जल संकट और सिंचाई में सार्वजनिक निवेश


भारत बहुत बड़े जल संकट से जूझ रहा है। देश के 50 प्रतिशत से अधिक जिलों में सूखे का प्रभाव चिन्हित किया गया है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखण्ड और तेलंगाना के जिले तो इससे बुरी तरह प्रभावित हैं। सभी क्षेत्रों में जल की कमी की सीमा और मात्रा अलग-अलग है और साथ ही फसलों, मवेशियों और प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव में भी विविधता है, लगभग 33 करोड़ लोग प्रभावित हैं जिन्हें जल संकट ने हरसंभव हल तलाशने के लिये एक सूत्र में बाँध दिया है

केंद्र सरकार ने फसल के नुकसान की भरपाई के लिये सूखा राहत कार्यक्रम शुरू किया है, पानी की बेतहाशा कमी वाले इलाकों में रेलगाड़ियों से पानी भेजा गया है तथा भूजल के विवेकपूर्ण उपयोग की योजना बनायी गई है। राज्यों को इस उभरते संकट से निपटने के लिये केंद्र से वित्तीय सहायता भी मिली है।

सूखा अब बार-बार पेश आने वाली समस्या है और चिंता का प्रमुख कारण बन चुका है, क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत पानी का उपयोग सिंचाई में किया जाता है। अधिक तापमान के साथ-साथ कम वर्षा होने से, न केवल कृषि की उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, बल्कि देश में कृषि पर निर्भर एक बड़ी आबादी की आजीविका को भी आघात पहुँचेगा। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अन्तर्गत वृहत साथ ही साथ सूक्ष्म सिंचाई में निवेश पर बल देने का प्रस्ताव पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका है। इसलिये यह पता लगाना महत्त्वपूर्ण होगा कि मोटे तौर पर वृहद-मध्यम सिंचाई पर हुए सार्वजनिक व्यय ने सिंचाई की गहनता बढ़ाने और कृषि उत्पादकता में तेजी लाने में योगदान दिया है या नहीं। यदि नहीं, तो अब समय आ गया है। कि छोटी और सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली पर ध्यान केंद्रित करते हुए निवेश किया जाए, ऐसी तकनीकें और अन्य उपाय किये जाएँ, जिनसे पैदावार बढ़े और जल का कुशलतापूर्वक बेहतर उपयोग संभव हो सके। इससे जल से सम्बन्धित राजकोषीय नीति के साधनों जैसे नहर के पानी और भूजल के उपयोग में निवेश और सब्सिडी आदि में बदलाव आवश्यक हो जाएगा।

यह आलेख वृहद, मझौली और लघु सिंचाई योजनाओं के प्रति सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन का परिमाण निर्धारित करता है और जल की कमी से निपटने के लिये संभावित नीतिगत हस्तक्षेपों पर प्रकाश डालने के लक्ष्य के साथ इन निवेशों की सामान्य दक्षता का अनुमान लगाता है। भारत के प्रमुख राज्यों में वर्ष 1981-82 से लेकर 2013-14 तक जाँच की गई है, क्योंकि जल और कृषि दोनों राज्य के विषय हैं तथा इन क्षेत्रों पर हुए खर्च और समय के साथ हुए इनके विकास में अंतरराज्यीय स्तर पर बड़े पैमाने पर विविधताएँ देखी जा सकती हैं। (वित्तीय लेखा और कृषि सांख्यिकीः एक नजर में, भारत सरकार) सार्वजनिक व्यय पर टाइम सीरीज डेटा को एसडीपी अपस्फीति कारकों का उपयोग करते हुए 2004-05 के आधार पर वास्तविक मूल्य में परिवर्तित किया गया है। सिंचाई क्षेत्र में सिंचाई सब्सिडी की गणना वित्त लेखा से लिये गये विस्तृत आँकड़ों के आधार पर कुल संचालन और रख-रखाव की लागत और कुल राजस्व के अंतर के रूप में की जाती है। ब्याज भुगतान राजस्व प्राप्तियों में शामिल किये गये हैं।

