जल संकट

विकेन्द्रीकृत आपूर्ति, तर्कसंगत तथा लक्षित जल सब्सिडी सहित स्पष्ट एवं बाध्यकारी जल प्रयोक्ता अधिकार ही सर्वाधिक उपयुक्त तथा वहनीय समाधान हैक्या हमारे पास भविष्य के लिए पर्याप्त पानी है? भारत दुनिया के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में शुमार होता है। यहाँ हर वर्ष लगभग 40 खरब क्यूबिक मीटर वर्षा का जल प्राप्त होता है। लेकिन उपलब्ध जल का बमुश्किल एक-तिहाई ही प्रयोग हो पाता है। पानी की माँग केवल घरेलू उपयोग के लिए ही नहीं, बल्कि औद्योगिक उपभोग और सिंचाई के लिए भी होता है। इसलिए इन तीनों के बीच प्रायः अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान होती रहती है। भारत के विभिन्न हिस्सों में जल-संघर्ष अब आम बात होती जा रही है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004 में नदी जल के अत्यधिक प्रयोग तथा अल्प आपूर्ति को सामने लाया गया है। इसमें ठीक ही कहा गया है कि इस तरह की समस्याओं ने नीतिगत तथा नियामक अव्यवस्थाओं के कारण अपनी जड़ें जमाई हैं। इनमें घरेलू तथा सिंचाई के लिए दर नीति शामिल है जिसकी वजह से पानी का अत्यधिक उपभोग हुआ है। लेकिन रख-रखाव कार्यों के लिए पर्याप्त नीति में इन समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक उल्लेख किया गया है, किन्तु इसमें इन समस्याओं का समाधान नहीं है।

जल संकट

जल अधिकार का निर्धारण


इस विडम्बना को समझे - पृथ्वी का दो-तिहाई हिस्सा पानी है और एक प्रतिशत से भी कम भाग तेल। लेकिन तेल हर जगह प्रचुर मात्रा में, जितनी हम चाहें, उपलब्ध है। दोनों में क्या अन्तर है? पानी निःशुल्क है, इसे मुक्त रूप से हासिल किया जा सकता है, जबकि तेल निःशुल्क नहीं है, इस पर मालिकाना हक होता है तथा इसका प्रबन्धन किया जाता है।

पर्यावरण सम्बन्धी सभी समस्याओं के मूल में है सार्वजनिकता जिसके अन्तर्गत संसाधन सार्वजनिक स्वामित्व में होते हैं तथा सबको निःशुल्क उपलब्ध होते हैं। गैरेट हार्डिन ने ‘सार्वजनिक की त्रासदी’ का मुहावरा इस्तेमाल किया था। हार्डिन ने तर्क के साथ यह बताया कि पर्यावरण क्षरण की वजह संसाधनों का सार्वजनिक होना है क्योंकि इसमें उनका कोई निश्चित स्वामी नहीं होता और वे निःशुल्क सुलभ होते हैं। चूँकि संसाधन सबके होते हैं, इसलिए वे वस्तुतः किसी के नहीं होते। उनका इस्तेमाल सभी करते हैं लेकिन उनका संरक्षण कोई नहीं करता- इस तथ्य की पूरी जानकारी के बावजूद कि उनके अतिशय उपभोग से भविष्य के लिए कुछ नहीं बचेगा। इसकी वजह यह होती है कि एक व्यक्ति यदि उनका बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल करे तो भी इस बात की कोई गारण्टी नहीं होती कि अन्य व्यक्ति भी वैसा ही आचरण करेंगे अथवा आगे चलकर उस अच्छे आचरण का कोई प्रतिफल मिलेगा। समस्या के मूल में यही प्रोत्साहन का अभाव है। इसका सरल समाधान यह है कि संसाधन को सार्वजनिक स्वामित्व से हटाकर समुदाय अथवा निजी स्वामित्व के अन्तर्गत ले आया जाए।

शताब्दियों के काल प्रवाह में भूमि का स्वामित्व सार्वजनिक से सामुदायिक और फिर निजी हाथों में आ गया है। पानी, वन और मत्स्यपालन की देख-रेख पारम्परिक रूप से प्रयोक्ता समुदायों द्वारा की जाती थी। इन्हें बाद में राष्ट्रीयकरण कर सार्वजनिक स्वामित्व के अन्तर्गत ले आया गया। सार्वजनिक की त्रासदी से बचने के लिए उन्हें वापस समुदाय के नियन्त्रण में ले जाया जाना चाहिए।

