जल जिन रोजगार के लिये प्राण की भाँति बना हुआ है अर्थात जो रोजगार जल के बिना साँस लेने में भी सक्षम नहीं हैं उनमें सर्वप्रथम कृषि क्षेत्र आता है। यदि बरसात न हो और फसलों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध न हो तो फसल बर्बाद हो जाती है। भारत तो कृषि प्रधान देश रहा है। आज भी भारत की कुल जनसंख्या की लगभग 55 प्रतिशत जनसंख्या के लिये कृषि ही जीविकोपार्जन का माध्यम है। यहाँ तक एशिया में भारत एक ऐसा देश है जहाँ सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि है। जल संकट को लेकर देश में या विश्व में कहीं भी जब चिंता की लहर दौड़ती है तो सबसे पहले एक ही दृश्य मस्तिष्क पटल पर उभरता है कि जल नहीं होगा तो हम क्या पियेंगे, अपनी प्यास कैसे बुझाएंगे और जल के अभाव में हमारा जीवन दूभर हो जाएगा। यदि पीने के लिये सीमित मात्रा में जल की व्यवस्था हो भी जाए लेकिन विश्व में पानी की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में न रहे तब भी विश्व में त्राहि-त्राहि का ऐसा वातावरण बन जाएगा कि जिसमें जीवन यात्रा ही नहीं विश्व ही ठहर जाएगा। वह इसलिये कि जल की आवश्यकता जितनी पीने के लिये है उतनी जीवनयापन के लिये भी है। यदि जल पर्याप्त नहीं रहेगा तो विश्व में न उद्योग बचेंगे और न कृषि और विश्व के करोड़ों-अरबों रोजगार समाप्त हो जाएंगे। जल संकट को लेकर यह एक अत्यंत गंभीर समस्या है। हालाँकि इस बड़ी समस्या पर अभी अधिक लोगों का ध्यान नहीं गया है।
जल के अभाव में रोजगार को लेकर विश्व भर में कितना बड़ा संकट खड़ा हो सकता है इसको लेकर हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने एक अध्ययन किया है जो बेहद चौंकाने वाला है। गत मार्च में विश्व जल दिवस पर जारी संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2016 बताती हैं कि जल नहीं तो काम नहीं। इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल रोजगार में से 2.6 अरब (260 करोड़) रोजगार जल पर निर्भर हैं। इनमें से 1.4 अरब (140 करोड़) से अधिक रोजगार तो पूरी तरह जल पर निर्भर हैं। इस आँकड़े को हम यदि कुल कार्य शक्ति के रूप में देखें तो पता लगता है कि विश्व की कुल कार्य शक्ति का 42 प्रतिशत पूरी तरह जल पर निर्भर है। जबकि 1.2 अरब यानि 120 करोड़ रोजगार सामान्य रूप से जल पर निर्भर हैं, ये वे रोजगार हैं जिनमें जल की बहुत अधिक आवश्यकता नहीं होती लेकिन जल के बिना इनका चलना भी अत्यंत कठिन है। इन 1.2 अरब रोजगार में कुल कार्य शक्ति का लगभग 36 प्रतिशत संलग्न है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि बुनियादी तौर पर वैश्विक कार्यशक्ति के अंतर्गत आने वाले 78 प्रतिशत रोजगार जल पर निर्भर हैं। अर्थात विश्व के कुल रोजगार में एक तिहाई रोजगार मतलब 4 में से 3 रोजगार जल पर निर्भर है।
जल की कमी से बेरोजगारी का प्रलय
यूँ प्रलय का आना तब माना जाता है जब कभी लम्बी भयंकर बाढ़ आती है, लगातार बादल फटते हैं। जैसा कि सन 2013 में केदारनाथ क्षेत्र में भी हुआ था। जब तीव्र और भारी भरकम जल धारा ने पलक झपकते ही सब कुछ तहस-नहस कर दिया। लेकिन विश्व भर के रोजगार क्षेत्र में जल की कमी ही प्रलय लाने के लिये पर्याप्त है। यदि आने वाले बरसों में जल की मात्रा में अधिक कमी आती है तो पूरे विश्व के 1.4 अरब रोजगार किसी भारी तीव्रता वाले भूकम्प की स्थिति जैसी हालत में पहुँचकर एक ही झटके में लड़खड़ाकर गिर पड़ेंगे। जैसे ताश के पत्तों का कोई महल एक हल्के हवा के झोंके से ध्वस्त हो जाता है। अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि इतने व्यापक पैमाने पर रोजगार समाप्त होते हैं तो विश्व का सकल घरेलू उत्पाद सीधे 45 प्रतिशत नीचे लुढ़क सकता है। इससे विश्व की एक बड़ी जनसंख्या गरीबी के कुचक्र में फँसकर पूरे विश्व को गहन अंधकार की ओर धकेल सकती है।