सिंचाई में होने वाले निवेश में अंतरराज्यीय भिन्नताएँ और उनकी दक्षता


लगभग सभी विकासशील देशों में, सार्वजनिक व्यय को एक प्रमुख नीतिगत व्यवस्था माना जाता है, जो कृषि उत्पादकता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कृषि उत्पादकता में वृद्धि गरीबी घटाने की दिशा में भी प्रमुख मार्ग मानी जाती है, क्योंकि अधिकांश गरीब ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर हैं। (मोस्ले 2015) प्रत्येक देश के लिये कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही साथ निवेश और कृषि इनपुट सब्सिडी पर सार्वजनिक व्यय के गरीबी घटाने सम्बन्धी प्रभावों से सम्बन्धित अनुभवजन्य साक्ष्य का बखूबी प्रलेखन किया गया है। (फैन 2008)

भारतीय संदर्भ में प्राप्त निष्कर्ष मोटे तौर पर यह दर्शाते हैं कि सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान कृषि सम्बन्धी अनुसंधान एवं विकास, वृहद, मध्यम सिंचाई प्रणालियों और विभिन्न इनपुट सब्सिडीज पर हुए निवेश ने अधिकतम योगदान दिया। हरित क्रांति की अवधि के दौरान इन निवेशों ने एचवाईवी स्वीकारने और निजी निवेश बढ़ाने सहित, अधिक उपज प्राप्त करने और देश को खाद्यान्नों की घोर कमी के स्थान पर खाद्य सुरक्षा वाले देश में परिवर्तित करने में महत्त्वपूर्ण रूप से सहायता की। सिंचाई में निवेश और सब्सिडी के जबरदस्त उत्पादकता और गरीबी सम्बन्धी प्रभावों पर 1990 के दशक में सड़क और शिक्षा हावी हो गए, जो सब्सिडी की जगह निवेश पर व्यय करने का सशक्त कारण भी साबित हुए। (फैन, गुलाटी और थोराट 2000)

तथापि 2000 के दशक के दौरान, कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिये सिंचाई में निवेश पर जबरदस्त बल दिया गया, जो काफी लम्बे अर्से से न्यूनतम बना हुआ था। 80 और 90 के दशक के दौरान निवेश लगभग 94.4 अरब रुपये था, जो 2000 के दशक में वास्तविक मूल्यों पर बढ़कर 240.4 अरब रुपये हो गया। आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और अविभाजित बिहार और मध्य प्रदेश में इसमें तेज दर से वृद्धि हुई। अतीत की पद्धति को आगे बढ़ाते हुए व्यय का बहुत बड़ा हिस्सा (81 प्रतिशत) मझौली परियोजनाओं और लगभग 13 प्रतिशत हिस्सा सूक्ष्म सिंचाई कार्यों पर निवेश में, 1 प्रतिशत कमांड क्षेत्र विकास और 5 प्रतिशत बाढ़ नियंत्रण और नहर सिंचाई पर सब्सिडी में लगाया गया।

वर्ष 2005-06 से मध्य प्रदेश, केरल, ओडिशा के साथ-साथ उत्तरी राज्यों ने भी वृहद सिंचाई योजनाओं पर निवेश की शुरूआत की। इसके परिणामस्वरूप सिंचाई पर कुल व्यय में से मझौली परियोजनाओं पर पूँजीगत व्यय का औसत अंश घटकर 62 प्रतिशत रह गया और वृहद पर 19 प्रतिशत बढ़ गया। वृहद और मझौली परियोजनाओं में होने वाले कुल निवेश में 3 गुना वृद्धि हुई और साथ ही लघु सिंचाई में 2.5 गुना वृद्धि हुई। लघु सिंचाई योजनाओं की तुलना में वृद्धि की वार्षिक दर निश्चित रूप से वृहद-मझौली सिंचाई योजनाओं में निवेश में अधिक है।

यहाँ यह बताना उपयोगी होगा कि लघु सिंचाई में निवेश, मझौली सिंचाई की तुलना में अपेक्षाकृत कम होने के बावजूद, सरकार द्वारा किसानों को जमीन से पानी निकालने के लिये रियायती दर पर बिजली उपलब्ध कराने हेतु बड़े पैमाने पर व्यय किया गया। इतना ही नहीं, राज्यों ने किसानों को उनकी खरीद पर पूँजीगत सब्सिडी प्रदान करने के अलावा, सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों में शायद ही प्रत्यक्ष निवेश किया।