भूमि की सतह पर मौजूद पानी के मामले में तो यह बदलाव केवल वर्तमान में सरकार द्वारा प्रयुक्त परियोजना आवण्टन प्रणाली को और मजबूत बनाकर हासिल किया जा सकता है। आमतौर पर परियोजना अधिकारी नगरपालिका तथा अन्य सरकारी प्राधिकरणों के साथ विभिन्न उद्देश्यों के लिए पानी की निश्चित मात्रा की आपूर्ति के लिए दीर्घावधि करार करते हैं। इस मात्रात्मक आवण्टन को कानूनी रूप से प्रवर्तनीय व्यापार योग्य जल अधिकार के आनुपातिक आवण्टन में बदला जा सकता है। इसके तहत पानी का स्वामित्व सरकार के अधीन बना रहेगा लेकिन पानी के उपयोग का वैधानिक अधिकार विभिन्न प्रयोक्ताओं के पास होगा। इस दृष्टिकोण से नए दावेदार पैदा नहीं होंगे, बल्कि मौजूदा दावों को मजबूती मिलेगी जिससे दीर्घावधि जल उपयोग योजना तैयार की जा सकेगी।

आपूर्ति एवं मूल्य निर्धारण


जल अधिकार आवण्टित किए जाने और वैधानिक रूप से प्रवर्तनीय बनाए जाने के बाद जल प्रयोक्ता संघो को सहकारी तरीके से अथवा प्रसंविदा करके आपूर्ति प्रणाली के प्रचालन और प्रबन्धन का दायित्व सौंपा जा सकता है। पानी के तीन बुनियादी प्रयोक्ता होते हैं- घरेलू (ग्रामीण एंव शहरी), औद्योगिक तथा कृषिगत। निम्नलिखित उपाय सम्बद्ध प्रयोक्ताओं को जल आपूर्ति का वैकल्पिक उपाय बन सकते हैं :

औद्योगिक उपयोग


औद्योगिक इकाइयाँ आमतौर पर किसी औद्योगिक सम्पदा अथवा परिसर में अवस्थित होती हैं। जलापूर्ति तथा मूल्य निर्धारण के लिए यह परिसर अपनी निजी आधारभूत सुविधा का निर्माण और रख-रखाव करने का निर्णय कर सकता है अथवा किसी निजी कम्पनी के साथ इसके लिए समझौता कर सकता है। औद्योगिक उपयोग के लिए निजी आपूर्ति तथा मूल्य निर्धारण को लेकर किसी के भीतर विवाद नहीं है। फिर ऐसा ही मॉडल अन्य प्रयोक्ताओं के लिए लागू क्यों नहीं किया जा सकता?

कृषिगत उपयोग


भागीदारी सिंचाई प्रबन्धन को सिंचाई के पानी के प्रबन्धन तथा मूल्य निर्धारण का राष्ट्रीय प्रारूप बनाया जाना चाहिए। इसकी प्रविधि आन्ध्र प्रदेश ने सुझाई है जिसमें किसान जल प्रयोगकर्ता संघों का गठन करते हैं तथा नहर नेटवर्क के रख-रखाव और आपूर्ति जल के लिए शुल्क संग्रहण का कार्य अपने हाथों में ले लेते हैं।

ग्रामीण घरेलू उपयोग


अलवर जिले के गाँवों की पानी समितियाँ अथवा पानी पंचायत (जल प्रबन्धन ग्रामसभा, ये पंचायती राज ग्रामसभा से भिन्न हैं) तथा अखरी नदी के जल-भराव क्षेत्र के गाँवों के प्रतिनिधियों के सदस्यों से गठित अन्तरग्राम संगठन, ‘अखरी संसद’ गाँवों और गाँववासियों के बीच सिंचाई तथा घरेलू उपभोग के लिए जल के इस्तेमाल की एक नियमावली तैयार की है जो सामाजिक तथा पारम्परकि नियमों से अनुशासित है और इसमें विवादों के निबटारे तथा नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए दण्ड के प्रावधान भी निर्दिष्ट किए गए हैं।