यह विनाशलीला कितनी भयावह होगी इसकी कल्पना आज सहज नहीं क्योंकि अभी प्रथम दृष्टि में ऐसी स्थिति नहीं लगती कि आने वाले समय में विश्व में जल की इतनी कमी हो जाएगी। परन्तु यदि जल के क्षेत्र में कार्य कर रही विभिन्न सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं आदि की रिपोर्ट को देखा जाए तो ऐसा विकट समय आने में अब बहुत अधिक वर्ष नहीं लगेंगे। इस व्यापक समस्या को वैश्विक स्तर पर गंभीरता से लिया जाए।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस बार ‘विश्व जल दिवस’ का विषय भी ‘वाटर एंड जॉब’ यानि ‘जल और नौकरियाँ’ रखा है। जिससे विश्व के लोग इस बात को समय रहते समझ लें कि जल मात्र पीने के लिये ही आवश्यक नहीं यह हमारे काम-काज, नौकरियों और रोजगार के लिये भी अत्यंत आवश्यक है।
जिन रोजगार के लिये प्राण है जल
जहाँ विश्व की 32 प्रतिशत भूमि एशिया में है, वहाँ एशिया की इस कुल कृषि भूमि में से 39 प्रतिशत अकेले भारत में है। सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि से भी देखें तो मात्र संयुक्त राज्य अमेरिका ही ऐसा है जिसके पास भारत से अधिक कृषि योग्य भूमि है। उत्तरी मध्य अमेरिका के पास विश्व की कुल कृषि योग्य भूमि का 32 प्रतिशत हिस्सा है जबकि अफ्रीका के पास विश्व का सर्वाधिक 32 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र होने के उपरांत भी सबसे कम मात्र 12 प्रतिशत कृषि भूमि है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी महाद्वीप के पास कृषि योग्य भूमि अधिक हो या कम किंतु कृषि से जुड़े रोजगार पूरे विश्व में हैं और यदि कृषि पालन हेतु जल उपलब्ध नहीं होगा तो उसका प्रभाव सम्पूर्ण संसार पर पड़ेगा। कृषि के साथ मत्स्य पालन भी पूरी तरह जल पर निर्भर है। मत्स्य पालन के व्यवसाय से विश्व के करोड़ों लोग जुड़े हैं लेकिन जल के अभाव में यह व्यवसाय एकदम, दम तोड़ देता है।
कृषि और मत्स्य पालन के साथ जल पर जो रोजगार अत्यधिक निर्भर हैं वह है ऊर्जा क्षेत्र। समय के साथ ऊर्जा क्षेत्र में विद्युत की माँग जितनी तीव्रता से बढ़ रही है। उतनी ही तीव्रता से ऊर्जा क्षेत्र में जल की खपत भी बढ़ रही है। इसलिये आज विश्व की कुल जल खपत का 15 प्रतिशत ऊर्जा क्षेत्र में ही खप जाता है। बिजली आदि की माँग बढ़ने से जाहिर है इस क्षेत्र में रोजगार भी बढ़ रहे हैं। ऊर्जा क्षेत्र से प्रत्यक्ष रोजगार तो उपलब्ध होते ही हैं साथ ही इस क्षेत्र से अनेक अप्रत्यक्ष रोजगार भी जुड़े हैं।
कृषि और ऊर्जा के पश्चात कई उद्योग धंधे भी पूर्णतः जल पर निर्भर हैं। ऐसे उद्योगों में वस्त्र, चमड़ा, कागज, रबड़, प्लास्टिक और दवा उद्योग के साथ फूड प्रोसेसिंग आदि आते हैं। कुल उद्योगों में करीब 60 प्रतिशत इसी प्रकार के उद्योग हैं। साथ ही इसी किस्म के उद्योगों के माध्यम से सर्विस सेक्टर में भी 30 प्रतिशत के आस-पास नौकरियाँ हैं। आज विश्व में जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शीतल पेय का कारोबार बढ़ रहा है वह भी जल पर ही शत-प्रतिशत निर्भर है। इसके अतिरिक्त भवन निर्माण क्षेत्र जो आज अपने किस्म के अलग उद्योग के रूप में तेजी से पनप रहा है वह भी जल के अभाव में अपना अंशमात्र शीश भी नहीं उठा सकता।