सिंचाई पर निवेश की दर हालाँकि आकर्षक रही है, इसके बावजूद सबसे ज्यादा बेचैन करने वाली बात, प्रत्येक राज्य में समान रूप से कुल निवेश और व्यय दोनों में (पूँजी और राजस्व) उसके अंश में कमी रही है। 17 प्रमुख राज्यों पर विचार करें तो सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर सार्वजनिक निवेश का औसत अंश 80 के दशक में कुल निवेश का 50 प्रतिशत था, जो 90 के दशक में घटकर 41 प्रतिशत रह गया और 2000 के दशक में और कम होकर 32 प्रतिशत रह गया। कुल व्यय के संदर्भ में, इस अवधि के दौरान अंश 6.9 प्रतिशत से घटकर 4.2 प्रतिशत रह गया। सिंचाई और तत्सम्बन्धित कृषि के विकास में राज्यों की अपेक्षाकृत कम प्राथमिकता नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्रों में स्थिरता और कृषि सम्बन्धी उत्पादकता में निरन्तर कमी को व्यक्त कर सकती है।

सिंचाई में सार्वजनिक निवेश में बड़े पैमाने पर अंतरराज्यीय असमानताएँ भी साफतौर पर देखी जा सकती हैं। धनी राज्य यथा-आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र, कम आय वाले और कृषि बहुल राज्यों जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा की तुलना में सिंचाई पर 2000 रुपये प्रति हेक्टेयर से ज्यादा राशि व्यय करते हैं। (आरेख 1) सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, केरल और पंजाब को छोड़कर कई राज्यों में सिंचाई सब्सिडी पर प्रति हेक्टेयर व्यय 1000 रुपये से भी कम है। दरअसल, असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ इन राज्यों में सार्वजनिक व्यय सब्सिडी पर निर्भर रहा है, जो कुछ परेशान करने वाला है।

हाल के वर्षों में निवेश में वृद्धि के फलस्वरूप नहरों से सिंचित क्षेत्र में ओडिशा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन देश में वर्ष 2000-01 से वर्ष 2013-14 तक सिंचाई पर होने वाले 104 अरब रुपये से लेकर 340 अरब रुपये तक के विशाल व्यय की दृष्टि से यह मामूली प्रतीत होती है। इसके अलावा, सार्वजनिक नहरों से होने वाली सिंचाई की गहनता, मुख्य रूप से किसानों के स्वामित्व वाले ट्यूबवेल की तुलना में काफी कम रही है।

आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, देश में सिंचाई की क्षमता 1399 लाख हेक्टेयर है। ऐसी संभावना है कि इसका 54 प्रतिशत सतही सिंचाई से और शेष 46 प्रतिशत भूजल स्रोतों से संभव हो सकेगा। संभावनाएँ काफी विकट मालूम पड़ती हैं, क्योंकि अब तक केवल 632.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की ही सिंचाई की जा सकी है, जो देश में निवल बुवाई क्षेत्र का 45.5 प्रतिशत है। सिंचित क्षेत्र में अधिकतम 61.7 प्रतिशत योगदान ट्यूबवेलों का है, उनके बाद नहरों का योगदान 26.3 प्रतिशत, अन्य स्रोतों का योगदान 9.3 प्रतिशत और टैंकों का योगदान क्रमशः 2.59 प्रतिशत है। 2000 के दशक के दौरान 550 लाख हेक्टेयर से 632.5 लाख हेक्टेयर तक हैरतअंगेज रूप से प्राप्त की गई निवल सिंचित क्षेत्र में वृद्धि का प्रमुख कारण अन्य स्रोत थे। स्थिति भयावह है, क्योंकि नहरों से सिंचित क्षेत्र में लगभग ठहराव बना हुआ है। उप राष्ट्रीय स्तरों की तस्वीर जाहिर होता है कि राज्यों को सिंचाई के प्रमुख स्रोत के रूप में मुख्यतः भूजल पर निर्भर करना पड़ता है। (आरेख 2) निश्चित तौर पर, राज्य, विशेषकर गरीब राज्य सिंचाई के लिये नहरों पर निर्भर हैं और उन्हें निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है।

कम निवेश के अलावा, प्रमुख परियोजनाओं के पूर्ण होने में अक्षमता संभवतः राज्यों को सिंचाई की क्षमता का जायजा लेने से रोकती हो। तालिका-1 वृहद-मझौली और लघु सिंचाई कार्यों के सम्बन्ध में निवेश की सामान्य दक्षता (एमईआई) के बारे में दशक वार अनुमान प्रस्तुत करती है। प्रत्येक राज्य में 80 के दशक के दौरान उच्च और सकारात्मक एमईआई रहा, जिसमें 90 के दशक में गुजरात और केरल को छोड़कर अन्य राज्यों में काफी गिरावट आई। 2000 के दशक में मुख्यतः आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में आकर्षक प्रदर्शन देखा गया। लघु सिंचाई के सम्बन्ध में, एमईआई अपेक्षाकृत बेहतर रहा और उसमें महाराष्ट्र, हरियाणा और पंजाब के अलावा लगभग सभी राज्यों में सुधार देखा गया।

