किसानों द्वारा भूजल के अधिक दोहन पर अंकुश लगाने के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसका मूल्य तय करना चाहते हैं। काफी समय से विश्व बैंक इसके लिये दबाव डाल रहा है। योजना आयोग ने तो कीमत निर्धारित करने का फार्मूला भी तैयार कर लिया है। जाहिर है कि किसानों से फसल में इस्तेमाल किए जाने वाले भूजल की कीमत वसूलने की तैयारी चल रही है। भूजल पर उपकर लगाने के लिये खेती को हमेशा से एक अच्छा आधार समझा जाता रहा है। आखिरकार करीब 70 प्रतिशत भूजल खेती में ही उपयोग किया जाता है। इसलिये ऐसा लगता है कि भूजल की आपूर्ति को कीमत निर्धारण के दायरे में लाना उचित ही है। लेकिन जरा ठहरिए। ऐसे साक्ष्य कहाँ हैं, जो यह सिद्ध कर सकें कि खेती ही सीमित भूजल संशाधन का दोहन करने की सबसे बड़ी गुनहगार है? हम अभी भी उन गणनाओं को आधार बना रहे हैं, जो 50 साल पुरानी हैं। इस बीच शहरी और औद्योगिक विकास पानी का प्रयोग कई गुना बढ़ चुका है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि जल आपूर्ति के ढाँचे का पुनर्मूल्यांकन करते हुए नई नीति निर्धारित की जाए? इसके लिये इस पर ध्यान देना जरूरी होगा कि भूजल पर अत्यधिक निर्भर क्षेत्रों में इस बीच पानी की खपत कितनी बदल गई है।
भूजल के औद्योगिक इस्तेमाल के सम्बंध में परस्पर विरोधाभासी आकलन है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण निगम और जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2000 में 40 अरब क्यूबिक मीटर पानी का औद्योगिक इस्तेमाल किया गया। विश्व बैंक का आकलन है कि औद्योगिक जरूरतों के लिये वर्ष 2002 में पानी की जो माँग 67 अरब क्यूबिक मीटर थी, वह 2025 तक बढ़कर 228 अरब क्यूबिक मीटर हो जाएगी। मेरी राय में, ये सभी आकलन कमतर हैं। काफी समय से मुझे इस बात का आभास था कि खेती में भारी मात्रा में पानी प्रयुक्त किया जाता है और काफी गुंझाइश है कि बेकार जाने वाला काफी पानी बचाया जा सके। किन्तु यह बात मुझे हैरान करती है कि नीति-निर्माता और योजनाकार उद्योग तथा व्यवसाय में पानी की अधिक खपत के मसले पर चुप क्यों हैं? मेरे खयाल से, उद्योगों पर अंकुश लगाए बिना जल-संरक्षण योजनाओं पर जोर देने का कोई मतलब नहीं है। पानी एक प्राकृतिक संसाधन है और समस्त जीव-जन्तुओं का इस पर पूरा अधिकार है। पिछले कुछ समय से उद्योगों द्वारा भूजल के प्रयोग और दुरुपयोग में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। उदाहरण के लिये, राजस्थान की बंजर धरती पर खेती में कितना पानी इस्तेमाल होता है जहाँ का मारबल उद्योग पूरे भारत में 91 प्रतिशत मारबल का उत्पादन करता है। इस उद्योग में प्रति घंटे 27.5 लाख लीटर पानी का इस्तेमाल होता है। अगर हमें जल संरक्षण की वास्तव में परवाह है तो रेगिस्तानी इलाके में मॉल, सुपर मार्केट और गगनचुंबी इमारतें बनने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? एक मॉल में प्रति व्यक्ति औसतन 1,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि कितनी बड़ी मात्रा में पानी नाले में पहुँच जाता है।
जल-संरक्षण (वाटर हार्वेस्टिंग) का फायदा बस यह होगा कि इसके माध्यम से जितना पानी बचाया जाएगा उतना उद्योग और व्यवसाय हड़प कर लेंगे। मोटर वाहन क्षेत्र को ही लीजिए। आपने यह कब सुना था कि कार के उत्पादन में भारी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है? गत अगस्त माह में भारत में कार की बिक्री पिछले साल इसी अवधि की तुलना में 83,864 से बढ़कर 98,893 हो गई। इसी अवधि में व्यावसायिक वाहनों, जैसे-बस, ट्रक आदि की बिक्री 6.5 प्रतिशत बढ़ गई। अनुमान है कि अगले 5 साल में करीब 16 लाख दुपहिया वाहनों के मालिक कार खरीद लेंगे। वर्ष 2014 तक भारत का मोटर वाहन बाजार दोगुना हो जाएगा और यहाँ प्रतिवर्ष 33 लाख वाहन बिकने लगेंगे। यह सुनने में अच्छा लगता है। भारत के आगे बढ़ने के संकेत जो हैं। हम खुशी से फूले नहीं समाते, जब पता चलता है कि कोरिया की हुंडई मोटर्स, जिसकी तमिलनाडु में एक उत्पादन इकाई है, प्रति मिनट एक कार का उत्पादन कर रही है इस वर्ष कम्पनी की 1,00,000 कार निर्यात करने की योजना है। अगले 3 साल में उसने प्रतिवर्ष 3,00,000 कार निर्यात करने का लक्ष्य रखा है। केवल हुंडई ही नहीं, विश्व के प्रत्येक बड़े कार निर्माता ने भारत को अपना आधार बना लिया है। इस चकाचौंध के पीछे एक कड़वी सच्चाई भी है। निर्माण-प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक कार करीब 4.5 लाख मीटर पानी पी जाती है। कार के साइज के मुताबिक यह आकलन कम-ज्यादा हो सकता है, लेकिन एक तथ्य अपनी जगह सही है कि कार के निर्माण के दौरान खर्च होने वाले पानी की मात्रा बहुत अधिक है। कुछ कारणों से इन कार निर्माता कम्पनियों द्वारा पर्यावरण के दोहन को जनता के सामने नहीं लाया जा रहा। कुछ माह पहले एक समाचार चैनल ने होटल उद्योग में पानी की खपत पर एक कार्यक्रम दिखाया था।
500 बिस्तरों वाले एक होटल या होटल के एक समूह को रोजाना 6,00,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। दिल्ली में होटल के कमरों की संख्या वर्तमान में 35 हजार से बढ़कर अगले छह साल में 90 हजार हो जाएगी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि होटलों में पानी की कितनी खपत है? इनके अलावा रेस्टोरेंट, स्कूल, क्लब और वाटर पार्क में भी अत्यधिक पानी खर्च होता है। होटलों के अलावा गोल्फकोर्स में भी अनाप-शनाप पानी लगता है। प्रत्येक गोल्फकोर्स इतना पानी पी जाता है, जिससे 18 हजार मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरतें पूरी हो सकती हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही करीब दो दर्जन गोल्फकोर्स हैं। वर्ष 2008 तक देश में करीब 11 करोड़ वर्ग फीट जमीन पर मॉल तैयार हो जाएँगे। रिटेल चेन का विस्तार खतरनाक रफ्तार से हो ही रहा है। केवल एक कम्पनी की ही वर्ष 2009 तक 800 शहरों में 4,000 रिटेल स्टोर खोलने की योजना है। इस पर कोई ध्यान देने के लिये तैयार ही नहीं है कि रिटेल स्टोर की धूम भूमिगत जलस्रोत सुखा डालेगी। इतना ही नहीं, मुख्य रूप से उद्योग और शहरों की जरूरत के ही कारण कच्छ के सूखा-प्रभावित क्षेत्रों की सिंचाई के उद्देश्य से बनी सरदार सरोवर परियोजना को सूखे से अप्रभावित क्षेत्रों तथा गांधीनगर के औद्योगिक क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया गया है।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि गांधीनगर को रोज 25.5 करोड़ लीटर पानी दिया जाएगा, जबकि परियोजना के मास्टर प्लान में इसका जिक्र ही नहीं था। औद्योगिक जरूरतों में भूजल की बढ़ती जरूरतों की यह तो एक मात्र झलक भर है। शहरों के विस्तार और उपनगरों के विकास के लिये भारी मात्रा में भूजल की जरूरत को देखते हुए स्थिति बहुत चिंताजनक है। आने वाले कुछ वर्षों में यह संकट और अधिक गहराएगा। नई दिल्ली तो पड़ोसी राज्यों से पानी मँगाकर काम चला रही है। यहाँ तक कि नई दिल्ली में पेयजल की समस्या दूर करने के लिये गंगाजल की आपूर्ति भी की जा रही है। मुंबई और नवी मुंबई पहले ही अपने पड़ोसी पश्चिम घाट के पानी में अतिक्रमण कर चुके हैं। देश के दो सबसे बड़े नगरों का जब यह हाल है तो कल्पना की जा सकती है कि दूसरे शहरों में क्या स्थिति होगी! वास्तविकता यह है कि अब छोटे शहरों को भूजल के लिये अन्य जगह तलाशनी होगी। क्या अब उपयुक्त समय नहीं आ गया है, जब सटीक आकलन किया जाए और फिर इस बेशकीमती संसाधन पर सामुदायिक नियंत्रण के लिये नीति तैयार की जाए?
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