कस्बाई घरेलू उपयोग


केरल के अनेक छोटे शहरों में जलापूर्ति तथा मूल्य निर्धारण जल प्रयोक्ता सहकारिताओं द्वारा किया जाता है। कोझिकोड जिले में स्थित ओलवन्ना में 25 से ऊपर सहकारी संघ हैं जो पाइप के जरिये घरों में पानी की आपूर्ति का प्रबन्धन कर हरे हैं। पंचायत सफलतापूर्वक सुविधाप्रदाता की नई भूमिका का वरण कर चुकी है और इस अग्रगामी परियोजना को वहनीय बनाने तथ प्रोत्साहित करने के लिए नियामक कार्य का निष्पादन कर रही है। पंचायत इन समितियों को पूँजीगत लागत अथवा प्रचालन एवं रख-रखाव के लिए कोई कोष नहीं देती। पेयजल कार्यक्रम के समग्र पूँजीगत तथा प्रचालन एवं रख-रखाव लागत की भरपाई प्रयोक्ता समुदाय करते हैं। घरेलू जलापूर्ति के लिए इस तरह की ग्रामीणी सहकारिताएँ सर्वाधिक प्रभावी होती हैं। क्योंकि मुनाफे के लिए काम करने वाली कम्पनियों से इस क्षेत्र में कदम रखने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

शहरी घरेलू उपयोग


शहरी क्षेत्रों की बुनियादी समस्या निजीकरण नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा है। जल आपूर्ति का दायित्व एक अथवा दो निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप देने के विचार में कोई वास्तविक सारतत्व नहीं है। सरकार के एकाधिकार को एक अथवा दो कम्पनियों के एकाधिकार में बदल देने को सुधार नहीं माना जा सकता। एक तरह के गैर-प्रतिस्पर्धी निजीकरण से हर हाल में बचना चाहिए।

इसका विकल्प यह हो सकता है कि शहर के हरेक वार्ड को जलापूर्ति के लिए किसी सरकारी अथवा निजी कम्पनी के साथ करार करने का अधिकर सौंपा जाए। यदि किसी वार्ड को लगता है कि कम्पनी अपना करार पूरा नहीं कर रही, तो उसका विकल्प पाना आसान होगा तथा कार्य पड़ोस के वार्ड की कम्पनी को सौंपा जा सकेगा।

वार्ड द्वारा जलापूर्ति के लिए समझौते में स्वीकृत दर का भुगतान कर पाने में जो लोग समर्थ नहीं हों, उनकी दो तरीके से मदद की जा सकती है। पहला, प्रत्येक परिवार को निःशुल्क जलापूर्ति की मात्रा का निर्धारण कर उतनी जल की मात्रा का भुगतान सामान्य कर राजस्व से किया जाए। निःशुल्क कोटे से अधिक पानी का उपभोग करने पर उक्त मात्रा का भुगतान प्रत्येक परिवार करेगा। दूसरे, केवल निर्धनों को सब्सिडी दी जाए। इसके लिए वार्ड निर्धन परिवारों की पहचान कर उनके पानी के बिल का पूर्णतया अथवा एक निर्धारित सीमा तक भुगतान करे।

अधिकारों को परिभाषित करने से विवाद कम होते हैं


वस्तुतः भारत में जल के बँटवारे को लेकर अनेक स्थानों पर व्यावसायिक संगठनों और स्थानीय लोगों के बीच लगातार खींचतान होती रहती है। इसका एक उदाहरण केरल के किसानों और कोक को बोतल बन्द करने वाले संयन्त्र का विवाद है। अधिकारों का आवण्टन कर ऐसे विवादों को निबटाया जा सकता है, क्योंकि ऐसा करने से विभिन्न समूहों के निजी दावे स्पष्ट हो जाते हैं और वे वैधानिक रूप से बाध्यकारी तथा प्रवर्तनीय बन जाते हैं।

परियोजना जल आवण्टन की तरह स्थायी आवण्टन कर अन्तरराज्यीय जल बँटवारे की समस्या को सुलझाया जा सकता है। भारत और पाकिस्तान के बीच सिन्धु जल समझौता इसका बेहतरीन उदाहरण है कि निश्चित अपरिवर्तनीय जल अधिकार आवण्टन तथा उनके दृढ़तापूर्वक पालन से जल का टिकाऊ और सतत उपयोग हो सकता है। आज जरूरत कुशल तथा आदर्श जल उपयोग के लिए प्रोत्साहन देने के लिए संस्थागत फ्रेमवर्क तैयार करने की है। उचित तरीके से परिभाषित तथा प्रवर्तनीय जल अधिकार प्रणाली से लोगों को उनके दावे की गारण्टी के साथ जल के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के लिए प्रोत्साहन भी मिलता है। जल आपूर्ति तथा उसके रख-रखाव का कार्य जहाँ तक सम्भव हो उन्हीं अधिकारधारी लोगों को दिया जाना चाहिए जो उसके वितरण से सीधे-सीधे प्रभावित होते हैं।