ये निष्कर्ष कृषि उत्पादकता पर सिंचाई में सार्वजनिक व्यय के सामान्य प्रभाव में तेज गिरावट के बारे में बाथला व अन्य (2015) में प्राप्त किये गये परिणामों की पुष्टि करते हैं। 90 के दशक के दौरान अतिरिक्त निवेश से प्राप्त 1.41 सामान्य प्राप्तियाँ 2000 के दशक के दौरान हुए व्यय पर भी विचार किये जाने पर घटकर 0.12 प्रतिशत रह गई। इसके विपरीत, निजी स्वामित्व वाले ट्यूबवेलों पर हुए निवेश से मिली प्राप्तियाँ, चार गुना अधिक रहीं। प्रमाणों से पता चलता है कि लघु सिंचाई से सिंचाई की क्षमता का अनुपात मझौली और वृहद सिंचाई परियोजनाओं की क्षमता के अनुपात से कहीं अधिक है। नीति निर्माताओं द्वारा अनिवार्य तौर पर लघु सिंचाई परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।, इतना ही नहीं यह संरचनाएँ कुँओं में दोबारा जल भरने, सूखे का प्रभाव कम करने और बाढ़ नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इससे ग्रामीण ऊर्जा में निवेश की मात्रा बढ़ाना और भूजल के अतिशय दोहन को रोकने के लिये कुछ नीतिगत नियंत्रण और प्रतिबंध लगाना अनिवार्य होगा।

भविष्य की योजना


मौसम विभाग के अनुमान के अनुसार, सामान्य मानसून के पूर्वानुमान के चलते चालू वर्ष में कृषि मौजूदा सूखे का सामना करने में सक्षम रहेगी, लेकिन इस स्थिति का दीर्घकालिक हल निकाले जाने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो यह तथ्य कि वृहद-मझौले सिंचाई कार्यों में सार्वजनिक निवेश से अपेक्षित निष्कर्ष प्राप्त नहीं हो रहे हैं, जिसका आशय है कि राज्य सरकारों को जारी परियोजनाओं को तेजी से निपटाने की कोशिश करनी होगी और निवेश दक्षता बढ़ानी होगी। परियोजनाओं को जहाँ भी संभव हो सके, संसाधनों का आवंटन वृहद-मझौली सिंचाई की जगह लघु और सूक्ष्म सिंचाई में करते हुए वित्तीय नीति को रणनीति के अनुरूप व्यवस्थित बनाना होगा। ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई सहित सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली में निवेश में वृद्धि करने से विशेषकर गन्ने और केले में जल के दक्षतापूर्ण उपयोग में सुधार लाने की व्यापक संभावनाएँ हैं। निःस्संदेह, राज्यों ने इन्हें प्रोत्साहन देने के विभिन्न प्रयास और सब्सिडी के प्रावधान किये हैं, लेकिन इन्हें अपनाने का स्तर और स्थानिक अंतर कम, फसल क्षेत्र का 5 प्रतिशत से भी कम रहा है।

तालिका 1: वृहद-मझौली और लघु सिंचाई में सार्वजनिक निवेश की सामान्य दक्षता

 

