कि जहाँ कभी अत्यधिक और अभूतपूर्व वर्षा हो जाती है वहां भी आश्वस्त क्यों नहीं हुआ जा सकता कि आगामी वर्षाकाल तक शुद्ध पेयजल की कोई समस्या नहीं आएगी। किसी स्थान पर बहुत अधिक वर्षा हो जाना भी उस स्थान पर शेष शुष्ककाल में जल-उपलब्धता की गारंटी क्यों नहीं देता? यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य इंगित करता है कि हमारा जल प्रबंधन तथा संरक्षण का ढाँचा कितना दोषपूर्ण है।
स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि प्रकृति की उदारता के उपरांत हम क्यों अपने जीवन के लिए अति आवश्यक तत्व पानी की ओर से उदासीन बने हुए हैं। समाज का एक बड़ा तबका यह सोचता है कि जलप्रदाय करना शासन और स्वायत्त संस्थाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
मनुष्य की यह प्रवृति है कि जब तक जल सुगमता से उपलब्ध है उसका निर्ममता से दुरूपयोग कर अंतिम सीमा तक उपभोग करें, यह सोच समस्या की गंभीरता को और बढ़ा रही है। आसमान से यदि चार हजार बूँदें पृथ्वी पर गिरती हैं तो हम उनमें से महज छः सौ बूँदों का उपयोग करते हैं। अगर प्रत्येक बूँद सहेजकर धरती का पेट भरते जाएं तो कभी कोई संकट ही पैदा ना हो।
हकीकत यह है कि धरातल पर पानी तीन चौथाई होने के बावजूद पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा मेें है उस सीमित मात्रा के पानी को इंसान ने अंधाधुंध खर्च किया हेैे. नदी, तालाबों, झरनों को हम पहले ही प्रदूषण की भेंट चढ़ा चुके हैं, जो शेष मात्र हैं उसे अपनी मिल्कियत समझकर खर्च कर रहे हैं।भूगर्भ से पानी निकालने की गति अधिक तीव्र है, पुनर्भरण की ओर ध्यान अपर्याप्त है। इसके समाप्त हो जाने के बाद चारों ओर हाहाकार के जो दृश्य उपस्थित होंगे उसकी कल्पना भी सिहरन पैदा करती है। पानी के लिए संभाावित तृतीय विश्वयुद्ध तो बाद की बात है, हम अपने मध्य ही ऐसे घमासान के भागीदार होंगे कि विश्वयुद्ध के दर्शक बनना हमें नसीब नहीं होगा।
जलप्रबंधन से प्रेरित निम्नलिखित उपाय हमें गंभीरतापूर्वक आजमाने चाहिएं। ग्रामीण शहरी तथा नगरीय क्षे़त्र में जल बचाओ समिति का गठन किया जाए। सरकार द्वारा राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक स्तर पर जलप्रबंधन कानून बनाया जाए जिसमें जल का उचित प्रबंधन, जल उपयोग तथा भूजल संवर्धन करना कानून में समाहित हो। व्यर्थ पानी बहाने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। आसपास के कुओं-बावड़ियों को साफ कराया जाना लाजिमी होगा। जिसमें पानी नहीं आता हो उन्हें रिचार्ज कराया जाना चाहिए। तालाब गहरीकरण और पोखरों में पानी इकट्ठा करवाने के प्रयास भी आवश्यक है। गर्मी के मौसम में भवन निर्माण, नलकूप खनन व कुएं खुदवाने पर आवश्यक रुप से प्रतिबंध लगाया जाए।
ये कुछ ऐसे प्रयास हैं जिनमें से अधिक से अधिक हम अपने स्तर पर कर सकते हैं। हर चीज सरकार पर ढोलने के बजाय अपने स्तर पर की जाने वाली कोशिशों में तेजी लाना चाहिए। पानी के लिए गम्भीरतापूर्वक और ईमानदार प्रयास इसलिए वांछनीय है क्योंकि इसके बिना जीवन ही संभव नहीं रहेगा। आनेवाली पीढ़ी हमें लापरवाह, बेरहम की संज्ञा से निरूपित कर कठघरे में खड़ी कर दे, ऐसी नौबत से बचने के लिए हमें जलबचत के प्रयास में तेजी लानी चाहिए।
अस्तु जल-संरक्षण आज की आवश्यकता नहीं बल्कि मजबूरी बन गया है। ऐसे में हर सम्भव तरीके से पानी बचाना प्रत्येक नागरिक का परम धर्म बन जाना चाहिए।
सम्पर्कः 98 डी के-1,स्कीम 74-सी विजय नगर, इन्दौर-452010, मोबाइल 9826878091
Path Alias
/articles/jala-sanrakasana-aja-kai-majabauurai
Post By: Hindi