दुश्चिन्ताएँ दूर करना


पानी का मूल्य निर्धारण न करने का एक कारण यह बताया जाता है कि यह मानव जीवन के लिए अनिवार्य है तथा प्रत्येक व्यक्ति को एक न्यूनतम मात्रा में पानी चाहिए ही। यह सही है कि जीवन के लिए पानी अनिवार्य है, लेकिन अपेक्षित न्यूनतम मात्रा न तो स्थिर होती है न ही उसका कोई ठोस स्वरूप होता है। निम्नलिखित उदाहरण पर गौर करें : 1980 में डेनमार्क में प्रति व्यक्ति जल का प्रयोग 237.5 क्यूबिक मीटर था जो 1996 में 20 प्रतिशत कम होकर प्रति व्यक्ति 190 क्यूबिक मीटर ही रह गया था। क्या इसका अभिप्राय यह है कि डेनमार्क वासियों ने नहाना अथवा पानी पीना कम कर दिया? चूँकि उन्हें प्रयुक्त जल के बदले में भुगतान करना होता है, इसलिए उन्होंने पानी बचाने के तरीके और तकनीक ढूँढ़ लिए, अपने आचार-व्यवहार में परिवर्तन कर लिया। परिणाम यह हुआ कि पानी का कुल उपभोग कम हो गया है।

यूएनडीपी-विश्व बैंक डब्ल्यूएसपी की 1999 की एक रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि गरीब पानी का 20 प्रतिशत अधिक मूल्य चुकाते हैं।लोग यह आशंका व्यक्त करते हैं कि पानी की कीमत तय कर देना उसका निजीकरण करना है। उल्लेखनीय है कि परियोजना आवण्टन पर आधारित हमारा प्रस्तावित दृष्टिकोण किसी निजी कम्पनी को कई किलोमीटर तक नदी पट्टे पर दे देने की उभर रही प्रवृत्ति से काफी अलग है। इस तरह के निजीकरण का खुलकर विरोध किया जाना चाहिए। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, परियोजना आवण्टन से किसी को पानी का स्वामित्व नहीं मिल जाता। पानी का रखवाला राज्य होता है। इस दृष्टिकोण से पानी के उपयोगकर्ताओं को उनके मौजूदा दावों को वैधानिक स्वीकृति प्रदान करते हुए जल अधिकार दे दिया जाएगा। इससे पानी के बँटवारे को लेकर होने वाले विवाद कम होंगे, विवादों के निबटान का एक उपकरण उपलब्ध रहेगा, जल संरक्षण के लिए प्रोत्साहन मिलेगा तथा आवश्यक होने पर अन्य उपयोगकर्ताओं के साथ इसका व्यापार किया जा सकेगा।

एक प्रमुख चिन्ता शहरी क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति तथा वितरण प्रणाली के निजीकरण को लेकर है। इस चर्चा के केन्द्र में दिल्ली जल बोर्ड आ जाएगा जो पानी के मीटर की आपूर्ति, लगाने और रख-रखाव को निजी हाथों में देने की योजना बना रहा है। मुम्बई में 'के' पूर्वी वार्ड पानी की पूर्ण निजी आपूर्ति तथा प्रभार लगाने की ओर बढ़ रहा है। दिल्ली जल बोर्ड की समूची दिल्ली में पानी के मीटर की आपूर्ति के लिए दो कम्पनियों से समझौता करने की योजना है। दिल्ली विद्युत बोर्ड की तरह ही यह निजीकरण भी अधकचरा है। इस तरह का केन्द्रीकृत तथा गैर-प्रतियोगी निजीकरण पूर्व की स्थिति से भी खराब होगा।

इसके लिए वार्ड स्तरीय निजीकरण ही बेहतर होगा क्योंकि इसमें शहर के विभिन्न इलाकों की स्थितियों में फर्क का ध्यान रखा जाता है। वार्डों के आधार पर निविदाएँ आमन्त्रित करने से कम्पनियाँ अपने प्रस्तावित कार्य क्षेत्र में जल की माँग, उसके मूल्य, लागत आदि के बारे में अवगत होने के लिए विवश होती हैं। इससे उनमें न्यूनतम सम्भव मूल्य पर बेहतर सेवाएँ उपलब्ध कराने की प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। वार्ड समितियाँ प्रतिस्पर्धी बोली के आधार पर एक निर्धारित अवधि के लिए समझौता कर सकती हैं। इस समझौते का बेहतर निष्पादन के आधार पर ही नवीकरण किया जा सकता है।