वृहद-मझौली

लघु

राज्य

1981-89

1990-99

2000-13

1981-89

1990-99

2000-13

आंध्र प्रदेश,

0.71

0.15

2.38

0.10

0.03

0.29

असम

0.05

-0.002

0.01

0.08

0.01

0.08

गुजरात

0.43

0.73

0.99

0.003

0.07

0.29

हरियाणा

0.10

0.03

0.07

0.02

0.01

-0.02

हिमाचल प्रदेश

0.004

0.002

0.01

0.02

0.003

0.02

जम्मू-कश्मीर

0.03

-0.03

0.01

--

0.01

0.05

कर्नाटक

0.41

0.54

0.99

0.08

0.01

0.21

केरल

0.33

0.58

1.03

0.06

0.03

0.22

महाराष्ट्र

1.62

0.77

0.46

0.28

0.29

0.12

ओडिशा

0.37

0.11

0.05

0.07

-0.01

0.21

पंजाब

0.09

0.11

-0.07

-0.01

0.004

0.001

राजस्थान

0.31

0.16

-0.03

0.06

0.02

0.05

तमिलनाडु

0.18

0.07

0.17

0.01

0.02

0.06

पश्चिम बंगाल

0.11

0.04

-0.03

--

0.04

0.02

बिहार-झारखण्ड

1.22

-0.46

0.49

0.02

-0.04

0.19

म.प्र. छत्तीसगढ़

0.98

-0.09

0.93

0.35

-0.06

0.50

उ.प्र. उत्तराखण्ड

0.94

-0.22

0.62

0.35

-0.23

0.22

नोटः एमईआई 1/आईसीओआर और आईसीओआर का अनुमान वृहद-मझौली और लघु सिंचाई में पूँजीगत भण्डार का उपयोग करते हुए लगाया गया, 2004-05 के मूल्यों पर लिया गया एसपीडीए तीन वर्षों का गतिमान औसत है। आधार वर्ष के मूल्य को स्टॉक में लेते हुए और प्रत्येक वर्ष में हृास के लिये भत्ता तय करते हुए पूँजीगत व्यय को स्टॉक के रूप में लिया गया है।

 

अध्ययनों से पता चलता है कि सूक्ष्म सिंचाई जल की बचत करने, खेती की लागत में कमी लाने और फसल की उपज बढ़ाने में सहायक है। परम्परागत सिंचाई प्रणाली की तुलना में ड्रिप सिंचाई के माध्यम से आपूर्ति किये गये प्रति इंच जल की निवल प्राप्ति 60-80 प्रतिशत के दायरे में रही है। हालाँकि उच्च प्रारम्भिक पूँजीगत लागत, विविध मृदा स्थितियों में अभिकल्पों की उपयुक्तता, सब्सिडी प्राप्त करने में समस्याएँ और छोटी जोत कथित तौर पर इस तकनीक को अपनाए जाने को व्यापक तौर पर प्रभावित कर रहे हैं। सब्सिडी, किसानों के किसी तकनीक को स्वीकार करने के फैसले को प्रभावित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक है। इस नाते यदि समय पर वह न बाँटी जाए और समृद्ध किसानों द्वारा इसका उपयुक्त उपयोग न किये जाएं, तो उसका असर संसाधनों की दृष्टि से गरीब, छोटे और सीमान्त किसानों की बड़ी तादाद द्वारा इस तकनीक तक पहुँच बनाने पर हो सकता है। (विश्वनाथन व अन्य 2016) सूक्ष्म सिंचाई सम्बन्धी राष्ट्रीय मिशन को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

सिंचाई, साथ ही साथ बिजली पर अतिरिक्त व्यय पर सब्सिडी पर प्राप्ति कृषि सम्बन्धी उत्पादकता के संदर्भ में 100 प्रतिशत से भी कम रहती है (बाथला व अन्य 2015)। लेकिन सार्वजनिक व्यय का आवंटन सब्सिडी के स्थान पर निवेश में कर पाना भारत के राजनीतिक परिदृश्य को देखकर असंभव मालूम होता है। साथ ही, कुछ कृषि बहुत, गरीब राज्यों को उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत हो सकती है और इसलिए यह सब्सिडी किसानों को लुभाने का आसान रास्ता है। जल संसाधन के आवश्यकता से अधिक दोहन से बचने का एक तरीका सब्सिडी वितरण को तर्कसंगत बनाते हुए इसे वास्तव में इसकी आवश्यकता वाले राज्यों और किसानों को दिया जा सकता है।

जैसा कि गुलाटी (2016) द्वारा सुझाए गये कुछ अन्य उपायों में बिजली और साथ ही साथ नहर के जल की खपत को मापने के लिये मीटर लगाया जाना और उसके बाद किसानों को मौद्रिक मूल्य के माध्यम से ईनाम देते हुए खपत में कमी लाने को प्रोत्साहित किया जाना शामिल है, मसलन 75 प्रतिशत बचत का मूल्य, नए निवेश से आपूर्ति पर आने वाली लागत के समकक्ष होगा। एक अन्य विकल्प यह हो सकता है कि सरकार बेकार पम्प सेटों को ज्यादा ऊर्जा दक्ष पम्पों से बदल दे, जो बिजली की लगभग 30 प्रतिशत बचत कर सकते हैं। अंतिम, लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कम पानी की आवश्यकता वाली और सूखा प्रतिरोधी किस्मों की खेती को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ जल संरक्षण और तकनीक को बढ़ावा देना इस संकट से निपटने में योगदान दे सकता है।

नवगठित राज्य तेलंगाना ने एक बड़ी परियोजना काकतीय प्रारम्भ की है, जिसके तहत पारम्परिक टैंकों और झीलों में दोबारा जल भरने के माध्यम से जल संचयन और प्रबंधन किया जा रहा है। बारिश के पानी का उपयोग करने की अभिनव रणनीतियों को जानने और अपनाने के लिये हाल ही में आयोजित ‘भारत जल सप्ताह 2016’ के दौरान भारत की इजरायल के साथ भागीदारी इस दिशा में एक अन्य उपयोगी कदम है। जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री द्वारा अपेक्षित है, यदि इन उपायों को अमल में लाया गया, तो वे सिंचित क्षेत्र बढ़ाने, कृषि उत्पादकता बनाए रखने और कृषि से होने वाली आमदनी को दोगुना करने में बेहद सफल हो सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकारें समयबद्ध निवेश की योजना बनाएँ और उसे मिशन माध्यम से संचालित की मजबूती के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करें।

संदर्भ- बाथला, एस. (2014): पब्लिक एंड प्राइवेट कैपिटल फॉर्मेशन एंड एग्रीकल्चरल ग्रोथःस्टेट वाइस अनैलिसिस ऑफ इंटर-लिंकेजिस ड्यूरिंग प्री-एंड पोस्ट-रिफॉर्म्स पीरियड्स। एग्रीकल्चर इकॉनॉमिक्स रिसर्च रिव्यू, 27 (1), जनवरी-जून

- बाथला, एस., बिंगशिन वाई, थोराट एस.के. एंड जोशी पी.के. (2015): एक्सेलरैटिंग एग्रीकल्चरल ग्रोथ एंड पॉवर्टी एलिवेशन थ्रू पब्लिक एक्सपेंडिचर : इ एक्सपीरियेंस ऑफ इंडिया, (29 जुलाई, को मिलान, इटली में कृषि अर्थशास्त्रियों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत शोध पत्र।

- फैन, एस. (2008) (ईसंडी): पब्लिक एक्सपेंडिचर, ग्रोथ एंड पॉवर्टीः लैसन्स फॉम डेवलपिंग कंट्रीज। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली

- फैन, एस., गुलाटी, ए. थोराट, एस.के. (2008): इन्वेस्टमेंट, सब्सिडीज एंड प्रो-पुअर ग्रोथ इन रूरल इंडिया। एग्रिकल्चरल इकॉनॉमिक्स, 39:163-170

- भारत सरकार: राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (विविध अंक), केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन

- भारत सरकार: कृषि सांख्यिकी एक नजर में (विविध अंक), कृषि मंत्रालय

- भारत सरकार: (विविध अंक), वित्तीय लेखे, वित्त मंत्रालय

- गुलाटी, अशोक, (2016): फॉम प्लेट टू प्लो : ड्रॉप बाय केयरफुल ड्रॉप 9 मई, इंडियन एक्सप्रेस

- मोस्ले (2015): द पॉलिटिक्स ऑफ व्हाट वर्क्स फॉर द पुअर इन पब्लिक एक्सपेंडिचर एंड टैक्सेशन इन एस. हिक्की व अन्य (ईडी), द पॉलिटिक्स ऑफ इंक्लूसिव डवलपमेंटः इंटेरोगेटिंग द एविडेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

- विश्वनाथन, पी.के. कुमार, एम. दिनेश, नारायणमूर्ति, ए. (ईडी), (2016): माइक्रो इरिगेशन सिस्टम्स इन इंडिया : इमर्जेंस, स्टेट्स एंड इम्पैक्ट्स, स्प्रिंगर।

नोट
1. लघु सिंचाई के अन्तर्गत सार्वजनिक निवेश में सतही जल और भूजल दोनों योजनाएँ शामिल है। जैसेः- लिफ्ट सिंचाई, ट्यूबवेल, नलकूप, कुएँ, टैंक इत्यादि।

2. 90 के दशक में पूँजी-उपयोग दक्षता में गिरावट को कृषि आय में कमतर वृद्धि के रूप में भी देखा जा सकता है।

लेखक परिचय


लेखिका जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (नई दिल्ली) के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ रीजनल डवलपमेंट में प्रोफेसर हैं। जल संसाधन के समकालीन विशेषज्ञों में उनका नाम अग्रणी है। उनकी दो पुस्तकों के अलावा दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हैं। ईमेल -: seemab@suu.ac.in, seemabathla@gmail.com

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