यहाँ तक भवन निर्माण और गृह सज्जा-सुविधा में सहयोगी लकड़ी का व्यवसाय भी जल के कारण ही फल-फूल रहा है। लकड़ी के लिये वन क्षेत्र में उपजे वृक्ष भी तभी पनपते हैं जब उन्हें पूरी तरह पानी मिलता है। अन्यथा वृक्ष आगे बढ़ने से पहले ही धराशायी हो जाते हैं। यहाँ तक तैयार वृक्ष भी जल के अभाव में बहुत अधिक तापमान के कारण अग्नि की ज्वाला में झुलस जाते हैं। यदि ऐसे उद्योग आदि के लिये जल का अभाव हुआ तो यह क्षेत्र रोजगारविहीन हो जाएँगे। जबकि पूरी दुनिया में समुचित रोजगार का पाँच प्रतिशत इसी उद्योग में ही है। उद्योग और भवन निर्माण क्षेत्र में कुल जल का 4 प्रतिशत जल खप जाता है। लेकिन भवन निर्माण में आज जिस प्रकार गाँव से लेकर नगरों और महानगरों तक गगनचुंबी इमारतें बढ़ती जा रही हैं उसे देखते हुए अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक निर्माण क्षेत्र में ही जल का उपयोग 400 प्रतिशत बढ़ जाएगा।
जल की कमी पर क्या कहते हैं आँकड़े
जल का यह गंभीर संकट आने वाले 10 वर्षों में ही अपना विकराल रूप दिखा सकता है, ये बात विभिन्न स्टडी और रिपोर्ट से सामने आ रही है। संयुक्त राष्ट्र के हालिया आँकड़ों के अनुसार सन 2025 तक यानि अब से 9 वर्ष बाद तक ही विश्व की 1.8 अरब जनसंख्या पीने के पानी के संकट का शिकार हो जाएगी। वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम भी अपनी 2015 की रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर चुकी है कि अगले दशक में प्राणियों के सम्मुख सबसे बड़ा संकट जल का ही होगा। यह बात भी रह-रह कर उभरती रही है कि जल तीसरे विश्वयुद्ध का कारण बन सकता है। जल संकट का यह खतरा अफ्रीका, एशिया, लातिनी अमेरिका और मध्य पूर्व में अधिक मंडरा रहा है। यूनेस्को की रिपोर्ट में इस बात का विशेष उल्लेख है कि अफ्रीका जो पहले ही बेरोजगारी की ऊँची दर और अल्परोजगार से गुजर रहा है वहाँ जल की कमी से प्रत्यक्ष जल रोजगार और जल निर्भर क्षेत्रों से वहाँ की अर्थव्यवस्था को भारी हानि हो सकती है। उधर यह रिपोर्ट अरब क्षेत्र पर भी खतरों के संकेत दर्शाती है। अरब में निम्न कृषि उत्पादकता, सूखा, भूमिगत जल संसाधनों के अभाव में वहाँ की ग्रामीण आय में कमी आ गई है। अरब क्षेत्र में जल की कमी से वहाँ काफी सामाजिक उथल-पुथल बढ़ गई है।
भारत की स्थिति
जिस प्रकार का वातावरण पिछले कुछ वर्षों से चलता रहा है वे भारत में भीषण जल संकट के संकेत देता है एवरीथिंग अबाउट वाटर की एक रिपोर्ट भी बताती है कि 2025 तक भारत में जल का जबरदस्त संकट बन सकता है। इसका कारण भूमि के जल स्तर को तीव्रता से कम होना बताया गया है क्योंकि भारत में कृषि की सिंचाई का लगभग 70 प्रतिशत जल और घरेलू जल खपत का करीब 80 प्रतिशत भूमिगत जल से उपलब्ध होता है। इसीलिये भारत में यह संकट गहरा रहा है। साथ ही देश में सूखे का क्रम जल्दी-जल्दी आने से भी भारत जल संकट का शिकार बन रहा है।
यदि 1990 से सन 2000 के दशक को देखें तो तब 10 बरसों में सामान्यतः एक बार सूखा पड़ता था। लेकिन उसके बाद के 15 बरसों में औसतन प्रति तीन वर्षों में एक बार सूखा पड़ने लगा है। ऐसे ही लगभग 10 वर्ष पहले जमीन के करीब 30 मीटर नीचे ही जल उपलब्ध हो जाता था लेकिन अब करीब 65 मीटर की खुदाई के बाद ही जल के दर्शन होते हैं। भूजल का स्तर इतनी तेजी से घटने का कारण जलवायु परिवर्तन के साथ जल का अत्यधिक दोहन है। कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में हुए एक अध्ययन के अनुसार नासा ने बताया था कि ये राज्य प्रति वर्ष औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मीटर जल का दोहन कर रहे हैं। जबकि इन राज्यों को प्रति वर्ष 13.2 अरब क्यूबिक मीटर जल से अधिक दोहन नहीं करना चाहिए।
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लेखक परिचय
लेखक पुनर्वास साप्ताहिक के संपादक हैं। करीब 40 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय-संचार, स्वास्थ्य, परिवहन, पर्यटन, जल, कृषि, शिक्षा और राजनीति आदि के साथ कला, सिनेमा और टी.वी. जैसे विषयों पर भी देश के अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। ईमेलः pradeepsardana@rediffmail.com
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