 

 

सिंचाई

औद्योगिक

ग्रामीण घरेलू

शहरी घरेलू

उपयोग अधिकार/ परियोजना आवण्टन

किसान

औद्योगिक समूह

ग्रामीण

नगरीय निकाय

आपूर्ति

भागीदारी सिंचाई प्रबन्धन जिसमें किसान जल समूहों का गठन कर दर तय करें और रख-रखाव करें

औद्योगिक संघ अपने समूह की निजी आपूर्ति सेवा गठित कर सकते हैं अथवा किसी निजी कम्पनी से समझौता कर सकते हैं

सामुदायिक सहकारिताएँ पानी समिति, पानी पंचायत जैसी ग्रामीण जल प्रयोक्ता समूह का गठन कर सकते हैं

वार्ड समिति अथवा जल प्रयोक्ता संघ

 

समस्या का सर्वाधिक उपयुक्त और धारणीय समाधान स्पष्ट एवं प्रवर्तनीय जल प्रयोक्ता अधिकार, विकेन्द्रित आपूर्ति तथा जल सब्सिडियों को तर्कसंगत एवं लक्षित बनाना ही है। गरीब-अमीर सभी परिवारों का अलग-अलग मीटर हो अथवा समूह के रूप में वार्ड उनका निर्धारण करे। अभी भी अनेक लोगों की धारणा है कि पानी का मीटर लगाना और उनकी रीडिंग करना बड़ा कठिन काम है। वे भूल जाते हैं कि हम हरेक फोन से किए जाने वाले एक-एक फोन कॉल का हिसाब रखते हैं। अगर घर में एक से अधिक टेलीफोन हों, तब भी प्रत्येक फोन का अलग-अलग हिसाब रखा जा सकता है। इसी तरह आज की तकनीक से न केवल प्रत्येक घर के पानी का, बल्कि घर के प्रत्येक नलके से निकले पानी का हिसाब रखा जा सकता है। यह मामला प्रौद्योगिकी का नहीं, सोच के तरीके का है।

तमाम हाय-तौबा तथा विचार-विमर्श के बावजूद पानी के मूल्य निर्धारण का मतलब यह नहीं है कि निर्धनों को कम पानी मिलेगा। वस्तुतः अनेक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि निःशुल्क जल की वर्तमान नीति में गरीबों को अमीरों के मुकाबले पानी का अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। यूएनडीपी-विश्व बैंक डब्ल्यूएसपी की 1999 की एक रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि गरीब पानी का 20 प्रतिशत अधिक मूल्य चुकाते हैं। सार्वजनिक कृषि से कभी भी खाद्य सुरक्षा नहीं मिल पाई सार्वजनिक जल भी उतना ही आपदामय है। आँकड़ों के आधार पर सोचने वाले चिन्तक यह बेहतर तरीके से बता पाएँगे कि अतीत में समुदायों ने इन संसाधनों का किस तरह प्रबन्धन किया और मौका मिलने पर आज भी वे कैसे इनका प्रबन्धन करते हैं।

समग्रतः पानी का स्वामित्व राज्य के हाथ में हो सकता है, लेकिन प्रयोक्ता अधिकारों को स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करना आवश्यक है। जलापूर्ति का बेहतर प्रबन्धन जल प्रयोक्ता समूहों तथा भागीदारी सिंचाई प्रबन्धन जैसी सामुदायिक पहलों के द्वारा ही हो सकता है। इन पहलों से पानी का बेहतर उपयोग तथा मूल्य निर्धारण हो पाता है और गरीबों को समुचित सब्सिडी भी मिल पाती है। हमारी जल सम्बन्धी चिन्ताओं के समाधान के लिए परियोजना आवण्टन को मजबूती दे जल प्रयोक्ता अधिकार को परिभाषित करना तथा जलापूर्ति व्यवस्था को विकेन्द्रित करना अनिवार्य है।

(लेखकद्वय सेण्टर फॉर सिविल सोसाइटी, नई दिल्ली से सम्बद्ध हैं)

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